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चन्द्रकान्ता सन्तति 5/19.8

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चंद्रकांता संतति भाग 5
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ १५८ से – १६४ तक

 

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यद्यपि चुनारगढ़ वाले तिलिस्मी खँडहर की अवस्था ही जीतसिंह ने बदल दी और अब वह आला दर्जे की इमारत बन गई है मगर उसके चारों तरफ दूर-दूर तक जो जंगलों की शोभा थी उसमें किसी तरह की कमी उन्होंने न होने दी।

सुबह का सुहावना समय है और राजा सुरेन्द्रसिंह, वीरेन्द्रसिंह, जीतसिंह तथा तेजसिंह वगैरह धुर ऊपर वाले कमरे में बैठे जंगल की शोभा देखने के साथ-ही-साथ आपस में धीरे-धीरे बात भी करते जाते हैं। जंगलीं पेड़ों के पत्तों से छनी और फूलों की महक से सुगन्धित हुई दक्षिणी हवा के झपेटे आ रहे हैं और रात-भर की चुप बैठी हुई तरह-तरह की चिड़ियाएँ सवेरा होने की खुशी में अपनी सुरीली आवाजों से लोगों का जी लुभा रही हैं। स्याह-तीतर अपनी मस्त और बँधी हुई आवाज़ से हिन्दू-मुसलमान कुँजड़ों और कस्साबों में झगड़ा पैदा कर रहे हैं। मुसलमान कहते हैं कि तीतर साफ आवाज में यही कह रहा है कि 'सुब्हान तेरी कुदरत' मगर हिन्दू इस बात को स्वीकार नहीं करते और कहते हैं कि यह स्याह तीतर 'राम लक्ष्मण दशरथ' कहकर अपनी भक्ति का परिचय दे रहा है। कुँजड़े इसे भी नहीं मानते और उसकी बोली का मतलब 'मूली, प्याज अदरक' समझकर अपना दिल खुश कर रहे हैं, परन्तु कस्साबों को सिवाय इसके और कुछ नहीं सूझता कि यह तीतर 'कर जबह और ढक रख' का उपदेश दे रहा है।

इसी समय देवीसिंह भी वहाँ आ पहुँचे और भूतनाथ और बलभद्रसिंह के हाजिर होने की इत्तिला दी। इच्छानुसार दोनों ने सामने आकर सलाम किया और फर्श पर बैठने के बाद इशारा पाकर भूतनाथ ने तेजसिंह से कहा––

भूतनाथ––(बलभद्रसिंह की तरफ इशारा करके) इनका हाल सुनने के लिए जी बेचैन हो रहा है, मैं इनसे कई दफे चुका हूँ मगर ये कुछ कहते नहीं।

तेजसिंह––(बलभद्रसिंह से) अब तो आपकी तबीयत ठिकाने हो गई होगी?

बलभद्रसिंह––जी हाँ, अब मैं बहुत अच्छा हूँ और अपना हाल कहने के लिए तैयार हूँ।

तेजसिंह––अच्छी बात है, हम लोग भी सुनने के लिए तैयार हैं और आप ही का इन्तजार कर रहे थे।

सभी का ध्यान बलभद्रसिंह की तरफ खिच गया और बलभद्रसिंह ने अपने गायब होने का हाल इस तरह कहना शुरू किया––

