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चन्द्रकान्ता सन्तति 6/21.2

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चंद्रकांता संतति भाग 6
देवकीनंदन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ ६ से – २३ तक

 

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रात आधी से कुछ ज्यादा जा चुकी है । महाराज सुरेन्द्रसिंह अपने कमरे में पलंग पर लेते हुए जीतसिंग से कुछ धिरे-धीरे बाते कर रहें हैं जो चारपाई के नीचे उनके पास ही बैठे है।केवल जीतसिंग ही नहीं बल्कि उनके पास वे दोनो नकापपोश भी बैठे हुए है जो रोज दरबार में आकर लोगों को ताज्जुब में डाला करते है और जिनका नाम है रामसिंह और लक्ष्मणसिंह है । हम नहीं कह सकते कि ये लोग कब से इस कमरे में बैठे हैं या इसके पहले इन लोगों में क्या-क्या बातें हो चुकी हैं, मगर इस समय तो ये सब लोग कई ऐसे मामलों पर बातचीत कर रहे हैं जिनका पूरा होना बहुत जरूरी समझा जाता है।

बात करते-करते एक दफे कुछ रुक कर महाराज सुरेन्द्रसिंह ने जीतसिंह से कहा,"इस राय में गोपाल सिंह का भी शरीक होना उचित जान पड़ता है, किसी को भेजकर उन्हें बुलाना चाहिए।"

"जो आज्ञा" कहकर जीतसिंह उठे और कमरे के बाहर जाकर राजा गोपालसिंह को बुलाने के लिए चोबदार को हुक्म देने के बाद पुनः अपने ठिकाने बैठ कर बातचीत करने लगे।

जीतसिंह–इसमें तो कोई शक नहीं कि भूतनाथ आदमी चालाक और पूरे दर्जेबका ऐयार है मगर उसके दुश्मन लोग उस पर बेतरह टूट पड़े हैं और चाहते हैं कि जिस तरह बने उसे बर्बाद कर दें और इसीलिए उसके पुराने ऐबों को उधेड़ कर तरह-तरह की तकलीफ दे रहे हैं।

सुरेन्द्रसिंह--ठीक है, मगर हमारे साथ भूतनाथ ने सिवाय एक दफे चोरी करने के और कौन-सी बुराई की है जिसके लिए उसे हम सजा दें या बुरा कहें ?

जीतसिंह-कुछ भी नहीं, और वह चोरी भी उसने किसी बुरी नीयत से नहीं की थी। इस विषय में नानक ने जो कुछ कहा था, महाराज सुन ही चुके हैं

सुरेन्द्रसिंह-हाँ मुझे याद है, और उसने हम लोगों पर अहसान भी बहुत किये हैं बल्कि यों कहना चाहिए कि उसी की बदौलत कमलिनी, किशोरी, लक्ष्मीदेवी और इन्दिरा वगैरह की जानें बची और गोपालसिंह को भी उसकी मदद से बहुत फायदा पहुंचा है। इन्हीं सब बातों को सोच के तो देवीसिंह ने उसे अपना दोस्त बना लिया है, मगर साथ ही इसके इस बात भी समझ रखना चाहिए कि जब तक भूतनाथ का मामला तय नहीं हो जायगा तब तक लोग उसके ऐबों को खोद-खोद कर निकाला ही करेंगे और तरह-तरह की बातें गढ़ते रहेंगे।

एक नकाबपोश-सो तो ठीक ही है, मगर सच पूछिए तो भूतनाथ का मुकदमा ही कसा और मामला ही क्या ? मुकदमा तो असल में नकली बलभद्रसिंह का है जिसने इतना बड़ा कसूर करने पर भी भूतनाथ पर इल्जाम लगाया है। उस पीतल वाली सन्दूकड़ी से तो हम लोगों को कोई मतलब ही नहीं, हाँ, बाकी रह गया चिट्ठियों वाला मुट्ठा जिसके पढ़ने से भूतनाथ लक्ष्मीदेवी का कसूरवार मालूम होता है, सो उसका।जवाब भूतनाथ काफी तौर पर दे देगा और साबित कर देगा कि वे चिट्ठियां उसके हाथ की लिखी हुई होने पर भी वह कसूरवार नहीं है और वास्तव में वह बलभद्रसिंह का दोस्त है, दुश्मन नहीं।

सुरेन्द्रसिंह-(लम्बी सांस लेकर) ओफ-ओह, इस थोड़े से जमाने में कैसे-कैसे उलटफेर हो गए ! बेचारे गोपालसिंह के साथ कैसी-कैसी धोखेबाजी की गई!इन बातों पर जब हमारा ध्यान जाता है तो मारे क्रोध के बुरा हाल हो जाता है।

जीतसिंह-ठीक है, मगर खैर अब इन बातों पर क्रोध करने की जगह नहीं रही क्योंकि जो कुछ होना था हो गया। ईश्वर की कृपा से गोपालसिंह भी मौत की तकलीफ उठा र बच गए और अब हर तरह से प्रसन्न हैं, इसके अतिरिक्त उनके दुश्मन लोग भी गिरफ्तार होकर अपने पंजे में आये हुए हैं।

सुरेन्द्रसिंह--बेशक ऐसा ही है मगर हमें कोई ऐसी सजा नहीं सूझती जो उनके दुश्मनों को देकर कलेजा ठंडा किया जाय और समझा जाय कि अब गोपालसिंह के साथ बुराई करने का बदला ले लिया गया।

महाराज सुरेन्द्रसिंह इतना कह ही रहे थे कि राजा गोपालसिंह कमरे के अन्दर आते हुए दिखाई पड़े क्योंकि उनका डेरा इस कमरे से बहुत दूर न था।

राजा गोपालसिंह सलाम करके पलंग के पास बैठ गए और इसके बाद दोनों नकाबपोशों से भी साहब-सलामत करके मुस्कुराते हुए बोले-आप लोग कब से बैठे हैं ?

एक नकाबपोश--हम लोगों को आये बहुत देर हो गई।

सुरेन्द्रसिंह--ये बेचारे कई घण्टे से बैठे हुए हमारी तबीयत बहला रहे हैं और कई जरूरी बातों पर विचार कर रहे हैं। गोपालसिंह-वे कौन सी जरूरी बातें हैं ?

सुरेन्द्रसिंह-- यही लड़कों की शादी, भूतनाथ का फैसला, कैदियों का मुकदमा,कमलिनी और लाड़िली के साथ उचित बर्ताव इत्यादि विषयों पर बातचीत हो रही है और सोच रहे हैं कि किस तरह क्या किया जाय तथा पहले क्या काम हो ?

गोपालसिंह--इस समय मैं भी इसी उलझन में पड़ा हुआ था। सोया नहीं था बल्कि जागता हुआ इन्हीं बातों को सोच रहा था कि आपका सन्देशा पहुँच गया और तुरन्त उठकर इस तरफ चला आया। (नकाबपोशों की तरफ बता कर) आप लोग तो अव हमारे घर के व्यक्ति हो रहे हैं अतः ऐसे विचारों में आप लोगों को शरीक होना ही चाहिए।

सुरेन्द्रसिंह--जीतसिंह कहते हैं कि कैदियों का मुकदमा होने और उनको सजा देने के पहले ही दोनों लड़कों की शादी हो जानी चाहिए जिसमें कैदी लोग भी इस उत्सव को देखकर अपना जी जला लें और समझ लें कि उनकी बेईमानी, हरामजदगी और दुश्मनी का नतीजा क्या निकला। साथ ही इसके एक बात का फायदा और भी होगा,अर्थात् कैदियों के पक्षपाती लोग भी, जो ताज्जुब नहीं कि इस समय भी कहीं इधर-उधर छिपे मन के लड्डू बना रहे हों, समझ जायँगे कि अब उन्हें दुश्मनी करने की कोई जरूरत नहीं रही और न ऐसा करने से कोई फायदा ही है।

गोपालसिंह- ठीक है, जब तक दोनों कुमारों की शादी न हो जायगी तब तक तरह-तरह के खुटके बने ही रहेंगे । शादी हो जाने के बाद मेहमानों के सामने ही कैदियों को जहन्नुम में पहुंचाकर दुनिया को दिखा दिया जायगा कि बुरे कर्मों का नतीजा यह होता है।

सुरेन्द्र सिंह-खैर, तो आपकी भी यही राय होती है ?

गोपालसिंह-बेशक !

