चन्द्रकान्ता सन्तति 6/22.6

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चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

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6

इन्द्रदेव के इस स्वर्ग-तुल्य स्थान में बंगले से कुछ दूर हट कर बगीचे के दक्खिन तरफ एक घना जामुन का पेड़ है, जिसे सुन्दर लताओं ने घेर कर देखने योग्य बना रखा है और वहाँ एक कुंज की-सी छटा दिखाई पड़ती है। उसी के नीचे साफ पानी का एक चश्मा भी बह रहा है । अपनी सुरीली बोली से लोगों के दिल लुभा लेने वाली चिड़ियाएँ संध्या का समय निकट जान अपने घोंसलों के चारों तरफ फुदक-फुदक कर अपने चुलबुले बच्चों को चैतन्य करती हुई कह रही हैं, "देखो, मैं बहुत दूर से तुम लोगों के लिए दाना-पानी अपने पेट में भर लाई हूँ, जिससे तुम्हारी सन्तुष्टि हो जायगी।"

यह रमणीक स्थान ऐसा है कि यहाँ दो-चार आदमी छिप कर इस तरह बैठ सकते हैं कि वे चारों तरफ के आदमियों को बखूबी देख लें, पर उन्हें कोई भी न देखे । इस स्थान पर हम इस समय भूतनाथ और उसकी पहली स्त्री, (कमला की माँ) को पत्थर की चट्टानों पर बैठे बातें करते हुए देख रहे हैं। ये दोनों मुद्दत के बिछड़े हुए हैं, और दोनों के दिल में नहीं तो कमला की माँ के दिल में जरूर शिकायतों का खजाना भरा हुआ है जिसे वह इस समय बेतरह उगलने के लिए तैयार है। प्यारे पाठक, आइये हम आप मिलकर जरा इन दोनों की बातें तो सुन लें

भूतनाथ--शान्ता', आज तुमसे मिलकर मैं बहुत ही प्रसन्न हुआ।

शान्ता--क्यों ? जो चीज किसी कारणवश खो जाती है, उसे यकायक पाने से प्रसन्नता हो सकती है, मगर जो चीज जान-बूझ कर फेंक दी जाती है, उसके पाने की प्रसन्नता कैसी?

भूतनाथ--किसी को कहीं से एक पत्थर का टुकड़ा मिल जाय और वह उसे बेकार या बदसूरत समझ कर फेंक दें तथा कुछ समय के बाद जब उसे यह मालूम हो कि वास्तव में वह हीरा था पत्थर नहीं, तो क्या उसके फेंक देने का उसको दुःख न होगा ? या उसे पुनः पाकर प्रसन्नता न होगी?

शान्ता-–अगर वह आदमी, जिसने हीरे को पत्थर समझकर फेंक दिया है, यह जानकर कि वह वास्तव में हीरा था, उसकी खोज करे, या इस विचार से कि उसे मैंने

1. शान्ता कमला की मां का नाम था। [ ९१ ]फलां जगह छोड़ा या फेंका है वहां जाने से जरूर मिल जायेगा, उसकी तरफ दौड़ जाय,तो बेशक समझा जायगा कि उसे उसके फेंक देने का रंज हुआ था और उसके मिल जाने से प्रसन्नता होगी, लेकिन यदि ऐसा नहीं है तो नहीं।

भूतनाथ--ठीक है, मगर वह आदमी उस जगह, जहाँ उसने हीरे को पत्थर समझकर फेंका, था पुनः उसे पाने की आशा में तभी जायगा जब अपना जाना सार्थक समझेगा। परन्तु जब उसे यह निश्चय हो जायगा कि वहां जाने में उस हीरे के साथ तू भी बर्बाद हो जायगा, अर्थात् वह हीरा भी काम का न रहेगा और तेरी भी जान जाती रहेगी, तब वह उसकी खोज में क्यों जायगा ?