"इस बात की तो मुझे कुछ भी खबर नहीं कि मुझे कौन ले गया और क्यों कर ले गया। उस दिन मैं भूतनाथ के पास ही एक चारपाई पर सो रहा था और जब मेरी आँख खुली तो मैंने अपने को एक हरे-भरे और खूबसूरत बाग में पाया। उस समय मैं बिल्कुल मजबूर था अर्थात् मेरे हाथों में हथकड़ी और पैरों में बेड़ी पड़ी हुई थी और एक औरत नंगी तलवार लिए मेरे सामने खड़ी थी। मैंने सोचा कि अब मेरी जान नहीं बचती और मेरे भाग्य में कैदी बनकर जान देना ही बदा है। बहुत-सी बातें सोच-विचार के मैंने उस औरत से पूछा कि 'तू कौन है और मैं यहाँ क्योंकर पहुँचा हूँ?" जिसके जवाब में उस औरत ने कहा कि 'तुझे मैं यहाँ ले आई हूँ और इस समय तू मेरा कैदी है। मैं जिस मुसीबत में फँसी हुई हूँ उससे छुटकारा पाने के लिए इसके सिवाय और कोई तरकीब न सूझी कि तुझे अपने कब्जे में करके अपने छुटकारे की सूरत निकालूँ, क्योंकि मेरा दुश्मन तेरे ही कब्जे में है। अगर तू उसे समझा-बुझाकर राह पर ले आवेगा तो मेरे साथ-साथ तेरी जान भी बच जायगी।'

उस औरत की बातें सुनकर मुझे बड़ा ही ताज्जुब हुआ और मैंने उससे पूछा, "वह कौन है जो तेरा दुश्मन है और है और मेरे कब्जे में है?"

औरत––तेरी बेटी कमलिनी मेरे साथ दुश्मनी कर रही है।

मैं––क्यों?

औरत––उसकी खुशी, मैंने तो उसका कुछ नुकसान नहीं किया।

मैं––आखिर दुश्मनी का कोई सबब भी तो होगा?

औरत––अगर कोई सबब है तो केवल इतना ही कि वह भूतनाथ का पक्ष करती है और मुझे भूतनाथ का दुश्मन समझती है। मगर मैं कसम खाकर कहती हूँ कि मुझे भूतनाथ से जरा भी रंज नहीं है बल्कि मैं भूतनाथ को अपना मददगार और भाई समझती हूँ। और मुझे भूतनाथ से किसी तरह का रंज होता तो मैं तुझे गिरफ्तार करके न लाती बल्कि भूतनाथ ही को ले आती, क्योंकि जिस तरह मैं तुझे उठा लाई हूँ उसी तरह भूतनाथ को भी उठा ला सकता थी। खैर, अब मैं चाहती हूँ कि तू एक चिट्ठी कमलिनी के नाम की लिख दे कि वह मेरे साथ दुश्मनी का बर्ताव न करे। अगर तू अपनी कसम दे के यह बात कमलिनी को लिख देगा तो वह जरूर मान जायगी।

मैंने कई तरह से, उलट-फेर के, कई तरह की बातें उस औरत पूछी मगर साफ-साफ न मालूम हुआ कि कमलिनी उसके साथ दुश्मनी क्यों करती है। इसके अतिरिक्त मुझे इस बात का भी निश्चय हो गया कि जब तक मैं कमलिनी के नाम की चिट्ठी न लिख दूँगा तब तक मेरी जान को छुट्टी न मिलेगी। चिट्ठी लिखने से इनकार करने के कारण कई दिनों तक मैं उसका कैदी बना रहा, आखिर लाचार हो मैंने उसकी इच्छानुसार पत्र लिख दिया, तब उसने बेहोशी की दवा सुँघाकर मुझे बेहोश किया और उसके बाद जब मेरी आँख खुली तो मैंने अपने को आपके सामने पाया।

भूतनाथ––आपको यह नहीं मालूम हुआ कि उस औरत का नाम क्या था?

बलभद्रसिंह––मैंने कई दफे नाम पूछा मगर उसने न बताया।

मालूम होता है कि बलभद्रसिंह ने अपना जो कुछ बयान किया उस पर हमारे राजा साहब या ऐयारों को विश्वास न हुआ मगर उसकी खातिर से तेजसिंह ने कह दिया कि "ठीक है, ऐसा ही होगा।"

बलभद्रसिंह और भूतनाथ को राजा साहब बिदा किया ही चाहते थे कि उसी समय इन्द्रदेव के आने की इत्तिला मिली। आज्ञानुसार इन्द्रदेव हाजिर हुए और सभी को सलाम करने के बाद इशारा पाकर तेजसिंह की बगल में बैठ गए।