सुरेन्द्रसिंह--(जीतसिंह की तरफ देखकर) तो अब हमें और किसी से राय मिलाने की जरूरत नहीं रही। आप हर तरह का बन्दोबस्त शुरू कर दें और जहाँ-जहाँ न्यौता भेजना हो भिजवा दें।

जीतसिंह-जो आज्ञा । अच्छा, अब भूतनाथ के विषय में कुछ तय हो जाना चाहिए।

गोपालहिं-हम लोगों में से कौन सा आदमी ऐसा है जो भूतनाथ के अहसानों के बोझ से दबा हुआ न हो ? बाकी रही यह बात कि जयपाल ने भूतनाथ के हार की चिट्ठियाँ कमलिनी और लक्ष्मीदेवी को दिखाकर भूतनाथ को दोषी ठहराया है, सो वास्तव में भूतनाथ दोषी नहीं है और इस बात का सबूत भी वह दे देगा।

सुरेन्द्रसिंह हाँ, तुमको तो इन सब बातों का सच्चा हाल जरूर ही मालूम होगा क्योंकि तुम्हीं ने कृष्ण जिन्न बनकर उसकी सहायता की थी। अगर वास्तव में वह दोषी होता तो तुम ऐसा करते ही क्यों? गोपालसिंह-बेशक यही बात है । इन्दिरा का किस्सा आपको मालूम ही है क्यों कि मैंने आपको लिख भेजा था और आशा है कि आपको वे बातें याद होंगी ?

सुरेन्द्रसिंह-हाँ मुझे बखूबी याद है, बेशक उस जमाने में भूतनाथ ने तुम लोगों की बड़ी सहायता की थी बल्कि इसी सबब से उसमें और दरोगा में दुश्मनी हो गई थी,अतः कब हो सकता है कि भूतनाथ लक्ष्मीदेवी के साथ दगा करता जो कि दरोगा से दोस्ती और बलभद्र सिंह से दुश्मनी किए बिना हो ही नहीं सकता था ! लेकिन आखिर यह बात क्या हैं, वे चिट्ठियाँ भूतनाथ की लिखी हैं या नहीं? फिर, इस जगह एक बात का और भी खयाल होता है वह यह कि उस मुट्ठ में दोनों तरफ की चिट्ठियाँ मिली हुई हैं अर्थात् जो रघुबरसिंह ने भेजी वे भी हैं और जो रघुबर के नाम आई थीं वे भी हैं।

गोपालसिंह-जी हाँ और यह बात भी बहुत से शकों को दूर करती है। असल यह है कि वे सब चिट्ठियां भूतनाथ के हाथ की नकल की हुई हैं ! वह रघुबरसिंह,जो दारोगा का दोस्त था और जमानिया में रहता था, उसी की यह सब कार्रवाई है और यह सब विष उसी के बोये हुए हैं। वह बहुत जगह इशारे के तौर पर अपना नाम भूतनाथ लिखा करता थ। आपने इन्दिरा के हाल में पढ़ा होगा कि भूतनाथ बेनीसिंह बनकर बहुत दिनों तक रघुबरसिंह के यहाँ रह चुका है और उन दिनों यही भूतनाथ हेलासिंह के यहाँ रघुबरसिंह का खत लेकर आया-जाया करता था।

सुरेन्द्र सिंह-ठीक है, मुझे याद है ।

गोपालसिंह-बस ये सब चिट्ठियाँ उन्हीं चिट्ठियों की नकलें हैं । भूतनाथ ने मौके पर दुश्मनों को कायल करने के लिए उन चिट्ठियों की नकल कर ली थी और कुछ उनके घर से भी चुराई थीं। बस, भूतनाथ की गलती या बेईमानी जो कुछ समझिए यही हुई कि उस समय कुछ नगदी फायदे के लिए उसने इस मामले को दबाये रक्खा और उसी वक्त मुझ पर प्रकट न कर दिया। रिश्वत लेकर दारोगा को छोड़ देना और कलमदान के भेद को छिपा रखना भी भूतनाथ के ऊपर धब्बा लगाता है क्योंकि अगर ऐसा न होता तो मुझे यह बुरा दिन देखना नसीब न होता और इन्हीं भूलों पर आज भूतनाथ पछताता और अफसोस करता है। मगर आखिर में भूतनाथ ने इन बातों का बदला भी ऐसा अदा किया कि वे सब कसूर माफ कर देने के लायक हो गए।

सुरेन्द्रसिंह-उस कलमदान में क्या चीज थी ?

गोपालसिंह-उस कलमदान को दारोगा की गुप्त सभा का दफ्तर ही समझिए ।सब सभासदों के नाम और सभा के मुख्य भेद उसी में बन्द रहते थे, इसके अतिरिक्त दामोदरसिंह ने जो वसीयतनामा इन्दिरा के नाम लिखा था वह भी उसी में बन्द था।

सुरेन्द्रसिंह-ठीक है, ठीक है, इन्दिरा के किस्से में यह बात भी तुमने लिखी थी, हमें याद आया। मगर इसमें भी कोई शक नहीं कि उन दिनों लालच में पड़कर भूतनाथ ने बहुत बुरा किया और उसी सबब से तुम लोगों को तकलीफ उठानी पड़ी।

एक नकाबपोश-शायद भूतनाथ को इस बात की खबर न थी कि इस लालच का नतीजा कहाँ तक बुरा निकलेगा।

सुरेन्द्रसिंह-जो हो मगर उस समय की बातों पर ध्यान देने से यह भी कहना पड़ता है कि उन दिनों भूतनाथ एक हाथ से भलाई के नाम कर रहा था और दूसरे हाथ से बुराई के।

गोपालसिंह-ठीक है, बेशक ऐसी ही बात थी।

सुरेन्द्रसिंह-(जीतसिंह की तरफ देख के) भूतनाथ और इन्द्रदेव को भी इसी समय यहाँ बुलाकर इस मामले को तय कर देना चाहिए।

"जो आज्ञा” कहकर जीतसिंह उठे और कमरे के बाहर जाकर चोबदार को हुक्म देने के बाद लौट आये, इसके बाद कुछ देर सन्नाटा रहा, फिर गोपालसिंह ने कहा-

गोपालसिंह-अपने खयाल में तो भूतनाथ ने कोई बुराई नहीं की थी क्योंकि बीस हजार अशर्फी दारोगा से वसूल करके उसे छोड़ देने पर भी उसने एक इकरार-नामा लिखा लिया था कि वह (दारोगा) ऐसे किसी काम में शरीक न होगा और न खुद ऐसा कोई काम करेगा जिसमें इन्द्रदेव, सरयू, इन्दिरा और मुझ (गोपालसिंह) को किसी तरह का नुकसान पहुँचे मगर दारोगा फिर भी बेईमानी कर ही गया और भूतनाथ इकरारनामे के भरोसे बैठा रह गया। इससे खयाल होता है कि शायद भूतनाथ को भी इन मामलों की ठीक खबर न हो अर्थात मुन्दर का हाल मालूम न हुआ हो, और वह लक्ष्मीदेवी के बारे में धोखा खा गया हो तो भी ताज्जुब नहीं।

सुरेन्द्रसिंह-हो सकता है, (कुछ देर तक चुप रहने के बाद) मगर यह तो बताओ कि इन सब मामलों की खबर तुम्हें कब और क्योंकर लगी?

गोपालसिंह-इन सब बातों का पता मुझे भूतनाथ के गुरुभाई शेरसिंह की जुबानी लगा जो भूतनाथ को भाई की तरह प्यार करता है मगर उसकी इन सब लालच भरी कार्रवाइयों के बुरे नतीजे को सोच और उसे पूरा कसूरवार समझकर उससे डरता और नफरत करता है। जिन दिनों रोहतासगढ़ का राजा दिग्विजयसिंह किशोरी को।अपने किले में ले गया था और इस सबब से शेरसिंह ने अपनी नौकरी छोड़ दी थी, उन दिनों भूतनाथ छिपा-छिपा फिरता था। मगर जब शेरसिंह ने उस तिलिस्मी तहखाने


1. इन्दिरा का किस्सा (चन्द्रकान्ता सन्तति, पन्द्रहवां भाग, पहला वयान)। में जाकर डेरा डाला, और छिपे-छिपे कमला और कामिनी की मदद करने लगा तो उन्हीं दिनों उस तिलिस्मी तहखाने में जाकर भूतनाथ ने शेरसिंह से एक तौर पर (बहुत दिनों तक गायब रहने के बाद) नई मुलाकात की, मगर धर्मात्मा शेरसिंह को यह बात बहुत बुरी मालूम हुई।

गोपालसिंह इतना कह ही रहे थे कि भूतनाथ और इन्द्रदेव कमरे के अन्दर आ पहुँचे और सलाम करके आज्ञानुसार जीतसिंह के पास बैठ गये।

जीतसिंह-(भूतनाथ और इन्द्रदेव से) आप लोग बहुत जल्द आ गये।

इन्द्रदेव-हम दोनों इसी जगह बरामदे के नीचे बाग में टहल रहे थे, इसलिए चोबदार नीचे उतरने के साथ ही हम लोगों से जा मिला।

जीतसिंह-खैर, (गोपालसिंह से) हाँ तब ?

