चन्द्रकान्ता सन्तति 6/21.5

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चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री
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महाराज की आज्ञानुसार कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के विवाह की तैयारी बड़ी धूमधाम से हो रही है। यहां से चुनार तक की सड़कें दोनों तरफ जाफरी वाली टट्टियों से सजाई हैं, जिन पर रोशनी की जायेगी और जिनके बीच में थोड़ी-थोड़ी दूर पर बड़े फाटक बने हुए हैं और उन पर नौबतखाने का इन्तजाम किया गया है। टट्टियों के दोनों तरफ बाजार बसाया जायेगा, जिसकी तैयारी कारिन्दे लोग बड़ी खूबी और मुस्तैदी के साथ कर रहे हैं। इसी तरह और भी तरह-तरह के तमाशों का इन्तजाम बीच-बीच में हो रहा है, जिसके सबब से बहुत ज्यादा भीड़-भाड़ होने की उम्मीद है और अभी से तमाशबीनों का जमावड़ा भी हो रहा है। रोशनी के साथ-साथ आतिशबाजी के इन्तजाम में भी बड़ी सरगर्मी दिखाई जा रही है, कोशिश हो रही है कि उम्दा से उम्दा तथा अनूठी आतिशबाजी का तमाशा लोगों को दिखाया जाये। इसी तरह और भी कई तरह के खेल-तमाशे और नाच इत्यादि का बन्दोबस्त हो रहा है, मगर इस समय हम इन सब बातों से कोई मतलब नहीं है क्योंकि हम अपने पाठकों को उस तिलिस्मी मकान की तरफ ले चलना चाहते हैं, जहां भूतनाथ और देवीसिंह ने नकाबपोशों के फेर में पड़कर शर्मिन्दगी उठाई थी और जहाँ इस समय दोनों कुमार अपने दादा, पिता तथा और सब आपस वालों को तिलिस्मी तमाशा दिखाने के लिए ले जा रहे हैं।

सुबह का सुहावना समय है और ठंडी हवा चल रही है। जंगली फूलों की खुशबू से मस्त सुन्दर-सुन्दर रंग-बिरंगी खूबसूरत चिड़ियाएं हमारे सर्वगुण-सम्पन्न मुसाफिरों को मुबारकबाद दे रही हैं, जो तिलिस्म की सैर करने की नीयत से मीठी-मीठी बातें करते हुए जा रहे हैं।

घोड़े पर सवार महाराज सुरेन्द्रसिंह, राजा वीरेन्द्रसिंह, जीतसिंह, गोपालसिंह, इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह तथा पैदल तेजसिंह, देवीसिंह, भूतनाथ, पंडित बद्रीनाथ, रामनारायण, पन्नालाल वगैरह अपने ऐयार लोग जा रहे थे। तिलिस्म के अन्दर मिले हुए कैदी अर्थात् नकाबपोश लोग तथा भैरोंसिंह और तारासिंह इस समय साथ न थे।इस समय देवीसिंह से ज्यादा भूतनाथ का कलेजा उछल रहा था और वह अपनी स्त्री का असली भेद जानने के लिए बेताब हो रहा है। जब से उसे इस बात का पता लगा कि वे दोनों सरदार नकाबपोश यही दोनों कुमार हैं तथा उस विचित्र मकान के मालिक भी यही हैं, तब से उसके दिल का खुटका कुछ कम तो हो गया, मगर खुलासा हाल जानने और पूछने का मौका न मिलने के सबब उसकी बेचैनी दूर नहीं हुई थी। वह यह भी जानना चाहता था कि अब उसकी स्त्री तथा लड़का हरनामसिंह किस फिक्र में हैं। इस समय जब वह फिर उसी ठिकाने जा रहा था, जहाँ अपनी स्त्री की बदौलत गिरफ्तार होकर अपने लड़के का विचित्र हाल देखा था, तब उसका दिल और बेचैन हो उठा था मगर साथ ही इसके उसे इस बात की भी उम्मीद हो रही थी कि अब उसे उसकी स्त्री का हाल मालूम हो जायेगा या कुछ पूछने का मौका ही मिलेगा। [ ३६ ]ये लोग धीरे-धीरे बातचीत करते हुए उसी खोह या सुरंग की तरफ जा रहे थे।दिन पहर भर से ज्यादा न चढ़ा होगा, जब ये लोग उस ठिकाने पहुंच गए। महाराज सुरेन्द्रसिंह और वीरेन्द्रसिंह वगैरह घोड़ों पर से नीचे उतर पड़े, साईसों ने घोड़े थाम लिए और इसके बाद उन सभी ने सुरंग के अन्दर पैर रखा । इस सुरंग वाले रास्ते का कुछ खुलासा हाल हम इस सन्तति के उन्नीसवें भाग में लिख आये हैं, जब भूतनाथ यहाँ आया था, अब उसे पुनः दोहराने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती। हाँ, इतना लिख देना जरूरी जान पड़ता है कि दोनों कुमारों ने सभी को यह बात समझा दी कि यह रास्ता बन्द क्योंकर हो सकता है। बन्द होने का स्थान वही चबूतरा था जो सुरंग के बीच में पड़ता था।

