चन्द्रकान्ता सन्तति 5/18.6

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चंद्रकांता संतति भाग 5  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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इन्द्रानी और आनन्दी के चले जाने के बाद कुँअर इन्द्रजीतसिंह आनन्दसिंह और भैरोंसिंह में यों बातचीत होने लगी––

इन्द्रजीतसिंह––(भैरोंसिंह से) असल बात जो मैं इन्द्रानी से पूछना चाहता था उसका मौका तो अभी तक मिला ही नहीं।

भैरोंसिंह––यही कि तुम कौन और कहाँ की रहने वाली हो, इत्यादि···!

इन्द्रजीतसिंह––हाँ, और किशोरी, कामिनी, कमलिनी इत्यादि कहाँ हैं तथा उनसे मुलाकात क्योंकर हो सकती है?

आनन्दसिंह––(भैरोंसिंह से)इस बात का कुछ पता तो शायद तुम भी दे सकोगे, क्योंकि हम लोगों के पहले तुम इन्द्रानी को जान चुके हो और कई ऐसी जगहों में भी घूम चुके हो जहाँ हम लोग अभी तक नहीं गए हैं। [ ९४ ]इन्द्रजीतसिंह––हाँ, पहले तुम अपना हाल तो कहो!

भैरोंसिंह––सुनिए-अपना बटुआ पाने की उम्मीद में जब मैं उस दरवाजे के अन्दर गया तो जाते ही मैंने उन दोनों को ललकार के कहा, "मैं भैरोंसिंह स्वयं आ पहुँचा।" इतने ही में वह दरवाजा जिस राह से मैं उस कमरे में गया था बन्द हो गया। यद्यपि उस समय मुझे एक प्रकार का भय मालूम हुआ परन्तु बटुए की लालच ने मुझे उस तरफ देर तक ध्यान न देने दिया और मैं सीधा उस नकाबपोश के पास चला गया जिसकी कमर में मेरा बटुआ लटक रहा था।

मैं समझे हुए था कि 'पीला मकरन्द' अर्थात् पीली पोशाक वाला नकाबपोश स्याह नकाबपोश का दुश्मन तो है ही, अतएव स्याह नकाबपोश का मुकाबला करने में पीले मकरन्द से मुझे कुछ मदद अवश्य मिलेगी मगर मेरा खयाल गलत था मेरा नाम सुनते ही वे दोनों नकाबपोश मेरे दुश्मन हो गए और यह कहकर मुझसे लड़ने लगे कि "यह ऐयारी का बटुआ अब तुम्हें नहीं मिल सकता, यह रहेगा तो हम दोनों में से किसी एक के पास ही रहेगा।"

परन्तु मैं इस बात से भी हताश न हुआ। मुझे उस बटुए की लालच ऐसी कम न थी कि उन दोनों के धमकाने से डर जाता और अपने बटुए के पाने से नाउम्मीद होकर अपने बचाव की सूरत देखता। इसके अतिरिक्त आपका तिलिस्मी खंजर भी मुझे हताश नहीं होने देता था, अतः मैं उन दोनों के वारों का जवाब उन्हें देने और दिल खोलकर लड़ने लगा और थोड़ी ही देर में विश्वास करा दिया कि राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों का मुकाबला करना हँसी-खेल नहीं है।[१]

थोड़ी देर तक तो दोनों नकाबपोश मेरा वार बहुत अच्छी तरह बचाते चले गये मगर इसके बाद जब उन दोनों ने देखा कि अब उनमें वार बचाने की कुदरत नहीं रही और तिलिस्मी खंजर जिस जगह बैठ जायेगा दो टुकड़े किए बिना न रहेगा, तब पीले मकरन्द ने ऊँची आवाज में कहा, "भैरोंसिंह ठहरो-ठहरो, जरा मेरी बात सुन लो तब लड़ना। ओ स्याह नकाब वाले, क्यों अपनी जान का दुश्मन बन रहा है? जरा ठहर जा और मुझे भैरोंसिंह से दो-दो बातें कर लेने दे।"

पीले मकरन्द की बात सुनकर स्याह नकाबपोश ने और साथ ही मैंने भी लड़ाई से हाथ खींच लिया, मगर तिलिस्मी खंजर की रोशनी को कम न होने दिया।

मैं––(स्याह नकाबपोश की तरफ बताकर) इसके पास मेरा ऐयारी का बटुआ जिसे मैं लिया चाहता हूँ।

पीला मकरन्द––तो मुझसे क्यों लड़ रहे हो?

