चन्द्रकान्ता सन्तति 5/18.5

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चंद्रकांता संतति भाग 5  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

[ ८४ ]

5

कुँअर इन्द्रजीतसिंह की बात सुनकर वह बुढ़िया चमक उठी और नाक-भौं चढ़ा कर बोली, "बुड्ढी औरतों से दिल्लगी करते तुम्हें शर्म नहीं मालूम होती।"

इन्द्रजीतसिंह––क्या मैं झूठ कहता हूँ?

बुढ़िया––इससे बढ़कर झूठ और क्या हो सकता है? लोग किसी के पीछे झूठ बोलते हैं, मगर आप मुँह पर झूठ बोल कर अपने को सच्चा बनाने का उद्योग करते हैं! भला इस तिलिस्म में दूसरा आ ही कौन सकता है? और वह भैरोंसिंह कौन है जिसका नाम आपने लिया?

इन्द्रजीतसिंह––बस-बस, मालूम हो गया। मैं अपने को तुम्हारी जबान से...

बुड्ढा––(इन्द्रजीतसिंह को रोक कर) अजी आप किससे बातें कर रहे हैं? यह तो पागल है। इसकी बातों पर ध्यान देना आप ऐसे बुद्धिमानों का काम नहीं है। (बुढ़िया से) तुझे यहाँ किसने बुलाया जो चली आई? तेरे ही दुःख से तो भाग कर मैं यहाँ एकांत में आ बैठा हूँ, मगर तू ऐसी शैतान की नानी है कि यहाँ भी आए बिना नहीं रहती। सवेरा हुआ नहीं और खाने की रट लग गई!

बुड्ढी––अजी तो क्या तुम खाओ, पीओगे नहीं?

वुड्ढा––जब मेरी इच्छा होगी, तब खा लूँगा, तुम्हें इससे मतलब? (दोनों कुमारों से) आप इस कम्बख्त का खयाल छोड़िए और मेरे साथ चले आइए। मैं आपको ऐसी जगह ले चलता हूँ, जहाँ इसकी आत्मा भी न जा सके। उसी जगह हम लोग बातचीत

च॰ स॰-5-5

[ ८५ ]करेंगे, फिर आप जैसी मुनासिब समझिएगा, आज्ञा दीजिएगा।

यह बात उस बुड्ढे ने ऐसे ढंग से कही और इस तरह पलटा खाकर चल पड़ा कि दोनों कुमारों को उसकी बातों का जवाब देने या उस पर शक करने का मौका न मिला और वे दोनों भी उसके पीछे-पीछे रवाना हो गए

उस कमरे के बगल ही में एक कोठरी थी और उस कोठरी में ऊपर छत पर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। वह बुड्ढा दोनों कुमारों को साथ-साथ लिए हुए उस कोठरी में और वहाँ से सीढ़ियों की राह चढ़कर उसके ऊपर वाली छत पर ले गया। उस मंजिल में भी छोटी-छोटी कई कोठरियाँ और कमरे थे। बुड्ढे के कहे मुताबिक दोनों ने एक कमरे की जालीदार खिड़की में से झाँक कर देखा तो इस इमारत के पिछले हिस्से में एक और छोटा-सा बाग दिखाई दिया, जो बनिस्वत इस बाग के जिसमें कुमार एक दिन और रात रह चुके थे, ज्यादा खूबसूरत और सरसब्ज नजर आता था। उसमें फूलों के पेड़ बहुतायत से थे और पानी का एक छोटा-सा साफ झरना भी बह रहा था, जो मकान की दीवार से दूर और उस बाग के पिछले हिस्से की दीवार के पास था, और उसी चश्मे के किनारे पर कई औरतों को भी बैठे हुए दोनों कुमारों ने देखा।

पहले तो कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को यही गुमान हुआ कि ये औरतें किशोरी, कामिनी और कमलिनी इत्यादि होंगी, मगर जब उनकी सूरत पर गौर किया, तो दूसरी ही औरतें मालूम हुईं जिन्हें आज के पहले दोनों कुमारों ने कभी नहीं देखा था।

इन्द्रजीतसिंह––(बुड्ढे से) क्या ये वे ही औरतें हैं, जिनका जिक्र तुमने किया था और जिनमें से एक औरत का नाम तुमने कमलिनी बताया था?

बुड्ढा––जी नहीं, उनकी तो मुझे कुछ भी खबर नहीं कि वे कहाँ गई और क्या हुई।

आनन्दसिंह––फिर ये सब कौन हैं?

