चन्द्रकान्ता सन्तति 6/22.3

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चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

[ ७३ ]

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प्रेमी पाठक भूले न होंगे कि दो आदमियों ने भूतनाथ से अपना नाम दलीपशाह बतलाया, जिनमें से एक को पहला दलीप और दूसरे को दूसरा दलीप समझना चाहिए।

भूतनाथ तो पहले ही सोच में पड़ गया था कि अपना हाल आगे बयान करे या नहीं, अब दोनों दलीपशाह को देखकर वह और भी घबड़ा गया। ऐयार लोग समझ रहे थे कि अब उसमें बात करने की भी ताकत नहीं रही। उसी समय इन्द्रदेव ने भूतनाथ से कहा, "क्यों भूतनाथ, चुप क्यों हो गये ? कहो हाँ, तब आगे क्या हुआ ?"

इसका जवाब भूतनाथ ने कुछ न दिया और सिर झुकाकर जमीन की तरफ देखने लगा। उस समय पहले दलीपशाह ने हाथ जोड़ कर महाराज की तरफ देखा और कहा,"कृपानाथ, भूतनाथ को अपना हाल बयान करने में बड़ा कष्ट हो रहा है, और वास्तव में बात भी ऐसी ही है। कोई भला आदमी अपनी उन बातों को जिन्हें वह ऐब समझता है, [ ७४ ]अपनी जबान से अच्छी तरह बयान नहीं कर सकता । अतः यदि आज्ञा हो तो मैं इसका हाल पूरा-पूरा बयान कर जाऊँ, क्योंकि मैं भी भूतनाथ का हाल उतना ही जानता हूँ, जितना स्वयं भूतनाथ । भूतनाथ जहाँ तक बयान कर चुके हैं, उसे मैं बाहर खड़ा-खड़ा सुन भी चुका हूँ। जब मैंने समझा कि अब भूतनाथ से अपना हाल नहीं कहा जाता तब मैं यह अर्ज करने के लिए हाजिर हुआ हूँ। (भूतनाथ की तरफ देखकर) मेरे इस कहने से आप यह न समझिएगा कि मैं आपके साथ दुश्मनी कर रहा हूँ। नही, जो काम आपके सुपुर्द किया गया है, उसे आपके बदले में मैं आसानी के साथ कर देना चाहता हूँ।"

इन दोनों आदमियों (दलीपशाह) को महाराज तथा और सब ने भी ताज्जुब के साथ देखा था, मगर यह समझ कर इन्द्रदेव से किसी ने कुछ भी न पूछा कि जो कुछ है, थोड़ी देर में मालूम हो ही जायेगा, मगर जब दलीपशाह ऊपर लिखी बात बोलकर चुप हो गया, तब महाराज ने भेद-भरी निगाहों से इन्द्रजीतसिंह की तरफ देखा और कुमार ने झुककर धीरे से कुछ कह दिया, जिसे वीरेन्द्रसिंह तथा तेजसिंह ने भी सुना तथा इनके जरिए से हमारे और साथियों को भी मालूम हो गया कि कुमार ने क्या कहा ।

दलीपशाह की बात सुनकर इन्द्रदेव ने महाराज की तरफ देखा और हाथ जोड़कर कहा, "इन्होंने (दलीपशाह ने) जो कुछ कहा, वास्तव में ठीक है, मेरी समझ में अगर भूतनाथ का किस्सा इन्हीं की जवानी सुन लिया जाये तो कोई हर्ज नहीं है !" इसके जवाब में महाराज ने मंजूरी के लिए सिर हिला दिया।

इन्द्रजीतसिंह--(भूतनाथ की तरफ देखकर) भूतनाथ, इसमें तुम्हें किसी तरह का उज्र है ?

