चन्द्रकान्ता सन्तति 6/23.10

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चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

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घोड़े पर सवार तारासिंह को साथ लिए हुए कुंअर आनन्दसिंह जंगल ही जंगल घूमते और साधारण ढंग पर शिकार खेलते हुए बहुत दूर निकल गये और जब दिन बहुत कम बाकी रह गया, तब धीरे-धीरे घर की तरफ लौटे।

हम ऊपर के किसी बयान में लिख आये हैं कि 'अटारी पर एक सजे हुए बँगले में बैठी हुई किशोरी, कामिनी और कमलिनी वगैरह ने जंगल से निकलकर घर की तरफ आते हुए कुंअर आनन्दसिंह और तारासिंह को देखा तथा यह भी देखा कि दस-बारह नकाबपोशों ने जंगल में से निकल इन दोनों पर तीर चलाये और ये दोनों उनका पीछा करते हुए पुनः जंगल के अन्दर घुस गए' – इत्यादि ।

यह वही मौका है जिसका हम जिक्र कर रहे हैं । उस समय कमला ने एक लौंडी की जबानी इन्द्रजीतसिंह को इस बात की खबर दिलवा दी थी, और खबर पाते ही कुंअर इन्द्रजीतसिंह, भैरोंसिंह तथा और भी बहुत से आदमी आनन्दसिंह की मदद के लिए रवाना हो गए थे।

असल बात यह थी कि भूतनाथ की चालाकी से शर्मिन्दगी उठाकर भी नानक ने सब नहीं किया, बल्कि पुनः इन लोगों का पीछा किया और अबकी दफे इस ढंग से जाहिर हुआ था कि मौका मिले तो आनन्दसिंह को तीर का निशाना बनावे और इसी तरह बारी-बारी से अपने दुश्मनों की जान लेकर कलेजा ठंडा करे । मगर उसका यह इरादा भी काम न आया; आनन्दसिंह और तारासिंह की चालाकी और उनके घोड़ों की चपलता के कारण उसका निशाना कारगर न हुआ और उन्होंने तेजी के साथ उसके सिर पर पहुंच कर सभी को हर तरह से मजबूर कर दिया। तब तक मदद लिए हुए कुंअर इन्द्र- जीतसिंह भी जा पहुंचे और आठ साथियों के सहित बेईमान नानक को गिरफ्तार कर लिया। यद्यपि उसी समय यह भी मालूम हो गया कि इसके साथियों में से कई आदमी निकल गए, मगर इस बात की कुछ परवाह न की गई और जो कुछ गिरफ्तार हो गए थे, उन्हीं को लेकर सब कोई घर की तरफ रवाना हो गए।

कम्बख्त नानक पर हर तरह की रिआयत की गई, बहुत कड़ी सजा पाने के योग्य होने पर भी उसे किसी तरह की सजा न दी गई, और बह इस खयाल से बिल्कुल [ १६७ ]साफ छोड़ दिया गया कि फिर भी सुधर जाय मगर नहीं-

भूयोपि सिक्तः पयसा घृतेन

न निम्बवृक्षो मधुरत्वमेति

अर्थात् "नीम न मीठो होय जो सींचो गुड़ घीउ से।"

आखिर नानक को वह दुःख भोगना ही पड़ा जो उसकी किस्मत में बदा हुआ था। जिस समय नानक गिरफ्तार करके लाया गया और लोगों ने उसका हाल सुना उस समय सभी को उसकी नालायकी पर बहुत ही रंज हुआ। महाराज की आज्ञानुसार वह कैदखाने में पहुँचाया गया और सभी को निश्चय हो गया कि अब इसे किसी तरह छुटकारा नहीं मिल सकता।

दूसरे दिन दरबारे-आम का बन्दोबस्त किया गया और कैदियों का मुकदमा सुनने के लिए बड़े शौक से लोग इकट्ठा होने लगे । हथकड़ियों-बेड़ियों से जकड़े हुए कैदी लोग हाजिर किए गए और आपस वालों तथा ऐयारों को साथ लिए हुए महाराज भी दरबार में आकर एक ऊँची गद्दी पर बैठ गये । आज के दरबार में भीड़ मामूली से बहुत ज्यादा थी और कैदियों का मुकदमा सुनने के लिए सभी उतावले हो रहे थे। भरतसिंह, दलीपशाह, अर्जुनसिंह तथा उनके और भी दो साथी, जो तिलिस्म के बाहर होने के बाद अपने घर चले गए थे और अब लौट आये हैं, अपने-अपने चेहरों पर नकाब डाल कर दरबार में राजा गोपालसिंह के पास बैठ गये और महाराज के हुक्म का इन्तजार करने लगे।