मैं––मैं तुमसे नहीं लड़ता बल्कि तुम खुद मुझसे लड़ रहे हो!

पीला मकरन्द––(स्याह नकाबपोश से) क्यों अब क्या इरादा है, इनका बटुआ खुशी से इन्हें दे दोगे या लड़कर अपनी जान दोगे?

स्याह नकाबपोश––जब बटुए का मालिक स्वयं आ पहुँचा है, बटुआ देने में मुझे [ ९५ ]क्योंकर इनकार हो सकता है? हाँ यदि ये न आते तो बटुआ कदापि न देता।

पीला मकरन्द––जब ये न आते मैं भी देख लेता कि तुम वह बटुआ मुझे कैसे नहीं देते। खैर अब इनका बटुआ इन्हें दे दो और पीछा छुड़ाओ!

स्याह नकाबपोश ने बटुआ खोलकर मेरे आगे रख दिया और कहा, "अब तो मुझे छुट्टी मिली?" इसके जवाब में मैंने कहा, "नहीं, पहले मुझे देख लेने दो कि मेरी अनमोल चीजें इसमें हैं या नहीं।"

मैंने उस बटुए के बन्धन पर निगाह पड़ते ही पहचान लिया कि मेरे हाथ की दी हुई गिरह ज्यों की त्यों मौजूद है तथापि होशियारी के तौर पर बटुआ खोल कर देख लिया और जब निश्चय हो गया कि मेरी सब चीजें इसमें मौजूद हैं तो खुश होकर बटुआ कमर में लगाकर स्याह नकाबपोश से बोला, "अब मेरी तरफ से तुम्हें छुट्टी है,मगर यह तो बता दो कि कुमार के पास किस राह से जा सकता हूँ?" इसका जवाब स्याह नकाबपोश ने यह दिया कि "यह सब हाल मैं नहीं जानता, तुम्हें जो कुछ पूछना है पीले मकरन्द से पूछ लो।"

इतना कहकर स्याह नकाबपोश न मालूम किधर चला गया और मैं पीले मकरन्द का मुँह देखने लगा। पीले मकरन्द ने मुझसे पूछा, "अब तुम क्या चाहते हो?"

मैं––अपने मालिक के पास जाना चाहता हूँ!

पीला मकरन्द––तो जाते क्यों नहीं?

मैं––क्या उस दरवाजे की राह जा सकूँगा जिधर से आया था?

पीला मकरन्द––क्या तुम देखते नहीं कि वह दरवाजा बन्द हो गया है और अब तुम्हारे खोलने से नहीं खुल सकता!

मैं––तब मैं क्योंकर बाहर जा सकता हूँ?

इसके जवाब में पीले मकरन्द ने कहा, "तुम मेरी सहायता के बिना यहाँ से निकलकर बाहर नहीं जा सकते क्योंकि रास्ता बहुत कठिन और चक्करदार है। खैर तुम मेरे पीछे-पीछे चले आओ, मैं तुम्हें यहाँ से बाहर कर दूँगा।"

पीले मकरन्द की बात सुनकर मैं उसके साथ-साथ जाने के लिए तैयार हो गया, मगर फिर भी अपना दिल भरने के लिए मैंने एक दफे उस दरवाजे को खोलने का उद्योग किया जिधर से उस कमरे में गया था। जब वह दरवाजा न खुला तब लाचार होकर मैंने पीले मकरन्द का सहारा लिया मगर दिल में इस बात का खयाल जमा रहा कि कहीं वह मेरे साथ दगा न करे।