भूतनाथ--(महाराज की तरफ देखकर और हाथ जोड़कर) जो महाराज की मर्जी, मुझमें 'नहीं' कहने की सामर्थ्य नहीं है । मुझे क्या खबर थी कि कसूर माफ हो जाने पर भी यह दिन देखना नसीब होगा। यद्यपि यह मैं खूब जानता हूँ कि मेरा भेद अब किसी से छिपा नहीं रहा, परन्तु फिर भी अपनी भूल बार-बार कहने या सुनने से लज्जा बढ़ती ही जाती है कम नहीं होती । खैर कोई चिन्ता नहीं, जैसा होगा वैसा अपने कलेजे को मजबूत करूंगा और दलीपशाह की कही हुई बातें सुनूंगा तथा देलूंगा कि ये महाशय कुछ झूठ का भी प्रयोग करते हैं या नहीं।

दलीपशाह--नहीं-नहीं भूतनाथ, मैं झूठ कदापि न बोलूंगा, इससे तुम बेफिक रहो ! (इन्द्रदेव की तरफ देख के) अच्छा तो अब मैं प्रारम्भ करता हूँ। दलीपशाह ने इस तरह कहना शुरू किया-

"महाराज, इसमें कोई सन्देह नहीं कि ऐयारी के फन में भूतनाथ परले सिरे का उस्ताद और तेज आदमी है । अगर यह ऐयाशी के दरिया में गोते लगाकर अपने को बर्बाद न कर दिए होता तो इसके मुकाबले का ऐयार आज दुनिया में दिखाई न देता। मेरी सूरत देख के ये चौंकते और डरते हैं और इनका डरना वाजिब ही है मगर अब मैं इनके साथ किसी तरह का बुरा बर्ताव नहीं कर सकता, क्योंकि मैं ऐसा करने के लिए दोनों कुमारों से प्रतिज्ञा कर चुका हूँ और इनकी आज्ञा मैं किसी तरह टाल नहीं सकता क्योंकि इन्हीं की बदौलत आज मैं दुनिया की हवा खा रहा हूँ। (भूतनाथ की [ ७५ ]तरफ देख के) भूतनाथ, मैं वास्तव में दलीपशाह हूँ, उस दिन तुमने मुझे नहीं पहचाना तो इसमें तुम्हारी आँखों का कोई कसूर नहीं है, कैद की सख्तियों के साथ-साथ जमाने की चाल ने मेरी सूरत ही बदल दी है, तुम तो अपने हिसाब से मुझे मार हो चुके थे और तुम्हें मुझसे मिलने की कभी उम्मीद भी न थी मगर सुन लो और देख लो कि ईश्वर की कृपा से मैं अभी तक जीता-जागता तुम्हारे सामने खड़ा हूँ। यह कुंअर साहब के चरणों का प्रताप है । अगर मैं कैद न हो जाता तो तुमसे बदला लिए बिना कभी न रहता, मगर तुम्हारी किस्मत अच्छी थी जो मैं कैद हो रह गया और छूटा भी तो कुंअर साहब के हाथ से, जो तुम्हारे पक्षपाती हैं । तुम्हें इन्द्रदेव से बुरा न मानना चाहिए और न यह सोचना चाहिए कि तुम्हें दुःख देने के लिए इन्द्रदेव तुम्हारा पुराना पचड़ा खुलवा रहे हैं ! तुम्हारा किस्सा तो सब को मालूम हो चुका है, इस समय ज्यों का त्यों चुपचाप रह जाने पर तुम्हारे चित्त को शान्ति नहीं मिल सकती और तुम हम लोगों की सूरत देख-देखकर दिन-रात तरवुद में पड़े रहोगे अतः तुम्हारे पिछले ऐबों को खोलकर इन्द्रदेव तुम्हारे चित्त को शान्ति दिया चाहते हैं और तुम्हारे दुश्मनों को, जिनके साथ तुम ही ने बुराई की है, तुम्हारा दोस्त बना रहे हैं । ये यह भी चाहते हैं कि तुम्हारे साथ-ही-साथ हम लोगों का भेद भी खुल जाय और तुम जान जाओ कि हम लोगों ने तुम्हारा कसूर माफ कर दिया है क्योंकि अगर ऐसा न होगा तो जरूर तुम हम लोगों को मार डालने की फिक्र में पड़े रहोगे और हम लोग इस धोखे में रह जायेंगे कि हमने इनका कसूर तो माफ ही कर दिया,अब ये हमारे साथ बुराई न करेंगे। (जीतसिंह की तरफ देखकर) अब मैं मतलब की तरफ झुकता हूँ और भूतनाथ का किस्सा बयान करता हूँ।