शान्ता--ऐसी अवस्था में वह अपने को इस योग्य बनावेगा ही नहीं कि वह उस हीरे की खोज में जाने लायक न रहे, यदि यह बात उसके हाथ में होगी और वह उस हीरे को वास्तव में हीरा समझता होगा।

भूतनाथ-–बेशक, मगर शिकायत की जगह तो ऐसी अवस्था में हो सकती थी जब वह अपने बिगड़े हुए कॅटीले रास्ते की, जिसके सबब से वह उस हीरे तक नहीं पहुंच सकता था, पुनः सुधारने और साफ करने के लिए परले सिरे का उद्योग करता हुआ दिखाई न देता।

शान्ता--ठीक है, लेकिन जब वह हीरा यह देख रहा है कि उसका अधिकारी या मालिक बिगड़ी हुई अवस्था में भी एक मानिक के टुकड़े को कलेजे से लगाए हुए घूम रहा है और यदि वह चाहता तो उस हीरे को भी उसी तरह रख सकता था, मगर अफसोस, उस हीरे की तरफ जो वास्तव में पत्थर ही समझा गया है, कोई भी ध्यान नहीं देता जो बे-हाथ-पैर का होकर भी उसी मालिक की खोज में जगह-जगह की धूल छानता फिर रहा है जिसने जान-बूझकर उसे पैर में गड़ने वाले कंकड़ की तरह अपने आगे से उठाकर फेंक दिया है और जानता है कि उस पत्थर के साथ, जिसे वह व्यर्थ ही में हीरा कह रहा है, वास्तव में छोटी-छोटी हीरे की कनियां भी चिपकी हुई हैं जो छोटी होने के कारण सहज ही मिट्टी में मिल जा सकती हैं, तब क्या शिकायत की जगह नहीं है !

भूतनाथ--परन्तु अदृष्ट भी कोई वस्तु है, प्रारब्ध भी कुछ कहा जाता है और होनहार भी किसी चीज का नाम है !

शान्ता-—यह दूसरी बात है, इन सभी का नाम लेना वास्तव में निरुत्तर (लाजवाब) होना और चलती बहस को जान-बूझकर बंद कर देना ही नहीं है बल्कि उद्योग ऐसे अनमोल पदार्थ की तरफ से मुंह फेर लेना भी है। अतः जाने दीजिए मेरी यह इच्छा भी नहीं है कि आपको परास्त करने की अभिलाषा से मैं विवाद करती ही जाऊँ,यह तो बात-ही-बात में कुछ कहने का मौका मिल गया और छाती पर पत्थर रखकर जी का उबाल निकाल लिया, नहीं तो जरूरत ही क्या थी।

भूतनाथ--मैं कसूरवार हूँ ओर बेशक कसूरवार हूँ, मगर यह उम्मीद भी तो न थी कि ईश्वर की कृपा से तुम्हें इस दुनिया में इस तरह जीती देखेंगा।

शान्ता--अगर यही आशा या अभिलाषा होती तो अपने परलोकगामी होने की [ ९२ ]खबर मुझ अभागी के कानों तक पहुँचाने की कोशिश क्यों करते और ...

भूतनाथ--बस-बस, अब मुझ पर दया करो और इस ढंग की बातें छोड़ दो क्योंकि आज बड़े भाग्य से मेरे लिए यह खुशी का दिन नसीब हुआ है । इसे जली-कटी बातें सुनाकर पुनः कड़वा न करो और यह सुनाओ कि तुम इतने दिनों तक कहाँ छिपी हुई थी और अपनी लड़की कमला को किस तरह धोखा देकर चली गई कि आज तक वह तुमको मरी हुई ही समझती है ?

इस समय शान्ता का खूबसूरत चेहरा नकाब से ढका हुआ नहीं है। यद्यपि वह जमाने के हाथों सताई हुई तथा दुबली-पतली और उदास है और उसका तमाम बदन पीला पड़ गया है मगर फिर भी आज की यह खुशी उसके सुन्दर बादामी चेहरे पर रौनक पैदा कर रही है और इस बात की इजाजत नहीं देती कि कोई उसे ज्यादा उम्रवाली कह कर खूबसूरतों की पंक्ति में बैठने से रोके। हजार गई-गुजरी होने पर भी वह रामदेई (भूतनाथ की दूसरी स्त्री) से बहुत अच्छी मालूम पड़ती है और इस बात को भूतनाथ भी बड़े गौर से देख रहा है । भूतनाथ की आखिरी बात सुनकर शान्ता ने अपनी डबडबाई हुई बड़ी-बड़ी आँखों को आँचल से साफ किया और एक लम्बी साँस ले कर कहा-

