चन्द्रकान्ता सन्तति 5/20.6

विकिस्रोत से
चंद्रकांता संतति भाग 5  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

[ २०३ ]

6

अपनी स्त्री की सूरत देखकर जितना ताज्जुब भूतनाथ को हुआ उतना ही आश्चर्य देवीसिंह को भी हुआ। यह विचारकर रंज-गम और गुस्से से देवीसिंह का सिर घूमने लगा कि इसी तरह मेरी स्त्री भी अवश्य नकाबपोशों के यहाँ होगी और हम लोगों को उसकी सुरत देखने में किसी तरह का भ्रम नहीं हुआ। यदि सोचा जाये, कि जिन दोनों औरतों को हम लोगों ने देखा था, वे वास्तव में हम लोगों की औरतें न थीं, बल्कि वे औरतों की सूरत में ऐयार थे तो इसका निश्चय भी इसी समय हो सकता है। वह औरत सामने मौजूद ही है, देख लिया जाये कि कोई ऐयार है या वास्तव में भूतनाथ की स्त्री है।

उस स्त्री ने भूतनाथ के मुँह यह से सुनकर कि 'यह तो मेरी स्त्री है', क्रोध-भरी [ २०४ ]आँखों से भूतनाथ की तरफ देखा और कहा, "एक तो तुमने जबरदस्ती मेरी नकाब उल दी, दूसरे बिना कुछ सोचे-विचारे आवारा लोगों की तरह यह कह दिया कि 'यह मेरी स्त्री है।' क्या सभ्यता इसी को कहते हैं? (देवी सिंह की तरफ देखकर) आप ऐसे सज्जन और प्रतापी राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयार होकर क्या इस बात को पसन्द करते हैं?"

देवीसिंह––अगर तुम भूतनाथ की स्त्री नहीं हो तो मैं जरूर इस बर्ताव को बुरा समझता हूँ, जो भूतनाथ ने तुम्हारे साथ किया है।

औरत––(भूतनाथ से) क्यों साहब, आपने मेरी ऐसी बेइज्जती क्यों की? अगर मेरा मालिक या कोई वारिस इस समय यहाँ होता तो अपने दिल में क्या कहता?

भूतनाथ––(ताज्जुब से उसका मुँह देखता हुआ) क्या मैं भ्रम में पड़ा हुआ हूँ, या मेरी आँखें मेरे साथ दगा कर रही हैं?

औरत––सो तो आप ही जानें, क्योंकि दिमाग आपका है और आँखें भी आपकी हैं, हाँ, इतना मुझे अवश्य कहना पड़ेगा कि आप अपनी सभ्यता का परिचय देकर पुरानी बदनामी को चरितार्थ करते हैं। कौन-सी बात आपने मुझमें ऐसी देखी जिससे इतना कहने का साहस आपको हुआ?

भूतनाथ––मालूम होता है कि या तो तू कोई ऐयार है और या फिर किसी दूसरे ने तेरी सूरत मेरी स्त्री के ढंग की बना दी है, जिसे शायद तूने कभी देखा नहीं।

भूतनाथ ने उस औरत की बातों का जवाब तो दिया मगर वास्तव में वह खुद बहुत घबरा गया था। अपनी स्त्री की ढिठाई और चपलता पर उसे तरह-तरह के शक होने लगे और वह बड़ी बेचैनी के साथ सोच रहा था कि अब क्या करना चाहिए कि इसी बीच में उस स्त्री ने भूतनाथ की बात का यों जवाब दिया––

स्त्री––यों आप जिस तरह चाहें सोच-समझकर अपनी तबीयत खुश कर लें, मगर इस बात को खूब समझ रखें कि मैं भी लावारिस नहीं हूँ, और आप अगर मेरे साथ कोई बेअदबी का बर्ताव करेंगे तो उसका बदला भी अवश्य पायेंगे। साथ ही इस बात को भी अवश्य समझ लें, कि आपके इतना कहने पर कि तू कोई ऐयार है, आपके सामने अपना चेहरा धोने की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर सकती।