जिस जमाने का हाल भूतनाथ बयान कर रहा है, अर्थात् जिन दिनों भूतनाथ के मकान से दयाराम गायब हो गए थे उन दिनों यही नागर काशी के बाजार में वेश्या बनकर बैठी हुई अमीरों के लड़कों को चौपट कर रही थी। उसकी बढ़ी-चढ़ी खूबसूरती लोगों के लिए जहर हो रही थी और माल के साथ ही विशेष प्राप्ति के लिए यह लोगों की जान पर भी वार करती थी। यही दशा मनोरमा की भी थी परन्तु उसकी बनिस्बत यह बहुत ज्यादा रुपए वाली होने पर भी नागर की-सी खूबसूरत न थी, हाँ, चालाक जरूर ज्यादा थी। और लोगों की तरह भूतनाथ और दयाराम भी नागर के प्रेमी हो रहे थे। भूतनाथ को अपनी ऐयारी का घमण्ड था और नागर को अपनी चालाकी का। भूतनाथ नागर के दिल पर कब्जा करना चाहता था और नागर इसकी तथा दयाराम की दौलत अपने खजाने में मिलाना चाहती थी।

दयाराम की खोज में घर से शागिर्दो को साथ लिए हुए बाहर निकलते ही भूतनाथ ने काशी का रास्ता लिया और तेजी के साथ सफर तय करता हुआ नागर के मकान पर पहुँचा । नागर ने भूतनाथ की बड़ी खातिरदारी और इज्जत की तथा कुशल-मंगल पूछने के बाद यकायक यहाँ आने का सबब भी पूछा।

भूतनाथ ने अपने आने का ठीक-ठीक सबब तो नहीं बताया, मगर नागर समझ गई कि कुछ दाल में काला जरूर है। इसी तरह भूतनाथ को भी इस बात का शक पैदा हो गया कि दयाराम की चोरी में नागर का कुछ लगाव जरूर है अथवा यह उन आद[ ७६ ]मियों को जरूर जानती है जिन्होंने दयाराम के साथ ऐसी दुश्मनी की है।

भूतनाथ का शक काशी ही वालों पर था इसलिए काशी ही में अड्डा बनाकर इधर-उधर घूमना और दयाराम का पता लगाना आरम्भ किया। जैसे-जैसे दिन बीतता था, भूतनाथ का शक भी नागर के ऊपर बढ़ता जाता था। सुनते हैं कि उसी जमाने में भूतनाथ ने एक औरत के साथ काशीजी में ही शादी भी कर ली थी जिससे कि नानक पैदा हुआ है क्योंकि इस झमेले में भूतनाथ को बहुत दिनों तक काशी में रहना पड़ा था।

यह सच है कि कम्बख्त रंडियाँ रुपये के सिवा और किसी की नहीं होती। जो दयाराम कि नागर को चाहता, मानता और दिल खोलकर रुपया देता था, नागर उसी के खून की प्यासी हो गई क्योंकि ऐसा करने से उसे विशेष प्राप्ति की आशा थी। भूतनाथ ने यद्यपि अपने दिल का हाल नागर से बयान नहीं किया मगर नागर को विश्वास हो गया कि भूतनाथ को उस पर शक है और यह दयाराम ही की खोज में काशी आया हुआ है, अतः नागर ने अपना उचित प्रबन्ध करके काशी छोड़ दी और गुप्त रीति से जमानिया में जा बसी। भूतनाथ भी मिट्टी सूंघता हुआ उसकी खोज में जमानिया जा पहुँचा और एक भाड़े का मकान लेकर वहाँ रहने लगा।