गोपालसिंह-अपनी नेकनामी में धब्बा लगने और बदनाम होने के डर से भूतनाथ की सूरत देखना भी शेरसिंह पसन्द नहीं करता था, बल्कि उसका तो यही बयान है कि 'मुझे भूतनाथ से मिलने की आशा ही न थी और मैं समझे हुए था कि अपने दोषों से लज्जित होकर भूतनाथ ने जान दे दी।' मगर जिस दिन उसने उस तहखाने में भूतनाथ की सूरत देखी तो काँप उठा। उसने भूतनाथ की बहुत लानत-मलामत करने के बाद कहा कि "अब तुम हम लोगों को अपना मुंह मत दिखाओ और हमारी जान और आबरू पर दया करके किसी दूसरे देश में चले जाओ।" मगर मूतनाथ ने इस बात को मंजूर न किया और यह कहकर अपने भाई से बिदा हुआ कि चुपचाप बैठे देखते रहो कि मैं किस तरह अपने पुराने परिचितों में प्रकट होकर खास राजा वीरेन्द्रसिंह का ऐयार बनता हूं। बस इसके बाद भूतनाथ कमलिनी से जा मिला और जी-जान से उसकी मदद करने लगा। मगर शेरसिंह को यह बात पसन्द न आई। यद्यपि कुछ दिनों तक शेरसिंह ने कमलिनी तथा हम लोगों का साथ दिया, मगर डरते-डरते । आखिर एक दिन शेरसिंह ने एकान्त में मुझसे मुलाकात की और अपने दिल का हाल तथा मेरे विषय में जो कुछ जानता था, कहने के बाद बोला, “यह सब हाल कुछ तो मुझे अपने भाई भूतनाथ की जुबानी मालूम हुआ और कुछ रोहतासगढ़ को इस्तीफा देने के बाद तहकीकात करने से मालूम हुआ, मगर इस बात की खबर हम दोनों भाइयों में से किसी को भी न थी कि आपको मायारानी ने कैद कर रक्खा है । खैर, अब ईश्वर की कृपा से आप छूट गये हैं इसलिए आपके सम्बन्ध जो कुछ मुझे मालूम है आपसे कह दिया, जिसमें आप दुश्मनों से अच्छी तरह बदला ले सकें। अब मैं आगे अपना मुंह किसी को दिखाना नहीं चाहता क्योंकि मेरा भाई भूतनाथ जिसे मैं मरा हुआ समझता था प्रकट हो गया और न मालूम क्या-क्या किया चाहता है । कहीं ऐसा न हो कि गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाय,अतः अब मैं जहाँ भागते बनेगा भाग जाऊँगा। हाँ, अगर भूतनाथ जो कि बड़ा जिद्दी और उत्साही है किसी तरह नेकनामी के साथ राजा वीरेन्द्र सिंह का ऐयार बन गया तो पुनः प्रकट हो जाऊँगा।" इतना कहकर शेरसिंह न मालूम कहाँ चला गया । मैंने बहुत

1. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, तीसरा भाग, तेरहवां बयान । कुछ समझाया मगर उसने एक न मानी। (कुछ रुककर) यही सब है कि मुझे इन सब बातों से आगाही हो गई और मैं भूतनाथ के भी बहुत से भेदों को जान गया।

जीतसिंह-ठीक है । (भूतनाथ की तरफ देख के) भूतनाथ, इस समय तुम्हारा ही मामला पेश है ! इस जगह हम जितने भी आदमी हैं, सभी कोई तुमसे हमदर्दी रखते हैं; महाराज भी तुमसे बहुत प्रसन्न हैं। ताज्जुब नहीं कि वह दिन आज ही हो कि तुम्हारे कसूर माफ किए जायं और तुम महाराज के ऐयार बन जाओ, मगर तुम्हें अपना हाल या जो कुछ तुमसे पूछा जाय उसका जवाब सच-सच कहना और देना चाहिए । इस समय तुम्हारा ही किस्सा हो रहा है ।

भूतनाथ-(खड़े होकर सलाम करने के बाद) आज्ञा के विरुद्ध कुछ भी न करूंगा और कोई बात छिपा न रक्खूगा।

जीतसिंह--तुम्हें यह तो मालूम हो गया कि सरयू और इन्दिरा भी यहाँ आ गई हैं जो जमानिया के तिलिस्म में फंस गई थी और उन्होंने अपना अनूठा किस्सा बड़े दर्द के साथ बयान किया था।

भूतनाथ-(हाथ जोड़ के) जी हाँ, मुझ कम्बख्त की बदौलत उन्हें उस कैद की तकलीफ भोगनी पड़ी। उन दिनों बदकिस्मती ने मुझे हद से ज्यादा लालची बना दिया था। अगर मैं लालच में पड़कर दारोगा को न छोड़ देता तो यह बात कभी न होती। आपने सुना ही होगा कि उन दिनों हथेली पर जान लेकर मैंने कैसे-कैसे काम किये थे, मगर दौलत की लालच ने मेरे सब कामों पर मिट्टी डोल दी। अफसोस, मुझे इस बात की कुछ भी खबर न हुई कि दारोगा ने अपनी प्रतिज्ञा के विरुद्ध सारे काम किये,अगर मुझे खबर लग जाती तो उससे समझ लेता।

जीतसिंह-अच्छा यह बताओ कि तुम्हारा भाई शेरसिंह कहाँ है ?

भूतनाथ-मेरे यहाँ होने के सबब से न मालूम वह कहाँ जाकर छिपा बैठा है । उसे विश्वास है कि भूतनाथ जिसने बड़े-बड़े कसूर किए हैं, कभी निर्दोष छूट नहीं सकता। बल्कि ताज्जुब नहीं कि उसके सबंब से मुझ पर भी किसी तरह का इलजाम लगे। हाँ, अगर वह मुझे बेकसूर छूटा हुआ देखेगा या सुनेगा तो तुरन्त प्रकट हो जायगा।

जीतसिंह--वह चिट्ठयों वाला मुट्ठा तुम्हारे ही हाथ का लिखा हुआ है या नहीं?

भूतसिंह-जी वे सब चिट्ठियाँ है तो मेरे ही हाथ की लिखी हुई, मगर वे असल नहीं बल्कि उन असली चिट्ठियों की नकलें हैं जो कि मैंने जयपाल (रघुवरसिंह) के यहाँ से चोरी की थीं । असल में इन चिट्ठियों का लिखने वाला मैं नहीं, बल्कि जयपाल है।

जीतसिंह-खैर, तो जब तुमने जयमाल के यहाँ से असल चिट्ठियों की नकल की थी तो तुम्हें उसी समय मालूम हुआ होगा कि लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह पर क्या आफत आने वाली है ?

भूतनाथ-क्यों न मालूम होता ! परन्तु रुपये की लालच में पड़कर अर्थात् कुछ लेकर मैंने जयपाल को छोड़ दिया। मगर बलभद्र सिंह से मैंने इस होनहार के बारे में इशारा जरूर कर दिया था, हाँ जयपाल का नाम नहीं बताया क्योंकि उससे रुपया वसूल कर चुका था। ओ यह कहना भी मैं भूल ही गया कि रुपये वसूल करने के साथ ही मैंने जयपाल को इस बात की कसम भी खिला दी थी कि अब वह लक्ष्मीदेवी और बल-भद्रसिंह से किसी तरह की बुराई न करेगा। मगर अफसोस, उसने (जयपाल ने) मेरे साथ दगा करके मुझे धोखे में डाल दिया और वह काम कर गुजरा जो किया चाहता था। इसी तरह मुझे वलभद्र सिंह के बारे में भी धोखा हुआ। दुश्मनों ने उन्हें कैद कर लिया और मुझे हर तरह से विश्वास दिला दिया कि बलभद्र सिंह मर गए । लक्ष्मीदेवी के बारे में जो कुछ चालाकी दारोगा ने की, उसका भी मुझे कुछ पता न लगा और न मैं कई वर्षों तक लक्ष्मीदेवी की सूरत ही देख सका कि पहचान लेता। बहुत दिनों के बाद जब मैंने नकली लक्ष्मी देवी को देखा भी तो मुझे किसी भी तरह का शक न हुआ, क्योंकि लड़कपन की सूरत और अधेड़पन की सूरत में बहुत बड़ा फर्क पड़ जाता है। इसके अतिरिक्त जिन दिनों मैंने नकली लक्ष्मीदेवी को देखा था, उस समय उनकी दोनों बहिनें अर्थात् श्यामा (कमलिनी) और लाडिली भी उसके साथ ही रहती थीं, जब वे ही दोनों उसकी बहन होकर धोखे में पड़ गईं तो मेरी कौन गिनती है ?