जिस समय ये लोग सुरंग तय करके मैदान में पहुँचे, सामने वही छोटा बँगला दिखाई दिया, जिसका हाल हम पहले लिख चुके हैं। इस समय उस बँगले के आगे वाले दालान में दो नकाबपोश औरतें हाथ में तीर-कमान लिए टहलती पहरा दे रही थीं जिन्हें देखते ही खास करके भूतनाथ और देवीसिंह को बड़ा ताज्जुब हुआ और उनके दिल में तरह-तरह की बातें पैदा होने लगीं । भूतनाथ का इशारा पाकर देवीसिंह ने कुंअर इन्द्र-जीतसिंह से पूछा, "ये दोनों नकाबपोश औरतें कौन हैं जो पहरा दे रही हैं?' इसके जवाब में कुमार तो चुप रह गए, मगर महाराज सुरेन्द्रसिंह ने कहा, "इसके जानने की तुम लोगों को क्या जल्दी पड़ी हुई है? जो कोई होंगी, सब मालूम ही हो जायेगा !"

इस जवाब ने देवीसिंह और भूतनाथ को देर तक के लिए चुप कर दिया और विश्वास दिला दिया कि महाराज को इनका हाल जरूर मालूम है। जब उन औरतों ने इन सभी को पहचाना और अपनी तरफ आते देखा, तो बैंगले के अन्दर घुसकर गायब हो गईं, तब तक ये लोग भी उस दालान में जा पहुँचे। इस जर भी यह बँगला उसी हालत में था जैसा कि भूतनाथ और देवीसिंह ने देखा था।

हम पहले लिख चुके हैं और अब भी लिखते हैं कि यह बंगला जैसा बाहर से सादा और साधारण मालूम होता था वैसा अन्दर से न था और यह बात दालान में पहुंचने के साथ ही सभी को मालूम हो गई । दालान की दीवारों में निहायत खूबसूरत और आलादर्जे की कारीगरी का नमूना दिखाने वाली तस्वीरों को देखकर सब कोई दंग हो गए और मुसौवर के हाथों की तारीफ करने लगे। ये तस्वीरें एक निहायत आलीशान इमारत की थीं और उसके ऊपर बड़े-बड़े हरफों में यह लिखा हुआ था-

"यह तिलिस्म चुनारगढ़ के पास ही एक निहायत खूबसूरत जंगल में कायम किया गया है, जिसे महाराज सुरेन्द्रसिंह के लड़के वीरेन्द्रसिंह तोड़ेंगे।"