इन्द्रदेव के आने से हमारे राजा साहब और ऐयारों को खुशी हुई और इसीलिए पन्नालाल, रामनारायण और पं॰ बद्रीनाथ वगैरह हमारे बाकी के ऐयार लोग भी जो इस समय यहाँ हाजिर और इस इमारत के बाहरी तरफ टिके हुए थे, इन्द्रदेव के साथ-ही-साथ राजा साहब के पास आ पहुँचे क्योंकि इन्द्रदेव, बलभद्रसिंह और भूतनाथ का अनूठा हाल जानने के लिए सभी बेचैन हो रहे थे और खास करके भूतनाथ के मुकदमे से तो सभी को दिलचस्पी थी। इसके अतिरितत इन्द्रदेव अपने साथ दो कैदी अर्थात् नकली बलभद्रसिंह और नागर को भी लाए थे और बोले थे कि "काशिराज के भेजे हुए और भी कई कैदी थोड़ी देर में हाजिर होना चाहते हैं" जिस कारण हमारे ऐयारों की दिलचस्पी और भी बढ़ रही थी।

सुरेन्द्रसिंह––तुम्हारे आने से हम लोगों को बड़ी प्रसन्नता हुई। इन्द्रजीत और गोपालसिंह तुम्हारी बड़ी प्रशंसा करते हैं और वास्तव में तुमने जो कुछ किया है, वह प्रशंसा के योग्य भी है।

इन्द्रदेव––(हाथ जोड़कर) मैं तो किसी योग्य भी नहीं हूँ और न कोई काम हीं मेरे हाथ में ऐसा निकला जिससे महाराज के गुलाम के बराबर भी अपने को समझने की प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकूँ––हाँ दुर्दैव ने जो कुछ मेरे साथ बर्ताव किया उसके सबब से मुझ अभागे को जो कष्ट भोगने, पड़े उन्हें सुनकर दयालु महाराज को मुझ पर दया आवश्य आई होगी।

सुरेन्द्रसिंह––हम लोग ईश्वर को धन्यवाद देते हैं जिसकी कृपा से एक विचित्र और अनूठी घटना के साथ तुम्हारी स्त्री और लड़की का पता लग गया और तुमने उन दोनों को जीती-जागती देखा।

इन्द्रदेव––यह सब-कुछ आपके और कुमारों के चरणों की बदौलत हुआ। वास्तव में तो मैं भाड़े की जिन्दगी बिताता हुआ दुनिया से विरक्त ही हो चुका था। अब भी वे दोनों आप लोगों के चरणों की धूल आँखों में लगा लेंगी, तभी मेरी प्रसन्नता का कारण होंगी। आशा है कि आज ही या कल तक राजा गोपाल सिंह भी उन दोनों तथा किशोरी, कामिनी लक्ष्मीदेवी, कमलिनी, लाड़िली और कमला इत्यादि को लेकर यहाँ आवें और महाराज के चरणों का दर्शन करेंगे। सुरेन्द्रसिंह––(आश्चर्य और प्रसन्नता के साथ) हाँ! क्या गोपाल ने तुम्हें कुछ लिखा है?

इन्द्रदेव––जी हाँ, उन्होंने मुझे लिखा है कि "मैं शीघ्र ही उन सभी को लेकर महाराज की सेवा में उपस्थित होना चाहता हूँ, तुम भी अपने दोनों कैदी नकली बलभद्रसिंह और नागर को लेकर काशिराज से मिलते हुए चुनार जाओ और काशिराज ने हम पर कृपा करके हमारे जिन दुश्मनों को कैद कर रक्खा है अर्थात् बेगम, जमालो और नौरतन वगैरह को भी अपने साथ लेते जाओ। अतः इस समय उन्हीं के लिखे अनुसार मैं सेवा में उपस्थित हुआ हूँ!