बहुत दिनों के बाद जब यह कागज का मुट्ठा मेरे यहाँ से चोरी हो गया, तब मैं घबराया और डरा कि समय पर चोरी गया हुआ वह मुट्ठा मुझको मुजरिम बना देगा, और आखिर ऐसा ही हुआ । दुष्टों ने वही कागजों का मुट्ठा कैदखाने में बलभद्रसिंह को दिखाकर मेरी तरफ से उनका दिल फेर दिया और तमाम दोष मेरे ही सिर पर थोपा । इसके बाद और भी कई वर्ष बीत जाने पर जब राजा गोपालसिंह के मरने की खबर उड़ी और इस बात में किसी को किसी तरह का शक न रहा, तब धीरे-धीरे मुझे दारोगा और जयपाल की शैतानी का कुछ पता लगा, मगर फिर मैंने जान-बूझकर तरह दे दिया और सोचा कि अब उन बातों को खोदने से फायदा ही क्या, जब कि खुद राजा गोपालसिंह ही इस दुनिया से उठ गये तो मैं किसके लिए इन बखेड़ों को उठाऊँ ? (हाथ जोड़कर) बेशक यही मेरा कसूर है और इसीलिए मेरा भाई भी रंज है। हाँ इधर जब कि मैंने देखा कि अब श्रीमान् राजा वीरेन्द्रसिंह का दौरा-दौरा है और कमलिनी भी उस घर से निकल खड़ी हुई तब मैंने भी सिर उठाया और अबकी दफे नेकनामी के साथ नाम पैदा करने का इरादा कर लिया। इस बीच में मुझ पर बड़ी आफतें आई, मेरे मालिक रणधीरसिंह भी मुझसे बिगड़ गये और मैं अपना काला मुंह लेकर दुनिया से किनारे हो बैठा तथा अपने को मरा हुआ मशहूर कर दिया अब कहाँ तक बयान करूँ, बात तो यह है कि मैं सिर से पैर तक अपने को कसूरवार समझकर ही महाराजा की शरण में

जीतसिंह-तुम्हारी पिछली कार्रवाई का बहुत-सा हाल महाराज को मालूम हो चुका है, उस जमाने में इन्दिरा को बचाने के लिए जो कार्रवाइयाँ तुमने की थीं उनसे महाराज प्रसन्न हैं, खास करके इसलिए कि तुम्हारे हरएक काम में दबंगता का हिस्सा ज्यादा था और तुम सच्चे दिल से इन्द्रदेव के साथ दोस्ती का हक अदा कर रहे थे,इस जगह एक बात का बड़ा ताज्जुब है।

भूतनाथ-वह क्या ?

जीतसिंह-इन्दिरा के बारे में जो-जो काम तुमने किये थे वे इन्द्रदेव से तो तुमने जरूर ही कहे होंगे?

भूतनाथ-बेशक जो कुछ काम मैं करता था वह हमेशा ही इन्द्रदेव से पूरा-पूरा कह देता था।

जीतसिंह-तो फिर इन्द्रदेव ने दारोगा को क्यों छोड़ दिया? सजा देना तो दूर रहा, इन्होंने गुरुभाई का नाता तक नहीं तोड़ा।

भूतनाथ-(एक लम्बी साँस लेकर और उँगली से इन्द्रदेव की तरफ इशारा करके) इनके ऐसा भी बहादुर और मुरौवत का आदमी मैंने दुनिया में नहीं देखा । इनके साथ जो कुछ सलूक मैंने किया था उसका बदला भी अपने एक ही काम से इन्होंने ऐसा अदा किया कि जो इनके सिवाय दूसरा कर ही नहीं सकता था और जिससे मैं जन्म भर इनके सामने सिर उठाने लायक न रहा, अर्थात् जब मैंने रिश्वत लेकर दारोगा को छोड़ देने और कलमदान दे देने का हाल इनसे कहा, तो सुनते ही इनकी आँखों में आंसू भर आये और एक लम्बी साँस लेकर इन्होंने मुझसे कहा, "भूतनाथ, तुमने यह काम बहुत ही बुरा किया। किसी दिन इसका नतीजा बहुत ही खराब निकलेगा ! खैर, अब तो जो कुछ होना था हो गया, तुम मेरे दोस्त हो अतः जो कुछ तुम कर आये, उसे मैं भी मंजूर करता हूँ और दारोगा को एक दम भूल जाता हूँ । अब मेरी लड़की और स्त्री पर चाहे कैसी आफत क्यों न आये और मुझे भी चाहे कितना ही कष्ट क्यों न भोगना पड़े, मगर आज से दारोगा का नाम भी न लूंगा और न अपनी स्त्री के विषय में ही किसी से कुछ जिक्र करूँगा, जो कुछ तुम्हें करना हो करो और उस कम्बख्त दारोगा से भले ही कह दो कि 'इन बातों की खबर इन्द्रदेव को नहीं दी गई।' मैं भी अपने को ऐसा ही बनाऊँगा कि दारोगा को किसी तरह का खुटका न होगा और वह मुझे निरा उल्लू ही समझता रहेगा।" इन्द्रदेव की बात मेरे कलेजे में तीर की तरह लगी और मैं यह कहकर उठ खड़ा हुआ कि "दोस्त, मुझे माफ करो, बेशक मुझसे बड़ी भूल हुई है । अब मैं दारोगा को कभी न छोडूंगा और जो कुछ उससे लिया है उसे वापस कर दूंगा।" मगर इतना कहते ही इन्द्रदेव ने मेरी कलाई पकड़ ली और जोर के साथ मुझे बैठाकर कहा, “भूत-मैंने यह बात तुमसे ताने के ढंग पर नहीं कही है कि सुनने के साथ ही तुम उठ खड़े हुए। नहीं-नहीं, ऐसा कभी न होने पायेगा, हमने और तुमने जो कुछ किया और जो कहा सो कहा, अब उसके विपरीत हम दोनों में से कोई भी न जा सकेगा!"

सुरेन्द्र सिंह-शाबाश !

इतना कहकर सुरेन्द्र सिंह ने गहरी मुहब्बत की निगाह से इन्द्रदेव की तरफ देखा और भूतनाथ ने फिर इस तरह कहना शुरू किया-

भूतनाथ-मैंने बहुत कुछ कहा मगर इन्द्रदेव ने एक न माना और एक बहुत बड़ी कसम देकर मेरा मुंह बन्द कर दिया, मगर इस बात का नतीजा यह निकला कि उसी दिन से हम दोनों दोस्त दुनिया से उदासीन हो गये । मेरी उदासीनता में तो कुछ कसर न रह गई मगर इन्द्रदेव की उदासीनता में किसी तरह की कसर न रही। यही सबब था कि इन्द्रदेव के हाथ से दारोगा बच गया और दारोगा इन्द्रदेव की तरफ से (मेरे कहे मुताबिक) बेफिक्र रहा। सुरेन्द्रसिंह —— बेशक इन्द्रदेव ने यह बड़े हौसले और सब्र का काम किया !

गोपालसिंह —— दोस्ती का हक अदा करना इसे कहते हैं, जितने अहसान भूतनाथ ने इन पर किये थे, सभी का बदला एक ही बात से चुका दिया ! भूतनाथ —– (गोपालसिंह की तरफ देख के) कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह से इन्दिरा ने अपना हाल किस तरह पर बयान किया था सो मुझे मालूम न हुआ । अगर यह मालूम हो जाता तो अच्छा होता कि इन्दिरा ने जो कुछ बयान किया था वह ठीक है अथवा उसने जो कुछ सुना था वह सच था ?

