चन्द्रकान्ता सन्तति 6/22.9

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चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

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सुबह का सुहावना समय सब जगह एक सा नहीं मालूम होता, घर की खिड़कियों में उसका चेहरा कुछ और ही दिखायी देता है और बाग में उसकी कैफियत कुछ और ही मस्तानी होती है, पहाड़ में उसकी खूबी कुछ और ही ढंग की दिखाई देती है और जंगल में उसकी छटा कुछ निराली ही होती है। आज इन्द्रदेव के इस अनूठे स्थान में इसकी खूबी सबसे चढ़ी-बढ़ी है, क्योंकि यहां जंगल भी हैं, पहाड़ भी, अनूठा बाग तथा सुन्दर बँगला या कोठी भी है, फिर यहाँ के आनन्द का पूछना ही क्या । इसलिए हमारे महाराज, कुंअर साहब और ऐयार लोग भी यहाँ घूम-घूमकर सुबह के सुहावने समय का पूरा आनन्द ले रहे हैं, खास करके इसलिए कि आज ये लोग डेरा कूच करने वाले हैं।

बहुत देर घूमने-फिरने के बाद सब कोई बाग में आकर बैठे और इधर-उधर की बातें होने लगीं।

जीतसिंह--(इन्द्रदेव से) भरतसिंह वगैरह तथा औरतों को आपने चुनार रवाना कर दिया?

इन्द्रदेव--जी हाँ, बड़े सवेरे ही उन लोगों को बाहर की राह से रवाना कर दिया। औरतों के लिए सवारी का इन्तजाम कर देने के अतिरिक्त अपने दस-पन्द्रह मात- बर आदमी भी साथ कर दिये हैं।

जीतसिंह--अब हम लोग कुछ भोजन करके यहां से रवाना हुआ चाहते हैं।

इन्द्रदेव--जैसी मर्जी !

जीतसिंह--भैरों और तारा जो आपके साथ यहाँ आए थे कहाँ चले गये, दिखाई नहीं पड़ते।

इन्द्रदेव--अब भी मैं उन्हें अपने साथ ही ले जाने की आज्ञा चाहता हूँ, क्योंकि उनकी मदद की मुझे जरूरत है।

जीतसिंह--तो त्या आप हम लोगों के साथ न चलेंगे?

इन्द्रदेव--जी हाँ, उस बाग तक जरूर साथ चलूंगा, जहाँ से मैं आप लोगों को यहाँ तक ले आया हूँ, पर उसके बाद गुप्त हो जाऊँगा, क्योंकि मैं आपको कुछ तिलिस्मी तमाशे दिखाना चाहता हूँ और इसके अतिरिक्त उन चीजों को भी तिलिस्म के अन्दर से निकलवा कर चुनार पहुँचाना है, जिनके लिए आज्ञा मिल चुकी है।

सुरेन्द्रसिंह--नहीं-नहीं, गुप्त रीति पर हम तिलिस्म का तमाशा नहीं देखना चाहते, हमारे साथ रहकर जो कुछ दिखा सको, दिखा दो। बाकी रहा उन चीजों को [ १०६ ]निकलवा कर चुनार पहुंचाना, सो यह काम दो दिन के बाद भी होगा तो कोई हर्ज नहीं।

इन्द्रदेव--जैसी आज्ञा!

इतना कहकर इन्द्रदेव थोड़ी देर के लिए कहीं चले गए और तब भैरोंसिंह तथा तारासिंह को साथ लिए आकर बोले, "भोजन तैयार है।"

सब लोग वहाँ से उठे और भोजन इत्यादि से छुट्टी पाकर तिलिस्म की तरफ रवाना हुए । जिस तरह इन्द्रदेव इन लोगों को अपने स्थान में ले आए थे, उसी तरह पुनः उस तिलिस्मी बाग में ले गए, जिसमें से लाए थे।

जब महाराज सुरेन्द्रसिंह वगैरह उस बारहदरी में पहुँचे, जिसमें पहले दिन आराम किया था और जहाँ बाजे की आवाज सुनी थी, तब दिन पहर भर से कुछ ज्यादा बाकी था। जीतसिंह ने इन्द्रदेव से पूछा, “अब क्या करना चाहिए?"

