चन्द्रकान्ता सन्तति 5/19.14
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सबसे ज्यादा फिक्र भूतनाथ को इस बात के जानने की थी कि वे दोनों नकाबपोश कौन हैं और दारोगा, जयपाल तथा बेगम का उन सूरतों से क्या संबंध है जो समय-समय पर नकाबपोशों ने दिखाई थीं या हमारे तथा राजा गोपालसिंह और लक्ष्मीदेवी इत्यादि के सम्बन्ध में हम लोगों से भी ज्यादा जानकारी इन नकाबपोशों को क्योंकर हुई तथा ये दोनों वास्तव में दो ही हैं या कई।
इन्हीं बातों के सोच-विचार में भूतनाथ का दिमाग चक्कर खा रहा था। यों तो उस दरबार में जितने भी आदमी थे, सभी उन दोनों नकाबपोशों का हाल जानने के लिए बेताब हो रहे थे और दरबार बर्खास्त होने तथा अपने डेरे पर जाने बाद भी हर एक आदमी इन्हीं दोनों नकाबपोशों का खयाल और फिक्र करता था, मगर किसी की हिम्मत यह न होती थी कि उनके पीछे-पीछे जाय। हाँ, ऐयार और जासूस लोग जिनकी प्रकृति ही ऐसी होती है कि खामख्वाह भी लोगों के भेद जानने की कोशिश किया करते हैं, उन दोनों नकाबपोशों का हाल जानने के फेर में पड़े हुए थे।
भूतनाथ का डेरा यद्यपि तिलिस्मी इमारत के अन्दर बलभद्रसिंह के साथ था, मगर वास्तव में वह अकेला न था। भूतनाथ के पिछले किस्से से पाठकों को मालूम हो चुका होगा कि उसके साथी नौकर, सिपाही या जासुस लोग कम न थे जिनसे वह समय- समय पर काम लिया करता था और जो उसके हाल-चाल की खबर बराबर रखा करते थे। अब यह कह देना आवश्यक है कि यहां भी भूतनाथ के बहुत-से आदमी धीरे-धीरे आ गये हैं जो सूरत बदलकर चारों तरफ घूमते और उसकी जरूरतों को पूरा करते हैं और उनमें से दो आदमी खास तिलिस्मी इमारत के अन्दर उसके साथ ही रहते हैं जिन्हें भूतनाथ ने अपने खिदमतगार कहकर अपने पास रख लिया है और इस बात को बलभद्रसिंह भी जानते हैं।
दरबार बर्खास्त होने के बाद भूतनाथ और बलभद्रसिंह अपने डेरे पर गये और कुछ जलपान इत्यादि से छुट्टी पाकर यों बातचीत करने लगे––
बलभद्रसिंह––ये दोनों नकाबपोश तो बड़े ही विचित्र मालूम पड़ते हैं।
भूतनाथ––क्या कहें अक्ल कुछ काम ही नहीं करती। मजा तो यह है कि वे हमी लोगों की बातों को हम लोगों से भी ज्यादा जानते और समझते हैं।
बलभद्रसिंह––बेशक, ऐसा ही है।
भूतनाथ––यद्यपि अभी तक इन नकाबपोशों ने मेरे साथ बुरा बर्ताव नहीं किया, बल्कि एक तौर पर मेरा पक्ष ही करते रहे हैं तथापि मेरा कलेजा डर के मारे सूखा जाता है, यह सोचकर कि जिस तरह आज मेरी स्त्री की एक गुप्त बात इन्होंने प्रकट कर दी, जिसे मैं भी नहीं जानता था, उसी तरह कहीं मेरी उस सन्दूकड़ी का भेद भी न खोल दें, जो जयपाल की दी हुई अभी तक राजा साहब के पास अमानत रखी है और जिसके खयाल ही से मेरा कलेजा हरदम काँपा करता है।
बलभद्रसिंह––ठीक है, मगर मेरा खयाल है कि नकाबपोश तुम्हारी उस सन्दूकड़ी का भेद न तो खुद ही खोलेंगे और न खुलने ही देंगे।
भूतनाथ––सो कैसे?
बलभद्रसिंह––क्या तुम उन बातों को भूल गये जो एक नकाबपोश ने भरे दरबार तुम्हारे लिए कही थीं? क्या उसने नहीं कहा था कि भूतनाथ ने जैसे-जैसे काम किए हैं उनके बदले में उसे मुँहमांगा इनाम देना चाहिए और क्या इस बात को महाराज ने भी स्वीकार नहीं किया था?
भूतनाथ––ठीक है, तो इसके कहने से शायद आपका मतलब यह है कि मुँहमांगे इनाम के बदले में मैं उस सन्दूकड़ी को भी पा सकता हूँ?
बलभद्रसिंह––बेशक ऐसा ही है और उन नकाबपोशों ने भी इसी खयाल से वह
च॰ स॰-5-11
भूतनाथ––मेरे दिल ने भी उस समय यही कहा था, मगर दो बातों के ख्याल से मुझे प्रसन्न होने का समय नहीं मिलता।
बलभद्रसिंह––वह क्या?
भूतनाथ––एक तो यही कि मुकदमा होने के पहले इनाम में उस सन्दूकड़ी के माँगने का मौका मुझे मिलेगा या नहीं, और दूसरे यह कि नकाबपोश ने इस समय यह बात सच्चे दिल से कही थी या केवल जयपाल को सुनाने की नीयत से। साथ ही इसके एक बात और भी है।
बलभद्रसिंह––वह भी कह डालो।
भूतनाथ––आज आखिरी मर्तबे दूसरे नकाबपोश ने जो सूरत दिखाई थी उसके बारे में मुझे कुछ भ्रम-सा होता है। शायद मैंने उसे कभी देखा है, मगर कहाँ और कब, सो नहीं कह सकता।
बलभद्रसिंह––हाँ, उस सूरत के बारे में तो अभी तक मैं भी गौर कर रहा हूँ, मगर अक्ल तब तक कुछ ठीक काम नहीं कर सकती, जब तक उन नकाबपोशों का कुछ हाल मालूम न हो जाये।
भूतनाथ––मेरी तो यही इच्छा होती है कि उनका असल हाल जानने के लिए उद्योग करूँ, बल्कि कल मैं अपने आदमियों को इस काम के लिए मुस्तैद भी कर चुका हूँ।
बलभद्रसिंह––अगर कुछ पता लगा सको तो बहुत ही अच्छी बात है, सच तो यही है कि मेरा दिल भी खुटके से खाली नहीं है।
भूतनाथ––इस समय से संध्या तक और इसके बाद रात भर मुझे छुट्टी है, यदि आप आज्ञा दें तो मैं जवाब दे लूँगा।
बलभद्रसिंह––कोई चिन्ता नहीं, तुम जाओ! अगर महाराज का कोई आदमी खोजने आवेगा, तो मैं इस फिक्र में जाऊँ।
भूतनाथ––बहुत अच्छा। इतना कहकर भूतनाथ उठा और अपने दोनों आदमियों में से एक को साथ लेकर मकान के बाहर हो गया।