इस तस्वीर को देखते ही सभी को विश्वास हो गया कि वह तिलिस्मी खंडहर जिसमें तिलिस्मी बगुला था और जिस पर इस समय निहायत आलीशान इमारत बनी हुई है पहले इसी शक्ल-सूरत में था, जिसे जमाने के हेर-फेर ने अच्छी तरह बर्वाद करके उजाड़ और भयानक बना दिया । इमारत की उस बड़ी और पूरी तस्वीर के नीचे उसके भीतर वाले छोटे-छोटे टुकड़े भी बनाकर दिखलाए गए थे और उस बगुले की तस्वीर भी बनी हुई थी जिसे राजा वीरेन्द्रसिंह ने बखूबी पहचान लिया और कहा, "बेशक अपने [ ३७ ]जमाने में वह बहुत अच्छी इमारत थी।"

सुरेन्द्रसिंह-यद्यपि आजकल जो इमारत तिलिस्मी खंडहर पर बनी है और जिसके बनवाने में जीतसिंह ने अपनी तबीयतदारी और कारीगरी का अच्छा नमूना दिखाया है, बुरी नहीं है, मगर हमें इस पहली इमारत का ढंग कुछ अनूठा और सुन्दर मालूम पड़ता है।

जीतसिंह-बेशक ऐसा ही है । यदि इस तस्वीर को मैं पहले देखे हुए होता तो जरूर इसी ढंग की इमारत बनवाता।

वीरेन्द्रसिंह-और ऐसा होने से वह तिलिस्म एक दफे नया मालूम पड़ता।

इन्द्रजीतसिंह--यह नारगढ़ वाला तिलिस्म साधारण नहीं बल्कि बहुत बड़ा है। नौगढ़, विजयगढ़ और जमानिया तक इसकी शाखा फैली हुई है । इस बँगले को इस बहुत बड़े और फैले तिलिस्म का 'केन्द्र' समझना चाहिए, बल्कि ऐसा भी कह सकते हैं कि यह बंगला तिलिस्म का नमूना है ।

थोड़ी देर तक दालान में खड़े इसी किस्म की बातें होती रहीं और इसके बाद सभी को साथ लिए हुए दोनों कुमार बँगले के अन्दर रवाना हुए।

सदर दरवाजे का पर्दा उठाकर अन्दर जाते ही ये लोग एक गोल कमरे में पहुंचे,जो भूतनाथ और देवीसिंह का देखा हुआ था। इस गोल और गुम्बददार खूबसूरत कमरे की दीवारों पर जंगलों, पहाड़ों और रोहतासगढ़ की तस्वीरें बनी हुई थीं। घड़ी-घड़ी तारीफ न करके एक ही दफे लिख देना ठीक होगा कि इस बँगले में जितनी तस्वीरें देखने में आईं, सभी आला दर्जे की कारीगरी का नमूना थीं और यही मालूम होता था कि आज ही बनकर तैयार हुई हैं । इस रोहतासगढ़ की तस्वीर को देखकर सब कोई बड़े प्रसन्न हुए और राजा वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह की तरफ देखकर कहा, "रोहतासगढ़ किले और पहाड़ी की बहुत ठीक और साफ तस्वीर बनी हुई है।"

तेजसिंह-जंगल भी उसी ढंग का बना हुआ है, कहीं-कहीं से ही फर्क मालूम पड़ता है, नहीं तो बाज जगहें तो ऐसी बनी हुई हैं जैसी मैंने अपनी आँखों से देखी हैं ।(उँगली का इशारा करके) देखिये यह वही कब्रिस्तान है जिस राह से हम लोग रोहतास- गढ़ के तहखाने में घुसे थे। हाँ, यह देखिए, बारीफ हरफों में लिखा हआ भी है-"तहखाने में जाने का बाहरी फाटक ।"

इन्द्रजीतसिंह--इस तस्वीर को अगर गौर से देखेंगे तो वहाँ का बहुत ज्यादा हाल मालूम होगा। जिस जमाने में यह इमारत तैयार हुई थी, उस जमाने में वहां की और उसके चारों तरफ की जैसी अवस्था थी, वैसी ही इस तस्वीर में दिखाई है,आज चाहे कुछ फर्क पड़ गया हो!