बुड्ढा––इन सभी के बारे में इससे ज्यादा और मैं कुछ नहीं जानता कि ये सब राजा गोपाल सिंह की रिश्तेदार हैं और किसी खास सबब से राजा गोपालसिंह ने इन लोगों को यहाँ रख छोड़ा है।

इन्द्रजीतसिंह––ये सब यहाँ कब से रहती हैं?

बुड्ढा––सात वर्ष से।

इन्द्रजीतसिंह––इनकी खबरगीरी कौन करता है और खाने-पीने तथा कपड़े-लत्ते का इन्तजाम क्योंकर होता है?

बुड्ढा––इसकी मुझे भी खबर नहीं। यदि मैं इन सभी से कुछ बातचीत करता या इनके पास जाता तो कदाचित् कुछ मालूम हो जाता, मगर राजा साहब ने मुझे सख्त ताकीद कर दी है कि इन सभी से कुछ बातचीत न करूँ बल्कि इनके पास भी न जाऊँ।

इन्द्रजीतसिंह––खैर, यह बताओ कि हम लोग इनके पास जा सकते हैं या नहीं?

बुड्ढा––इन सभी के पास जाना न जाना आपकी इच्छा पर है-मैं किसी तरह की रुकावट नहीं डाल सकता और न कुछ राय ही दे सकता हूँ

इन्द्रजीतसिंह––अच्छा दस बाग में जाने का रास्ता तो बता सकते हो? [ ८६ ]बुड्ढा––हाँ, मैं खुशी से आपको रास्ता बता सकता हूँ, मगर स्वयं आपके साथ वहाँ तक नहीं जा सकता, इसके अतिरिक्त यह कह देना भी उचित जान पड़ता है कि यहाँ से उस बाग में जाने का रास्ता बहुत पेचीदा और खराब है, इसलिए वहाँ जाने में कम-से कम एक पहर तो जरूर लगेगा। इससे यही बेहतर होगा कि यदि आप उस बाग में या उन सभी के पास जाना चाहते हैं, तो कमन्द लगाकर इस खिड़की की राह से नीचे उतर जायें। ऐसा आप करना चाहें तो आज्ञा दें मैं एक कमन्द आपको ला दूँ।

इन्द्रजीतसिंह––हाँ यह बात मुझे पसन्द है, यदि एक कमन्द ला दो, तो हम दोनों भाई उसी के सहारे नीचे उतर जायें।

वह बुड्ढा दोनों कुमारों को उसी तरह उसी जगह छोड़ कर कहीं चला गया और थोड़ी ही देर में बहुत बड़ी कमन्द हाथ में लिए हुए आकर बोला, "लीजिए, यह कमन्द हाजिर है।"

इन्द्रजीतसिंह––(कमन्द लेकर) अच्छा, तो अब हम दोनों इस कमन्द के सहारे उस बाग में उतर जाते हैं।

बुड्ढा––जाइये, मगर यह बताते जाइए कि आप लोग वहाँ से लौटकर कब आवेंगे और मुझे आपको यहाँ की सैर कराने का मौका कब मिलेगा?

इन्द्रजीतसिंह––सो तो मैं ठीक नहीं कह सकता, मगर तुम यह बता दो कि अगर हम लौटें तो यहाँ किस राह से आवें!

बुड्ढा––इसी कमन्द के जरिये इसी राह से आ जाइयेगा, मैं यह खिड़की आपके लिए खुली छोड़ दूँगा।

आनन्दसिंह––अच्छा यह बताओ कि भैरोंसिंह की भी कुछ खबर है?

बुड्ढा––कुछ नहीं।

इसके बाद दोनों कुमारों ने उस बुड्ढे से कुछ भी न पूछा और खिड़की खोलने के बाद कमन्द लगाकर उसी के सहारे दोनों नीचे उतर गये।

दोनों कुमारों ने यद्यपि उन औरतों को ऊपर से बखूबी देख लिया था, क्योंकि वह बहुत दूर नहीं पड़ती थीं, मगर इस बात का गुमान न हुआ कि उन औरतों ने भी उन्हें उस समय या कमन्द के सहारे नीचे उतरते समय देखा या नहीं।

जब दोनों कुमार नीचे उतर गये तो कमन्द को भी खींच कर साथ ले लिया और टहलते हुए उस तरफ रवाना हुए जिधर चश्मे के किनारे बैठी हुई वे औरतें कुमार ने देखी थीं। थोड़ी देर में कुमार उस चश्मे के पास जा पहुँचे और उन औरतों को उसी तरह बैठे हुए पाया। कुमार चश्मे के इस पार थे और वे सब औरतें जो गिनती में सात थीं, चश्मे के उस पार सब्ज घास के ऊपर बैठी हुई थीं।