पीले मकरन्द ने चिराग उठा लिया और मुझे अपने पीछे-पीछे आने के लिए कहा तथा मैं तिलिस्मी खंजर हाथ में लिये हुए उसके साथ रवाना हुआ। पीले मकरन्द ने विचित्र ढंग से कई दरवाजे खोले और मुझे कई कोठरियों में घुमाता हुआ मकान के बाहर ले गया। मैं तो समझे हुए था कि अब आपके पास पहुँचा चाहता हूँ मगर जब बाहर निकलने पर देखा तो अपने को किसी और ही मकान के दरवाजे पर पाया। चारो तरफ सुबह की सुफेदी अच्छी तरह फैल चुकी थी और मैं ताज्जुब की निगाहों से चारों तरफ देख रहा था। उस समय पीले मकरन्द ने मुझे उस मकान के अन्दर चलने के [ ९६ ]लिए कहा मगर इस जगह वह स्वयं पीछे हो गया और मुझे आगे चलने के लिए बोला। उसकी इस बात से मुझे शक पैदा हुआ, मैंने उससे कहा कि "जिस तरह अभी तक तुम मेरे आगे-आगे चलते आये हो उसी तरह अब भी इस मकान के अन्दर क्यों नहीं चलते? मैं तुम्हारे पीछे-पीछे चला चलूँगा।" इसके जवाब में पीले मकरन्द ने सिर हिलाया और कुछ कहा ही चाहता था कि मेरे पीछे की तरफ से आवाज आई, "ओ भैरोसिंह, खबरदार! इस मकान के अन्दर पैर न रखना, और इस पीले मकरन्द को पकड़ रखना, भागने न पावे!"

मैं घूमकर पीछे की तरफ देखने लगा कि यह आवाज देने वाला कौन है। इतने ही में इस इन्द्रानी पर मेरी निगाह पड़ी जो तेजी के साथ चलकर मेरी तरफ आ रही थी। पलट कर मैंने पीले मकरन्द की तरफ देखा तो उसे मौजूद न पाया, न मालूम वह यकायक क्योंकर गायब हो गया। जब इन्द्रानी मेरे पास पहुँची तो उसने कहा, "तुमने बड़ी भूल की जो उस शैतान मकरन्द को पकड़ न लिया। उसने तुम्हरे साथ धोखेबाजी की। बेशक वह तुम्हारे बटुए की लालच में तुम्हारी जान लिया चाहता था। ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि मुझे खबर लग गई और मैं दौड़ी हुई यहाँ तक चली आई। वह कम्बख्त मुझे देखते ही भाग गया।"

इन्द्रानी की बात सुनकर मैं ताज्जुब में आ गया और उसका मुँह देखने लगा। सबसे ज्यादा ताज्जुब तो मुझे इस बात का था कि इन्द्रानी जैसी खूबसूरत और नाजुक औरत को देखते ही वह शैतान मकरन्द भाग क्यों गया? इसके अतिरिक्त देर तक तो मैं इन्द्रानी की खूबसूरती ही को देखता रह गया। (मुस्कुरा कर) माफ कीजिए, बुरा न मानियेगा, क्योंकि मैं सच कहता हूँ कि इन्द्रानी को मैंने किशोरी से भी बढ़कर खूबसूरत पाया। सुबह के सुहावने समय में उसका चेहरा दिन की तरह दमक रहा था!

इन्द्रजीतसिंह––यह तुम्हारी खुशनसीबी थी कि सुबह के वक्त ऐसी खूबसूरत औरत का मुँह देखा।

भैरोंसिंह––उसी का यह फल मिला कि जान बच गई और आपसे मिल सका।

इन्द्रजीतसिंह––खैर, तब क्या हुआ?

भैरोंसिंह––मैंने धन्यवाद देकर इन्द्रानी से पूछा कि "तुम कौन हो और यह मकरन्द कौन था?" इसके जवाब में इन्द्रानी ने कहा कि "यह तिलिस्म है, यहाँ के भेदों को जानने का उद्योग न करो। जो कुछ आप-से-आप मालूम होता जाय, उसे समझते जाओ। इस तिलिस्म में तुम्हारे दोस्त और दुश्मन बहुत हैं, अभी तो आए हो, दो-चार दिन में बहुत सी बातों का पता लग जाएगा, हाँ, अपने बारे में मैं इतना जरूर कहूँगी कि इस तिलिस्म की रानी हूँ और तुम्हें तथा दोनों कुमारों को अच्छी तरह जानती हूँ।"

