सामग्री पर जाएँ

चन्द्रकान्ता सन्तति 5/20.7

विकिस्रोत से
चंद्रकांता संतति भाग 5
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ २०७ से – २११ तक

 

7

डेरे पर पहुँच कर स्नान करने और पोशाक बदलने के बाद देवीसिंह सबसे पहले राजा वीरेन्द्रसिंह के पास गये और उसी जगह तेजसिंह से भी मुलाकात की। पूछने पर देवीसिंह ने अपना और भूतनाथ का कुल हाल बयान किया जो कि हम ऊपर के बयानों में लिख आये हैं। उस हाल को सुनकर वीरेन्द्र सिंह और तेजसिंह को कई दफा हँसने और ताज्जुब करने का मौका मिला और अन्त में वीरेन्द्रसिंह ने कहा, "अच्छा किया जो तुम भूतनाथ को छोड़कर यहाँ चले आये। तुम्हारे न रहने के कारण नकाबपोशों के आगे हम लोगों को मिन्दा होना पड़ा।"

देवीसिंह––(ताज्जुब से) क्या वे लोग वहाँ आये थे? वीरेन्द्रसिंह––हाँ, वे दोनों अपने मामूली वक्त पर यहाँ आये थे और तुम दोनों का पीछा करने पर ताज्जुब और अफसोस करते थे, साथ ही इसके उन्होंने यह भी कहा था कि वे दोनों ऐयार हमारे मकान तक नहीं पहुँचे।

देवीसिंह––वे लोग जो चाहें सो कहें, मगर मेरा खयाल यही है कि हम दोनों उन्हीं के मकान में गए थे।

वीरेन्द्रसिंह––खैर, जो हो मगर उन नकाबपोशों का यह कहना बहुत ठीक है कि जब हम लोग समय पर अपना हाल आप ही कहने के लिए तैयार हैं, तो आपको हमारा भेद जानने के लिए उद्योग नहीं करना चाहिए!

देवीसिंह––बेशक उनका कहना ठीक है मगर क्या किया जाय, ऐयारों की तबीयत ही ऐसी चंचल होती है कि किसी भेद को जानने के लिए वे देर तक या कई दिनों तक सब नहीं कर सकते। यद्यपि भूतनाथ इस बात को खूब जानता है कि वे दोनों नकाबपोश उसके पक्षपाती हैं और पीछा करके उनका दिल दुखाने का नतीजा शायद अच्छा न निकले मगर फिर भी उसकी तबीयत नहीं मानती, तिस पर कल की बेइज्जती और अपनी स्त्री को वहाँ न देखता तो निःसन्देह मेरे साथ वापस चला आता और उन लोगों का पीछा करने का खयाल अपने दिल से निकाल देता।

तेजसिंह––खैर, कोई चिन्ता नहीं, वे नकाबपोश खुशदिल नेक और हमारे प्रेमी मालूम होते हैं, इसलिए आशा है कि भूतनाथ को अथवा तुम्हारे किसी आदमी को कोई तकलीफ पहुँचाने का खयाल न करेंगे।

वीरेन्द्रसिंह––हमारा भी यही खयाल है। (देवीसिंह से मुस्कुराकर) तुम्हारा दिल भी तो अपनी बीवी साहेबा को देखने के लिए बेताब हो रहा होगा?

देवोसिंह––बेशक मेरे दिल में धुक-धुकी सी लगी हुई है और मैं चाहता हूँ कि किसी तरह आपकी बात पूरी हो तो महल में जाऊँ।

वीरेन्द्रसिंह––मगर हमसे तो तुमने पूछा ही नहीं कि तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारी बीवी महल में थी या नहीं

देवीसिंह––(हँसकर) जी आपसे पूछने की मुझे कोई जरूरत नहीं और न मुझे विश्वास ही है कि आप इस बारे में मुझसे सच बोलेंगे।

वीरेन्द्रसिंह––(हँसकर) खैर, मेरी बातों पर भले विश्वास न करो और महल में जाकर अपनी रानी को देखो। मैं भी उसी जगह पहुँचकर तुम्हें इस बेऐतवारी का मजा चखाता हूँ!

इतना कहकर राजा वीरेन्द्रसिंह उठ खड़े हुए और देवीसिंह भी हँसते हुए वहाँ से चले गये।