किसी गैर को अपनी तरफ आते देख वे सब औरतें चौकन्नी होकर उठ खड़ी हुई और बड़े गौर के साथ मगर क्रोध-भरी निगाहों से कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की तरफ देखने लगीं।

जिस जगह वे औरतें बैठी थीं, उससे थोड़ी ही दूर पर दक्खिन तरफ बाग की दीवार के साथ ही एक छोटा-सा मकान बना हुआ था जो पेड़ों की आड़ में होने के कारण [ ८७ ]दोनों कुमारों को ऊपर से दिखाई नहीं दिया था मगर अब नहर के किनारे आ जाने पर बखूबी दिखाई दे रहा था।

वे औरतें जिन्हें नहर के किनारे कुमार ने देखा था, सबकी-सब नौजवान और हसीन थीं। यद्यपि इस समय से वे सब बनाव-शृंगार और जेवरों के ढकोसलों से खाली थीं मगर उनका कुदरती हुस्न ऐसा न था जो किसी तरह की खूबसूरती को अपने सामने ठहरने देता। यहाँ पर यदि ऐसी एक औरत होती तो हम उसकी खूबसूरती के बारे में कुछ लिखते भी मगर एकदम से सात ऐसी औरतों की तारीफ में कलम चलाना हमारी ताकत के बाहर है जिन्हें प्रकृति ने खूबसूरत बनाने के समय हर तरह पर अपनी उदारता का नमूना दिखाया हो।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने जब उन औरतों को अपनी तरफ क्रोध-भरी निगाहों से देखते देखा तो एक औरत से मुलायम और गम्भीर शब्दों में कहा, "हम लोग तुम्हारे पास किसी तरह की तकलीफ देने की नीयत से नहीं आए हैं, बल्कि यह कहने के लिए आए हैं कि किस्मत ने हम लोगों को अकस्मात् यहाँ पहुँचाकर तुम लोगों का मेहमान बनाया है। हम लोग लाचार और राह भूले हुए मुसाफिर हैं और तुम लोग यहाँ की रहने वाली और दयावान् हो, क्योंकि जिस ईश्वर ने तुम्हें इतना सुन्दर बनाकर अपनी कारीगरी का नमूना दिखाया है उसने तुम्हारे दिल को कठोर बनाकर अपनी भूल का परिचय कदापि न दिया होगा, अतएव उचित है कि तुम लोग ऐसे समय में हमारी सहायता करो और बताओ कि अब हम दोनों भाई क्या करें और कहाँ जायें?"

औरतें खुशामद-पसन्द तो होती ही हैं! कुँअर इन्द्रजीतसिंह की मीठी और खुशामद भरी बातें सुनकर उन सभी की चढ़ी हुई त्यौरियाँ उतर गईं और होंठों पर कुछ मुस्कराहट दिखाई देने लगी। एक ने जो सबसे चतुर चंचल और चालाक जान पड़ती थी, आगे बढ़कर कुँअर इन्द्रजीतसिंह से कहा, "जब आप हमारे मेहमान बनते हैं और इस बात का विश्वास दिलाते हैं कि हमारे साथ दगा न करेंगे तो हम लोग भी निःसन्देह आपको अपना मेहमार स्वीकार करके जहाँ तक हो सकेगा आपकी सहायता करेंगी, अच्छा ठहरिए हम लोग जरा आपस में सलाह कर लें!"

इतना कहकर वह चुप हो गईं। उन लोगों ने आपस में धीरे-धीरे कुछ बातें की, और इसके बाद फिर उसी औरत ने इन्द्रजीतसिंह की तरफ देखकर कहा––

औरत––(हाथ का इशारा करके) उस तरफ एक छोटा-सा पुल बना हुआ है, उसी पर से होकर आप इस पार चले आइए।

इन्द्रजीतसिंह––क्या इस नहर में पानी बहुत ज्यादा है?