भूतनाथ––अफसोस है कि मैं बिना जाँच किए तुम्हें छोड़ भी नहीं सकता।

स्त्री––(देवीसिंह की तरफ देखकर) बहादुरी तो तब थी, जब आप लोग किसी मर्द के साथ इस ढिठाई का बर्ताव करते। एक कमजोर औरत को इस तरह मजबूर करके फजीहत करना, ऐयारों और बहादुरों का काम नहीं है। हाय, इस जगह अगर मेरा कोई होता तो यह दुःख न भोगना पड़ता। (यह कहकर वह आँसू बहाने लगी।)

उस औरत की बातचीत कुछ ऐसे ढंग की थी, कि सुनने वालों को उस पर दया आ सकती थी और यही मालूम होता था कि यह जो कुछ कह रही है, उसमें नहीं है, यहाँ तक कि स्वयं भूतनाथ को भी उसकी बातों पर सहम जाना पड़ा और वह ताज्जुब के साथ उस औरत का मुँह देखने लगा, खास करके इस खयाल से भी कि देखें आँसू बहने के सबब से उसके चेहरे का रंग कुछ बदलता है या नहीं। उधर देवीसिंह तो उसकी बातों से बहुत ही हैरान हो गये और उनके जी में रह-रहकर यह बात पैदा होने [ २०५ ]लगी कि जरूर भूतनाथ इसके पहचानने में धोखा खा गया और वास्तव यह भूतनाथ की स्त्री नहीं है। अक्सर लोगों ने एक ही रूप-रंग के दो आदमी देखे हैं, ताज्जुब नहीं कि यहाँ भी वैसा ही कुछ मामला आ पड़ा हो।

देवीसिंह––(स्त्री से) तो तू इस भूतनाथ की स्त्री नहीं है?

स्त्री––जी नहीं।

देवीसिंह––आखिर इसका फैसला क्योंकर हो?

स्त्री––आप लोग जरा तकलीफ करके मेरे घर तक चलें, वहाँ मेरे बच्चों को देखने और मेरे मालिक से बातचीत करने पर आपको मालूम हो जायेगा कि मेरा कहना सच है या झूठ।

देवीसिंह––(औरत की बात पसन्द करके) तुम्हारा घर यहाँ से कितनी दूर है?

स्त्री––(हाथ का इशारा करके) इसी तरफ है, सो यहाँ से थोड़ी दूर पर। इन घने पेड़ों के पार ही आपको वह झोंपड़ी दिखाई देगी, जिसमें आजकल हम लोग रहते हैं।

देवीसिंह––क्या तुम झोंपड़ी में रहती हो? मगर तुम्हारी सुरत-शक्ल तो किसी झोपड़ी में रहने योग्य नहीं है।

स्त्री––जी, मेरे दो लड़के बीमार हैं, उनकी तन्दुरुस्ती का खयाल करके हवा-पानी बदलने की नीयत से आजकल हम लोग यहाँ आ टिके हैं। (हाथ जोड़कर) आप कृपा करके शीघ्र उठिये, और मेरे डेरे पर चलकर इस बखेड़े को तय कीजिये, विलम्ब होने से मैं मुफ्त में सताई जाऊँगी।

देवीसिंह––(भूतनाथ से) क्या हर्ज है, अगर इसके डेरे पर चलकर शक मिटा लिया जाये?

भूतनाथ––जो कुछ आपकी राय हो, मैं करने को तैयार हूँ, मगर यह तो मुझे अजीब ढंग से अन्धा बना रही है।

देवीसिंह––अच्छा, फिर उठो, अब देर करना उचित नहीं!