महल के अन्दर अपने कमरे में एक कुर्सी पर बैठी चम्पा रोहतासगढ़ की पहाड़ी और किले की तस्वीर दीवार के ऊपर बना रही है और उसकी दो लौंडियाँ हाथ में मोमी शमादान लिए हुए रोशनी दिखा कर इस काम में उसकी मदद कर रही हैं। चम्पा का मुँह दीवार की तरफ और पीठ सदर दरवाजे की तरफ है। दोनों लौंडियाँ भी उसी की तरह दीवार की तरफ देख रही हैं इसलिए चम्पा तथा उसकी लौंडियों को इस बात की कुछ भी खबर नहीं कि देवीसिंह धीरे-धीरे पैर दबाते हुए इस कमरे में आकर दूर से और कुछ देर से उनकी कार्रवाई देखते हुए ताज्जुब कर रहे हैं। चम्पा तस्वीर बनाने के काम में बहुत ही निपुण और शीघ्र काम करने वाली थी तथा उसे तस्वीरों के बनाने का शौक भी हद से ज्यादा था। देवीसिंह ने उसके हाथ की बनाई हुई सैकड़ों तस्वीरें देखी थीं, मगर आज की तरह ताज्जुब करने का मौका उन्हें आज के पहले नहीं मिला था। ताज्जुब इसलिए कि इस समय जिस ढंग की तस्वीरें चम्पा बना रही थी ठीक उठी ढंग की तस्वीरें देवीसिंह ने भूतनाथ के साथ जाकर नकाबपोशों के मकान में दीवार के ऊपर बनी हुई देखी थीं। कह सकते हैं कि एक स्थान या इमारत की तस्वीर अगर दो कारीगर बनावें तो सम्भव है कि एक ढंग की तैयार हो जायें मगर यहाँ यही बात न थी। नकाबपोशों के मकान में रोहतासगढ़ पहाड़ी की जो तस्वीर देवीसिंह ने देखी थी, उसमें दो नकाबपोश सवार पहाड़ी के ऊपर चढ़ते हुए दिखलाये गये थे जिनमें से एक का घोड़ा मुश्की और दूसरे का सब्जा था। इस समय जो तस्वीर चम्पा बना रही थी, उसमें भी उसी ठिकाने उसी ढंग के दो सवार इसने बनाये थे और उसी तरह इन दोनों सवारों में से भी एक का घोड़ा मुश्की और दूसरे का सब्जा था। देवीसिंह का खयाल है कि यह बात इत्तिफाक से नहीं हो सकती।

ताज्जुब के साथ उस तस्वीर को देखते हुए देवी सिंह सोचने लगे, 'क्या यह तस्वीर इसने यों ही अन्दाज से तैयार की है? नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। अगर यह तस्वीर इसने अन्दाज से बनाई होती तो दोनों सवार और घोड़े ठीक उसी रंग के न बनते जैसा कि मैं उन नकाबपोशों के यहाँ देख आया हूँ। तो क्या यह वास्तव में उन नकाबपोशों के यहां गई थी? बेशक गई होगी, क्योंकि उस तस्वीर के देखे बिना उसके जोड़ की तस्वीर यह बना नहीं सकती, मगर इस तस्वीर के बनाने से साफ जाहिर होता है कि यह अपनी उन नकाबपोशों के यहाँ जाने वाली बात गुप्त रखना भी नहीं चाहती, मगर ताज्जुब है कि जब इसका ऐसा खयाल है तो वहाँ (नकाबपोशों के घर पर) मुझे देखकर छिप क्यों गई थी? खैर, अब बातचीत करने पर जो कुछ भेद है सब मालूम हो जायगा।

यह सोचकर देवीसिंह दो कदम आगे बढ़े ही थे कि पैरों की आहट पाकर चम्पा चौंकी और घूमकर पीछे देखने लगी। देवीसिंह पर निगाह पड़ते ही कूची और रंग की प्याली जमीन पर रख कर उठ खड़ी हुई और हाथ जोड़कर प्रणाम करने के बाद बोली, "आप सफर से लौट कर कब आये?"

देवीसिंह––(मुस्कुराते हुए) चार-पाँच घण्टे हुए होंगे, मगर यहाँ भी मैं आधी घड़ी से तमाशा देख रहा हूँ।

चम्पा––(मुस्कुराती हुई) क्या खूब! इस तरह चोरी से ताक-झाँक करने की क्या जरूरत थी?

देवीसिंह––इस तस्वीर और इसकी बनावट को देखकर मैं ताज्जुब कर रहा था और तुम्हारे काम में हर्ज डालने का इरादा नहीं होता था।

चम्पा––(हँसकर) बहुत ठीक, खैर, आइये और बैठिये।

देवीसिंह––पहले मैं तुम्हारी इस कुर्सी पर बैठ के इस तस्वीर को गौर से देखूँगा। इतना कह कर देवीसिंह उस कुर्सी पर बैठ गये जिस पर थोड़ी ही देर पहले चम्पा बैठी हुई तस्वीर बना रही थी और बड़े गौर से उस तस्वीर को देखने लगे, चम्पा भी कुर्सी की पिछवाई पकड़ कर खड़ी हो गई और देखने लगी। देखते-देखते देवीसिंह ने झट हलके जर्द रंग की प्याली और कूची उठा ली और उस तस्वीर में रोहतासगढ़ किले के ऊपर एक बुर्ज और उसके साथ सटे हुए पताके का साधारण निशान बनाया अर्थात् जमीन बाँधी जिसे देखते ही चम्पा चौंकी और बोली, "हाँ-हाँ ठीक है, यह बनाना तो मैं भूल ही गई थी। बस अब आप रहने दीजिये, इसे भी मैं ही अपने हाथ से बनाऊँगी, आप देखकर कहियेगा कि तस्वीर कैसी बनी और इसमें कौन सी बात छूट गई थी।"

चम्पा की इस बात को सुन देवीसिंह चौक पड़े। अब उन्हें पूरा-पूरा विश्वास हो गया कि चम्पा उन नकाबपोशों के मकान जरूर गई थी और मैंने निःसन्देह इसी को देखा था अतः देवीसिंह ने घूमकर चम्पा की तरफ देखा और कहा, "मगर पहले यह तो बताओ कि वहाँ मुझे देखकर तुम भाग क्यों गई थीं?"