औरत––पानी तो ज्यादा नहीं है, मगर इसमें लोहे के तेज नोक वाले गोखरू बहुत पड़े हैं इसलिए इस राह से आपका आना सम्भव नहीं है।

इन्द्रजीतसिंह––अच्छा, तो हम पुल पर से होकर आयेंगे।

इतना कह कुमार उस तरफ रवाना हुए जिधर उस औरत ने हाथ के इशारे से पुल को बताया था। थोड़ी दूर जाने के बाद एक गूंजान और खुशनुमा झाड़ी के अन्दर वह छोटा-सा पुल दिखाई दिया। इस जगह नहर के दोनों तरफ पारिजात के कई पेड़ थे [ ८८ ]जिनकी डालियाँ ऊपर से मिली हुई थीं कि उनकी सुन्दर छाया में छिपा हुआ वह छोटा सा पुल बहुत खूबसूरत और स्थान बड़ा रमणीक मालूम होता था। इस जगह से न तो दोनों कुमार उन औरतों को देख सकते थे और न उन औरतों की निगाह इन पर पड़ सकती थी।

जब दोनों कुमार पुल की राह पार उतरकर और घूम-फिरकर उस जगह पहुँचे जहाँ उन औरतों को छोड़ आये थे, केवल दो औरतों को मौजूद पाया, जिनमें से एक तो वही थी जिससे कुँअर इन्द्रजीतसिंह से बातचीत हुई थी और दूसरी उससे उम्र में कुछ कम मगर खूबसूरती में कुछ ज्यादा थी। बाकी औरतों का पता न था कि क्या हुई और कहाँ गई। कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने ताज्जुब में आकर उस औरत से, जिसने पुल की राह इधर आने का उपदेश किया था पूछा "यहाँ तुम दोनों के सिवाय और कोई नहीं दिखाई देता, सब कहाँ चली गईं?"

औरत––आपको उन औरतों से क्या मतलब?

इन्द्रजीतसिंह––कुछ नहीं, यों ही पूछता हूँ।

औरत––(मुस्कराती हुई) वे सब आप दोनों भाइयोंकी मेहमानदारी का इन्तजाम करने चली गईं, अब आप मेरे साथ चलिए।

इन्द्रजीतसिंह––कहाँ ले चलोगी?

औरत––जहाँ मेरी इच्छा होगी। जब आपने मेरी मेहमानी कबूल ही कर ली तब···।"

इन्द्रजीतसिंह––खैर, अब इस किस्म की बातें न पूछूँगा और जहाँ ले चलोगी चला चलूँगा।

औरत––(मुस्कराकर) अच्छा तो आइए।

दोनों कुमार उन दोनों औरतों के पीछे-पीछे रवाना हुए। हम कह चुके हैं कि जहाँ ये औरतें बैठी थीं वहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक छोटा-सा मकान बना हुआ था। वे दोनों औरतें कुमारों को लिए उसी मकान के दरवाजे पर पहुँचीं जो इस समय बन्द था मगर कोई जंजीर कुण्डा या ताला उसमें दिखाई नहीं देता था। कुमारों को यह भी मालूम न हुआ कि किस खटके को दबाकर या क्योंकर उसने वह दरवाजा खोला। दरवाजा खुलने पर उस औरत ने पहले दोनों कुमारों को उसके अन्दर जाने के लिए कहा, जब दोनों कुमार उसके अन्दर चले गए तब उन दोनों ने भी दरवाजे के अन्दर पैर रखा और इसके बाद हलकी आवाज के साथ वह दरवाजा आप-से-आप बन्द हो गया। इस समय दोनों कुमारों ने अपने को एक सुरंग में पाया जिसमें अन्धकार के सिवाय और कुछ दिखाई नहीं देता था और जिसकी चौड़ाई तीन हाथ और ऊँचाई चार हाथ से किसी तरह ज्यादा न थी। इस जगह कुमार को इस बात का खयाल हुआ कि कहीं इन औरतों ने मुझे धोखा तो नहीं दिया मगर यह सोचकर चुप रह गये कि अब तो जो कुछ होना था हो ही गया और ये औरतें भी तो आखिर हमारे साथ ही हैं जिनके पास किसी तरह का हर्बा देखने में नहीं आया था।

दोनों कुमारों ने अपना हाथ पसारकर दीवार को टटोला और मालूम किया कि [ ८९ ]यह सुरंग है, उसी समय पीछे से उस औरत की यह आवाज आई, "आप दोनों भाई किसी तरह का अन्देशा न कीजिए और सीधे चले चलिए। इस सुरंग में बहुत दूर तक जाने की तकलीफ आप लोगों को न होगी!"