शान्ता--मैं रणधीरसिंह जी के यहाँ से कभी न भागती अगर अपना मुंह किसी को दिखाने लायक समझती। मगर अफसोस, आपके भाई ने इस बात को खूब अच्छी तरह मशहूर किया कि आपके दुश्मन (अर्थात् आप) इस दुनिया से उठ गये । इसके सबूत में उन्होंने बहुत सी बातें पेश कीं, मगर मुझे विश्वास न हुआ, तथापि इस गम में मैं बीमार हो गई और दिन-दिन मेरी बीमारी बढ़ती ही गई। उसी जमाने में मेरी मौसेरी बहिन अर्थात् दलीपशाह की स्त्री मुझे देखने के लिए मेरे घर आई। मैंने अपने दिल का हाल और बीमारी का सबब उससे बयान किया और यह भी कहा कि जिस तरह मेरे पति ने सही-सलामत रह कर भी अपने को मरा मशहूर किया, उसी तरह मुझे तुम कहीं छिपा कर मरा हुआ मशहूर कर दो । अगर ऐसा हो जायगा तो मैं अपने पति को ढूंढ निकालने का उद्योग करूँगी। उन्होंने मेरी बात पसन्द कर ली और लोगों को यह कहकर कि मेरे यहाँ की आबोहवा अच्छी है वहाँ शान्ता को बहुत जल्द ही आराम हो जायगा, मुझे अपने यहाँ उठा ले जाने का बन्दोबस्त किया और रणधीरसिंहजी से इजाजत भी ले ली। मैं दो दिन तक अपनी लड़की कमला को नसीहत करती रही और इसके बाद उसे किशोरी के हवाले करके और अपनी छोटे दूध-पीते बच्चे को गोद में लेकर दलीपशाह के घर चली आई और धीरे-धीरे आराम होने लगी। थोड़े ही दिन बाद दलीपशाह के घर में उस भयानक आधी रात के समय आपका आना हुआ, मगर हाय, उस समय आपकी अवस्था पागलों की सी हो रही थी और आपने धोखे में पड़कर अपने प्यारे लड़के का, जिसे मैं अपने साथ ले गई थी, खून कर डाला।

इतना कहते-कहते शान्ता का जी भर आया और वह हिचकियाँ ले-लेकर रोने

1.दलीपशाह ने बीसवें भाग के तेरहवें बयान में इस घटना की तरफ भूतनाथ से इशारा किया। [ ९३ ]लगी । भूतनाथ की बुरी अवस्था हो रही थी और इससे ज्यादे वह उस भयानक घटना का हाल नहीं सुनना चाहता था । वह यह कहता हुआ कि 'बस माफ करो, अब इसका जिक्र न करो' अपनी स्त्री शान्ता के पैरों पर गिरा ही चाहता था कि उसने पैर खींचकर भूतनाथ का सिर थाम लिया और कहा-'हाँ-हाँ, यह क्या करते हो ? क्यों मेरे सिर पर पाप चढ़ाते हो? मैं खूब जानती हूँ कि आपने उसे बिलकुल नहीं पहचाना मगर इतना जरूर समझते थे कि वह दलीपशाह का लड़का है, अतः फिर भी आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था, खैर अब मैं इस जिक्र को छोड़ देती हूँ।"

इतना कहकर शान्ता ने अपने आँसू पोंछे और फिर इस तरह बयान करना शुरू किया-

"शोक और दुःख से मैं पुनः बीमार पड़ गई, मगर आशा-लता ने धीरे-धीरे कुछ दिन में अपनी तरह मुझे भी (आराम) कर दिया। यह आशा केवल इसी बात की थी कि एक दफे आपसे जरूर मिलूंगी। मुश्किल तो यह थी कि उस घटना ने दलीपशाह को भी आपका दुश्मन बना दिया था, केवल उस घटना ने ही नहीं, इसके अतिरिक्त भी दलीपशाह को बर्बाद करने में आपने कुछ उठा न रक्खा था, यहाँ तक कि आखिर वह दारोगा के हाथ फंस ही गये।"

भूतनाथ—-(बेचैनी के साथ लम्बी साँस लेकर) ओफ ! मैं कह चुका हूँ कि इन बातों को मत छेड़ो, केवल अपना हाल बयान करो, मगर तुम नहीं मानतीं !