उस औरत की अनूठी बातचीत ने इन दोनों को इस बात पर मजबूर किया कि उसके साथ-साथ डेरे तक या जहाँ वह ले जाये, चुपचाप चले जायें, और देखें, कि जो कुछ वह कहती है, कहाँ तक सच है, और आखिर ऐसा ही हुआ।

इशारा पाते ही औरत उठ खड़ी हुई। देवीसिंह और भूतनाथ उसके पीछे-पीछे रवाना हुए। उस औरत को घोड़े पर सवार होने की आज्ञा न मिली, इसलिए वह घोड़े की लगाम थामे हुए धीरे-धीरे इन दोनों के साथ चली।

लगभग आध कोस के गए होंगे कि दूर से एक छोटा-सा कच्चा मकान दिखाई पड़ा जिसे एक तौर पर झोंपड़ी कहना उचित है। यह मकान ऊपर से खपड़े की जगह केवल पत्तों ही से छाया हुआ था।

जब ये लोग झोंपड़ी के दरवाजे पर पहुँचे तब उस औरत ने अपने घोड़े को खूटे के साथ बाँध कर थोड़ी-सी घास उसके आगे डाल दी जो उसी जगह एक पेड़ के नीचे पड़ी हुई थी और जिसे देखने से मालूम होता था कि रोज इसी जगह घोड़ा बाँधा जाता है। इसके बाद उसने देवीसिंह और भूतनाथ से कहा, "आप लोग जरा सा इसी जगह [ २०६ ]ठहर जायँ, मैं अन्दर जाकर आप लोगों के लिए चारपाई ले आती हूँ और अपने मालिक तथा लड़कों को भी बुला लाती हूँ!"

देवीसिंह और भूतनाथ ने इस बात को कबूल किया और कहा, "क्या हर्ज है, जाओ मगर जल्दी आना, क्योंकि हम लोग ज्यादा देर तक यहां नहीं ठहर सकते।"

वह औरत मकान के अन्दर चली गई और वे दोनों देर तक बाहर खड़े रह कर उसका इन्तजार करते रहे, यहाँ तक कि घण्टे भर से ज्यादा बीत गया और वह औरत मकान के बाहर न निकली। आखिर भूतनाथ ने उसे पुकारना और चिल्लाना शुरू किया, मगर इसका भी कोई नतीजा न निकला अर्थात् किसी ने भी उसे किसी तरह का जवाब न दिया। तब लाचार होकर वे दोनों मकान के अन्दर घुस गए, फिर भी किसी आदमी की यहाँ तक कि उस औरत की भी सूरत दिखाई न पड़ी। उस छोटी झोंपड़ी में किसी को ढूँढ़ना या पता लगाना कौन कठिन था तो भी दोनों ने बित्ता-बित्ता जमीन देख डाली मगर सिवाय एक सुरंग के और कुछ भी दिखाई न पड़ा। न तो मकान में किसी तरह का असबाब ही था और न चारपाई, बिछौना, कपड़ा-लत्ता या अन्न और बर्तन इत्यादि ही दिखाई पड़ा, अतः लाचार होकर भूतनाथ ने कहा, "बस-बस, हम हम लोगों को उल्लू बनाकर वह इसी सुरंग की राह निकल गई!"

बेवकूफ बनाकर इस तरह उस उस औरत के निकल जाने से दोनों ऐयारों को बड़ा ही अफसोस हुआ। भूतनाथ ने सुरंग के अन्दर घुस कर उस औरत को ढूँढने का इरादा किया। पहले तो इस बात खयाल हुआ कि कहीं उस सुरंग में दो-चार आदमी घुस कर बैठे न हों जो हम लोगों पर बेमौके वार करें, मगर जब अपने तिलिस्मी खंजर का ध्यान आया तो यह खयाल जाता रहा और बेफिक्री के साथ में तिलिस्मी खंजर लिये हुए भूतनाथ उस सुरंग के अन्दर घुसा, पीछे-पीछे देवीसिंह ने भी उसके अन्दर पैर रक्खा।