तेजसिंह-बेशक ऐसा ही है।

इन्द्रजीतसिंह-इसके अतिरिक्त एक और ताज्जुब की बात अर्ज करूंगा।

वीरेन्द्रसिंह-वह क्या ?

इन्द्रजीतसिंह-इसी दीवार में से वहाँ (रोहतासगढ़) जाने का रास्ता भी है !

सुरेन्द्रसिंह-वाह-वाह ! क्या तुम इस रास्ते को खोल भी सकते हो? [ ३८ ]इन्द्रजीतसिंह-जी हाँ, हम लोग इसमें बहुत दूर तक जाकर घूम आये हैं ।

सुरेन्द्रसिंह --यह भेद तुम्हें क्योंकर मालूम हुआ ?

इन्द्रजीतसिंह--उसी 'रिक्तगन्थ' की बदौलत हम दोनों भाइयों को इन सब जगहों का हाल और भेद पूरा-पूरा मालूम हो चुका है। यदि आज्ञा हो तो दरवाजा खोलकर मैं आपको रोहतासगढ़ के तहखाने में ले जा सकता हूँ। वहाँ के तहखाने में भी एक छोटा-सा तिलिस्म है, जो इसी बड़े तिलिस्म से सम्बन्ध रखता है और हम लोग उसे खोल या तोड़ भी सकते हैं परन्तु अभी तक ऐसा करने का इरादा नहीं किया।

सुरेन्द्रसिंह--उस रोहतासगढ़ वाले तिलिस्म के अन्दर क्या चीज है ?

इन्द्रजीतसिंह-उसमें केवल अनूठे अद्भुत आश्चर्य गुण वाले हर्षे रखे हुए हैं,उन्हीं हरबों पर वह तिलिस्म बँधा है। जैसा तिलिस्मी खंजर हम लोगों के पास है या जैसे तिलिस्मी जिरह-बख्तर और हरबों की बदौलत राजा गोपालसिंह ने कृष्ण जिन्न का रूप धरा था, वैसे हरबों और असबाबों का तो वहां ढेर लगा हुआ है, हाँ, खजाना वहाँ कुछ भी नहीं है

सुरेन्द्रसिंह-ऐसे अनूठे हर्के खजाने से क्या कम हैं ?

जीतसिंह–वेशक ! (इन्द्रजीतसिंह से) जिस हिस्से को तुम दोनों भाइयों ने तोड़ा है, उसमें भी तो ऐसे अनूठे हरबे होंगे?

इन्द्रजीतसिंह-जी हाँ, मगर बहुत कम हैं।

वीरेन्द्रसिंह--अच्छा यदि ईश्वर की कृपा हुई तो फिर किसी मौके पर इस रास्ते से रोहतासगढ़ जाने का इरादा करेंगे। (मकान की सजावट और परदों की तरफ देखकर) क्या यह सब सामान, कन्दील, पर्दे और बिछावन वगैरह तुम लोग तिलिस्म के अन्दर से लाए थे?

इन्द्रजीतसिंह-जी नहीं, जब हम लोग यहां आए, तो इस बंगले को इसी तरह सजा-सजाया पाया और तीन-चार आदमियों को भी देखा जो इस बंगले की हिफाजत और मेरे आने का इन्तजार कर रहे थे।

सुरेन्द्रसिंह-(ताज्जुब से) वे लोग कौन थे और अब कहां हैं ?

इन्द्रजीतसिंह--दरियाफ्त करने पर मालूम हुआ कि वे लोग इन्द्रदेव के मुलाजिम थे, जो इस समय अपने मालिक के पास चले गए हैं। इस तिलिस्म का दारोगा असल इन्द्रदेव है, और आज के पहले भी इसी के बुजुर्ग लोग दारोगा होते आए हैं।

सुरेन्द्रसिंह-यह तुमने बड़ी खुशी की बात सुनाई, मगर अफसोस यह है कि इन्द्रदेव ने हमें इन बातों की कुछ भी ख़बर न की। आनन्दसिंह-अगर इन्द्रदेव ने इन सब बातों को आपसे छिपाया, तो यह कोई ताज्जुब की बात नहीं है, तिलिस्मी कायदे के मुताबिक ऐसा होना ही चाहिए था।