सुरेन्द्रसिंह––(उत्कण्ठा के साथ) तो क्या तुम उन लोगों को भी अपने साथ लेते आए हो?

इन्द्रदेव––जी हाँ और उन सभी को बाहर सरकारी सिपाहियों की सुपुर्दगी में छोड़ आया हूँ। बेगम वगैरह का हाल तो काशिराज ने महाराज को लिखा होगा!

सुरेन्द्रसिंह––हाँ, काशिराज ने गोपालसिंह को यह लिखा था कि "तुम्हारे ऐयार भूतनाथ के निशान देने के मुताबिक बलभद्रसिंह के दुश्मन गिरफ्तार कर लिए गए हैं और मनोरमा का मकान भी जब्त कर लिया गया है।" गोपालसिंह ने यह समाचार मुझको लिखा था। इन्द्रदेव ठीक है तो अब उन कैदियों के लिए भी उचित प्रबन्ध कर देना चाहिए जिन्हें मैं अपने साथ लाया हूँ।

सुरेन्द्रसिंह––उसका प्रबन्ध बद्रीनाथ कर चुके होंगे क्योंकि कैदियों का इन्तजाम उन्हीं के सुपुर्द है।

बद्रीनाथ––(इन्द्रदेव से) उनके लिए आप तरद्दुद न करें क्योंकि वे लोग अपने उचित स्थान पर पहुँचा दिए गए।

पन्नालाल––(सुरेन्द्र से भूतनाथ और बलभद्रसिंह की तरफ बताकर) मगर इन दोनों महाशयों में से जिनकी खातिरदारी मेरे सुपुर्द की गई, यह बलभद्रसिंह जी कहते हैं कि मैं महाराज का अन्न न खाऊँगा बल्कि अपने आराम की कोई चीज भी यहाँ से न लूँगा क्योंकि अब यह बात मालूम हो चुकी है कि राजा गोपालसिंह महाराज के पोते हैं और...

सुरेन्द्रसिंह––ठीक है, ठीक है, वास्तव में ऐसा ही होना चाहिए। (बलभद्रसिंह से) मगर आप बहुत ही मुसीबत और कैद से छूटकर आए हैं इसलिए आपके पास रुपये पैसे की जरूर कमी होगी, फिर आप क्योंकर अपने लिए हर तरह का सामान जुटा सकेंगे?

बलभद्रसिंह––मैं भी इसी फिक्र में डूबा हुआ था मगर ईश्वर ने बड़ी कृपा की जो मेरे प्यारे मित्र इन्द्रदेव को यहाँ भेज दिया। अब मुझे किसी तरह की तकलीफ न होगी, जो कुछ जरूरत पड़ेगी मैं इनसे ले लूँगा। फिर इसके बाद मुझे यह भी आशा है कि दुष्टों का मुकदमा हो जाने पर बेगम के कब्जे से निकली हुई मेरी दौलत भी मुझे मिल जायगी। इन्द्रदेव––(हाथ जोड़कर महाराज सुरेन्द्रसिंह से) मेरे मित्र बलभद्रसिंह जो कुछ कह रहे हैं ठीक है और आशा है कि महाराज भी इस बात को स्वीकार कर लेंगे।

सुरेन्द्रसिंह––(पन्नालाल से) खैर ऐसा ही किया जाय, इन्द्रदेव का डेरा बलभद्रसिंह के साथ ही करा दो जिसमें ये दोनों मित्र प्रसन्नता से आपस में बातें करते रहें।

इन्द्रदेव––(हाथ जोड़कर) मैं भी यही अर्ज किया चाहता था। आज न मालूम किस तरह, कितने दिनों के बाद मुझे ईश्वर ने मित्र-दर्शन का सुख दिया है, सो भी ऐसे मित्र का दर्शन जिसके मिलने की आशा कर ही नहीं सकते थे और इसके लिए हम लोग भूतनाथ के बड़े ही कृतज्ञ हैं।