इन्द्रदेव--यदि महाराज आज की रात यहाँ रहना पसन्द करें, तो एक दूसरे वाग में चलकर वहाँ की कुछ कैफियत दिखाऊँगा!

जीतसिंह--बहुत अच्छी बात है, चलिए।

इतना सुनकर इन्द्रदेव ने उस बारहदरी की कई आलमारियों में से एक आल- मारी खोली और उसके अन्दर जाकर सभी को अपने पीछे आने का इशारा किया। यहाँ एक गली की तौर पर रास्ता बना हुआ था, जिसमें सब कोई इन्द्रदेव की इच्छानुसार बेखौफ चले गए और थोड़ी दूर जाने के बाद जब इन्द्रदेव ने दूसरा दरवाजा खोला, तब उसके बाहर होकर सभी ने अपने को एक छोटे बाग में पाया, जिसकी बनावट कुछ विचित्र ही ढंग की थी। यह बाग जंगली पौधों की सब्जी से हरा-भरा मा और पानी का चश्मा भी बह रहा था, मगर चारदीवारी के अतिरिक्त और किसी तरह की बड़ी इमारत इसमें न थी, हाँ बीच में एक बहुत बड़ा चबूतरा जरूर था, जिस पर धूप और बरसाती पानी के लिए सिर्फ मोटे-मोटे बारह खम्भों के सहारे पर छत बनी हुई थी और चबूतरे पर चढ़ने के लिए चारों तरफ सीढ़ियाँ थीं।

यह चबूतरा कुछ अजीब ढंग का बना हुआ था। लगभग चालीस हाथ के चौड़ा और इतना ही लम्बा होमा। इसके फर्श में लोहे की बारीक नालियां जाल की तरह जड़ी हुई थीं और बीच में एक चौखूटा स्याह पत्थर इस अन्दाज का रखा था, जिस पर चार आदमी बैठ सकते थे । बस, इसके अतिरिक्त इस चबूतरे में और कुछ भी न था।

थोड़ी देर तक सब कोई उस चबूतरे की बनावट देखते रहे, इसके बाद इन्द्रदेव ने महाराज से कहा, "तिलिस्म बनाने वालों ने यह बगीचा केवल तमाशा देखने के लिए बनाया था । यहाँ की कैफियत आपके साथ रहकर मैं नहीं दिखा सकता । हाँ, यदि आप मुझे दो-तीन पहर की छुट्टी दें तो!"

इन्द्रदेव की बात महाराज ने मंजूर कर ली और तब वह (इन्द्रदेव) सभी के देखते देखते चौखूटे पत्थर के ऊपर चले गए जो चबूतरे के बीच में जड़ा हुआ था । सवार होने साथ ही वह पत्थर हिला और इन्द्रदेव को लिए हुए जमीन के अन्दर चला गया, मगर थोड़ी देर में पुनः ऊपर चला आया और अपने ठिकाने पर ज्यों का त्यों बैठ गया लेकिन इस समय इन्द्रसेन उस पर न थे । [ १०७ ]इन्द्रदेव के चले जाने के बाद थोड़ी देर तक तो सब कोई उस चबूतरे पर खड़े रहे, इसके बाद धीरे-धीरे वह चबूतरा गरम होने लगा और वह गर्मी यहाँ तक बढ़ी कि लाचार उन सभी को चबूतरा छोड़ देना पड़ा, अर्थात् सब कोई चबूतरे के नीचे उतर आए और बाग में टहलने लगे। इस समय दिन घण्टे भर से कुछ कम बाकी था।