शान्ता--नहीं-नहीं, मैं तो अपना ही हाल बयान कर रही हूँ, खैर, मुख्तसिर ही में कहती हूँ।

उस घटना के बाद ही मेरी इच्छानुसार दलीपशाह ने मेरा और बच्चे का मर जाना मशहूर किया जिसे सुनकर हरनामसिंह और कमला भी मेरी तरफ से निश्चिन्त हो गये । जब खुद दलीपशाह भी दारोगा के हाथ में फंस गये, तब मैं बहुत ही परेशान हुई और सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए। उस समय दलीपशाह के घर में उनकी स्त्री, एक छोटा सा बच्चा और मैं, केवल ये तीन ही आदमी रह गये थे। दलीपशाह की स्त्री को मैंने धीरज धराया और कहा कि अभी तू अपनी जान मत बर्बाद कर, मैं बराबर तेरा साथ दूंगी और दलीपशाह को खोज निकालने का उद्योग करूँगी मगर अब हमलोगों को यह घर एकदम छोड़ देना चाहिए और ऐसी जगह छिपकर रहना चाहिए जहाँ दुश्मनों को हम लोगों का पता न लगे । आखिर ऐसा ही हुआ, अर्थात् हम लोगों की जो कुछ जमा-पूँजी थी उसे लेकर हमने उस घर को एक दम छोड़ दिया और काशीजी में जाकर एक अँधेरी गली में पुराने और गंदे मकान में डेरा डाला, मगर इस बात की टोह लेते रहे कि दलीपशाह कहाँ हैं अथवा छूटने के बाद अपने घर की तरफ जा कर हम लोगों को ढूंढ़ते हैं या नहीं। इस फिक्र में मैं कई दफे सूरत बदल कर बाहर निकली और इधर-उधर घूमती रही। इत्तिफाक से दिल में यह बात पैदा हुई कि किसी तरह अपने लड़के हरनामसिंह से छिप कर मिलना और उसे अपना साथी बना लेना चाहिए। ईश्वर ने मेरी यह मुराद पूरी की। जब माधवी कुंअर इन्द्रजीतसिंह को फंसा ले गई और उसके बाद उसने किशोरी पर भी कब्जा कर लिया, तब कमला और हरनाम सिंह दोनों आदमी [ ९४ ]किशोरी की खोज में निकले और वे एक-दूसरे से जुदा हो गये। किशोरी की खोज में हरनामसिंह काशी की गलियों में घूम रहा था जब उस पर मेरी निगाह पड़ी और मैंने इशारे से अलग बुला कर अपना परिचय दिया। उस को मुझसे मिलकर जितनी खुशी हुई उसे मैं बयान नहीं कर सकती। मैं उसे अपने घर में ले गई और सब हाल उससे कह अपने दिल का इरादा जाहिर किया जिसे उसने खुशी से मंजूर कर लिया। उस समय मैं चाहती तो कमला को भी अपने पास बुला लेती, मगर नहीं, उसे किशोरी की मदद के लिए छोड़ दिया क्योंकि किशोरी के नमक को मैं किसी तरह भूल नहीं सकती थी, अतः मैंने केवल हरनामसिंह को अपने पास रख लिया और खुद चुपचाप अपने घर मैं बैठी रहकर आपका और दलीपशाह का पता लगाने का काम लड़के को सुपुर्द किया। बहुत दिनों तक बेचारा लड़का चारों तरफ मारा फिरा और तरह-तरह की खबरें ला कर मुझे सुनाता रहा। जब आप प्रकट होकर कमलिनी के साथी बन गए और उसके काम के लिए चारों तरफ घूमने लगे तब हरनामसिंह ने भी आपको देखा और पहचान कर मुझे इतिला दी। थोड़े दिन बाद यह भी उसी की जुबानी मालूम हुआ कि अब आप नेकनाम होकर दुनिया में अपने को प्रकट किया चाहते हैं । उस समय मैं बहुत प्रसन्न हुई और मैंने हरनाम को राय दी कि तू किसी तरह राजा वीरेन्द्र सिंह के किसी ऐयार की शागिर्दी कर ले । आखिर वह तारासिंह से मिला और उसके साथ रह कर थोड़े ही दिनों में उसका प्यारा शागिर्द बल्कि दोस्त बन गया तब उसने अपना हाल तारासिंह को कह सुनाया और तारासिंह ने भी उसके साथ बहुत अच्छा प्यार का बर्ताव करके उसकी इच्छानुसार उसके भेदों को छिपाया। तब से हरनामसिंह सूरत बदले हुए तारासिंह का काम करता रहा और मुझे भी आपकी पूरी-पूरी खबर मिलती रही। आपको शायद इस बात की खबर न हो कि तारासिंह की माँ चम्पा से और मुझसे बहिन का रिश्ता है, वह मेरे मामा की लड़की है, अत: चम्पा ने अपने लड़के की जुबानी हरनामसिंह का हाल सुना और जब यह मालूम हुआ कि वह रिश्ते में उसका भतीजा होता है, तब उसने भी उस पर दया प्रकट की और तब से उसे बराबर अपने लड़के की तरह मानती रही।