इस खोज-ढूंढ़ में वर्षों बीत गये, मगर दयाराम का पता न लगा। भूतनाथ ने अपने मित्र इन्द्रदेव से भी मदद मांगी और इन्द्रदेव ने मदद दी भी मगर नतीजा कुछ भी न निकला। इन्द्रदेव ही के कहने से मैं उन दिनों भूतनाथ का मददगार बन गया था ।

इस किस्से के सम्बन्ध में रणधीरसिंह के रिश्तेदारों की तथा जमानिया गयाजी और राजगृह इत्यादि की भी बहुत-सी बातें कही जा सकती हैं परन्तु मैं भी भूतनाथ का मददगार था, मगर अफसोस, भूतनाथ की किस्मत तो कुछ और ही कराना चाहती थी इसलिए हम लोगों की मेहनत का कोई अच्छा नतीजा न निकला, बल्कि एक दिन जब मिलने के लिए मैं भूतनाथ के डेरे पर गया तो मुलाकात होने के साथ ही भूतनाथ ने आँखें बदलकर मुझसे कहा, "दलीपशाह, मैं तो तुम्हें बहुत अच्छा और नेक समझता था मगर तुम बहुत ही बुरे और दगाबाज निकले । मुझे ठीक-ठीक पता लग चुका है कि दयाराम का भेद तुम्हारे दिल के अन्दर है और तुम हमारे दुश्मनों के मददगार हो और भेदिए हो तथा खूब जानते हो कि इस समय दयाराम कहाँ हैं । तुम्हारे लिए यही अच्छा है कि सीधी तरह उनका (दयाराम का) पता बता दो, नहीं तो मैं तुम्हारे साथ बुरी तरह पेश आऊँगा और तुम्हारी मिट्टी पलीद करके छोडूंगा।"

महाराज, मैं नहीं कह सकता कि उस समय भूतनाथ की इन बेतुकी बातों को सुनकर मुझे कितना क्रोध चढ़ आया। इसके पास बैठा भी नहीं और न इसकी बात का कुछ जवाब ही दिया,T चुपचाप पिछले पैर लौटा और मकान के बाहर निकल आया। मेरा घोड़ा बाहर खड़ा था, मैं उस पर सवार होकर सीधे इन्द्रदेव की तरफ चला गया।(इन्द्रदेव की तरफ हाथ का इशारा करके) दूसरे दिन इनके पास पहुंचा और जो कुछ बीती थी इनसे कह सुनायी। इन्हें भी भूतनाथ की बातें बहुत बुरी मालूम हुई और एक लम्बी साँस लेकर ये मुझसे बोले, "मैं नहीं जानता कि इन दो-चार दिनों में भूतनाथ को कौन-सी नई बात मालूम हो गई और किस बुनियाद पर उसने तुम्हारे साथ ऐसा सलूक [ ७७ ]किया। खैर कोई चिन्ता नहीं, भूतनाथ अपनी इस बेवकूफी पर अफसोस करेगा और पछतावेगा, तुम इस बात का खयाल न करो और भूतनाथ से मिलना-जुलना छोड़कर दयाराम की खोज में लगे रहो, तुम्हारा अहसान रणधीरसिंह पर और मेरे ऊपर होगा।

इन्द्रदेव ने बहुत कुछ कह-सुनकर मेरा क्रोध शान्त किया और दो दिन तक मुझे अपने यहाँ मेहमान रक्खा। तीसरे दिन मैं इन्द्रदेव से बिदा होने वाला ही था कि तभी इनके एक शागिर्द ने आकर एक विचित्र खबर सुनाई। उसने कहा कि आज रात को बारह बजे के समय मिर्जापुर के एक जमींदार 'राजसिंह' के यहाँ दयाराम के होने का पता मुझे लगा है । खुद मेरे भाई ने यह खबर दी है। उसने यह भी कहा है कि आज कल नागर भी उन्हीं के यहाँ है।

इन्द्रदेव--(शागिर्द से) वह खुद मेरे पास क्यों नहीं आया ?