महाराज का इशारा पाकर भरतसिंह खड़े हो गए और उन्होंने दारोगा तथा जयपाल की तरफ देखकर कहा-

"दारोगा साहब, जरा मेरी तरफ देखिए और पहचानिए कि मैं कौन हूँ। जय- पाल, तू भी इधर निगाह कर!"

इतना कहकर भरतसिंह ने अपने चेहरे पर से नकाब उलट दी और एक दफा चारों तरफ देखकर सभी का ध्यान अपनी तरफ खींच लिया। सूरत देखते ही दारोगा और जयपाल थर-थर कांपने लगे। दारोगा ने लड़खड़ाई हुई आवाज से कहा, "कौन ? ओफ, भरतसिंह ! नहीं-नहीं, भरतसिंह कहाँ ? उसे मरे बहुत दिन हो गए, यह तो कोई ऐयार है!"

भरतसिंह-नहीं-नहीं, दारोगा साहब ! मैं ऐयार नहीं हूं, मैं वही भरतसिंह हूँ जिसे आपने हद से ज्यादा सताया था, मैं वही भरतसिंह हूँ जिसके मुंह पर आपने मिर्च का तोबड़ा चढ़ाया था और मैं वही भरतसिंह हूँ जिसे आपने अंधेरे कुएं में लटका दिया था । सुनिये मैं अपना किस्सा बयान करता हूँ और यह भी कहता हूँ कि आखिर में मेरी जान क्योंकर बची। जयपालसिंह, आप भी सुनिए और हुंकारी भरते चलिए।

इतना कहकर भरतसिंह ने अपना किस्सा आदि से कहना आरम्भ किया जैसा कि हम ऊपर बयान कर आये हैं और इसके बाद यों कहने लगे-

भरतसिंह--दारोगा की बातों ने मुझे घबरा दिया और मैं उलटे पैर मोहनजी [ १६८ ]वैद्य को बुलाने के लिए रवाना हुआ। मुझे इस बात का रत्ती भर भी शक न था कि मोहनजी और दारोगा साहब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं अथवा इन दोनों में हमारे लिए कुछ बातें तय पा चुकी हैं। मैं बेधड़क उनके मकान पर गया और इत्तिला कराने के बाद उनके एकान्त वाले कमरे में जा पहुंचा जहां उन्होंने मुझे बुलवा भेजा था । उस समय वे अकेले बैठे माला जप रहे थे। नौकर मुझे वहाँ तक पहुंचा कर बिदा हो गया और मैंने उनके पास बैठकर राजा साहब का हाल बयान करके खास बाग में चलने के लिए कहा । जवाब में वैद्यजी यह कर कि 'मैं दवाओं का बन्दोबस्त करके अभी आपके साथ चलया हूँ' खड़े हुए और आलमारी में से कई तरह की शीशियां निकाल-निकाल कर जमीन पर रखने लगे। उसी बीच में उन्होंने एक छोटी शीशी निकाल कर मेरे हाथ में दी और कहा, "देखिए यह मैंने एक नये ढंग की ताकत की दवा तैयार की है, खाना तो दूर रहा इसके सूंघने ही से तुरन्त मालूम होता है कि बदन में एक तरह की ताकत आ रही है ! लीजिए, जरा सूंघ के अन्दाज तो कीजिए।"

मैं वैद्यजी के फेर में पड़ गया और शीशी का मुंह खोलकर सूंघने लगा। इतना तो मालूम हुआ कि इसमें कोई खुशबूदार चीज है मगर फिर तन-बदन की सुध न रही। जब मैं होश में आया तो अपने को हथकड़ी-बेड़ी से मजबूर एक अँधेरी कोठरी में कैद पाया। नहीं कह सकता कि वह दिन का समय था या रात का । कोठरी के एक कोने में चिराग जल रहा था और दारोगा तथा जयपाल हाथ में नंगी तलवार लिए सामने बैठे हुए थे।