जमानिया के तिलिस्म को खोलते और कैदियों को साथ लिए हुए जब दोनों कुमार उस खोह वाले तिलिस्मी बंगले में पहुँचे तो उन्होंने भैरोंसिंह और तारासिंह को अपने पास बुला लिया और तिलिस्म का पूरा हाल उनसे कह के उन दोनों को अपने पास रक्खा । दलीपशाह को यह हाल भी तारासिंह ही से मालूम हुआ कि उनके बाल-बच्चे ईश्वर की कृपा से अभी तक राजी-खुशी हैं, साथ ही इसके मेरा हाल भी दलीपशाह को मालूम हुआ। उस समय तारासिंह दोनों कुमारों से आज्ञा लेकर हरनामसिंह को उस बँगले में ले आया और दलीपशाह से उसकी मुलाकात कराई। हरनामसिंह को साथ लेकर दलीपशाह काशी गये और वहाँ से मुझको तथा अपनी स्त्री और लड़के को साथ लेकर कुमार के पास चले आये। जब तारासिंह की जबानी चम्पा ने यह हाल सुना तब वह मुझसे मिलने के लिए तारासिंह के साथ यहाँ अर्थात् उस बँगले में आई।

भूतनाथ-जब दोनों कुमार नकाबपोश बन कर भैरोंसिंह और तारासिंह को यहाँ ले आए, उसके पहले तो तारासिंह यहाँ नहीं आए थे ? [ ९५ ]शान्ता-जी उसके पहले ही से वे दोनों यहां आते जाते रहे, उस दिन तो प्रकट रूप से यहाँ लाए गये थे। क्या इतना हो जाने पर भी आपको अन्दाज से मालूम न हुआ?

भूतनाथ--ठीक है, इसका शक तो मुझे और देवीसिंह को भी होता रहा ।

शान्ता का किस्सा भूतनाथ ने बड़े गौर के साथ ध्यान देकर सुना और तब देर तक आरजू-मिन्नत के साथ शान्ता माफी मांगता रहा और इसके बाद पुनः दोनों में बातचीत होने लगी।

शान्ता--अब तो आपको मालूम हो गया कि चम्पा यहाँ क्यों कर और किस लिए आई ?

भूतनाथ--हाँ, यह भेद तो खुल गया मगर इसका पता न लगा कि नानक और उसकी मां का यहाँ आना कैसे हुआ ?

शान्ता--सो मैं न कहूँगी, यह उसी से पूछ लेना।

भूतनाथ--(ताज्जुब से) सो क्यों ?

शान्ता--मैं उसके बारे में कुछ कहना ही नहीं चाहती !

भूतनाथ--आखिर इसका कोई सबब भी है ?

शान्ता--सबब यही है कि उसकी यहाँ कोई इज्जत नहीं है बल्कि वह बेकदरी की निगाह से देखी जाती है।

भूतनाथ--वह है भी इसी योग्य ! पहले तो मैं उसे प्यार करता था, मगर जब यह सुना कि उसी की बदौलत मैं जैपाल (नकली बलभद्र) का शिकार बन गया और एक भारी आफत में फंस गया, तब से मेरी तबीयत उससे खट्टी हो गई।

शान्ता--सो क्यों?