शागिर्द--वह आप ही के पास आ रहा था, मुझसे रास्ते में मुलाकात हुई और उसके पूछने पर मैंने कहा कि दयाराम जी का पता लगाने के लिए मैं तैनात किया गया हूँ। उसने जवाब दिया कि अब तुम्हारे जाने की कोई जरूरत न रही, मुझे उनका पता लग गया और यही खुशखबरी सुनाने के लिए मैं सरकार के पास जा रहा था, मगर अब तुम मिल गये हो तो मेरे जाने की कोई जरूरत नहीं। जो कुछ मैं कहता हूँ, तुम जाकर उन्हें सुना दो और मदद लेकर बहुत जल्द मेरे पास आओ। मैं फिर उसी जगह जाता हूँ, कहो ऐसा न हो कि दयाराम जी वहाँ से भी निकालकर किसी दूसरी जगह पहुँचा दिये जायँ और हम लोगों को पता न लगे, मैं जाकर इस बात का ध्यान रखूगा। इसके बाद उसने सब कैफियत बयान की और अपने मिलने का पता बताया।

इन्द्रदेव--ठीक है उसने जो कुछ किया बहुत अच्छा किया, अब उसे मदद पहुंचाने का बन्दोबस्त करना चाहिए।

शागिर्द--यदि आज्ञा हो तो भूतनाथ को भी इस बात की इत्तिला दे दी जाय?

इन्द्रदेव-कोई जरूरत नहीं, अब तुम जाकर कुछ आराम करो, तीन घण्टे बाद फिर तुम्हें सफर करना होगा।

इसके बाद इन्द्रदेव का शागिर्द जब अपने डेरे पर चला गया, तब मुझसे और इन्द्रदेव से बातचीत होने लगी। इन्द्रदेव ने मुझसे मदद माँगी और मुझे मिर्जापुर जाने के लिए कहा, मगर मैंने इनकार किया और कहा कि अब मैं न तो भूतनाथ का मुंह देखूगा और न उसके किसी काम में शरीक होऊँगा। इसके जवाब में इन्द्रदेव ने मुझे पुनःसमझाया और कहा कि यह काम भूतनाथ का नहीं है, मैं कह चुका हूँ कि इसका अहसान मुझ पर और रणधीरसिंह जी पर होगा।

इसी तरह की बहुत-सी बातें हुईं, लाचार मुझे इन्द्रदेव की बात माननी पड़ी और कई घण्टे के बाद इन्द्रदेव के उसी शागिर्द 'शम्भू' को साथ लिए हुए मैं मिर्जापुर की तरफ रवाना हुआ। दूसरे दिन हम लोग मिर्जापुर जा पहुँचे और बताये हुए ठिकाने पर पहुँचकर शम्भू के भाई से मुलाकात की। दरियाफ्त करने पर मालूम हुआ कि दयाराम अभी तक मिर्जापुर की सरहद के बाहर नहीं गये हैं, अतः जो कुछ हम लोगों को करना था, आपस में तय करने के बाद सूरत बदलकर बाहर निकलें। [ ७८ ]दयाराम को ढूंढ़ निकालने के लिए हमने कैसी-कैसी मेहनत की और हम लोगों को किस-किस तरह की तकलीफें उठानी पड़ीं, इसका बयान करना किस्से को व्यर्थ तूल देना और अपने मुंह मियां मिठू बनना है । महाराज के (आपके) नामी ऐयारों ने जैसे-अनूठे काम किये हैं उनके सामने हमारी ऐयारी कुछ भी नहीं है अतएव केवल इतना ही कहना काफी है कि हम लोगों ने अपनी हिम्मत से बढ़कर काम किया और हद दर्जे की तकलीफ उठाकर दयाराम जी को ढूंढ निकाला। केवल दयाराम को नहीं, बल्कि उनके साथ-ही-साथ 'राजसिंह' को भी गिरफ्तार करके हम लोग अपने ठिकाने पर ले आये, मगर अफसोस ! हम लोगों की सब मेहनत पर भूतनाथ ने पानी ही नहीं फेर दिया, बल्कि जन्म भर के लिए अपने माथे पर कलंक का टीका भी लगाया।