वास्तव में यह सुरंग बहुत बड़ी न थी, चालीस-पचास कदम से ज्यादा कुमार न गए होंगे कि सुरंग का दूसरा दरवाजा मिला और उसे लाँघकर कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने अपने को एक-दूसरे ही बाग में पाया जिसकी जमीन का बहुत बड़ा हिस्सा मकान कमरा बारहदरियों तथा और इमारतों के काम में लगा हुआ था और थोड़े हिस्से में मामूली ढंग का एक छोटा-सा बाग था। हाँ, उस बाग के बीचोंबीच में एक छोटी-सी खूबसूरत बावली जरूर थी जिसकी चार अंगुल ऊँची सीढ़ियाँ सफेद लहरदार पत्थरों से बनी हुई थीं। इसके चारों कोनों पर कदम्ब के चार पेड़ लगे हुए थे और एक पेड़ के नीचे एक चबूतरा संगमरमर का इस लायक था कि बीस-पच्चीस आदमी खुले तौर पर बैठ सकें। इमारत का हिस्सा जो कुछ बाग में था वह सब बाहर से तो देखने में बहुत ही खूबसूरत था मगर अन्दर से वह कैसा और किस लायक था सो नहीं कह सकते।

बावली से पास पहुँचकर उस औरत ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह से कहा, समय धूप बहुत तेज हो रही है मगर इस पेड़ (कदम्ब)की घनी छाया में इस संगमरमर के चबूतरे पर थोड़ी देर तक बैठने में आपको किसी तरह की तकलीफ न होगी, मैं बहुत जल्द (सामने की तरफ इशारा करके) इस कमरे को खुलवाकर आपके आराम करने का इन्तजाम करूंगी, केवल आधी घड़ी के लिए आप मुझे विदा करें।

इन्द्रजीतसिंह––खैर, जाओ मगर इतना बताती जाओ कि तुम दोनों का नाम क्या है जिसमें यदि कोई आवे और कुछ पूछे तो कह सकें कि हम लोग फलाँ लोगों के मेहमान हैं।

औरत––(हँसकर) जरूर जानना चाहिए, केवल इसलिए नहीं बल्कि कई कामों के लिए हम दोनों बहिनों का नाम जान लेना आपके लिए आवश्यक है! मेरा नाम 'इन्द्रानी' (दूसरी की तरफ इशारा करके) और इसका नाम 'आनन्दी' है। यह मेरी सगी छोटी बहिन है।

इतना कहकर वे औरतें तेजी के साथ एक तरफ चली गई और इस बात का कुछ भी इन्तजार न किया कि कुमार कुछ जवाब देंगे या और कोई बात पूछेगे। उन दोनों औरतों के चले जाने के बाद कुँअर आनन्दसिंह ने अपने भाई से कहा, "इन दोनों औरतों के नाम पर आपने कुछ ध्यान दिया?"

इन्द्रजीतसिंह––हाँ, यदि इनका नाम इनके बुजुर्गों का रखा हुआ है। और इनके शरीर का सबसे पहला साथी नहीं है तो कह सकते हैं कि हम दोनों ने धोखा खाया।

आनन्दसिंह––जी, मेरा भी यही खयाल है, मगर साथ ही इसके मैं यह भी खयाल करता हूँ कि अब हम लोगों को चालाक बनना···।

इन्द्रजीतसिंह––(जल्दी से) नहीं-नहीं, अब हम लोगों को जब तक छुटकारे की साफ सूरत दिखाई न दे जाये प्रकट में नादान बने रहना ही लाभदायक होगा।

आनन्दसिंह––निःसन्देह मगर इतना तो मेरा दिल अब भी कह रहा है कि ये [ ९० ]सब हमारी जिन्दगी के धागे में किसी तरह का खिंचाव पैदा न करेंगी।

इन्द्रजीतसिंह––मगर उसमें लंगर की तरह लटकने के लिए इतना बड़ा बोझ जरूर लाद देंगी कि जिसका सहन करना सम्भव नहीं तो असह्य अवश्य होगा।

आनन्दसिंह––हाँ, अब यदि हम लोगों को कुछ सोचना तो है इसी विषय में···

इन्द्रजीतसिंह––अफसोस ऐसे समय में भैरोंसिंह को भी इत्तिफाक ने हम लोगों से अलग कर दिया। ऐसे मौकों पर उसकी बुद्धि अनूठा काम किया करती है। (कुछ रुककर) देखो तो, सामने से वह कौन आ रहा है!