गोपालसिंह —— जहाँ तक मेरा खयाल है, मैं कह सकता हूँ कि इन्दिरा ने अपने विषय में कोई बात ज्यादा नहीं कही, बल्कि ताज्जुब नहीं कि वह कई बातें मालूम न होने के कारण छोड़ गई हो। मैंने उसका पूरा-पूरा किस्सा महाराज को लिख भेजा था। (जीतसिंह की तरफ देखकर) अगर मेरी वह चिट्ठी यहाँ मौजूद हो, तो भूतनाथ को दे दीजिये, उसमें से इन्दिरा का किस्सा पढ़कर ये अपना शक मिटा लें।

"हां वह चिट्ठी मौजूद है" इतना कह कर जीतसिंह उठे और आलमारी से वह किताबनुमा चिट्ठी निकाल कर और इन्दिरा का किस्सा बता कर भूतनाथ को दे दी। भूतनाथ उसे तेजी के साथ पढ़ गया और अन्त में बोला, "हाँ ठीक है, करीब-करीब सभी बातें उसे मालूम हो गई थी और आज मुझे भी एक बात नई मालूम हुई अर्थात् आखिरी मर्तबे जब मैं इन्दिरा को दारोगा के कब्जे से निकालकर ले गया था और अपने एक अड्डे पर हिफाजत के.साथ रख गया था तो वहाँ से एकाएक उसका गायब हो जाना मुझे बड़ा ही दुःखदायी हुआ। मैं ताज्जुब करता था कि इन्दिरा वहाँ से क्योंकर चली गई। जब मैंने अपने आदमियों से पूछा तो उन्होंने कहा कि 'हम लोगों को कुछ भी नहीं मालूम कि वह कब निकल कर भाग गई, क्योंकि हम लोग कैदियों की तरह उस पर निगाह नहीं रखते थे बल्कि घर का आदमी समझ कर कुछ बेफिक्र थे ।' परन्तु मुझे अपने आदमियों की बात पसन्द न आई और मैंने उन लोगों को सख्त सजा दी। आज मालूम हुआ कि वह कांटा मायाप्रसाद का बोया हुआ था। मैं उसे अपना दोस्त समझता था मगर अफसोस, उसने मेरे साथ बड़ी दगा की !"

गोपालसिंह —— इन्दिरा की जुबानी यह किस्सा सुन कर मुझे भी निश्चय हो गया कि मायाप्रसाद दारोगा का हितू है अतः मैंने उसे तिलिस्म में कैद कर दिया है । अच्छा, यह तो बताओ कि उस समय जब तुम आखिरी मर्तबे इन्दिरा को दारोगा के यहाँ से निकाल कर अपने अड्डे पर रख आये और लौट कर पुनः जमानिया गये, तो फिर क्या हुआ, दारोगा से कैसे निपटे, और सरयू का पता क्यों न लगा सके ?

भूतनाथ -- इन्दिरा को उस ठिकाने रख कर जब मैं लौटा तो पुनः जमानिया गया परन्तु अपनी हिफाजत के लिए पाँच आदमिमों को अपने साथ लेता गया और उन्हें (अपने आदमियों को) कब क्या करना चाहिए इस बात को भी अच्छी तरह समझा दिया क्योंकि वे पांचों आदमी मेरे शागिर्द थे और कुछ ऐयारी भी जानते थे । मुझे सरयू के लिए दारोगा से फिर मुलाकात करने की जरूरत थी मगर उसके घर में जाकर भुलाकात करने का इरादा न था क्योंकि मैं खूब समझता था कि वह 'दूध का जला छाछ फूंक के पीता होगा' और मेरे लिए अपने घर में कुछ-न-कुछ बन्दोबस्त जरूर कर रक्खा होगा ! अगर अबकी दिलेरी के साथ उसके घर में जाऊँगा तो बेशक फंस जाऊँगा, इसलिए बाहर ही उससे मुलाकात करने का बन्दोबस्त करने लगा। खैर, इसी फेर में दस-बारह दिन बीत गए और इस बीच में मुलाकात करने का कोई अच्छा मौका न मिला। पता लगाने से मालूम हुआ कि वह बीमार है और घर से बाहर नहीं निकलता । यह बात मुझे मायाप्रसाद ने कही थी मगर मैंने मायाप्रसाद से इन्दिरा के बारे में कुछ भी नहीं कहा और न राजा साहब (गोपालसिंह की तरफ इशारा करके) ही से कुछ कहा, क्योंकि दारोगा को बेदाग छोड़ देने के लिए मेरे दोस्त इन्द्रदेव ने पहले ही से तय कर लिया था, अब अगर राजा साहब से मैं कुछ कहता तो दारोगा जरूर सजा पा जाता। लेकिन मैं यह नहीं कह सकता कि मायाप्रसाद और दारोगा को इस बात का पता क्योंकर लग गया कि इन्दिरा फलां जगह है । खैर, मुख्जसिर यह है कि एक दिन स्वयं मायाप्रसाद ने मुझसे कहा-“गदाधरसिंह, मैं तुम्हें इसकी इत्तिला देता हूँ कि सरयू निःसन्देह दारोगा की कैद में है मगर बीमार है, अगर तुम किसी तरह दारोगा के मकान में चले जाओ तो उसे जरूर अपनी आँखों से देख सकोगे। मेरी इस बात में तुम किसी तरह का शक न करो, मैं बहुत पक्की बात तुमसे कह रहा हूँ ।” मायाप्रसाद की बात सुनकर मुझे एक दफे जोश चढ़ आया और मैं दारोगा के मकान में जाने के लिए तैयार भी हो गया। मैं क्या जानता था कि मायाप्रसाद दारोगा से मिला हुआ है । खैर, मैं अपनी हिफाजत के लिए कई तरह का बन्दोबस्त करके आधी रात के समय कमन्द के जरिये दारोगा के लम्बे- चौड़े और शैतान की आंत की सूरत वाले मकान में घुस गया और चोरों की तरह टोह लेता हुआ उस कमरे में जा पहुंचा जिसमें दारोगा एक गद्दी के ऊपर उदास बैठा हुआ कुछ सोच रहा था। उस समय उसके बदन पर कई जगह पट्टी बंधी हुई थी जिससे वह चुटीला मालूम पड़ता था और उसके सिर का भी यही हाल था। दारोगा मुझे देखते ही चौंक उठा और आँखें चार होने के साथ ही मैंने उससे कहा, "दारोगा साहब, मैं आपके मकान में कैद होने के लिए नहीं आया हूँ बल्कि सरयू को देखने के लिए आया हूँ जिसके इस मकान में होने का पता मुझे लग चुका है। अतः इस समय मुझसे किसी तरह बुराई करने की उम्मीद न रखिए क्योंकि मैं अगर आधे घंटे के अन्दर इस मकान के बाहर होकर अपने साथियों के पास न चला जाऊँगा तो उन्हें विश्वास हो जायगा कि गदाधर- सिंह फंस गया और तब वे लोग आपको हर तरह से बर्बाद कर डालेगे, जिसका कि मैं पूरा-पूरा बन्दोबस्त कर आया हूँ।"

इतना सुनते ही दारोगा खड़ा हो गया और उसने हँस कर जवाब दिया, "मेरे लिए आपको इस कड़े प्रबन्ध की कोई आवश्यकता न थी और न मुझमें इतनी सामर्थ्य ही है कि आप जैसे ऐयार का मुकाबला करूँ, मैं तो खुद आपकी तलाश में ही था कि किसी तरह आपको पाऊँ और अपना कसूर माफ कराऊँ । मुझे तो विश्वास है कि जब आप एक बड़ा कसुर माफ कर चुके हैं तो इसको भी माफ कर देंगे । गुस्से को दूर कीजिए, फिर भी आपके लिए हाजिर हूँ।"

मैं-(बैठकर और दारोगा को बैठा कर) कसूर माफ कर देने के लिए तो कोई हर्ज नहीं है मगर आइन्दा के लिए कसूर न करने का वादा करके भी आपने मेरे साथ दगा की, इसका मुझे जरूर बड़ा रंज है !

दारोगा —— (हाथ जोड़कर) खैर, जो हो गया सो हो गया, अब अगर फिर कोई कसूर मुझसे हो तो जो चाहे सजा दीजियेगा, मैं उफ भी न करूंगा।

मैं —— खैर, एक दफा और सही, मगर इस कसूर के लिए आपको कुछ जुर्माना जरूर देना पड़ेगा।

दारोगा —— यद्यपि आप मुझे पहले ही पूरी तरह कंगाल कर चुके हैं मगर फिर भी मैं आपकी आज्ञा-पालन के लिए हाजिर हूँ।

मैं —— दो हजार अशर्फी।

दारोगा —— (आलमारी में से एक थैली निकाल कर और मेरे सामने रखकर) बस, एक हजार अशर्फी को कबूल कीजिए और..