इन्द्रानी इतना कहके चुप हो गई और पीछे की तरफ देखने लगी। उसी समय और भी चार-पाँच औरतें वहाँ आ पहुँची जो खूबसूरत कमसिन और अच्छे गहने-कपड़े पहने हुए थीं। मैंने किशोरी कामिनी वगैरह का हाल इन्द्रानी से पूछना चाहा, मगर उसने बात करने की मोहलत न दी और यह कहकर मुझे एक और के सुपुर्द कर दिया दि "यह तुम्हें कुँअर इन्द्रजीतसिंह के पास पहुँचा देगी।" इतना कहकर बाकी औरतों [ ९७ ]को साथ लिए हुए इन्द्रानी चली गई और मुझे पीछे तरद्दुद में छोड़ गई। अन्त में उसी औरत की मदद से मैं यहाँ तक पहुँचा।

इन्द्रजीतसिंह––आखिर उस औरत से भी तुमने कुछ पूछा या नहीं?

भैरोंसिंह––पूछा तो बहुत कुछ, मगर उसने जवाब एक बात का भी न दिया मानो वह कुछ सुनती ही न थी। हाँ, एक बात कहना तो मैं भूल ही गया।

इन्द्रानी––वह क्या?

भैरोंसिंह––इन्द्रानी के चले जाने के बाद जब मैं उस औरत के साथ इधर आ रहा था तब रास्ते में एक लपेटा हुआ कागज मुझे मिला जो जमीन पर इस तरह पड़ा हुआ था जैसे किसी राह-चलते की जेब से गिर गया हो। (कमर से कागज निकाल कर और कुँअर इन्द्रजीतसिंह के हाथ में देकर) लीजिए पढ़िए, मैं तो इसे पढ़कर पागल सा हो गया था।

भैरोंसिंह के हाथ से कागज लेकर कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने पढ़ा और उसे अच्छी तरह देखकर भैरोंसिंह से कहा, "बड़े आश्चर्य की बात है, मगर यह हो नहीं सकता, क्यों कि हमारा दिल हमारे कब्जे में नहीं है और न हम किसी के आधीन हैं।"

आनन्दसिंह––भैया, जरा मैं भी तो देखूँ, यह कागज कैसा है और इसमें क्या लिखा है?

इन्द्रजीतसिंह––(वह कागज देकर) लो देखो।

आनन्दसिंह––(कागज को पढ़कर और उसे अच्छी तरह देखकर) यहतो अच्छी जबर्दस्ती है, मानो हम लोग कोई चीज ही नहीं हैं। (भैरोंसिंह से) जिस समय यह चिट्ठी तुमने जमीन पर से उठाई थी उस समय उस औरत ने भी देखा या तुमसे कुछ कहा था कि नहीं जो तुम्हारे साथ थी?

भैरोंसिंह––उसे इस बात की कुछ भी खबर नहीं थी क्योंकि वह मेरे आगे-आगे चल रही थी। मैंने जमीन पर से चिट्ठी उठाई भी और पढ़ी भी मगर, उसे कुछ भी मालूम न हुआ। मुझे तो शक होता है कि वह गूँगी और बहरी अथवा हद से ज्यादा सीधी और बेवकूफ थी।

आनन्दसिंह––इस पर मोहर इस ढंग की पड़ी हुई है जैसे किसी राजदरवार की हो।

भैरोंसिंह––बेशक ऐसी ही मालूम पड़ती है। (हँसकर इन्द्रजीतसिंह से) चलिए आपके लिए तो पौ-बारह हैं किस्मत का धनी होना इसे ही कहते हैं?

इन्द्रजीतसिंह––तुम्हारी ऐसी की तैसी।

पाठकों के सुभीते के लिए हम उस चिट्ठी की नकल यहाँ लिख देते हैं जिसे पढ़ कर और देखकर दोनों कुमारों और भैरोंसिंह को ताज्जुब मालूम हुआ था––"पूज्यवर,

पत्र पाकर चित्त प्रसन्न हुआ। आपकी राय बहुत अच्छी है। उन दोनों के लिए कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ऐसा वर मिलना कठिन है, इसी तरह दोनों कुमारों को भी ऐसी स्त्री नहीं मिल सकती। बस अब इसमें सोच-विचार करने की कोई जरूरत [ ९८ ]नहीं, आपकी आज्ञानुसार मैं आठ पहर के अन्दर ही सब सामान दुरुस्त कर दूँगा। बस परसों ब्याह हो जाना ही ठीक है। बड़े लोग इस तिलिस्म में जो कुछ दहेज की रकम रख गये हैं वह इन्हीं दोनों कुमारियों के योग्य है। यद्यपि इन दोनों का दिल चुटीला हो चुका है परन्तु हमारा प्रताप भी तो कोई चीज है! जब तक दोनों कुमार आपकी आज्ञा न मानेंगे, तब तक वे जा कहाँ सकते हैं? अन्त को वह होना आवश्यक है जो आप चाहते हैं।