आनन्दसिंह––(खुशी-भरी आवाज में ताज्जुब के साथ) यह तो भैरोंसिंह ही है! अब कोई परवाह की बात नहीं है अगर यह वास्तव में भैरोंसिंह ही है।

अपने से थोड़ी ही दूर पर दोनों कुमारों ने भैरोंसिंह को देखा जो एक कोठरी के अन्दर से निकलकर इन्हीं की तरफ आ रहा था। दोनों कुमार उठ खड़े हुए और मिलने के लिए खुशी-खुशी भैरोंसिंह की तरफ रवाना हुए। भैरोंसिंह ने भी इन्हें दूर से देखा और तेजी के साथ चलकर इन दोनों भाइयों के पास आया। दोनों भाइयों ने खुशी-खुशी भैरोंसिंह को गले लगाया और उसे साथ लिए हुए उसी चबूतरे पर आए जिस पर इन्द्रानी उनको बैठा गई थी।

इन्द्रजीतसिंह––(चबूतरे पर बैठकर) भैरोंसिंह भाई, यह तिलिस्म का कारखाना है, यहाँ फूंक-फूंक के कदम रखना चाहिए, अतः यदि मैं तुम पर शक करके तुम्हें जाँचने का उद्योग करूं तो तुम्हें खफा न होना चाहिए।

भैरोंसिंह––नहीं-नहीं, मैं ऐसा बेवकूफ नहीं हूँ कि आप लोगों की चालाकी और बुद्धिमानी की बातों से खफा हो जाऊँ, तिलिस्म और दुश्मन के घर में दोस्तों की जाँच बहुत जरूरी है। बगल वाला लसा और कमर का दाग दिखलाने के अतिरिक्त बहुत-सी बातें ऐसी हैं जिन्हें सिवाय मेरे और आपके दूसरा कोई भी नहीं जानता जैसे 'लड़कपन वाला मजनूँ।'

इन्द्रजीतसिंह––(हँसकर)बस-बस, मुझे जाँच करने की कोई जरूरत नहीं रही, अब यह बताओ कि तुम्हारा बटुआ तुम्हें मिला या नहीं?

भैरोंसिंह––(ऐयारी का बटुआ कुमार के आगे रखकर) आपके तिलिस्मी खंजर की बदौलत मेरा यह बटुआ मुझे मिल गया। शुक्र है कि इसमें की कोई चीज नुकसान में नहीं गई सब ज्यों-की-त्यों मौजूद हैं। (तिलिस्मी खंजर और उसके जोड़ की अँगूठी देकर) लीजिए अपना तिलिस्मी खंजर, अब मुझे इसकी कोई जरूरत नहीं, मेरे लिए मेरा बटुआ काफी है।

इन्द्रजीतसिंह––(अँगूठी और तिलिस्मी खंजर लेकर) अब यद्यपि तुम्हारा किस्सा सुनना बहुत जरूरी है क्योंकि हम लोगों ने एक आश्चर्यजनक घटना के अन्दर तुम्हें छोड़ा था, मगर इस सबके पहले अपना हाल तुम्हें सुना देना हमें उचित जान पड़ता है क्योंकि एकान्त का समय बहुत कम है और उन दोनों औरतों के आ जाने में बहुत विलम्ब नहीं है जिनकी बदौलत हम लोग यहाँ आए हैं और जिनके फेर में अपने को पड़ा हुआ समझते हैं।

भैरोंसिंह––क्या किसी औरत ने आप लोगों को धोखा दिया? [ ९१ ]इन्द्रजीतसिंह––निश्चय तो नहीं कह सकता कि धोखा दिया मगर जो कुछ हाल है उसे सुनकर राय दो कि हम लोग अपने को धोखे में फँसा हुआ समझें या नहीं।

इसके बाद कुँअर इन्द्रजीत सिंह ने अपना कुल हाल भैरोंसिंह से जुदा होने के बाद से इस समय तक का कह सुनाया। इसके जवाब में अभी भैरोंसिंह ने कुछ कहा भी न था कि सामने वाले कमरे का दरवाजा खुला और उसमें से इन्द्रानी को निकलकर अपनी तरफ आते देखा।

इन्द्रजीतसिंह––(भैरोंसिंह से)लो वह आ गई, एक तो यही औरत है, इसी का नाम इन्द्रानी है, मगर इस समय वह दूसरी औरत इसके साथ नहीं है जिसे यह अपनी सगी छोटी बहिन बताती है।

भैरोंसिंह––(ताज्जुब से उस औरत की तरफ देखकर) इसे तो मैं पहचानता हूँ मगर यह नहीं जानता था कि इसका नाम 'इन्द्रानी' है।

इन्द्रजीतसिंह––तुमने इसे कब देखा?