इस खयाल से देखें कि इसकी दीवार किस ढंग की बनी हुई हैं, सब कोई घूमते हुए पूरब की तरफ वाली दीवार के पास जा पहुंचे और गौर से देखने लगे, मगर कोई अनूठी बात दिखाई न दी । इसके बाद उत्तर तरफ वाली और फिर पश्चिम तरफ वाली दीवार को देखते हुए सब कोई दक्खिन की तरफ गए और उधर की दीवार को आश्चर्य के साथ देखने लगे, क्योंकि इसमें कुछ विचित्रता थी।

यह दीवार शीशे की मालूम होती थी और इसमें महाभारत की तस्वीरें बनी हुई थीं। ये तस्वीरें उसी ढंग की थीं, जैसी कि उस तिलिस्मी बंगले में चलती-फिरती तस्वीरें इन लोगों ने देखी थीं। ये लोग तस्वीरों को बड़ी देर तक देखते रहे और सभी को विश्वास हो गया कि जिस तरह उस बंगले वाली तस्वीरों को चलते-फिरते और काम करते हम लोग देख चुके हैं उसी तरह इन तस्वीरों को भी देखेंगे, क्योंकि दीवार पर हाथ फेरने से साफ मालूम होता था कि तस्वीरें शीशे के अन्दर हैं।

इन तस्वीरों को देखने से महाभारत की लड़ाई का जमाना आँखों के सामने फिर जाता था । कौरवों और पाण्डवों की फौज, उसके बड़े-बड़े सेनापति तथा रथ, हाथी, घोड़े इत्यादि जो कुछ बने थे, सभी अच्छे और दिल पर असर पैदा करने वाले थे। 'इस लड़ाई की नकल अपनी आँखों से देखेंगे' इस विचार से सब कोई प्रसन्न थे। बड़ी दिलचस्पी के साथ उन तस्वीरों को देख रहे ये, यहाँ तक कि सूर्य अस्त हो गया और धीरे-धीरे अंधकार ने चारों तरफ अपना दखल जमा लिया। उस समय यकायक दीवार चमकने लगी और तस्वीरों में हरकत पैदा हुई जिससे सभी ने समझा कि नकली लड़ाई शुरू हुआ चाहती है मगर कुछ ही देर बाद लोगों का यह विश्वास ताज्जुब के साथ बदल गया, जब यह देखा कि उसमें की तस्वीरें एक-एक करके गायब हो रही हैं, यहां तक कि घड़ी भर के अन्दर ही सब तस्वीरें गायब हो गई और दीवार साफ दिखाई देने लगी। इसके बाद दीवार की चमक भी बन्द हो गई और फिर अन्धकार दिखाई देने लगा।

थोड़ी देर बाद उस चबूतरे की तरफ रोशनी मालूम हुई । यह देखकर सब कोई उसी तरफ रवाना हुए और जब उसके पास पहुंचे तो देखा कि उस चबूतरे की छत में जड़े हुए शीशों के दस-बारह टुकड़े इस तेजी के साथ चमक रहे हैं कि उनसे केवल चबूतरा ही नहीं बल्कि तमाम बाग में उजाला हो रहा है । इसके अतिरिक्त सैकड़ों मूरतें भी उस चबूतरे पर इधर-उधर चलती-फिरती दिखाई दीं। गौर करने से मालूम हुआ कि ये मूरतें (या तस्वीरें) बेशक वे ही हैं, जिन्हें उस दीवार के अन्दर देख चुके हैं। ताज्जुब नहीं कि वह दीवार इन सभी का खजाना हो और वही यहाँ इस चबूतरे पर आकर तमाशा दिखाती हों।

इस समय जितनी मूरतें उस चबूतरे पर थीं, सब अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु की लडाई से सम्बन्ध रखती थीं। जब उन मूरतों ने अपना काम शुरू किया तो ठीक अभि-[ १०८ ]मन्यु की लड़ाई का तमाशा आँखों के सामने दिखाई देने लगा। जिस तरह कौरवों के रचे हुए व्यूह के अन्दर फंसकर कुमार अभिमन्यु ने वीरता दिखाई थी और अन्त में अधर्म के साथ जिस तरह वह मारा गया था, उसी को आज नाटक स्वरूप में देखकर सब कोई बड़े प्रसन्न हुए और सभी के दिलों पर बहुत देर तक इसका असर रहा।