मैं-(दारोगा से) अब मालूम हुआ कि आपने इसी काम के लिए मुझे वैद्यजी के पास भेजा था।

दारोगा–बेशक इसीलिए, क्योंकि तुम मेरी जड़ काटने के लिए तैयार हो चुके थे।

मैं तो फिर मुझे कैद कर रखने से क्या फायदा? मार कर बखेड़ा निपटाइए और बेखटके आनन्द कीजिए।

दारोगा-हां, अगर तुम मेरी बात नहीं मानोगे, तो बेशक मुझे ऐसा ही करना पड़ेगा।

मैं-मानने की कौन-सी बात है ? मैंने तो अभी तक कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे आपको किसी तरह का नुकसान पहुंचे।

दारोगा—ये सब बातें तो रहने दो, क्योंकि तुम और हरदीन मिलकर जो कुछ कर चुके थे और जो करना चाहते थे, उसे मैं खूब जानता हूँ मगर बात यह है कि अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हें इस कैद से छुट्टी दे सकता हूँ, नहीं तो मौत तुम्हारे लिए तय हुई रक्खी है।

मैं-खैर बताइये तो सही कि वह कौन-सा काम है जिसके करने से छुट्टी मिल सकती है।

दारोगा-यही कि तुम एक चिट्ठी इन रघुबरमिह अर्थात् जयपाल के नाम की लिख दो जिसमें यह बात हो कि 'लक्ष्मीदेवी के बदले में मुन्दर को मायारानी बना देने [ १६९ ]में जो कुछ मेहनत की है वह हम तुम दोनों ने मिल कर की है अतएव उचित है कि इस काम में जो कुछ तुमने फायदा उठाया है उसमें से आधा मुझे बाँट दो, नहीं तो तुम्हारे लिए अच्छा न होगा।"

मैं--ठीक है, आपका मतलब मैं समझ गया, खैर आज तो नहीं मगर कल जैसा आप कहते हैं, वैसा ही कर दूंगा।

दारोगा--आखिर एक दिन की देर करने में तुमने क्या फायदा सोचा है?

मैं--सो भी कल ही बताऊँगा।

दारोगा--अच्छा क्या हर्ज है, कल ही सही।

इतना कहकर दारोगा चला गया और मैं भूखा-प्यासा उसी कोठरी में पड़ा हुआ तरह-तरह की बातें सोचने लगा क्योंकि उस दिन दारोगा ने मेरे खाने-पीने के लिए कुछ भी प्रबन्ध न किया । मुझे निश्चय हो गया कि इस ढंग की चिट्ठी लिखाने के बाद दारोगा मुझे जान से मार डालेगा और मेरे मरने के बाद यही चिट्ठी मेरी बदनामी का सबब बनेगी। मेरे दोस्त गोपालसिंह मुझको बेईमान समझेंगे और तमाम दुनिया मुझे कमीना खयाल करेगी । अतः मैंने दिल में ठान ली कि चाहे जान जाय या रहे, मगर इस तरह की चिट्ठी मैं कदापि न लिखूगा। आखिर मरना तो जरूरी है फिर कलंक का टीका जान- बूझ कर अपने माथे क्यों लगाऊँ?

दूसरे दिन रघुबरसिंह को साथ लिए हुए दारोगा पुनः मेरे पास आया

भरतसिंह ने अपना हाल यहां ही तक बयान किया था कि राजा गोपालसिंह ने बीच ही में टोका और पूछा, "क्या रघुबरसिंह भी इसी जयपाल का नाम है?"

भरतसिंह--जी हां, इसका नाम रघुबरसिंह था और कुछ दिन के लिए इसने अपना नाम 'भूतनाय' रख लिया था।

गोपालसिंह--ठीक है, मुझे इस बारे में धोखा हुआ नहीं, बल्कि मेरे खजांची ही ने मुझे धोखा दिया । खैर तब क्या हुआ?