भैरोंसिंह––तिलिस्मी खंजर लेकर आपसे जुदा होने के बाद बटुआ पाने के सम्बन्ध में इसने मेरी मदद की थी। जब मैं अपना हाल सुनाऊँगा तब आपको मालूम होगा कि यह कैसी नेक औरत है, मगर इसकी छोटी बहिन को मैं नहीं जानता, शायद उसे भी देखा हो।

इतने ही में इन्द्रानी वहाँ आ पहुँची जहाँ भैरोंसिंह और दोनों कुमार बैठे बातचीत कर रहे थे। जिस तरह भैरोंसिंह ने इन्द्रानी को देखते ही पहचान लिया था उसी तरह इन्द्रानी ने भी भैरोंसिंह को पहचान लिया और कहा, "क्या आप भी यहाँ आ पहुँचे? अच्छा हुआ, क्योंकि आपके आने से दोनों कुमारों का दिल बहलेगा, इसके अतिरिक्त मुझ पर भी किसी का शक-शुव्हा न रहेगा।"

भैरोंसिंह––जी हाँ, मैं भी यहाँ आ पहुँचा और आपको दूर से देखते ही पहचान लिया बल्कि कुमार से कह भी दिया कि इन्होंने मेरी बड़ी सहायता की थी।

इन्द्रानी––यह तो बताओ कि स्नान संध्या से छुट्टी पा चुके हो या नहीं?

भैरोंसिंह––हाँ, मैं स्नान संध्या से छुट्टी पा चुका हूँ और हर तरह निश्चिन्त हूँ।

इन्द्रानी––(दोनों कुमारों से) और आप लोग?

इन्द्रजीतसिंह––हम दोनों भाई भी।

इन्द्रानी––अच्छा तो अब आप लोग कृपा करके उस कमरे में चलिए।

भैरोंसिंह––बहुत अच्छी बात है, (दोनों कुमारों से) चलिए। भैरोंसिंह को लिए हुए कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह उस कमरे में आए जिसे इन्द्रानी ने इनके लिए खोला था। कुमार ने इस कमरे को देखकर बहुत पसन्द किया क्योंकि यह कमरा बहुत बड़ा और खूबसूरती के साथ सजाया हुआ था। इसकी छत बहुत ऊँची और रंगीन थी, तथा दीवारों पर भी मुसौवर ने अनोखा काम किया था। कुछ दीवारों पर जंगल, पहाड़, खोह, कंदराकाघाटी और शिकारगाह तथा बहते हुए चश्मे का अनोखा दृश्य ऐसे अच्छे ढंग से दिया गया था कि देखने वाला नित्य पहरों देखा करे और उसका चित्त न भरे। मौके-मौके से जंगली जानवरों की तस्वीरें भी ऐसी बनी थीं कि [ ९२ ]देखने वालों को उसके असली होने का धोखा होता था। दीवारों पर बनी हुई तस्वीरों के अतिरिक्त कागज और कपड़ों पर बनी हुई तथा सुन्दर चौखटों में जड़ी हुई तस्वीरों की भी इस कमरे में कमी न थी। ये तस्वीरें केवल ऐसी हसीन और नौजवान औरतों की थीं जिनकी खूबसूरती और भाव को देखकर देखने वाला प्रेम से दीवाना हो सकता था। इन्हीं तस्वीरों में इन्द्रानी और आनन्दी की तस्वीरें भी थीं, जिन्हें देखते ही कुँअर इन्द्रजीत हँस पड़े और भैरोंसिंह की तरफ देख के बोले, "देखो, यह तस्वीर इन्द्रानी की और यह उनकी बहिन आनन्दी की है। उन्हें तुमने न देखा होगा!"

भैरोंसिंह––जी, इनकी छोटी बहिन को तो मैंने नहीं देख।

इन्द्रजीतसिंह––स्वयं जैसी खूबसुरत है वैसी ही तस्वीर भी बनी है। (इन्द्रानी की तरफ देखकर) मगर अब हमें इस तस्वीर के देखने की कोई जरूरत नहीं!