इस तमाशे का हाल खुलासा तौर पर हम इसलिए नहीं लिखते कि इसकी कथा बहुत प्रसिद्ध है और महाभारत में विस्तार के साथ लिखी है।

यह तमाशा थोड़ी ही देर में खत्म नहीं हुआ बल्कि देखते हुए तमाम रात बीत गई। सवेरा होने के कुछ पहले अंधकार हो गया और उसी अंधकार में सब मूरतें गायव हो गईं। उजाला होने और आँखें ठहरने पर जब सभी ने देखा तो उस चबूतरे पर सिवाय इन्द्रदेव के और कुछ भी दिखाई न दिया।

इन्द्रदेव को देखकर सब कोई प्रसन्न हुए और साहव-सलामत के बाद इस तरह वातचीत होने लगी--

इन्द्रदेव--(चबूतरे से नीचे उतर कर और महाराज के पास आकर) मैं उम्मीद करता हूँ कि इस तमाशे को देखकर महाराज प्रसन्न हुए होंगे।

महाराज--बेशक ! क्या इसके सिवाय और भी कोई तमाशा यहाँ दिखाई दे सकता है?

इन्द्रदेव--जी हाँ, यहाँ पूरा महाभारत दिखाई दे सकता है, अर्थात् महाभारत ग्रन्थ में जो कुछ लिखा है, वह सब इसी ढंग पर और इसी चबूतरे पर आप देख सकते हैं मगर दो-चार दिन में नहीं बल्कि महीनों में ! इसके साथ-साथ बनाने वाले ने इसकी भी तरकब की है कि चाहे शुरू ही से तमाशा दिखाया जाए या बीच ही से कोई टुकड़ा दिखा दिया जाये अर्थात् महाभारत के अन्तर्गत जो कुछ चाहें देख सकते हैं।

महाराज--इच्छा तो बहुत कुछ देखने की थी, मगर इस समय हम लोग यहाँ ज्यादा रुक नहीं सकते, अतः फिर कभी जरूर देखेंगे। हाँ, हमें इस तमाशे के विषय में कुछ समझाओ तो सही कि यह काम क्योंकर हो सकता है और तुमने यहाँ से कहाँ जाकर क्या किया?

इन्द्रदेव ने इस तमाशे का पूरा-पूरा भेद सभी को समझाया और कहा कि ऐसे- ऐसे कई तमाशे इस तिलिस्म में भरे पड़े हैं, अगर आप चाहें तो इस काम में वर्षों बिता सकते हैं, इसके अतिरिक्त यहाँ की दौलत का भी यही हाल है कि वर्षों तक ढोते रहिये फिर भी कमी न हो, सोने-चांदी का तो कहना ही क्या है, जवाहिरात भी आप जितना चाहं ले सकते हैं। सच तो यह है, कि जितनी दौलत यहाँ है, उसके रहने का ठिकाना यहीं हो सकता है । इस बगीचे के आस-पास ही और भी चार बाग हैं, शायद उन सभी में घूमना और वहाँ के तमाशों को देखना इस समय आप पसन्द न करें

महाराज--बेशक इस समय हम इन सब तमाशों में समय बिताना पसन्द नहीं करते । सबसे पहले शादी-ब्याह के काम से छुट्टी पाने की इच्छा लगी हुई है मगर इसके बाद पुनः एक दफे इस तिलिस्म में आकर यहां की सैर जरूर करेंगे।

कुछ देर तक इसी किस्म की बातें होती रही, इसके बाद इन्द्रदेव सभी को पुनः [ १०९ ]उसी बाग में ले आए, जिसमें उनसे मुलाकात हुई थी या जहाँ से इन्द्रदेव के स्थान में जाने का रास्ता था।