भूतनाथ––यह सब महाराज के चरणों का प्रताप है जिनके सदैव दर्शन के लोभ से महाराज का कुछ न बिगाड़ने पर भी मैं अपने को दोषी बनाए और भगवती की कृपा पर भरोसा किए बैठा हुआ हूँ।

इन्द्रदेव––(महाराज की तरफ देख के) वास्तव में ऐसा ही है। अभी तक जो कुछ मालूम हुआ है उससे तो यही जाना जाता है कि भूतनाथ ने महाराज के यहाँ एक दफे चोरी करने के अतिरिक्त और कोई काम ऐसा नहीं किया जिससे महाराज या महाराज के सम्बन्धियों को दुःख हो––

भूतनाथ––(लज्जा से नीची गर्दन करके) और सो भी बदनीयती के साथ नहीं!

इन्द्रदेव––आगे चलकर और कोई बात जानी जाय तो मैं नहीं कह सकता, मगर––

भूतनाथ––ईश्वर न करे, ऐसा हो।

वीरेन्द्रसिंह––भूतनाथ ने अगर हम लोगों का कोई कसूर किया भी हो तो अब हम लोग उस पर ध्यान नहीं दे सकते, क्योंकि रोहतासगढ़ के तहखाने में मैं भूतनाथ का कसूर माफ कर चुका हूँ।

भूतनाथ––ईश्वर आपका सहायक रहे!

इन्द्रदेव––लेकिन अगर भूतनाथ ने किसी ऐसे के साथ बुरा बर्ताव किया हो जिससे आज के पहले महाराज का कोई सम्बन्ध न था तो उस पर भी महाराज को विशेष ध्यान न देना चाहिए। तेजसिंह जी हाँ, मगर इसमें कोई शक नहीं कि भूतनाथ की रहस्यमय जीवनी अनेक अद्भुत अनूठी और दुःखद घटनाओं से भरी हुई है। मैं समझता हूँ कि भूतनाथ ने लोगों के दिल पर अपना भयानक प्रभाव तो पैदा किया, परन्तु अपने कामों की बदौलत अपने को सुखी न बना सका, उलटा इसने जमाने को दिखा दिया कि प्रतिष्ठा और सभ्यता का पल्ला छोड़कर केवल लक्ष्मी काक्षकृपा-पात्र बनने के लिए उद्योग और उत्साह दिखाने वाले का परिणाम कैसा होता है।

इन्द्रदेव––निःसन्देह ऐसा ही है। अगर भूतनाथ उसके साथ-ही-साथ प्रतिष्ठा का पल्ला भी मजबूती के साथ पकड़े होता और इस बात पर ध्यान रखता कि जो कुछ करे वह इसकी प्रतिष्ठा के विरुद्ध न होने पावे तो आज दुनिया में भूतनाथ तीसरे दर्जे का ऐयार कहा जाता। जीतसिंह––(मुस्कुराकर) मगर सुना जाता है कि अब भूतनाथ इज्जत और हुर्मत की मीनार पर चढ़कर दुनिया की सैर किया चाहता है और यह बात देवताओं को भी वश में कर लेने वाले मनुष्य की सामर्थ्य से बाहर नहीं।

इन्द्रदेव––अगर सिफारिश न समझी जाय तो मैं यह कहने का हौसला कर सकता हूँ कि दुनिया में इज्जत और हुर्मत उसी को मिल सकती है, जो इज्जत और हुर्मत का उचित बर्ताव करता हुआ किसी बड़े इज्जत और हुर्मत वाले का कृपापात्र बने।

देवीसिंह––भूतनाथ का खयाल भी आजकल इन्हीं बातों पर है। मैंने बहुत दिनों तक छिपे-छिपे भूतनाथ का पीछा करके जान लिया है कि भूतनाथ को होशियारी, चालाकी और ऐयारी की विद्या के साथ-ही-साथ दौलत की भी कमी नहीं है। अगर यह चाहे तो बेफिक्री के साथ अमीराना ढंग पर अपनी जिन्दगी बिता सकता है, मगर भूतनाथ इसे पसन्द नहीं करता और खूब समझता है कि वह सच्चा सुख जो प्रतिष्ठा, सभ्यता और सज्जनता के साथ सज्जन और मित्र-मण्डली में बैठ कर हँसने-बोलने से प्राप्त होता है और ही कोई वस्तु है और उसके बिना मनुष्य का जीवन वृथा है।