भूतनाथ--इसीलिए कि वह बेगम की गुप्त सहेली नन्हीं से गहरी मुहब्बत रखती है । और इसी सबब से वह कागज का मुट्ठा जो मैंने अपने फायदे के लिए तैयार किया था, गायब हो के जैपाल के हाथ लग गया और उससे मुझे नुकसान पहुँचा । इस बात का सबूत भी मैंने अपनी आँखों से देख लिया।

शान्ता--सो ठीक है, मैं भी दलीपशाह से यह बात सुन चुकी हूँ।

भूतनाथ--इसी से अब मैं उसे अपनी स्त्री नहीं बल्कि दुश्मन समझता हूँ । केवल नन्हीं से ही नहीं बल्कि कम्बख्त गौहर से भी वह दोस्ती रखती थी और वह दोस्ती पाक न थी । (लम्बी साँस लेकर) अफसोस ! इसी से उस खोटी का लड़का नानक भी खोटा ही निकला।

शान्ता--(मुस्कुराकर) तब आप उसके लिए इतना परेशान क्यों थे? क्योंकि यह बात सुनने बाद ही तो आपने उसे नकाबपोशों के स्थान पर देखा था !

भूतनाथ--वह परेशानी मेरी उसकी मुहब्बत के सबब से न थी बल्कि इस खयाल से थी कि कहीं वह मुझ पर कोई नई आफत लाने के लिए तो नकाबपोशों से नहीं आ

शान्ता--मिली।

1.चन्द्रकान्ता सन्तति, उन्नीसवाँ भाग, बारहवाँ बयान, देखिए नकाबपोश की बातचीत । [ ९६ ]शान्ता–-ठीक भी है, यह खयाल हो सकता था।

भूतनाथ--फिर इसी बीच में जब उसने मुझे जंगल में गाना सुना के धोखा दिया और गिरफ्तार करके अपने स्थान पर ले गई, जिसका हाल शायद तुम्हें मालूम होगा, तब मेरा रंज और भी बढ़ गया ।

शान्ता--यह हाल मुझे मालूम है मगर यह कार्रवाई उसकी न थी, बल्कि इन्द्र- देव की थी। उन्होंने ही आपके साथ यह ऐयारी की थी और उस दिन जंगल में घोड़े पर सवार जो औरत आपको मिली थी और जिसे आपने अपनी स्त्री समझा था, वह भी इन्द्रदेव का एक ऐयार ही था। यह बात मैं उन्हीं (इन्द्रदेव) की जुबानी सुन चुकी हूँ, शायद आपसे भी वे कहें। हाँ, उस दिन बँगले में जिस औरत को आपने देखा था, वह बेशक नानक की माँ थी। वह तो खुद कैदियों की तरह यहाँ रक्खी गई है, मैदान की हवा क्योंकर खा सकती है ! दोनों कुमार नहीं चाहते थे कि प्रकट होने के पहले ही कोई उन लोगों का पता लगा ले इसीलिए ये सब खेल खेले गये । (कुछ सोचकर) आखिर आपने धीरे-धीरे नानक की माँ का हाल पूछ ही लिया, मैं उसके बारे में कुछ भी नहीं कहना चाहती थी, अतः अब इससे आगे और कुछ भी न कहूँगी, आप उसके बारे में मुझसे कुछ न पूछे।

भूतनाथ--नहीं-नहीं, जब इतना बता चुकी हो तो कुछ और भी बताओ क्योंकि मैं उससे मिलकर कुछ भी नहीं पूछना चाहता, बल्कि अब तो उसका मुंह देखना भी मुझे पसन्द नहीं है । अच्छा, यह तो बताओ कि वह कम्बख्त यहाँ क्यों लाई गई ?

शान्ता--लाई नहीं गई, बल्कि उसी नन्हीं के यहाँ गिरफ्तार की गई, उस समय नानक भी उसके साथ था ।

भूतनाथ--(आश्चर्य और क्रोध से) फिर भी उसी नन्हीं के यहाँ गई थी?

शान्ता--जी हाँ।

भूतनाथ--(लम्बी साँस लेकर) लोग सच कहते हैं कि ऐयाशी का नतीजा बहुत बुरा निकलता है।

शान्ता-–अतः अब उसके बारे में मुझसे कुछ न पूछिए, इन्द्रदेवजी आपको सब-

भूतनाथ-–हाँ, ठीक है, खैर, अब उसके बारे में कुछ न पूछूगा, जो कुछ पूछूगा वह तुम्हारे और हरनाम ही के बारे में होगा। अच्छा, एक बात और बताओ, आज के दरबार में मैंने हरनाम को हाथ में एक सन्दूकड़ी लिए देखा था । वह सन्दूकड़ी कंसी थी और उसमें क्या था?