सुरेन्द्रसिंह --ठीक है, तो मालूम होता है कि यह सब सामान तुम्हारी खातिर-दारी के लिए इन्द्रदेव की आज्ञानुसार किया गया है।

आनन्दसिंह-जी हाँ, उसके आदमियों की जबानी मैंने भी यही सुना है ।

इसके बाद बड़ी देर तक ये लोग इन तस्वीरों को देखते और ताज्जुब भरी बातें [ ३९ ]करते रहे और फिर आगे की तरफ बढ़े । जब पहले भूतनाथ और देवीसिंह यहाँ आये थे, तब हम लिख चुके हैं कि इस कमरे में सदर दरवाजे के अतिरिक्त और भी तीन दरवाजे थे—इत्यादि । अतः उन दोनों ऐयारों की तरह इस समय भी सभी को साथ लिए हुए दोनों कुमार दाहिनी तरफ वाले दरवाजे के अन्दर गए, और घूमते हुए उसी बहुत बड़े और आलीशान कमरे में पहुँचे, जिसमें पहले भूतनाथ और देवी सिंह ने पहुंच कर आश्चर्य-भरा तमाशा देखा था।

इस आलीशान कमरे की तस्वीरें खूबी और खूबसूरती में संब तस्वीरों से बढ़ी-चढ़ी थी तथा दीवारों पर जंगल, मैदान पहाड़, खोह, दरे, झरने, शिकारगाह तथा शहरपनाह, किले, मोर्चे और लड़ाई इत्यादि की बहुत तस्वीरें बनी हुई थीं, जिन्हें सब कोई गौर और ताज्जुब के साथ देखने लगे।

सुरेन्द्रसिंह-(किले की तरफ इशारा करके) यह तो चुनारगढ़ की तस्वीर है।

इन्द्रजीतसिंह—जी हाँ, (उँगली का इशारा करके) और यह जमानिया के किले तथा खास बाग की तस्वीर है । इसी दीवार में से वहाँ जाने का भी रास्ता है । महाराज सूर्यकान्त के जमाने में उनके शिकारगाह और जंगल की यह सूरत थी।

वीरेन्द्रसिंह-और यह लड़ाई की तस्वीर कैसी है ? इसका क्या मतलब है ?

इन्द्रजीतसिंह-इन तस्वीरों में बड़ी कारीगरी खर्च की गई है। महाराज सूर्य-कान्त ने अपनी फौज को जिस तरह की कवायद और व्यूह-रचना इत्यादि का ढंग सिखाया था वे सब बातें इन तस्वीरों में भरी हुई हैं। एक तरकीब करने से ये सब तस्वीरें चलती-फिरती और काम करती नजर आएँगी और साथ ही इसके फौजी बाजा भी बजता हुआ सुनाई देगा अर्थात् इन तस्वीरों में जितने बाजे वाले हैं वे सब भी अपना-अपना काम करते हुए मालूम पड़ेंगे, परन्तु इस फौजी तमाशे का आनन्द रात को मालूम पड़ेगा, दिन को नहीं । इन्हीं तस्वीरों के कारण इस कमरे का नाम 'व्यूह-मण्डल' रक्खा गया है, वह देखिए ऊपर की तरफ बड़े हरफों में लिखा हुआ है।

सुरेन्द्रसिंह--यह बहुत अच्छी कारीगरी है। इस तमाशे को हम जरूर देखेंगे बल्कि और भी कई आदमियों को दिखाएंगे ।

इन्द्रदेव-बहुत अच्छा, रात हो जाने पर मैं इसका बन्दोबस्त करूँगा, तब तक आप और चीजों को देखें।

