चन्द्रकान्ता सन्तति 5/17.13
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"बेशक बेशक" की आवाज ने दोनों कुमारों को चौंका दिया। वह आवाज सरयू की न थी और न किसी ऐसे आदमी की थी जिसे कुमार पहचानते हों, यह सबब उनके चौंकने का और भी था। दोनों कुमारों को निश्चय हो गया कि यह आवाज उन्हीं नकाबपोशों में से किसी है जो तिलिस्म के अन्दर लटकाये गए थे और जिन्हें हम लोग खोज रहे हैं। ताज्जुब नहीं कि सरयू भी इन्हीं लोगों के सबब से गायब हो गई हो क्योंकि एक कमजोर औरत की बेहोशी हम लोगों की बनिस्बत जल्दी दूर नहीं हो सकती।
दोनों भाइयों के विचार एक से थे। अतएव दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा और इसके बाद इन्द्रजीतसिंह और उनके पीछे-पीछे आनन्दसिंह उस दरवाजे के अन्दर चले गये जिसमें किसी के बोलने की आवाज आई थी।
कुछ आगे जाने पर कुमार को मालूम हुआ कि रास्ता सुरंग के ढंग का बना हुआ है मगर बहुत छोटा और केवल एक ही आदमी के जाने लायक है अर्थात् इसकी चौड़ाई डेढ़ हाथ से ज्यादा नहीं है।
लगभग बीस हाथ जाने के बाद दूसरा दरवाजा मिला जिसे लांघ कर दोनों भाई एक छोटे-से बाग में गये जिसमें सब्जी की बनिस्बत इमारत का हिस्सा बहुत ज्यादा था अर्थात् उसमें कई दालान; कोठरियाँ और कमरे थे जिन्हें देखते ही इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह से कहा, "इसके अन्दर थोड़े आदमियों का पता लगाना भी कठिन होगा।"
दोनों कुमार दो ही चार कदम आगे बढ़े थे कि पीछे से दरवाजे के बन्द होने की आवाज आई, घूमकर देखा तो उस दरवाजे को बन्द पाया जिसे लांघ कर इस बाग में पहुँचे थे। दरवाजा लोहे का और एक ही पल्ले का था जिसने चूहेदानी की तरह ऊपर से गिर कर दरवाजे का मुँह बन्द कर दिया। उस दरवाजे के पल्ले पर मोटे-मोटे अक्षरों में यह लिखा हुआ था––
"तिलिस्म का यह हिस्सा टूटने लायक नहीं है, हाँ, तिलिस्म को तोड़ने वाला यहाँ तमाशा जरूर देख सकता है।"
इन्द्रजीतसिंह––यद्यपि तिलिस्मी तमाशे दिलचस्प होते हैं मगर हमारा यह समय बड़ा नाजुक है और तमाशा देखने योग्य नहीं, क्योंकि तरह-तरह के तरद्दुदों ने दुःखी कर रक्खा है। देखना चाहिए इस तमाशबीनी से छुट्टी कब मिलती है।
आनन्दसिंह––मेरा भी यही खयाल है बल्कि मुझे तो इस बात का अफसोस है कि इस बाग में क्यों आए, अगर किसी दूसरे दरवाजे के अन्दर गये होते तो अच्छा होता।
इन्द्रजीतसिंह––(कुछ आगे बढ़कर ताज्जुब से) देखो तो सही, उस पेड़ के नीचे कौन बैठा है! कुछ पहचान सकते हो?
आनन्दसिंह––यद्यपि पोशाक में बहुत बड़ा फर्क है मगर सूरत भैरोंसिंह की सी मालूम पड़ती है!
इन्द्रजीतसिंह––मेरा भी यही खयाल है, आओ, उसके पास चलकर देखें।
आनन्दसिंह––चलिये।
इस बाग के बीचोंबीच में एक कदम का बहुत बड़ा पेड़ था जिसके नीचे एक आदमी गाल पर हाथ रक्खे बैठा हुआ कुछ सोच रहा था। उसी को देखकर दोनों कुमार चौंके थे और उस पर भैरोंसिंह के होने का शक हुआ था। जब दोनों भाई उसके पास पहुँचे तो शक जाता रहा और अच्छी तरह पहचान कर इन्द्रजीतसिंह ने पुकारा और कहा, "क्यों यार भैरोंसिंह, तुम यहाँ कैसे आ पहुँचे?"
उस आदमी ने सिर उठाकर ताज्जुब से दोनों कुमारों की तरफ देखा और तब हलकी आवाज में जवाब दिया, "तुम दोनों कौन हो? मैं तो सात वर्ष से यहाँ रहता हूँ मगर आज तक किसी ने भी मुझसे यह न पूछा कि तुम यहाँ कैसे आ पहुँचे?"
आनन्दसिंह––कुछ पागल तो नहीं हो गये हो?
इन्द्रजीतसिंह––क्योंकि तिलिस्म की हवा बड़े-बड़े चालाकों और ऐयारों को पागल बना देती है!
भैरोंसिंह––(शायद वह भैरोंसिंह ही हो) कदाचित् ऐसा ही हो मगर मुझे आज तक किसी ने यह भी नहीं कहा कि तू पागल हो गया है! मेरी स्त्री भी यहाँ रहती है, वह भी मुझे बुद्धिमान ही समझती है।
आनन्दसिंह––(मुस्कुरा कर) स्त्री कहाँ है? उसे मेरे सामने बुलाओ, मैं उससे पूछूँगा कि वह तुम्हें पागल समझती है या नहीं।
भैरोंसिंह––वाह-वाह, तुम्हारे कहने से मैं अपनी स्त्री को तुम्हारे सामने बुला लूँ! कहीं तुम उस पर आशिक हो जाओ या फिर वही तुम पर मोहित हो जाय तो फिर क्या होगा?