मुहरद॰––मु॰ मा॰"

इस चिट्ठी को कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने पुनः पढ़ा और ताज्जुब करते हुए अपने छोटे भाई की तरफ देख कर कहा, "ताज्जुब नहीं कि यह चिट्ठी किसी ने दिल्लगी के तौर पर लिख कर भैरोंसिंह के रास्ते में डाल दी हो और हम लोगों को तरदुद में डाल कर तमाशा देखना चाहते हो?"

आनन्दसिंह––कदाचित ऐसा ही हो। अगर कमलिनी से मुलाकात हो गई होती तो···

भैरोंसिंह––तब क्या होता? मैं यह पूछता हूँ कि इस तिलिस्म के अन्दर आकर आप दोनों भाइयों ने क्या किया? अगर इसी तरह से समय बिताया जायगा तो देखियेगा कि आगे चल कर क्या-क्या होता है!

इन्द्रजीतसिंह––तो तुम्हारी क्या राय है, बिना समझे-बूझे तोड़-फोड़ मचाऊँ?

भैरोंसिंह––बिना समझे-बूझे तोड़-फोड़ मचाने की क्या जरूरत है? तिलिस्मी किताब और तिलिस्मी बाजे से आपने क्या पाया और वह किस दिन काम आवेगा? क्या इन बागों का हाल उसमें लिखा हुआ न था?

इन्द्रजीतसिंह––लिखा हुआ तो था मगर साथ ही इसके यह भी अन्दाज मिलता था कि तिलिस्म के ये हिस्से टूटने वाले नहीं हैं।

भैरोंसिंह––यह तो मैं भी बिना तिलिस्मी किताब पढ़े हो समझ सकता हूँ कि तिलिस्म के ये हिस्से टूटने वाले नहीं हैं, अगर टूटने वाले होते तो किशोरी, कामिनी वगैरह को राजा गोपालसिंह हिफाजत के लिए यहाँ न पहुँचा देते, मगर यहाँ से निकल जाने का या तिलिस्म के उस हिस्से में पहुँचने का रास्ता तो जरूर होगा जिसे आप तोड़ सकते हैं।

आनन्दसिंह––हाँ, इसमें क्या शक है!

भैरोंसिंह––अगर शक नहीं है तो उसे खोजना चाहिए।

इतने ही में इन्द्रानी और आनन्दी भी आ पहुँचीं, जिन्हें देख दोनों कुमार बहुत प्रसन्न हुए और इन्द्रजीतसिंह ने इन्द्रानी से कहा––"मैं बहुत देर से तुम्हारे आने का इन्तजार कर रहा था।"

इन्द्रानी––मेरे आने में वादे से ज्यादा देर तो नहीं हुई।

इन्द्रजीतसिंह––न सही, मगर ऐसे आदमी के लिए जिसका दिल तरह-तरह के तरद्दुदों और उलझनों में पड़ कर खराब हो रहा हो, इतना इन्तजार भी कम नहीं है। [ ९९ ]इस समय इन्द्रानी और आनन्दी यद्यपि सादी पोशाक में थीं, मगर किसी तरह की सजावट की मुहताज न रहने वाली उनकी खूबसूरती देखने वाले का दिल, चाहे वह परले सिरे का त्यागी क्यों न हो, अपनी तरफ खींचे बिना नहीं रह सकती थी। नुकीले हों से ज्यादा काम करने वाली उनकी बड़ी-बड़ी आँखों में मारने और जिलाने वाली दोनों तरह की शक्तियाँ मौजूद थीं। गालों पर इत्तिफाक से आ पड़ी हुई धुँघराली लटें शान्त बैठे हुए मन को भी चाबुक लगा कर अपनी तरफ मुतवज्जह कर रही थीं। सूधेपन और नेकचलनी का पता देने वाली सीधी और पतली नाक तो जादू का काम कर रही थी। मगर उनके खूबसूरत, पतले और लाल होंठों को हिलते देखने और उनमें से तुले हुए तथा मन लुभाने वाले शब्दों के निकलने की लालसा से दोनों कुमारों को छुटकारा नहीं मिल सकता था और उनकी सुराहीदार गर्दनों पर गर्दन देने वालों की कमी नहीं हो सकती थी। केवल इतना ही नहीं, उनके सुन्दर सुडौल और उचित आकार वाले अंगों की छटा बड़े-बड़े कवियों और चित्रकारों को भी चक्कर में डाल कर लज्जित कर सकती थी।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के आग्रह से वे दोनों उनके सामने बैठ गई मगर अदब का पल्ला लिए और सिर नीचा किए हुए।