ये लोग जिस दरवाजे से इस कमरे में आये थे, उसके अतिरिक्त एक दरवाजा और भी था जिस राह से सभी को लिए दोनों कुमार दूसरे कमरे में पहुँचे । इस कमरे की दीवार बिल्कुल साफ थी अर्थात् उस पर किसी तरह की तस्वीर बनी हुई न थी। कमरे के बीचोंबीच दो चबूतरे संगमरमर के बने हुए थे जिसमें एक तो खाली था और दूसरे चबूतरे के ऊपर सफेद पत्थर की एक खूबसूरत पुतली बैठी हुई थी। इस जगह पर ठहर कर कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने अपने दादा और पिता की तरफ देखा और कहा,"नकाबपोशों की जुबानी हम लोगों का तिलिस्मी हाल जो कुछ आपने सुना है, वह तो याद ही होगा, अतः हम लोग पहली दफा तिलिस्म से बाहर निकलकर जिस सुहावनी [ ४० ]घाटी में पहुंचे थे वह यही स्थान है ।' इसी चबूतरे के अन्दर से हम लोग बाहर हुए थे ।उस 'रिक्तगंथ' की बदौलत हम दोनों भाई यहाँ तक तो पहुँच गए मगर उसके बाद इस चबूतरे ले तिलिस्म को खोल न सके, हाँ इतना जरूर है कि उस'रिक्तगंथ' की बदौलत इस चबूतरे में से (जिस पर एक पुतली बैठी हुई थी उसकी तरफ इशारा करके) एक दूसरी किताब हाथ लगी जिसकी बदौलत हम लोगों ने उस चबूतरे वाले तिलिस्म को खोला और उसी राह से आपकी सेवा में जा पहुंचे।

"आप सुन चुके हैं कि जब हम दोनों भाई राजा गोपालसिंह को मायारानी की कैद से छुड़ा कर जमानिया के खास बाग वाले देवमन्दिर में गये थे तब वहाँ पहले आनन्द-सिंह तिलिस्म के फन्दे में फंस गये थे, उन्हें छुड़ाने के लिए जब मैं भी उसी गड़हे या कुएँ में कूद पड़ा तो चलता-चलता एक दूसरे बाग में पहुँचा जिसके बीचोंबीच में एक मन्दिर था। उस मन्दिर वाले तिलिस्म को जब मैंने तोड़ा तो वहाँ एक पुतली के अन्दर कोई चमकती हुई चीज मुझे मिली।"2

वीरेन्द्रसिंह–हाँ, हमें याद है, उस मूरत को तुमने उखाड़ कर किसी कोठरी के अन्दर फेंक दिया था और वह फूट कर चूने की कली की तरह हो गई थी। उसी पेट में से...

इन्द्रजीतसिंह-जी हाँ।

सुरेन्द्रसिंह-तो वह चमकती हुई चीज क्या थी और वह कहाँ है ? इन्द्रजीतसिंह-वह हीरे की बनी हुई एक चाबी थी जो अभी तक मेरे पास मौजूद है, (जेब में से निकाल कर और महाराज को दिखा कर) देखिये, यही ताली इस पुतली के पेट में लगती है।

सभी ने उस चाबी को गौर से देखा और इन्द्रजीतसिंह ने सभी के देखते-देखते उस चबूतरे पर बैठी हुई पुतली की नाभि में वह ताली लगाई। उसका पेट छोटी आलमारी के पल्ले की तरह खुल गया।

इन्द्रजीतसिंह -बस इसी में से वह किताब मेरे हाथ लगी जिसकी बदौलत वह चबूतरे वाला तिलिस्म खोला।

सुरेन्द्रसिंह-अब वह किताब कहाँ है ?