भरतसिंह--हां, तो दूसरे दिन जयपाल को साथ लिए हुए दारोगा पुनः मेरे पास आया और बोला, "कहो, चिट्ठी लिख देने के लिए तैयार हो या नहीं?" इसके जवाब में मैंने कहा कि "मर जाना मंजूर है मगर झूठे कलंक का टीका अपने माथे पर लगाना मंजूर नहीं!"

दारोगा ने मुझे कई तरह से समझाया-बुझाया और धोखे में डालना चाहा, मगर मैंने उसकी एक न सुनी। आखिर दोनों ने मिलकर मुझे मारना शुरू किया, यहाँ तक मारा कि मैं वेहोश हो गया। जब होश में आया तो फिर उसी तरह अपने को कैद पाया । भूख और प्यास के मारे मेरा बुरा हाल हो गया था और मार के सबब से तमाम बदन चूर-चूर हो रहा था। तीसरे दिन दोनों शैतान पुनः मेरे पास आये और जब उस दिन भी मैंने दारोगा की बात न मानी तो उसने घोड़ों के दाना खाने वाले तोबड़े में चूरा किया हुआ मिरचा रख कर मेरे मुंह पर चढ़ा दिया। हाय-हाय ! उस तकलीफ को मैं कभी नहीं भूल सकता!

यहाँ तक कहकर भरतसिंह चुप हो गये और दारोगा तथा जयपाल को तरफ [ १७० ]देखने लगे। वे दोनों सिर नीचा किए हुए जमीन की तरफ देख रहे थे और डर के मारे दोनों का बदन काँप रहा था। भरतसिंह ने पुकार कर कहा, "कहिए दारोगा साहब, जो कुछ मैं कह रहा हूँ वह सच है या झूठ ?" मगर दारोगा ने इसका कुछ भी जवाब न दिया। मगर उस समय दरबार में जितने आदमी बैठे थे, क्रोध के मारे सभी का बुरा हाल था और सब कोई दारोगा की तरफ जलती हुई निगाह से देख रहे थे । भरतसिंह ने फिर इस तरह कहना शुरू किया-

भरतसिंह--दारोगा के सम्बन्ध में मेरा किस्सा वैसा दिलचस्प नहीं है जैसा दलीपशाह और अर्जुनसिंह का आप लोग सुनेंगे, क्योंकि उनके साथ बड़ी-बड़ी विचित्र घटनाएं हो चुकी हैं, बल्कि यों कहना चाहिए कि मेरा तमाम किस्सा उनकी एक दिन की घटना का मुकाबला भी नहीं कर सकता, परन्तु साथ ही इसके यह बात भी जरूर है कि मैंने न तो कभी किसी के साथ किसी तरह की बुराई की और न किसी से विशेष मेलजोल या हँसी-दिल्लगी ही रखता था, फिर भी उन दिनों जमानिया की वह दशा थी कि सादे ढंग पर जिन्दगी बिताने वाला मैं भी सुख की नींद न सो सका और राजा साहब की दोस्ती की बदौलत मुझे हर तरह का दुःख भोगना पड़ा। इस हरामखोर दारोगा ने ऐसे-ऐसे कुकर्म किए हैं कि जिनका पूरा-पूरा बयान हो ही नहीं सकता और न यही मेरी समझ में आता है कि दुनिया में कौन-सी ऐसी सजा है जो इसके योग्य समझी जाय।अतः अब मैं संक्षेप में अपना हाल समाप्त करता हूँ।

अपने मन के माफिक चिट्ठी लिखाने की नीयत से आठ दिन तक कम्बख्त दारोगा ने मुझे बेहिसाब सकलीफें दीं। मिर्च का तोबड़ा मेरे मुंह पर चढ़ाया, जहरीली राई का लेप मेरे बदन पर किया, कुएँ में लटकाया, गन्दी कोठरी में बन्द किया, जो-जो सूझा सब कुछ किया और इतने दिनों तक बराबर ही मुझे भूखा भी रखा, मगर न मालूम क्या सबब था कि मेरी जान नहीं निकली । मैं बराबर ईश्वर से प्रार्थना करता था कि किसी तरह मुझे मौत दे जिससे इस दुःख से छुट्टी मिले । आखिरी दिन मैं इतना कमजोर हो गया था कि मुझमें बात करने की ताकत न थी।