शान्ता--उसमें दारोगा के हाथ की लिखी हुई बहुत-सी चिट्ठियाँ हैं जिनके देखने से आपको निश्चय हो जायगा कि आपने दलीपशाह को व्यर्थ ही अपना दुश्मन समझ लिया था। पहले जब दारोगा ने दलीपशाह को लालच दिखा कर लिखा था कि वह आपको गिरफ्तार करा दें, तब दो-चार चिट्ठियों में तो दलीपशाह ने इस नीयत से कि कुछ बता देंगे।

1. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, बीसवे भाग का अन्त । [ ९७ ]दारोगा की शैतानियों का सबूत उससे मिलकर ही बटोर लें, दारोगा के मतलब ही का जवाब दिया था जिससे खुश होकर उसने कई चिट्ठियों में दलीपशाह को तरह-तरह के सब्जबाग दिखलाए, मगर जब दारोगा की कई चिट्ठियां दलीपशाह ने बटोर ली तब साफ जवाब दे दिया। उस समय दारोगा बहुत घबराया और उसने सोचा कि कहीं ऐसा न हो कि दलीपशाह मुझसे दुश्मनी करके मेरा यह भेद खोल दे, अतः किसी तरह उसे गिरफ्तार कर लेना चाहिए। उस समय कम्बख्त दारोगा आपसे मिला और उसने दलीप-शाह की पहली चिट्ठियाँ आपको दिखा कर खुद आप ही को दलीपशाह का दुश्मन बना दिया, बल्कि आप ही के जरिये से दलीपशाह को गिरफ्तार भी करा लिया ।

भूतनाथ-ठीक है, इस विषय में मैंने बहुत बड़ा धोखा खाया।

शान्ता-मगर दलीपशाह को गिरफ्तार कर लेने पर भी वे चिट्ठियाँ दारोगा के हाथ न लगी क्योंकि वे दलीपशाह की स्त्री के कब्जे में थीं। हम लोग उन्हें अपने साथ लाये हैं जिसमें दारोगा के मुकदमे में पेश करें।

भूतनाथ-अब मेरे दिल का पूरा खुटका निकल गया और मुझे निश्चय हो गया कि हरनाम की कोई कार्रवाई मेरे खिलाफ न होगी।

शान्ता-भला वह कोई काम ऐसा क्यों करेगा जिससे आपको तकलीफ हो ? ऐसा खयाल भी आपको न रखना चाहिए। इन दोनों में इस तरह की बातें हो रही थी कि किसी के आने की आहट मालूम हुई। भूतनाथ ने जब घूमकर देखा तो नानक पर निगाह पड़ी। जब वह पास आया तब भूतनाथ ने उससे पूछा, "क्या चाहते हो?"

नानक-मेरी माँ आपसे मिलना चाहती हैं।

भूतनाथ-तो यहाँ पर क्यों न चली आई ? यहाँ कोई गैर तो था नहीं।

नानक-सो तो वही जानें।

भूतनाथ-अच्छा, जाओ, उसे इसी जगह मेरे पास भेज दो।

नानक-बहुत अच्छा।

इतना कहकर नानक चला गया और इसके बाद शान्ता ने भूतनाथ से कहा,"शायद उसे मेरे सामने आपसे बातचीत करना मंजूर न हो, शर्म आती हो या किसी तरह का और कुछ खयाल हो, अतः आज्ञा दीजिए तो मैं चली जाऊँ, फिर...

भूतनाथ-नहीं-नहीं, उसे जो कुछ कहना होगा तुम्हारे सामने ही कहेगी, तुम चुपचाप बैठी रहो।

शान्ता-सम्भव है कि वह मेरे रहते यहाँ न आवे, या उसे इस बात का खवाल हो कि तुम मेरे सामने उसकी बेइज्जती करोगे।

भूतनाथ-हो सकता है, मगर (कुछ सोच के) अच्छा, तुम जाओ।

इतना सुनकर शान्त। वहाँ से उठी और बैंगले की तरफ रवाना हुई। इस समय सूर्य अस्त हो चुका था और चारों तरफ से अंधेरी झुकी आती थी।