इन्द्रजीतसिंह––(हँसकर) वह भले ही मुझ पर आशिक हो जाय मगर मैं वादा करता हूँ कि उस पर मोहित न होऊँगा।
भैरोंसिंह––सम्भव है कि मैं तुम्हारी बातों पर मैं विश्वास कर लूँ मगर उसकी नौजवानी मुझे उस पर विश्वास नहीं करने देती। अच्छा ठहरो, मैं उसे बुलाता हूँ। अरी ए री मेरी नौजवान स्त्री भोली ई...ई...ई...!
एक तरफ से आवाज आई, "मैं आप ही चली आ रही हूँ, तुम क्यों चिल्ला रहे हो? कम्बख्त को जब देखो 'भोली-भोली' करके चिल्लाया करता है!"
भैरोंसिंह––देखो कम्बख्त को! साठ घड़ी में एक पल भी सीधी तरह से बात नहीं करती। खैर, नौजवान औरतें ऐसी हुआ ही करती हैं!
इतने में दोनों कुमारों ने देखा कि बाईं तरफ से एक नव्वै वर्ष की बुढ़िया छड़ी टेकती धीरे-धीरे चली आ रही है जिसे देखते ही भैरोंसिंह उठा और यह कहता हुआ उसकी तरफ बढ़ा, "आओ मेरी प्यारी भोली, तुम्हारी नौजवानी तुम्हें अकड़ कर चलने नहीं देती तो मैं अपने हाथों का सहारा देने के लिए तैयार हूँ।"
भैरोंसिंह ने बुढ़िया को हाथ का सहारा देकर अपने पास ला बैठाया और आप भी उसी जगह बैठकर बोला, "मेरी प्यारी भोली, देखो ये दो नये आदमी आज यहाँ आये हैं जो मुझे पागल बताते हैं। तू ही बता कि क्या मैं पागल हूँ?"
बुढ़िया––राम-राम, ऐसा भी कभी हो सकता है? मैं अपनी नौजवानी की कसम खाकर कहती हूँ कि तुम्हारे ऐसे बुद्धिमान बुड्ढे को पागल कहने वाला स्वयं पागल है (दोनों कुमारों की तरफ देखकर) ये दोनों उजड्ड यहाँ कैसे आ पहुँचे? क्या किसी ने इन्हें रोका नहीं?
भैरोंसिंह––मैंने इनसे अभी कुछ भी नहीं पूछा कि ये कौन हैं और यहाँ कैसे आ पहुँचे क्योंकि मैं तुम्हारी मुहब्बत में डूबा हुआ तरह-तरह की बातें सोच रहा था। अब तुम आई हो तो जो कुछ पूछना हो स्वयं पूछ लो।
बुढ़िया––(कुमारों से) तुम दोनों कौन हो?
भैरोंसिंह––(कुमारों से) बताओ-बताओ, सोचते क्या हो? आदमी हो, जिन्न हो, भूत हो, प्रेत हो, कौन हो, कहते क्यों नहीं! क्या तुम देखते नहीं कि मेरी नौजवान स्त्री को तुमसे बात करने में कितना कष्ट हो रहा है?
भैरोंसिंह और उस बुढ़िया की बातचीत और अवस्था पर दोनों कुमारों को बड़ा ही आश्चर्य हुआ और कुछ सोचने के बाद इन्द्रजीतसिंह ने भैरोंसिंह से कहा, "अब मुझे निश्चय हो गया कि जरूर तुम्हें किसी ने इस तिलिस्म में ला फँसाया है और कोई ऐसी चीज खिलाई या पिलाई है कि जिससे तुम पागल और कोई हो गए हो, ताज्जुब नहीं कि यह सब बदमाशी इसी बुढ़िया की हो, अब अगर तुम होश में न आओगे तो मैं तुम्हें मार-पीट कर होश में लाऊँगा।" इतना कह कर इन्द्रजीतसिंह भैरोंसिंह की तरफ बढ़े, मगर उसी समय बुढ़िया ने यह कहकर चिल्लाना शुरू किया, "दौड़ियो-दौड़ियो, हाय रे, मारा रे, मारे रे, चोर-चोर, डाकू-डाकू, दौड़ो-दौड़ो, ले गया, ले गया, ले गया!"
बुढ़िया चिल्लाती रही मगर कुमार ने उसकी एक भी न सुनी और भैरोंसिंह का हाथ पकड़ के अपनी तरफ खींच ही लिया, मगर बुढ़िया का चिल्लाना भी व्यर्थ न गया। उसी समय चार-पाँच खूबसूरत लड़के दौड़ते हुए वहाँ आ पहुँचे जिन्होंने दोनों कुमारों को चारों तरफ से घेर लिया। उन लड़कों के गले में छोटी-छोटी झोलियाँ लटक रही थीं और उनमें आटे की तरह की कोई चीज भरी हुई थी। आने के साथ ही इन लड़कों ने अपनी झोली में से वह आटा निकाल कर दोनों कुमारों की तरफ फेंकना शुरू किया।
निसन्देह उस बुकनी में तेज बेहोशी का असर था जिसने दोनों कुमारों को बात की बात में बेहोश कर दिया और दोनों चक्कर खाकर जमीन पर लेट गये, जब आंख खुली तो दोनों ने अपने को एक सजे-सजाये कमरे में फर्श के ऊपर पड़े पाया।