उस दिन आधी रात के समय मैं उसी कोठरी में पड़ा-पड़ा मौत का इन्तजार कर रहा था कि यकायक कोठरी का दरवाजा खुला और एक नकाबपोश दाहिने हाथ में नंगी तलवार और बाएँ हाथ में एक छोटी-सी गठरी लिए हुए कोठरी के अन्दर आता हुआ दिखाई पड़ा। हाथ में वह जो तलवार लिए था, उसके अतिरिक्त उसकी कमर में एक तलवार और भी थी । कोठरी के अन्दर आते ही उसने भीतर से दरवाजा बन्द कर दिया और मेरे पास चला आया, हाथ की गठरी और तलवार जमीन पर रख मुझसे चिपट गया और रोने लगा। उसकी ऐसी मुहब्बत देख मैं चौंक पड़ा और मुझे तुरन्त मालूम हो गया कि यह मेरा पुराना खैरख्वाह हरदीन है। उसके चेहरे से नकाब हटाकर मैंने उसकी सूरत देखी और तब रोने में उसका साथ दिया ।

थोड़ी ही देर बाद हरदीन भुझसे अलग हुआ और बोला, "मैं किसी न किसी तरह यहां तो पहुँच गया मगर यहां से निकल भागना जरा कठिन है, तथापि आप घबरायें नहीं, मैं एक दफा तो दुश्मन को सताए बिना नहीं रहता । अब आप शीघ्र उठे और [ १७१ ]जो कुछ मैं खाने-पीने के लिए लाया हूँ उसे खा कर चैतन्य हो जायें ।"

जो गठरी हरदीन लाया था उसमें खाने-पीने का सामान था। उसने मुझे भोजन कराया, पानी पिलाया और इसके बाद मेरे हाथ में एक तलवार देकर बोला, "बस, अब आप उठिये और मेरे पीछे-पीछे चले आइए । इतना समय नहीं है कि मैं यहाँ आपसे विशेष बातें करूं, इसके अतिरिक्त जिस जगह पर आप कैद हैं, यह तिलिस्म का एक हिस्सा है, यहाँ से निकलने के लिए भी बहुत उद्योग करना होगा।"

भोजन करने से कुछ ताकत तो मुझमें हो ही गई थी, मगर कैद से छुटकारा मिलने की उम्मीद ने उससे भी ताकत पैदा कर दी । मैं उठ खड़ा हुआ और हरदीन के पीछे-पीछे रवाना हुआ । कोठरी का दरवाजा खोलने के बाद जब बाहर निकला तब मुझे मालूम हुआ कि मैं खास बाग के तीसरे दर्जे में हूँ जिसमें कई दफा राजा गोपालसिंह के साथ आ चुका था, मगर इस बात से मुझको बहुत ही ताज्जुब हुआ और मैं सोचने लगा कि देखो राजा साहब के खास बाग ही में यह दारोगा लोगों पर इतना जुल्म करता है और राजा साहब को खबर तक नहीं होती ! क्या यहाँ कई ऐसे स्थान हैं जिनका हाल दारोगा जानता है और राजा साहब नहीं जानते ?

खैर, मैं कोठरी से बाहर निकलकर बरामदे में पहुंचा जहाँ से बायें और दाहिने सिर्फ दो ही तरफ जाने का रास्ता था। दाहिनी तरफ को इशारा करके हरदीन ने मुझसे कहा, "इसी तरफ से मैं आया हूँ, दारोगा, जयपाल तथा बहुत से आदमी इसी तरफ बैठे हैं इसलिए इधर तो अब जा नहीं सकते, हाँ बाईं तरफ चलिए, कहीं-न-कहीं से तो रास्ता मिल ही जायगा।"