इन्द्रानी––इस जल्दी और थोड़े समय में हम लोग आपकी खातिरदारी और मेहमानी का इन्तजाम कुछ भी न कर सकीं। मगर मुझे आशा है कि कुछ देर के बाद इस कसूर की माफी का इन्तजाम अवश्य कर सकूँगी।

इन्द्रजीतसिंह––इतना क्या कम है कि मुझ जैसे नाचीज मुसाफिर के साथ यहाँ की रानी होकर तुमने ऐसा अच्छा बर्ताव किया। अब आशा है कि जिस तरह तुमने अपने बर्ताव से मुझे प्रसन्न किया है, उसी तरह मेरे सवालों का जवाब देकर मेरा स देह भी दूर करोगी।

इन्द्रानी––आप जो कुछ पूछना चाहते हों पूछे, मुझे जवाब देने में किसी तरह का उज्र न होगा।

इन्द्रजीतसिंह––किशोरी, कामिनी, कमलिनी और लाड़िली वगैरह इस तिलिस्म के अन्दर आई हैं?

इन्द्रानी––जी हाँ, आई तो हैं!

इन्द्रजीतसिंह––क्या तुम जानती हो कि इस समय वे सब कहाँ हैं?

इन्द्रानी––जी हाँ, मैं अच्छी तरह जानती हूँ। इस बाग के पीछे सटा हुआ एक और तिलिस्मी बाग है, सभी को लिए हुए कमलिनी उसी में चली गई हैं और उसी में रहती हैं!

इन्द्रजीतसिंह––क्या हम लोगों को तुम उनके पास पहुँचा सकती हो?

इन्द्रानी––जी नहीं।

इन्द्रजीतसिंह––क्यों?

इन्द्रानी––वह बाग एक दूसरी औरत के अधीन है, जिससे बढ़ कर मेरी दुश्मन इस दुनिया में कोई नहीं। [ १०० ]इन्द्रजीतसिंह––तो क्या तुम उस बाग में कभी नहीं जाती?

इन्द्रानी––जी नहीं, क्योंकि एक तो दुश्मन के खयाल से मेरा जाना वहाँ नहीं होता, दूसरे उसने रास्ता भी बन्द कर दिया है। इसी तरह मैं उसके पक्षपातियों को अपने बाग में नहीं आने देती।

इन्द्रजीतसिंह––तो हमारी और उनकी मुलाकात क्योंकर हो सकती है?

इन्द्रानी––यदि आप उन सभी से मिलना चाहें तो तीन-चार दिन और सब्र करें क्योंकि अब ईश्वर की कृपा से ऐसा प्रबन्ध हो गया है कि तीन-चार दिन के अन्दर ही वह बाग मेरे कब्जे में आ जाय और उसका मालिक मेरा कैदी बने। मेरे दारोगा ने तो कमलिनी को उस बाग में जाने से मना किया था। मगर अफसोस कि उसने दारोगा की बात न मानी और धोखे में पड़ कर अपने को एक ऐसी जगह जा फँसाया, जहाँ से हम लोगों का सम्बन्ध कुछ भी नहीं।

इन्द्रजीतसिंह––तो क्या तुम लोग राजा गोपालसिंह के अधीन नहीं होते?