मैं —— (मुस्कुराकर) मैं कबूल करता हूँ और अपनी तरफ से यह थैली आपको देकर इसके बदले में सरयू को मांगता हूँ जो इस समय आपके घर में है।

दारोगा -– बेशक सरयू मेरे घर में है और मैं उसे अभी आपके हवाले करूँगा मगर इस थैली को आप कबूल कर लीजिए, नहीं तो मैं समझूगा कि आपने मेरा कसूर माफ नहीं किया।

मैं —— नहीं-नहीं, मैं कसम खाकर कहता हूँ कि मैंने आपका कसूर माफ कर दिया और खुशी से यह थैली आपको वापस करता हूँ, अब मुझे सिवाय सरयू के और कुछ नहीं चाहिए।

हम दोनों में देर तक इसी तरह की बातें हुईं और और इसके बाद मेरी आखिरी बात सुनकर दारोगा उठ खड़ा हुआ और मेरा हाथ पकड़ दूसरे कमरे की तरफ यह कहता हुआ ले चला कि “आओ मैं तुमको सरयू के पास ले चलूं, मगर अफसोस की बात है कि इस समय वह हद दर्जे की बीमार हो रही है !' खैर, वह मुझे घुमाता-फिराता एक दूसरे कमरे में ले गया और वहाँ मैंने एक पलंग पर सरयू को बीमार पड़े देखा। एक मामूली चिराग उससे थोड़ी ही दूर पर जल रहा था। (लम्बी साँस लेकर) अफसोस, मैंने देखा कि बीमारी ने उसे आखिरी मंजिल के करीब पहुंचा दिया है और वह इतनी कमजोर हो रही है कि बात करना भी उसके लिए कठिन हो रहा है। मुझे देखते ही उसकी आँखें डबडबा आईं और मुझे भी रुलाई आने लगी। उस समय मैं उसके पास बैठ गया और अफसोस के साथ उसका मुंह देखने लगा। उस वक्त दो लौंडियाँ उसकी खिदमत के लिए हाजिर थीं जिनमें से एक ने आगे बढ़कर रूमाल से उसके आँसू पोंछे और पीछे हट गई ! मैंने अफसोस के साथ पूछा- “सरयू, यह तेरा क्या हाल है ?"

इसके जवाब में सरयू ने बहुत बारीक आवाज में रुककर कहा, "भैया, (क्योंकि वह प्रायः मुझे भैया कह कर ही पुकारा करती थी) मेरी बुरी अवस्था हो रही है। अब मेरे बचने की आशा न करनी चाहिए । यद्यपि दारोगा साहब ने मुझे कैद किया था मगर मैं इनका अहसान मानती हूँ कि इन्होंने मुझे किसी तरह की तकलीफ नहीं दी बल्कि इस बीमारी में मेरी बड़ी हिफाजत की, दवा इत्यादि का भी पूरा प्रबन्ध रखा, मगर यह न बताया कि मुझे कैद क्यों किया था। खैर, जो भी हो, इस समय तो मैं आखिरी दम का इन्तजार कर रही हूँ और सब तरफ से मोह-माया को छोड़ ईश्वर से लौ लगाने का उद्योग कर रही हूँ। मैं समझ गई हूँ कि तुम मुझे लेने के लिए आये हो । मगर दया करके मुझे इसी जगह रहने दो और इधर-उधर कहीं मत ले जाओ, क्योंकि इस समय मैं किसी अपने को देख मायामोह में आत्मा को फंसाना नहीं चाहती और न गंगाजी का सम्बन्ध छोड़ कर दूसरी किसी जगह मरना ही पसन्द करती हूं, यहाँ यों भी अगर गंगाजी में फेंक दी जाऊँगी, तो मेरी सद्गति हो जायगी, बस यही आखिरी प्रार्थना है। एक बात और भी है कि मेरे लिए दारोगा साहब को किसी तरह की तकलीफ न देना और ऐसा करना जिसमें इनकी जरा बेइज्जती न हो, यह मेरी वसीयत है और यही मेरी आरजू है । अब श्रीगंगाजी को छुड़ाकर मुझे नरक में मत डालो।" इतना कह सरयू कुछ देर को चुप हो गई और मुझे उसकी अवस्था पर रुलाई आने लगी। मैं और भी कुछ देर तक उसके पास बैठा रहा और धीरे-धीरे बातें भी होती रहीं। मगर जो कुछ उसने कहा उसका तत्त्व यही था कि मुझे यहाँ से मत हटाओ और दारोगा को कुछ तकलीफ मत दो। उस समय मेरे दिल में यही बात आई कि इन्द्रदेव को इस बात की इत्तिला दे देनी चाहिए। वह जैसी आज्ञा देंगे किया जायगा। मगर अपना यह विचार मैंने दारोगा से नहीं कहा क्योंकि उसे मैं इन्द्रदेव की तरफ से बेफिक्र कर चुका था और कह चुका था कि सरयू और इन्दिरा के साथ जो कुछ बर्ताव तुमने किया है, उसकी इत्तिला मैं इन्द्रदेव को न दूंगा, दूसरे को कसूरवार ठहराकर तुम्हारा नाम बचा जाऊँगा । अतः मैं सरयू से दूसरे दिन मिलने का वायदा करके वहाँ से उठा और अपने डेरे पर चला आया । यद्यपि रात बहुत कम बाकी रह गई थी, परन्तु मैंने उसी समय अपने एक खास आदमी को पत्र देकर इन्द्रदेव के पास रवाना कर दिया और ताकीद कर दी कि एक घोड़ा किराये का लेकर दौड़ा-दौड़ चला जाय और जहाँ तक हो सके पत्र का जवाब लेकर जल्द ही लौट आवे । दूसरे दिन आधी रात जाते-जाते तक वह आदमी लौट आया और उसने इन्द्रदेव का पत्र मेरे हाथ में दिया, लिफाफा खोल कर मैंने पढ़ा । उसमें यह लिखा हुआ था ——

"तुम्हारा पत्र पढ़ने से कलेजा हिल गया । सच तो यह है कि दुनिया में मुझ-सा बदनसीब भी कोई न होगा ! खैर, परमेश्वर की मर्जी ही ऐसी है तो मैं क्या कर सकता हूँ। दारोगा के बारे में मैंने जो प्रतिज्ञा तुमसे की है, उसे झूठ न होने दूंगा। मैं अपने कलेजे पर पत्थर रख कर सब कुछ सहूँगा। मगर वहाँ जाकर बेचारी सरयू को अपना मुंह न दिखाऊँगा और न दारोगा से मिलकर उसके दिल में किसी तरह का शक ही आने दूंगा। हाँ, अगर सरयू की जान बचती नजर आवे या इस बीमारी से बच जाय तो उसे जिस तरह मुनासिब समझना मेरे पास पहुंचा देना और अगर वह मर जाय तो मेरी जगह तुम बैठे ही हो, उसकी अन्त्येष्टि क्रिया अपनी हिम्मत के मुताबिक करके मेरे पास आना। मेरी तबीयत अब दुनिया से हट गई, बस, इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कहना चाहता । हाँ, यदि कुछ कहना होगा तो तुमसे मुलाकात होने पर कहूँगा। आगे जो ईश्वर की मर्जी ।

तुम्हारा वही-इन्द्रदेव !"