बलभद्रसिंह––बेशक, यही सबब है कि आजकल भूतनाथ अपना समय ऐसे ही कामों और विचारों में बिता रहा है और चाहता है कि आईने में अपना चेहरा बेदाग उसी तरह देख सके जिस तरह हीरा निर्मल जल में, मगर इसके लिए भूतनाथ को अपने पुराने मालिक से भी मदद लेनी चाहिए।

इन्द्रदेव––(कुछ चौंक कर) हाँ, मैं यह निवेदन करना तो भूल ही गया कि आज ही कल में यहाँ रणधीरसिंह भी आने वाले हैं, अस्तु, उनके लिए महाराज को प्रबन्ध कर देना चाहिए।

यह एक ऐसी बात थी जिसने भूतनाथ को चौंका दिया और वह थोड़ी देर के लिए किसी गम्भीर चिन्ता में निमग्न हो गया, मगर उद्योग करके उसने शीघ्र ही अपने दिल को सम्हाला और कहा––

भूतनाथ––क्योंकि वे महाराज के मेहमान बनकर इस मकान में रहना कदाचित कार न करेंगे।

जीतसिंह––ठीक है, तो उनके लिए दूसरा प्रबन्ध किया किया जायगा।

इन्द्रजीतसिंह––उनका आदमी उनके लिए खेमा वगैरह सामान लेकर आता ही होगा।

जीतसिंह––(इन्द्रदेव से) हमारे पास कोई इत्तिला तो नहीं आई!

इन्द्रदेव––जी, यह काम भी मेरे ही सुपुर्द किया गया था।

जीतसिंह––तो क्या तुम्हारे पास उनका कोई आदमी या पत्र आया था?

इन्द्रजीतसिंह––जी नहीं, वे स्वयं राजा गोपालसिंह के पास यह सुनकर गये थे कि माधवी उन्हीं के यहाँ कैद है, क्योंकि उन्होंने अपने हाथ से माधवी को मार डालने का प्रण किया था...

सुरेन्द्रसिंह––(ताज्जुब से) तो क्या उन्होंने माधवी को अपने हाथों से मारा?

इन्द्रजीतसिंह––जी नहीं, अपने खानदान की एक लड़की को मार कर हाथ रंगने की बनिस्बत उन्होंने प्रतिज्ञा भंग करना उत्तम समझा, उस समय मैं भी वहाँ था।

भूतनाथ––(सुरेन्द्रसिंह से हाथ जोड़कर) यदि मुझे आज्ञा हो तो खेमा वगैरह खड़ा करने का इन्तजाम मैं करूँ और समय पर अगवानी के लिए कुछ दूर जाकर अपना कलंकित मुख उनको दिखाऊँ! यद्यपि मैं इस योग्य नहीं हूँ और न वे मेरी सूरत देखना पसन्द ही करेंगे। मगर उनके नमक से पला हुआ यह शरीर उनसे दुरदुराया जाकर भी अपनी प्रतिष्ठा ही समझेगा।

सुरेन्द्रसिंह––ठीक है, मगर उनकी इच्छा के विरुद्ध ऐसा करने की आज्ञा हम नहीं दे सकते। हाँ, यदि तुम अपनी इच्छा से ऐसा करो तो हम रोकना भी उचित नहीं समझेंगे।

ये बातें हो ही रही थी कि जमानिया से राजा गोपालसिंह के कूच करने की इत्तिला मिली, इस तौर पर कि––"किशोरी, कामिनी और लक्ष्मीदेवी वगैरह को लिए राजा गोपालसिंह चले आ रहे हैं।"