चम्पा––(ताज्जुब की सूरत बना के) कहाँ? कब?

देवीसिंह––उन्हीं नकाबपोशों के यहाँ!

चम्पा––मुझे बिल्कुल याद नहीं पड़ता कि आप कब की बात कर रहे हैं।

देवीसिंह––अब लगीं न नखरा करके परेशान करने!

चम्पा––मैं आपके चरणों की कसम खाकर कहती हूँ कि मुझे कुछ याद नहीं कि आप कब की बात कर रहे हैं।

अब तो देवीसिंह के ताज्जुब की कोई हद न रही, क्योंकि वे खूब जानते थे कि चम्पा जितनी खूबसूरत और ऐयारी के फन में तेज है, उतनी ही नेक और पतिव्रता भी है। वह उनके चरणों की कसम खाकर झूठ कदापि नहीं बोल सकती। अतः कुछ देर तक ताज्जुब के साथ गौर करने के बाद पुनः देवीसिंह ने कहा, "आखिर कल या परसों तुम कहां गई थीं?"

चम्पा––मैं तो कहीं नहीं गई! आप महारानी चन्द्रकान्ता से पूछ लें क्योंकि मेरा उनका तो दिन-रात का संग है, अगर मैं कहीं जाती तो किसी काम से ही जाती और ऐसी अवस्था में आपसे छिपाने की जरूरत ही क्या थी?

देवीसिंह––फिर यह तस्वीर तुमने कहाँ देखी?

चम्पा––यह तस्वीर? मैं···

इतना कह चम्पा कपड़े का एक लपेटा हुआ पुलिन्दा उठा लाई और देवीसिंह के हाथ में दिया। देवीसिंह ने उसे खोलकर देखा और चौंक कर चम्पा से पूछा, "यह नक्शा तुम्हें कहाँ से मिला?"

चम्पा––यह नक्शा मुझे कहाँ से मिला, सो मैं पीछे कहूँगी, पहले आप यह बतावें कि इस नक्शे को देखकर आप क्यों चौंके और यह नक्शा वास्तव में कहाँ का है? क्योंकि मैं इसके बारे में कुछ भी नहीं जानती।

देवीसिंह––यह नक्शा उन्हीं नकाबपोशों के मकान का है जिनके बारे में मैं अभी तुमसे पूछ रहा था। चम्पा––कौन नकाबपोश? वे ही जो दरबार में आया करते हैं?

देवीसिंह––हाँ वे ही, और उन्हीं के यहाँ मैंने तुमको देखा था।

चम्पा––(ताज्जुब के साथ) यों मैं कुछ भी नहीं समझ सकती, पहले आप अपने सफर का हाल सुनावें और यह बतावें कि आप कहाँ गये थे और क्या-क्या देखा?

इसके जवाब में देवीसिंह ने अपने और भूतनाथ के सफर का हाल बयान किया और इसके बाद उस कपड़े वाले नक्शे की तरफ बता के कहा, "यह उसी स्थान का नक्शा है। उस बँगले के अन्दर दीवारों पर तरह-तरह की तस्वीरें बनी हुई हैं, जिन्हें कारीगर दिखा नहीं सकता, इसलिए नमूने के तौर पर बाहर की तरफ यही रोहतासगढ़ की एक तस्वीर बनाकर उसने नीचे लिख दिया है कि इस बंगले में इसी तरह की बहुत सी तस्वीरें बनी हुई हैं। वास्तव में यह नक्शा बहुत ही अच्छा, साफ और बेशकीमत बना हुआ है।"

चम्पा––अब मैं समझी कि असल मामला क्या है, मैं उस मकान में नहीं गई थी।

देवीसिंह––तब यह तस्वीर तुमने कहाँ से पाई?

चम्पा––यह तस्वीर मुझे लड़के (तारासिंह) ने दी थी।

देवीसिंह––तुमने पूछा तो होगा कि यह तस्वीर उसे कहाँ से मिला?

चम्पा––नहीं, उसने बहुत तारीफ करके यह तस्वीर मुझे दी और मैंने ले ली।

देवीसिंह––कितने दिन?

चम्पा––आज पाँच-छ: दिन हुए होंगे।

इसके बाद देवीसिंह बहुत देर तक चम्पा के पास बैठे रहे और वहाँ से जाने लगे तब वह कपड़े वाली तस्वीर अपने साथ बाहर लेते गये।