इन्द्रजीतसिंह-आनन्दसिंह के पास मौजूद है ।

इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह की तरफ देखा और उन्होंने एक छोटी-सी किताब, जिसके अक्षर बहुत बारीक थे, महाराज के हाथ में दे दी।यह किताब भोजपत्र की थी जिसे महाराज ने बड़े गौर से देखा और दो-तीन जगहों से कुछ पढ़ कर आनन्दसिंह के हाथ में देते हुए कहा, "इसे निश्चिन्ती में एक दफा पढ़ेंगे।"

इन्द्रजीतसिंह—यह पुतलीवाला चबूतरा उस तिलिस्म में घुसने का दरवाजा है ।

इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह ने उस पुतली के पेट में (जो खुल गया था)


1. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, बीसवाँ भाग, नौवां बयान

2,देखिए " "दसवाँ भाग, पहला बयान । [ ४१ ]डाल के कोई पेंच घुमाया जिससे चबूतरे के दाहिनी तरफ वाली दीवार किवाड़ के पल्ले की तरह धीरे-धीरे खुलं कर जमीन के साथ सट गई और नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ दिखाई देने लगीं। इन्द्रजीतसिंह ने तिलिस्मी खंजर हाथ में लिया और उसका कब्जा दबा कर रोशनी करते हुए चबूतरे के अन्दर घुसे तथा सभी को अपने पीछे आने के लिए कहा। सभी के पीछे आनन्दसिंह तिलिस्मी खंजर की रोशनी करते हुए चबूतरे के अन्दर घुसे । लगभग पन्द्रह-बीस चक्करदार सीढ़ियों के नीचे उतरने के बाद ये लोग एक बहुत बड़े कमरे में पहुंचे जिसमें सोने-चांदी के सैकड़ों बड़े-बड़े हण्डे, अशफियों और जवाहिरात से भरे हुए पड़े थे जिन्हें सभी ने बड़े गौर और ताज्जुब के साथ देखा और महाराज ने कहा, "इस खजाने का अन्दाज करना भी मुश्किल है।"

इन्द्रजीतसिंह-जो कुछ खजाना इस तिलिस्म के अन्दर मैंने देखा और पाया है उसका यह पासंगा भी नहीं है। उसे बहुत जल्द ऐयार लोग आपके पास पहुँचावेंगे । उन्हीं के साथ-साथ कई चीजें दिल्लगी की भी हैं जिसमें एक चीज वह भी है जिसकी बदौलत हम लोग एक दफा हँसते-हँसते दीवार अन्दर कूद पड़े थे और मायारानी के हाथ में गिरफ्तार हो गए थे।

जीतसिंह-(ताज्जुब से) हाँ ! अगर वह चीज शीघ्र बाहर निकाल ली जाय तो (सुरेन्द्रसिंह से) कुमारों की शादी में सर्वसाधारण को भी उसका तमाशा दिखाया जा सकता है।

सुरेन्द्रसिंह-बहुत अच्छी बात है, ऐसा ही होगा।

इन्द्रजीतसिंह-इस तिलिस्म में घुसने के पहले ही मैंने सभी का साथ छोड़ दिया अर्थात् नकाबपोशों को (कैदियों को) बाहर ही छोड़कर केवल हम दोनों भाई ही इसके अन्दर घुसे और काम करते हुए धीरे-धीरे आपकी सेवा में जा पहुंचे।

सुरेन्द्रसिंह-तो शायद उसी तरह हम लोग भी यह सब तमाशा देखते हुए उसी चबूतरे की राह बाहर निकलेंगे ?

जीतसिंह--मगर क्या उन चलती-फिरती तस्वीरों का तमाशा न देखिएगा?

सुरेन्द्रसिंह--हाँ, ठीक है, उस तमाशे को तो जरूर देखेंगे।

इन्द्रजीत सिंह--तो अब यहाँ से लौट चलना चाहिए, क्योंकि इस कमरे के आगे बढ़कर फिर आज ही लौट आना कठिन है, इसके अतिरिक्त अब दिन भी थोड़ा ही रह गया है, संध्या-वन्दन और भोजन इत्यादि के लिए भी कुछ समय चाहिए और फिर उन तस्वीरों का तमाशा भी कम-से-कम चार-पांच घण्टे में पूरा होगा।

सुरेन्द्रसिंह-क्या हर्ज है, लौट चलो।

महाराज की आज्ञानुसार सब कोई वहाँ से लौटे और घूमते हुए बँगले के बाहर निकल आये, देखा तो वास्तव में दिन बहुत कम रह गया था।