इन्द्रानी––हम लोग जरूर राजा गोपालसिंह के अधीन हैं, और मैं हूँ कि आप यहाँ के तिलिस्म को तोड़ने के लिए आए हैं, अस्तु, इस बात को भी जानते होंगे कि यहाँ के बहुत से ऐसे हिस्से हैं, जिन्हें आप नहीं तोड़ सकेंगे।

इन्द्रजीतसिंह––हाँ, जानते हैं।

इन्द्रानी––उन्हीं हिस्सों में से जो टूटने वाले नहीं हैं, कई दर्जे ऐसे हैं जो केवल सैर-तमाशे के लिए बनाये गए हैं और वहां जमानिया का राजा प्रायः अपने मेहमानों को भेज कर सैर-तमाशा दिखाया करता है, अस्तु इसलिए कि वह जगह हमेशा अच्छी हालत में बनी रहे हम लोगों के कब्जे में दे दी गई है और नाम मात्र के लिए हम लोग तिलिस्म की रानी कहलाती हैं, मगर हाँ इतना तो जरूर है कि हम लोगों को सोना-चाँदी और जवाहिरात की (यहाँ की बदौलत) कमी नहीं है।

इन्द्रजीतसिंह––जिन दिनों राजा गोपाल सिंह को मायारानी ने कैद कर लिया था उन दिनों यहाँ की क्या अवस्था थी? मायारानी भी कभी यहाँ आती थी या नहीं?

इन्द्रानी––जी नहीं, मायारानी को इन सब बातों और जगहों की कुछ खबर ही न थी। इसलिए वह अपने समय में यहाँ कभी नहीं आई और तब तक हम लोग स्वतन्त्र बने रहे। अब इधर जब से आपने राजा गोपालसिंह को कैद से छुड़ा कर हम लोगों को पुनः जीवनदान दिया है, तब से केवल तीन दफे राजा गोपालसिंह यहाँ आए हैं और चौथी दफे परसों मेरी शादी में यहाँ आवेंगे!

इन्द्रजीतसिंह––(चौंक कर) क्या परसों तुम्हारी शादी होने वाली है?

इन्द्रानी––(कुछ शरमा कर) जी हाँ, मेरी और (आनन्दी की तरफ इशारा करके) मेरी इस छोटी बहिन की भी।

इन्द्रजीतसिंह––किसके साथ?

इन्द्रानी––सो तो मुझे मालूम नहीं।

इन्द्रजीतसिंह––शादी करने वाले कौन हैं? तुम्हारे माँ-बाप होंगे?

इन्द्रानी––जी, मेरे माँ-बाप नहीं हैं केवल गुरुजी महाराज हैं, जिनकी आज्ञा

च॰ स॰-5-6

[ १०१ ]मुझे माँ-बाप की आज्ञा से भी बढ़ कर माननी पड़ती है।

भैरोंसिंह––(इन्द्रानी से) इस तिलिस्म के अन्दर कल-परसों में किसी और का ब्याह भी होने वाला है?

इन्द्रानी––नहीं।

भैरोंसिंह––मगर हमने सुना है।

इन्द्रानी––कदापि नहीं, अगर ऐसा होता तो हम लोगों को पहले खबर होती।

इन्द्रानी का जवाब सुनकर भैरोंसिंह ने मुस्कराते हुए कुँअर इन्द्रजीतसिंह औ आनन्दसिंह की तरफ देखा और दोनों कुमारों ने भी उसका मतलब समझ कर सिर नीचा कर लिया।

इन्द्रजीतसिंह––(इन्द्रानी से) क्या तुम लोगों में पर्दे का कुछ खयाल नहीं रहता?

इन्द्रानी––पर्दे का खयाल बहुत ज्यादा रहता है। मगर उस आदमी से पर्दे का बर्ताव करना पाप समझा जाता है, जिसको ईश्वर ने तिलिस्म तोड़ने की शक्ति दी है, तिलिस्म तोड़ने वाले को हम ईश्वर समझें, यही उचित है।

आनन्दसिंह––तो तुम राजा गोपालसिंह के पास जा सकती हो या हमारी चिट्ठी उनके पास पहुँचा सकती हो?

इन्द्रानी––मैं स्वयं राजा गोपालसिंह के पास जा सकती हूँ और अपना आदमी भी भेज सकती हूँ। मगर आजकल ऐसा करने का मौका नहीं है, क्योंकि आजकल मायारानी वगैरह खास बाग में आई हुई हैं, और उनसे तथा राजा गोपालसिंह से बदाबदी हो रही है, शायद यह बात आपको भी मालूम होगी।

इन्द्रजीतसिंह––हाँ, मालूम है।

इन्द्रानी––ऐसी अवस्था में हम लोगों का या हमारे आदमियों का वहाँ जाना अनुचित ही नहीं बल्कि दुःखदायी भी हो सकता है!