इस चिट्ठी को पढ़कर मैं बहुत देर तक रोता और अफसोस करता रहा। इसके

बाद उठकर दारोगा के मकान की तरफ रवाना हुआ। मगर आज भी अपने बचाव का पूरा-पूरा इन्तजाम करता गया। मुलाकात होने पर दारोगा ने कल से ज्यादा खातिर- दारी के साथ मुझे बैठाया और देर तक बातचीत करता रहा । मगर जब मैं सरयू के पास गया तो उसकी हालत कल से ज्यादा खराब देखने में आई, अर्थात् आज उसमें बोलने की भी ताकत न थी। मुख्तसिर यह है कि तीसरे दिन बेहोश और चौथे दिन आधी रात के समय मैंने सरयू को मुर्दा पाया । उस समय मेरी क्या हालत थी, सो मैं बयान नहीं कर सकता। अस्तु, उस समय जो कुछ करना उचित था और मैं कर सकता था, उसे सवेरा होने के पहले ही करके छुट्टी किया, अपने खयाल से सरयू के शरीर की दाह-क्रिया इत्यादि करके पंचतत्व में मिला दिया और इस बात की इत्तिला इन्द्रदेव को दे दी। इसके बाद इन्दिरा के लिए अपने अड्डे पर गया और वहाँ उसे न पाकर बड़ा ताज्जुब हुआ। पूछने पर मेरे आदमियों ने जवाब दिया कि "हम लोगों को कुछ भी खबर नहीं कि वह कब और कहाँ भाग गई।" इस बात से मुझे सन्तोष न हुआ। मैंने अपने आद- मियों को सख्त सजा दी और बराबर इन्दिरा का पता लगाता रहा। अब सरयू के मिल जाने से मालूम हुआ कि उस दिन मेरी कम्बख्त आँखों ने मेरे साथ दगा की और दारोगा के मकान में बीमार सरयू को मैं पहचान न सका। मेरी आँखों के सामने सरयू मर चुकी थी और मैंने खुद अपने हाथ से इन्द्रदेव को यह समाचार लिखा था, इसलिए उन्हें किसी तरह का शक न हुआ और सरयू तथा इन्दिरा के गम में ये दीवाने से हो गये, हर तरह के चैन और आराम को इन्होंने इस्तीफा दे दिया और उदासीन हो एक प्रकार से साधू ही बन बैठे। मुझसे भी मुहब्बत कम कर दी और शहर का रहना छोड़ अपने तिलिस्म के अन्दर चले गये और उसी में रहने लगे, मगर न मालूम क्या सोचकर इन्होंने मुझे वहाँ का रास्ता न बताया। मुझ पर भी इस मामले का बड़ा असर पड़ा क्योंकि ये सब बातें मेरी ही नालायकी के सबब से हुई थीं। अतएव मैंने उदासीन हो रणधीरसिंहजी की नौकरी छोड़ दी और अपने बाल-बच्चों तथा स्त्री को भी उन्हीं के यहां छोड़, बिना किसी को कुछ कहे जंगल और पहाड़ का रास्ता लिया। उधर एक और स्त्री से मैंने शादी कर ली थी जिससे नानक पैदा हुआ है। उधर भी कई ऐसे मामले हो गये जिनसे मैं बहुत उदास और परेशान हो रहा था, उसका हाल नानक की जुबानी तेजसिंह को मालूम ही हो चुका है। बल्कि आप लोगों ने भी तो सुना ही होगा। अस्तु, हर तरह से अपने को नालायक समझकर मैं निकल भागा और फिर मुद्दत तक अपना मुंह किसी को न दिखाया। इधर जब जमाने ने पलटा खाया तब मैं कमलिनीजी से जा मिला। उन दिनों मेरे दिल में विश्वास हो गया था कि इन्द्रदेव मुझसे रंज हैं। अतः मैंने इनसे भी मिलना-जुलना छोड़ दिया, बल्कि यों कहना चाहिए कि हमारी इतनी पुरानी दोस्ती का उन दिनों अन्त हो गया था।

इन्द्रदेव —— बेशक, यही बात थी। स्त्री के मरने की खबर सुन कर मुझे बड़ा ही रंज हुआ। मुझे कुछ तो भूतनाथ की जुबानी और कुछ तहकीकात करने पर मालूम ही हो चुका था कि मेरी लड़की और स्त्री इसी की बदौलत जहन्नुम चली गई। अस्तु, मैंने भूतनाथ की दोस्ती को तिलांजलि दे दी और मिलना-जुलना बिल्कुल बन्द कर दिया मगर इससे कहा कुछ भी नहीं क्योंकि मैं अपनी जुबान से दारोगा को माफ कर चुका था। इसके अतिरिक्त इसने मुझ पर कुछ अहसान भी जरूर ही किये थे, उनका भी मुझे खयाल था। अस्तु मैंने कुछ कहा तो नहीं, मगर इसकी तरफ से दिल हटा लिया और फिर अपना कोई भेद भी इसको नहीं बताया। कभी-कभी इसके साथ इधर-उधर की मुलाकात हो जाती थी, क्योंकि इसे मैंने अपने मकान का तिलिस्मी रास्ता नहीं दिखाया था । अगर यह कभी मेरे मकान पर आया भी तो अपनी आँखों पर पट्टी बांध कर । यही सबब था कि इसे लक्ष्मीदेवी का हाल मालूम न हुआ। लक्ष्मीदेवी के बारे में भी मैं इसे कसूरवार समझता था और मुझे यह भी विश्वास था कि यह अपना बहुत-सा भेद मुझसे छिपाता है और वास्तव में छिपाता भी था।

भूतनाथ—(इन्द्रदेव से) नहीं, सो बात तो नहीं है, मेरे कृपालु मित्र!.

इन्द्रजीतसिंह -अगर यह बात नहीं है तो कलमदान, जिसे तुम आखिरी मर्तबे इन्दिरा के साथ दारोगा के यहाँ से उठा लाये और मुझे दे गये थे, मेरे यहाँ से कैसे गायब हो गया?

भूतनाथ-(मुस्करा कर) आपके किस मकान में से वह कलमदान गायव हो गया था?

इन्द्रजीतसिंह-काशीजी वाले मकान में से । उसी दिन तुम मुझसे मिलने के लिए वहाँ आये थे और उसी दिन वह कलमदान गायब हो गया।

भूतनाथ-ठीक है, तो उस कलमदान को चुराने वाला मैं नहीं हूं, बल्कि मेरा लड़का नानक है । मैं तो यों भी अगर जरूरत होती तो आपसे वह कलमदान मांग सकता था । दारोगा की आज्ञानुसार लाड़िली ने रामभोली बनकर नानक को धोखा दिया और अ के यहाँ से कलमदान चुरवा मंगवाया।

गोपालसिंह-हाँ ठीक है, इस बात को तो मैं भी सकारूँगा क्योंकि मुझे इसका असल हाल मालूम है । बेशक इसी ढंग से वह कलमदान वहाँ पहुंचा था और अन्त में बड़ी मुश्किल से वह उस समय मेरे हाथ लगा, जब मैं कृष्ण जिन्न बन कर रोहतासगढ़ पहुंचा था। नानक को विश्वास है कि लाड़िली ने रामभोली बनकर उसे धोखा दिया था,मगर वास्तव में ऐसा नहीं हुआ। वह एक दूसरी ही ऐयारा थी जो रामभोली बनी थी,लाड़िली ने तो केवल एक ही दिन या दो दिन रामभोली का रूप धरा था।

जीतसिंह-(राजा गोपालसिंह से) वह कलमदान आपको कहाँ से मिल गया ? दारोगा ने तो उसे बड़ी ही हिफाजत से रखा होगा!

गोपालसिंह-बेशक ऐसा ही है । मगर भूतनाथ की बदौलत वह मुझे सहज ही में मिल गया। ऐसी-ऐसी चीजों को दारोगा बहुत गुप्त रीति से अपने अजायबघर में रखता था, जिसकी ताली मायारानी से लेकर भूतनाथ ने मुझे दी थी । उस अजायबघर का भेद मेरे पिता और उस दारोगा के सिवाय कोई नहीं जानता था। मेरे पिता ही ने


1.देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, चौथा भाग छठवां बयान । दारोगा को वहाँ का मालिक बना दिया था। जब भूतनाथ ने उसकी ताली मुझे दी, तब मुझे भी वहां का पूरा-पूरा हाल मालूम हुआ।

जीतसिंह-(भूतनाथ से) खैर, यह बताओ कि मनोरमा और नागर का तुमसे क्या सम्बन्ध था?

