चन्द्रकान्ता सन्तति 6/21.3
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इस समय रात बहुत कम बाकी थी और सुबह की सफेदी आसमान पर फैलना ही चाहती थी। और लोग तो अपने-अपने ठिकाने चले गए और दोनों नकाबपोशों ने भी अपने घर का रास्ता लिया, मगर भूतनाथ सीधे देवीसिंह के डेरे पर चला गया। दरवाजे पर ही पहरेवाले की जुबानी मालूम हुआ कि वे सोये हैं परन्तु देवीसिंह को न मालूम किस तरह भूतनाथ के आने की आहट मिल गई (शायद जागते हों)अतः वे तुरन्त बाहर निकल आए और भूतनाथ का हाथ पकड़कर कमरे के अन्दर ले गए। इस समय वहाँ केवल एक शमादान की मद्धिम रोशनी हो रही थी, दोनों आदमी फर्श पर बैठ गए और यों बातचीत होने लगी-
देवीसिंह–कहो, इस समय तुम्हारा आना कैसे हुआ? क्या कोई नई बात हुई?
भूतनाथ-बेशक नई बात हुई और वह इतनी खुशी की हुई है जिसके योग्य मैं नहीं था।
देवीसिंह—(ताज्जुब से) वह क्या ?
भूतनाथ-आज महाराज ने मुझे अपना ऐयार बना लिया और इस इज्जत के लिए मुझ अपना खंजर भी बख्शा है ।
इतना कहकर भूतनाथ ने महाराज का दिया हुआ बंजर और जीतसिंह तथा गोपालसिंह का दिया हुआ बटुआ और तमंचा देवीसिंह को दिखाया और कहा, "इसी बात की मुबारकबाद देने के लिए मैं आया हूँ कि तुम्हारा एक नालायक दोस्त इस दर्जे को पहुँच गया।"
देवीसिंह-(प्रसन्न होकर और भूतनाथ को गले से लगाकर) बेशक यह बड़ी खुशी की बात है, ऐसी अवस्था में तुम्हें अपने पुराने मालिक रणधीरसिंह को भी सलाम करने के लिए जाना चाहिए।
भूतनाथ-जरूर जाऊँगा !
देवीसिंह-यह कार्रवाई कब हुई ?
भूतनाध-अभी थोड़ी ही देर पहले हुई । मैं इस समय महाराज के पास से ही चला आ रहा हूँ। इतना कहकर भूतनाथ ने आज की रात का कुल हाल देवीसिंह से बयान किया ।इसके बाद भूतनाथ और देवीसिंह में देर तक बातचीत होती रही, और जब दिन अच्छी तरह निकल आया, तब दोनों ऐयार वहाँ से उठे और स्नान-संध्या की फिक्र में लगे ।
जरूरी कामों से निश्चिन्ती पा और स्नान-पूजा से निवृत्त होकर भूतनाथ अपने पुराने मालिक रणधीरसिंह के पास चला गया। बेशक उसके दिल में इस बात का खुटका लगा हुआ था कि उसका पुराना मालिक उसे देखकर प्रसन्न न होगा, बल्कि सामना होने पर भी कुछ देर तक उसके दिल में इस बात का गुमान बना रहा, मगर जिस समय भूतनाथ ने अपना खुलासा हाल बयान किया, उस समय बहुत परेशान रणधीरसिंह को और प्रसन्न पाया। रणधीरसिंह ने उसको खिलअत और इनाम भी दिया और बहुत देर तक उससे तरह-तरह की बातें करते रहे।