रात चांदनी थी और ऊपर से खुला रहने के सबब उधर की हर एक चीज साफ-साफ दिखाई देती थी। हम दोनों आदमी बाईं तरफ रवाना हुए। लगभग पच्चीस कदम जाने के बाद नीचे उतरने के लिए दस-बारह सीढ़ियां मिलीं जिन्हें तय करने के बाद हम दालान में पहुँचे जो बहुत लम्बा-चौड़ा तो न था मगर निहायत खूबसूरत और स्याह पत्थर का बना हुआ था। उस दालान में पहुंचे ही थे कि पीछे से दारोगा और जयपाल तेजी के साथ आते हुए दिखाई पड़े, मगर हरदीन ने इनकी कुछ भी परवाह न की और कहा, “इन दोनों के लिए तो मैं अकेला ही काफी हूँ।"

हरदीन मुझे अपने पीछे करने के बाद अकड़कर खड़ा हो गया। उसने दारोगा को सैकड़ों गालियाँ दी और मुकाबला करने के लिए ललकारा, मगर उन दोनों की हिम्मत न पड़ी कि आगे बढ़ें और हरदीन का मुकाबला करें । कुछ देर तक खड़े-खड़े देखने और सोचने के बाद दारोगा ने अपनी जेब से एक छोटा सा गोला निकाला और हम दोनों की तरफ फेंका । हरदीन समझ गया कि जमीन पर गिरने के साथ ही इसमें से बेहोशी का धुआँ निकलेगा। उसने अपने हाथ से मुझे इशारा किया । गोला जमीन पर गिरकर फटा और उसमें से बहुत-सा धुआं निकला, मगर हम दोनों वहाँ से हर गये थे। इसलिए उसका कुछ असर न हुआ। उसी समय दारोगा ने हम लोगों की तरफ फेंकने के लिए दूसरा गोला निकाला।

इस दालान के बीचोंबीच में एक छोटा-सा चबूतरा लाल पत्थर का बना हुआ [ १७२ ]था, मगर हम दोनों यह नहीं जानते थे कि इसमें क्या गुण है । दारोगा को दूसरा गोला निकालते देख हम दोनों उस चबूतरे पर चढ़ गये, मगर उस से उतरकर भाग न सके, क्योंकि चढ़ने के साथ ही चबूतरा हिला, तथा हम दोनों को लिए हुए जमीन के अन्दर धंस गया और साथ ही न मालूम किस चीज के असर से हम दोनों बेहोश हो गये । जब होश में आये तो चारों तरफ अन्धकार ही अन्धकार दिखाई दिया, नहीं कह सकते कि हम दोनों कितनी देर तक बेहोश रहे।

कुछ देर तक चुपचाप बैठे रहने के बाद सामने की तरफ कुछ उजाला मालूम हुआ और वह उजाला धीरे-धीरे बढ़ने लगा जिससे हमने समझा कि सामने कोई दरवाजा है और उसमें से सुबह की सफेदी दिखाई दे रही है। हम दोनों उठकर खड़े हुए और उसी उजाले की तरफ बढ़े । वास्तव में वैसा ही था जैसा हम लोगों ने सोचा था। कई कदम चलने के बाद एक दरवाजा मिला जिसे लांघकर हम दोनों उसी बुर्ज वाले बाग में जा पहुंचे जहां दोनों कुमारों से मुलाकात हुई थी। इसके बाद बाहर का हाल बहुत दिनों तक कुछ भी मालूम न हुआ कि क्या हो रहा है और क्या हुआ।बहुत दिनों तक वहाँ से बाहर निकलने के लिए उद्योग करते रहे, परन्तु सब कुछ ध्यर्थ हुआ और वहां से छुट्टी तभी मिली जब दोनों कुमारों के दर्शन हुए! कुछ दिनों बाद दलीपशाह से भी उसी बाग मुलाकात हुई जिसका हाल उनका किस्सा सुनने से आप लोगों को मालूम होगा । बस,इतना ही तो मेरा किस्सा है। हाँ, जब आप दलीपशाह की कहानी सुनेंगे तब बेशक कुछ आनन्द मिलेगा। (एक नकाबपोश की तरफ बताकर) मेरा पुराना खैरखाह हरदीन यही है जो इतने दिनों तक मेरे दुःख-सुख का साथी बना रहा और अन्त में मेरे साथ ही कैद से छूटा।

भरतसिंह की कथा समाप्त होने के बाद दरबार बर्खास्त किया गया और महाराज ने हुक्म दिया कि "कल के दरबार में दलीपशाह अपना किस्सा बयान करेंगे।"