यह सवाल सुनकर भूतनाथ सन्न हो गया और सिर झुकाकर कुछ सोचने लगा। उस समय गोपालसिंह ने उसकी मदद की और जीतसिंह की तरफ देख कर कहा, “इस सवाल को छोड़ दीजिए, क्योंकि वह जमाना भूतनाथ का बहुत ही बुरा तथा ऐयाशी का था। इसके अतिरिक्त जिस तरह राजा वीरेन्द्रसिंहजी ने रोहतासगढ़ के तहखाने में भूतनाथ का कसूर माफ किया था, उसी तरह कमलिनी ने भी इसका वह कसूर कसम खिलाकर माफ किया और साथ ही उन ऐबों को छिपाने का बन्दोबस्त कर दिया है।"

इसके जवाब में जीतसिंह ने कहा, "खैर, जाने दो, देखा जायेगा।"

गोपालसिंह-जब से भूतनाथ ने कमलिनी का साथ किया है, तब से इसने (भूतनाथ ने) जो-जो काम किये हैं, उन पर ध्यान देने से आश्चर्य होता है।वास्तव में इसने ऐसे काम किये हैं, जिनकी ऐसे समय हमें सख्त जरूरत थी। मगर इसका लड़का नानक तो बिल्कुल ही बोदा और खुदगर्ज निकला। न तो कमलिनी के साथ मिल कर उसने कोई तारीफ का काम किया और न अपने बाप ही को किसी तरह की मदद दी।

भूतनाथ-बेशक ऐसा ही है, मैंने कई दफा उसे समझाया, मगर

सुरेन्द्र सिंह- (गोपाल से) अच्छा, अजायबघर में क्या बात है जिससे ऐसा अनूठा नाम उसका रखा गया ? अब तो तुम्हें उसका पूरा-पूरा हाल मालूम हो ही गया होगा।

गोपालसिंह-जी हाँ। एक किताब है जिसे 'ताली' के नाम से सम्बोधित करते हैं। उसके पढ़ने से वहां का कुल हाल मालूम होता है । वह बड़ी हिफाजत और तमाशे की जगह थी और कुछ है भी, क्योंकि अब उसका काफी हिस्सा मायारानी की बदौलत बर्बाद हो गया।

जीतसिंह-उस किताब (ताली) की बदौलत मायारानी को भी वहां का हाल मालूम हो गया होगा?

गोपालसिंह-कुछ-कुछ, क्योंकि उस किताब की भाषा वह अच्छी तरह समझ नहीं सकती थी। इसके अतिरिक्त उस अजायबघर का जमानिया के तिलिस्म से भी सम्बन्ध है। इसलिए कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को वहां का हाल मुझसे भी ज्यादा मालूम हुआ होगा।

जीतसिंह-ठीक है, (सुरेन्द्र सिंह की तरफ देख कर) आज यद्यपि बहुत-सी नई बातें मालूम हुई हैं । परन्तु फिर भी जब तक दोनों कुमार यहाँ न आ जायेंगे तत्र तक बहुत-सी बातों का पता न लगेगा।

सुरेन्द्र सिंह–सो तो होगा ही, परन्तु इस समय हम केवल भूतनाथ के मामले को तय करना चाहते हैं । जहाँ तक मालूम हुआ है भूतनाथ ने हम लोगों के साथ सिवाय भलाई के बुराई कुछ भी नहीं की। अगर उसने बुराई की तो इन्द्रदेव के साथ या कुछ गोपालसिंह के साथ, सो भी उस जमाने में जब इनसे और हमसे कुछ सम्बन्ध नहीं था। आज ईश्वर की कृपा से ये लोग हमारे साथ हैं, बल्कि हमारे अंग हैं । इससे कहा भी जा सकता है कि भूतनाथ हमारा ही कसूरवार है। मगर फिर भी हम इसके कसूरों की माफी का अख्तियार इन्हीं दोनों अर्थात् गोपालसिंह और इन्द्रदेव को देते हैं। ये दोनों अगर भूतनाथ का कसूर माफ कर दें तो हम इस बात को खुशी से मंजूर कर लेंगे । हाँ,लोग यह कह सकते हैं कि इस माफी देने में बलभद्रसिंह को भी शरीक करना चाहिए था। मगर हम इस बात को जरूरी नहीं समझते, क्योंकि इस समय बलभद्रसिंह को कैद से छुड़ा कर भूतनाथ ने उन पर बल्कि सच तो ये है कि हम लोगों पर भी बहुत बड़ा अहसान किया है, इसलिए अगर बलभद्र सिंह को इससे कुछ रंज हो तो भी माफी देने में वे कुछ उज्र नहीं कर सकते।

गोपालसिंह-इसी तरह हम दोनों को भी माफी देने में किसी तरह का उज्र न होना चाहिए। इस समय भूतनाथ ने मेरी बहुत बड़ी मदद की है और मेरे साथ मिल कर ऐसे अनूठे काम किये हैं कि जिनकी तारीफ सहज में नहीं हो सकती । इस हमदर्दी और मदद के सामने उन कसूरों की कुछ भी हकीकत नहीं, अतः मैं इससे बहुत प्रसन्न हूँ और सच्चे दिल से इसे माफी देता हूं।

इन्द्रदेव-माफी देनी ही चाहिए ! जब आप माफी दे चुके तो मैं भी दे चुका!ईश्वर भूतनाथ पर कृपा करें, जिससे अपनी नेकनामी बढ़ाने का शौक इसके दिल में दिन-दिन तरक्की करता रहे। सच बात तो यह है कि कमलिनी की बदौलत इस समय हम लोगों को यह शुभ दिन देखने में आया और जब कमलिनी ने इससे प्रसन्न हो इसके कसूर माफ कर दिए तो हम लोगों को बाल-बराबर भी उज्र नहीं हो सकता।

जीतसिंह-बेशक, बेशक !

सुरेन्द्रसिंह-इसमें कुछ भी शक नहीं ! (भूतनाथ की तरफ देख कर) अच्छा, भूतनाथ, तुम्हारा सब कसूर माफ किया जाता है। इन दिनों हम लोगों के साथ तुमने जो-जो नेकियां की हैं उनके बदले में हम तुम पर भरोसा करके तुम्हें अपना ऐयार बनाते हैं ।

इतना कहकर सुरेन्द्र सिंह उठ बैठे और अपने सिरहाने के नीचे से अपना खास बेशकीमत खंजर निकालकर भूतनाथ की तरफ बढ़ाया। भूतनाथ खड़ा हो गया और झुककर सलाम करने के बाद खंजर ले लिया और इसके बाद जीतसिंह, गोपालसिंह और इन्द्रदेव को भी सलाम किया। जीतसिंह ने अपना खास ऐयारी का बटुआ भूतनाथ को दिया। गोपालसिंह ने वह तिलिस्मी तमंचा, जिससे आखिरी वक्त मायारानी ने काम लिया था और जो इस समय उनके पास था, गोली बनाने की तरकीब सहित भूतनाथ को दिया और इन्द्रदेव ने यह कहकर उसे गले से लगा लिया कि “मुझ फकीर के पास इससे बढ़कर और कोई चीज नहीं है कि मैं फिर तुम्हें अपना भाई बना कर ईश्वर से प्रार्थना करूं कि अब इस नाते में किसी तरह का फर्क न पड़ने पावे।"

इसके बाद दोनों आदमी अपनी-अपनी जगह पर बैठ गये और भूतनाथ ने हाथ जोड़कर सुरेन्द्रसिंह से कहा, "आज मैं समझता हूँ कि मुझ-सा खुशनसीब इस दुनिया में दूसरा कोई भी नहीं है। बदनसीबी के चक्कर में पड़कर मैं वर्षों परेशान रहा, तरह-तरह की तकलीफें उठाई, पहाड़-पहाड़ और जंगल-जंगल मारा फिरा, साथ ही इसके पैदा भी बहुत किया और बिगाड़ा भी बहुत, परन्तु सच्चा सुख नाम मात्र के लिए एक दिन भी न मिला और न किसी को मुंह दिखाने की अभिलाषा ही रह गई। अन्त में न मालूम किस जन्म का पुण्य सहायक हुआ जिसने मेरे रास्ते को बदल दिया और जिसकी बदौलत आज मैं इस दर्जे को पहुँचा। अब मुझे किसी बात की परवाह न रही। आज तक जो मुझसे दुश्मनी रखते थे, कल से वे मेरी खुशामद करेंगे, क्योंकि दुनिया का कायदा ही ऐसा है। महाराज इस बात का भी निश्चय रखें कि उस पीतल की सन्दूकड़ी से महाराज या महाराज के पक्षपातियों का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, जो नकली बलभद्रसिंह की गठरी में से निकली है और जिसके बयान ही से मेरे रोंगटे खड़े होते हैं । मैं उस भेद को भी महाराज से छिपाना नहीं चाहता, हाँ, यह अच्छा है कि सर्वसाधारण में वह भेद न फैलने पाये। मैंने उसका कुछ हाल देवी सिंह से कह दिया है, आशा है कि वे महाराज से जरूर अर्ज करेंगे।

जीतसिंह--खैर, उसके लिए तुम चिन्ता न करो, जैसा होगा देखा जायेगा। अब अपने डेरे पर जाकर आराम करो, महाराज भी आज रात भर जागते ही रहे हैं।

गोपालसिंह--जी हाँ, अब तो नाममात्र को रात बच गई होगी।

इतना कहकर राजा गोपालसिंह उठ खड़े हुए और सबको साथ लिए हुए कमरे के बाहर चले गये।