इन्द्रानी––(हँसकर) बेशक, क्योंकि अब आप स्वतन्त्र और लड़के नहीं रहे।

इन्द्रानी का जवाब सुन भैरोंसिंह तो खिलखिलाकर हँस पड़ा, मगर आनन्दसिंह ने मुश्किल से हँसी रोकी।

इस कमरे में रोशनी का सामान (दीवारगीर डोल हांडी इत्यादि) भी बेशकीमत खूबसूरत और अच्छे ढंग से लगा हुआ था। सुन्दर बिछावन और फर्श के अतिरिक्त चाँदी और सोने की कई कुर्सियाँ भी उस कमरे में मौजूद थी जिन्हें देखकर कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने एक सोने की कुर्सी पर बैठने का इरादा किया मगर इन्द्रानी ने सभ्यता के साथ रोककर कहा––"पहले आप लोग भोजन कर लें, क्योंकि भोजन का सब सामान तैयार है और ठण्डा हो रहा है।"

इन्द्रजीतसिंह––भोजन करने की तो इच्छा नहीं है।

इन्द्रानी––(चेहरा उदास बनाकर) तो फिर आप हमारे मेहमान ही क्यों बने थे? क्या आप अपने को बेमुरौवत और झूठा बनाना चाहते हैं?

इन्द्रानी ने कुमार को हर तरह से कायल और मजबूर करके भोजन करने के लिए तैयार किया। इस कमरे में छोटा-सा दरवाजा दूसरे कमरे में जाने के लिए बना हुआ था, इसी राह से दोनों कुमार और भैरोंसिंह को लिए हुए इन्द्रानी कमरे में पहुँची। यह कमरा बहुत ही छोटा और राजाओं के पूजा-पाठ तथा भोजन इत्यादि ही के योग्य बना हुआ था। कुमार ने देखा कि दोनों भाइयों के लिए उत्तम-से-उत्तम भोजन का सामान चाँदी और सोने के बर्तनों में तैयार है और हाथ में सुन्दर पंखा लिए आनन्दी उसकी हिफाजत कर रही ह। इन्द्रानी ने आनन्दी के हाथ से पंखा ले लिया और कहा, "भैरोंसिंह भी आ पहुँचे हैं, इनके वास्ते भी सामान बहुत जल्द ले आओ।"

आज्ञा पाते ही आनन्दी चली गई और थोड़ी देर में कई औरतों के साथ भोजन का सामान लिए लौट आई। करीने से सब सामान लगाने के बाद उसने उन औरतों को बिदा किया जिन्हें अपने साथ लाई थी।

दोनों कुमार और भैरोंसिंह भोजन करने के लिए बैठे, उस समय इन्द्रजीतसिंह ने भेद भरी निगाह से भैरोंसिंह की तरफ देखा और भैरोंसिंह ने भी इशारे में ही लापरवाही दिखा दी। इस बात को इन्द्रानी और आनन्दी ने ताड़ लिया कि कुमार को इस भोजन में [ ९३ ]बेहोशी को दवा का शक हुआ मगर कुछ बोलना मुनासिब न समझकर चुप रह गई। जब तक दोनों कुमार भोजन करते रहे तब तक आनन्दी पंखा हाँकती रही। दोनों कुमार इन दोनों औरतों का बर्ताव देखकर बहुत खुश हुए और मन में कहने लगे कि ये औरतें जितनी खूबसूरत हैं उतनी ही नेक भी हैं, जिनके साथ व्याही जायेंगी उनके बड़भागी होने में कोई सन्देह नहीं (क्योंकि ये दोनों कुमारी मालूम होती थीं)।

भोजन समाप्त होने पर आनन्दी ने दोनों कुमारों और भैरोंसिंह के हाथ धुलाये और इसके बाद फिर दोनों कुमार और भैरोंसिंह इन्द्रानी और आनन्दी के साथ उसी पहले वाले कमरे में आये। इन्द्रानी ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह से कहा, "अब थोड़ी देर आप लोग आराम करें और मुझे इजाजत दें तो···।"

इन्द्रजीतसिंह––मेरा जी तुम लोगों का हाल जानने के लिए बेचैन हो रहा है, इसलिए मैं नहीं चाहता कि तुम एक पल के लिए भी कहीं जाओ जब तक कि मेरी बातों का पूरा-पूरा जवाब न दे लो। मगर यह बताओ कि तुम लोग भोजन कर चुकी हो या नहीं?

इन्द्रानी––अभी तो हम लोगों ने भोजन नहीं किया है, जैसी मर्जी हो···

इन्द्रजीतसिंह––तब मैं इस समय नहीं रोक सकता। मगर इस बात का वादा जरूर ले लूँगा, कि तुम घण्टे से ज्यादा न लगाओगी, और मुझे अपने इन्तजार का दु:ख न दोगी।

इन्द्रानी––जी मैं वादा करती हूँ कि घण्टे भर के अन्दर ही आपकी सेवा में लौट आऊँगी।

इतना कहकर आनन्दी को साथ लिए हुए इन्द्रानी चली गई और दोनों कुमार तथा भैरोंसिंह को बातचीत करने का मौका दे गई।