चन्द्रकान्ता सन्तति 5/19.15

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चंद्रकांता संतति भाग 5  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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तिलिस्मी इमारत से लगभग दो कोस दूरी पर जंगल में पेड़ों की घनी झुरमुट के अन्दर बैठा हुआ भूतनाथ अपने दो आदमियों से बातें कर रहा है।

भूतनाथ––तो क्या तुम उनके पीछे-पीछे उस खोह के मुहाने तक चले गये थे?

एक आदमी––जी नहीं, थोड़ी देर तक तो मैं उन नकाबपोशों के पीछे-पीछे [ १८२ ]चला गया, मगर जब देखा कि वे दोनों बेफिक्र नहीं हैं बल्कि चौकन्ने होकर चारों तरफ खास करके मुझे गौर से देखते जाते हैं, तब मैं भी तरह देकर हट गया। दूसरे दिन हम लोग कई आदमी एक-दूसरे से अलग दूर-दूर बैठ गये और आखिर मेरे साथी ने उन्हें ठिकाने तक पहुँचा कर पता लगा ही लिया कि ये दोनों इस खोह के अन्दर रहते हैं। उसके बाद हम लोगों ने निश्चय कर लिया और उसी खोह के पास छिपकर मैंने स्वयं कई दफे उन लोगों को उसी के अन्दर आते-जाते देखा और यह भी जान लिया कि वे लोग दस-बारह आदमी से कम नहीं हैं।

भूतनाथ––मेरा भी यही खयाल था कि वे लोग दस-बारह से कम न होंगे, खैर जो होगा देखा जायेगा, अब मैं संध्या हो जाने पर उस खोह के अन्दर जाऊँगा, तुम लोग हमारी हिफाजत का खयाल रखना और इसके अतिरिक्त इस बात का भी पता लगाना कि जिस तरह मैं उनकी टोह में लगा हुआ हूँ, उसी तरह और कोई भी उनका पीछा करता है या नहीं।

आदमी––जो आज्ञा।

भूतनाथ––हाँ, एक बात और पूछना है। तुम लोगों ने जिन दस-बारह आदमियों को खोह के अन्दर आते-जाते देखा है वे सभी अपने चेहरे पर नकाब रखते हैं या सिर्फ दो-चार?

आदमी––जी, हम लोगों ने जितने भी आदमियों को देखा सभी को नकाबपोश पाया।

भूतनाथ––अच्छा, तो तुम अब जाओ और अपने साथियों को मेरा हुक्म सुना कर होशियार कर दो।

इतना कहकर भूतनाथ खड़ा हो गया और अपने दोनों आदमियों को बिदा करने के बाद पश्चिम की तरफ रवाना हुआ। इस समय भूतनाथ अपनी असली सुरत में न था बल्कि सूरत बदल कर अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए था।

यहाँ से लगभग कोस भर की दूरी पर उस खोह का मुहाना था, जिसका पता भूतनाथ के आदमियों ने दिया था। संध्या होने तक भूतनाथ इधर-उधर जंगल में घूमता रहा और जब अँधेरा हो गया, तब उस खोह के मुहाने पर पहुँचकर चारों तरफ देखने लगा।

यह स्थान एक घने और भयानक जंगल में था। छोटे पहाड़ के निचले हिस्से में दो-तीन आदमियों के बैठने लायक एक गुफा थी और आगे से पत्थरों के बड़े-बड़े ढोकों ने उसका रास्ता रोक रखा था। उसके नीचे की तरफ पानी का एक छोटा-सा नाला बहता जिसमें इस समय कम, मगर साफ पानी बह रहा था और उस नाले के दोनों तरफ भी पेड़ों की बहुतायत थी। भूतनाथ ने सन्नाटा पाकर उस गुफा के अन्दर पैर रखा और सुरंग की तरह रास्ता पाकर टटोलता हुआ थोड़ी दूर तक बेखटके चला गया। आगे जाकर जब रास्ता खराब मालूम हुआ, तब उसने बटुए में से मोमबत्ती निकाल कर जलाई और चारों तरफ देखने लगा। सामने का रास्ता बिल्कुल बन्द पाया अर्थात् सामने की तरफ पत्थर की दीवार थी, जो एक चबूतरे की तरह मालूम पड़ती थी, मगर वहाँ की [ १८३ ]छत इतनी ऊँची जरूर थी कि आदमी उस चबूतरे के ऊपर चढ़-कर बखूबी खड़ा हो सकता था, अतः भूतनाथ उस चबूतरे के ऊपर चढ़ गया और जब आगे की तरफ देखा तो नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ नजर आईं।