वह सुरंग लगभग पाँच सौ कदम के लम्बी होगी। उसका दूसरा सिरा घने जंगल अन्दर निकला था। देवीसिंह और भूतनाथ भी उसी सुरंग के अन्दर ही अंदर वहाँ तक चले गये और इन्हें विश्वास हो गया कि अब उस औरत का पता किसी तरह नहीं लग सकता।

इस समय इन दोनों के दिल की क्या कैफियत थी सो वे ही ठीक जानते होंगे, अतः लाचार होकर देवीसिंह ने घर लौट चलने का विचार किया, मगर भूतनाथ ने इस बात को स्वीकार न करके कहा, "इस तरह तकलीफ उठाने और बेइज्जत होने पर भी बिना कुछ काम किए घर लौट चलना मेरे खयाल से उचित नहीं है।"

देवीसिंह––आखिर फिर किया ही क्या जायगा? मुझे इतनी फुरसत नहीं है कि कई दिनों तक बेफिक्री के साथ इन लोगों का पीछा किया करूँ। उधर दरबार की जो कुछ कैफियत है तुम जानते ही हो! ऐसी अवस्था में मालिक की प्रसन्नता का खयाल न करके एक साधारण काम में दूसरी तरफ उलझ रहना मेरे लिए उचित नहीं है।

भूतनाथ––आपका कहना ठीक है मगर इस समय मेरी तबीयत का क्या हाल है, सो भी आप अच्छी तरह समझते होंगे।

देवीसिंह––मेरे खयाल से तुम्हारे लिए कोई ज्यादा तरद्दुद की बात नहीं है। [ २०७ ]इसके अतिरिक्त घर लौट चलने पर मैं अपनी औरत को देखूँगा, अगर वह मिल गई तो तुम भी अपनी स्त्री की तरफ से बेफिक्र हो जाओगे।

भूतनाथ––अगर आपकी स्त्री घर पर मिल जाय तो भी मेरे दिल का खुटका न जायगा।

देवीसिंह––अपनी स्त्री का हाल लेने के लिए तुम भी अपने आदमियों को भेज सकते हो।

भूतनाथ––यह सब कुछ ठीक है मगर क्या करूँ, इस समय मेरे पेट में अजीब तरह की खिचड़ी पक रही है और क्रोध क्षण-क्षण में बढ़ा ही चला आता है।

देवीसिंह––अगर ऐसा ही है तो जो कुछ तुम्हें उचित जान पड़े सो करो। मैं अकेला ही घर की तरफ लौट जाऊँगा।

भूतनाथ––अगर ऐसा ही कीजिये तो मुझ पर बड़ी कृपा होगी, मगर जब महाराज मेरे बारे में पूछेगे तब क्या जवाब···

देवीसिंह––(बात काट कर) महाराज की तरफ से तुम बेफिक्र रहो, मैं जैसा मुनासिब समझूगा कह-सुन लूँगा, मगर इस बात का वादा कर जाओ कि कितने दिन पर तुम वापस आमोगे या तुम्हारा हाल मुझे कब और क्योंकर मिलेगा?

भूतनाथ––मैं आपसे सिर्फ तीन दिन की छुट्टी लेता हूँ। अगर इससे ज्यादा दिन तक अटकने की नौबत आई तो किसी तरह अपने हाल-चाल की खबर आप तक पहुँचा दूँगा।

देवीसिंह––बहुत अच्छा! (मुस्कुराते हुए) अब आप जाइये और पुनः लात खाने का बन्दोबस्त कीजिए, मैं तो घर की तरफ रवाना होता हूँ, जय माया की!

भूतनाथ––जय माया की!

भूतनाथ को उसी जगह छोड़कर देवीसिंह रवाना हुए और संध्या होने के पहले ही तिलिस्मी इमारत के पास आ पहुँचे।