इन्द्रजीतसिंह––हाँ, सो तो जरूर है।

इन्द्रानी––मगर मैं आपका मतलब समझ गई, आप शायद उसके विषय में राजा गोपालसिंह को लिखना चाहते हैं जिसके हिस्से में किशोरी-कामिनी वगैरह पड़ी हुई हैं, मगर ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है। दो रोज सब्र कीजिए, तब तक स्वयं राजा गोपालसिंह ही यहाँ आकर आपसे मिलेंगे।

इन्द्रजीतसिंह––अच्छा, यह बताओ कि हमारी चिट्ठी किशोरी या कमलिनी के पास पहुँचवा सकती हो?

इन्द्रानी––जी हाँ, बल्कि उसका जवाब भी मँगवा सकती हूँ, मगर ताज्जुब की बात है कि कमलिनी ने आपके पास कोई पत्र क्यों नहीं भेजा? इसमें कोई सन्देह नहीं कि उन्हें आप लोगों का यहाँ आना मालूम है।

इन्द्रजीतसिंह––शायद कोई सबब होगा। अच्छा तो कमलिनी के नाम से एक चिट्ठी लिख दूँ?

इन्द्रानी––हाँ लिख दीजिये, मैं उसका जवाब मँगा दूँगी। कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने भैरोंसिंह की तरफ देखा। भैरोंसिंह ने अपने बटुए में से [ १०२ ]कलम-दवात और कागज निकाल कर कुमार के सामने रख दिया और कुमार ने कमलिनी के नाम से इस मजमून की चिट्ठी लिख और बन्द कर इन्द्रानी के हवाले कर दी––

"मेरी...कमलिनी,

यह तो मुझे मालूम ही है कि किशोरी, कामिनी, लक्ष्मीदेवी और लाड़िली वगैरह को साथ लेकर राजा गोपालसिंह की इच्छानुसार तुम यहाँ आई हो। मगर मुझे अफसोस इस बात का है कि तुम्हारा दिल जो किसी समय मक्खन की तरह मुलायम था, अब फौलाद की तरह ठोस हो गया। इस बात का तो विश्वास हो ही नहीं सकता कि तुम इच्छा करके भी मुझसे मिलने में असमर्थ हो, परन्तु इस बात का रंज अवश्य हो सकता है कि किसी तरह का कसूर न होने पर भी तुमने मुझे दूध की मक्खी की तरह अपने दिल से निकाल कर फेंक दिया। खैर, तुम्हारे दिल की मजबूती और कठोरता का परिचय तो तुम्हारे अनूठे कामों ही से मिल चुका था, परन्तु किशोरी के विषय में अभी तक मेरा दिल इस बात की गवाही नहीं देता कि वह भी मुझे तुम्हारी ही तरह अपने दिल से भुला देने की ताकत रखती है। मगर क्या किया जाय? पराधीनता की बेड़ी उसके पैरों में है और लाचारी की मुहर उसके होठों पर! अतः इन सब बातों का लिखना तो अब वृथा ही है, क्यों कि तुम अपनी आप मुख्तार हो, मुझसे मिलना चाहो, यह तुम्हारी इच्छा है, मगर अपना तथा अपने साथियों का कुशल-मंगल तो लिख भेजो, या यदि अब मुझे इस योग्य भी नहीं समझतीं तो जाने दो।

क्या कहें, किसका––इन्द्रजीत"

कुँअर आनन्दसिंह की भी इच्छा थी कि अपने दिल का कुछ हाल कामिनी और लाड़िली को लिखें। परन्तु कई बातों का खयाल कर रह गए। इन्द्रानी कुँअर इन्द्रजीतसिंह की लिखी हुई चिट्ठी लेकर उठ खड़ी हुई और यह कहती हुई अपनी बहिन को साथ लिए चली गई कि "अब मैं चिराग जलने के बाद आप लोगों से मिलूँगी, तब तक आप लोग यदि इच्छा हो तो इस बाग की सैर करें। मगर किसी मकान के अन्दर जाने का उद्योग न करें।

  1. बहुत ठीक, सत्य वचन!