कैद की सख्ती उठाने के कारण दयाराम जी बहुत ही कमजोर और बीमार हो रहे थे, उनमें बात करने की भी ताकत न थी, इसलिए हम लोगों ने उसी समय उन्हें उठाकर इन्द्रदेव के पास ले जाना मुनासिब न समझा और दो-तीन दिन तक आराम देने की नीयत से अपने गुप्त स्थान पर, जहाँ हम लोग टिके हुए थे, ले गये। जहाँ तक हो सका, नरम बिछावन का इन्तजाम करके उस पर उन्हें लिटा दिया और उनके शरीर में ताकत लाने का बन्दोबस्त करने लगे। इस बात का भी निश्चय कर लिया कि जब तक इनकी तबीयत ठीक न हो जायगी, इनसे कैद किये जाने का सबब तक न पूछेगे ।

दयाराम जी के आराम का इन्तजाम करने के बाद हम लोगों ने अपने-अपने हर्के खोलकर उनकी चारपाई के नीचे रख दिए, कपड़े उतारे और बातचीत करने तथा दुश्मनी का सबब जानने के लिए राजसिंह को होश में लाये और उसकी मुश्के खोलकर बातचीत करने लगे क्योंकि उस समय इस बात का डर हम लोगों को कुछ भी न था कि वह हम पर हमला करेगा या हम लोगों का कुछ बिगाड़ सकेगा।

जिस मकान में हम लोग टिके हुए थे वह बहुत ही एकान्त और उजाड़ मुहल्ले में था। रात का समय था और मकान की तीसरी मंजिल पर हम लोग बैठे हुए थे, एक मद्धिम चिराग आले पर जल रहा था । दयाराम जी का पलंग हम लोगों के पीछे की तरफ था और राजसिंह सामने बैठा हुआ ताज्जुब के साथ हम लोगों का मुंह देख रहा था। उसी समय यकायक कई धमाके होने की आवाज आई और उसके कुछ ही देर बाद भूतनाथ तथा उसके दो साथियों को हम लोगों ने अपने सामने खड़ा देखा । सामना होने के साथ ही भूतनाथ ने मुझसे कहा, "क्यों वे शैतान के बच्चे, आखिर मेरी बात ठीक निकली न ! तू ही ने राजसिंह के साथ मेल करके हमारे साथ दुश्मनी पैदा की ! खैर, ले अपने किए का फल चख !"

इतना कहकर भूतनाथ ने मेरे ऊपर खंजर का वार किया जिसे बड़ी खूबी के साथ मेरे साथी ने रोका । मैं भी उठकर खड़ा हो गया और भूतनाथ के साथ लड़ाई होने लगी। भूतनाथ ने एक ही हाथ में राजसिंह का काम तमाम कर दिया और थोड़ी ही देर में मुझे भी खूब जख्मी किया यहाँ तक कि मैं जमीन पर गिर पड़ा और मेरे दोनों साथी भी बेकार हो गये। उस समय दयारामजी को, जो पड़े-पड़े सब तमाशा देख रहे थे जोश चढ़ आया और चारपाई पर से उठकर खाली हाथ भूतनाथ के सामने आ खड़े हुए, कुछ बोला [ ७९ ]ही चाहते थे कि भूतनाथ के हाथ का खंजर उनके कलेजे के पार हो गया और वे बेदम होकर जमीन पर गिर पड़े।