भूतनाथ सीढ़ियों की राह नीचे उतर गया और अन्त में उसने एक छोटे से दरवाजे का निशान देखा, जिसमें किवाड़-पल्ले इत्यादि की कोई जगह न थी, केवल बाएँ दाहिने और नीचे की तरफ चौखट का निशान था। दरवाजे के अन्दर पैर रखने के बाद सुरंग की तरह रास्ता दिखाई दिया, जिसे गौर से अच्छी तरह देखने के बाद भूतनाथ ने मोमबत्ती बुझा दी और टटोलता हुआ आगे की तरफ बढ़ा। थोड़ी दूर जाने के बाद सुरंग खतम हुई और रोशनी दिखाई दी। यह हल्की और नाम मात्र की रोशनी किसी चिराग या मशाल की न थी बल्कि आसमान पर चमकते हुए तारों की थी क्योंकि वहाँ से आसमान तथा सामने की तरफ मैदान का एक छोटा-सा टुकड़ा दिखाई दे रहा था।

यह मैदान आठ या दस बीघे से ज्यादा न होगा। बीच में एक छोटा-सा बंगला था, उसके आगे वाले दालान में कई आदमी बैठे हुए दिखाई देते थे तथा चारों तरफ बड़े-बड़े जंगली पेड़ों की भी कमी न थी। सन्नाटा देखकर भूतनाथ सुरंग के पार निकल गया और एक पेड़ की आड़ देकर इस खयाल में खड़ा हो गया कि मौका मिलने पर आगे की तरफ बढ़ेंगे। थोड़े ही देर में भूतनाथ को मालूम हो गया कि उसके पास ही एक पेड़ की आड़ में कोई दूसरा आदमी भी खड़ा है। यह दूसरा आदमी वास्तव में देवीसिंह था जो भूतनाथ के पीछे ही पीछे थोड़ी देर बाद यहां आकर पेड़ की आड़ में खड़ा हो गया था और वह भी सूरत बदलने के बाद अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए था इसलिए एक को दूसरे का पहचानना कठिन था।

थोड़ी ही देर बाद दो औरतें अपने-अपने हाथों में चिराग लिए बँगले के अन्दर से निकली और उसी तरफ रवाना हुई जिधर पेड़ की आड़ में भूतनाथ और देवीसिंह खड़े हुए थे। एक तो भूतनाथ और देवीसिंह का दिल इस खयाल से खुटके में था ही कि मेरे पास ही एक पेड़ की आड़ में कोई दूसरा भी खड़ा है, दूसरे इन दो औरतों को अपनी तरफ आते देख और भी घबड़ाये, मगर कर ही क्या सकते थे, क्योंकि इस समय जो कुछ ताज्जुब की बात उन दोनों ने देखी उसे देखकर भी चुप रह जाना उन दोनों की सामर्थ्य से बाहर था अर्थात् कुछ पास आने पर मालूम हो गया कि उन दोनों ही औरतों में से एक तो भूतनाथ की स्त्री है जिसे वह लामाघाटी में छोड़ आया था और दूसरी चम्पा।

भूतनाथ आगे बढ़ना ही चाहता था कि पीछे से कई आदमियों ने आकर उसे पकड़ लिया और उसी की तरह देवीसिंह भी बेकाबू कर दिये गये।