चन्द्रगुप्त मौर्य्य/चतुर्थ अंक/११

विकिस्रोत से
चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ २१२ ]
 

११
शिविर का एक अंश
[चिन्तित भाव से राक्षस का प्रवेश]

राक्षस—क्या होगा? आग लग गयी है, बुझ न सकेगी? तो मैं कहाँ रहूँगा? क्या हम सब ओर से गए?

सुवासिनी—(प्रवेश करके)—सब ओर से गये राक्षस! समय रहते तुम सचेत न हुए!

राक्षस—तुम कैसे सुवासिनी!

सुवा॰—तुम्हें खोजते हुए बन्दी बनायी गई। अब उपाय क्या है? चलोगे?

राक्षस—कहाँ सुवासिनी? इधर खाई, उधर पर्वत! कहाँ चलूँ?

सुवा॰—मैं इस युद्ध-विप्लव से घबरा रही हूँ। वह देखो, रण-वाद्य बज रहे हैं। यह स्थान भी सुरक्षित नहीं। मुझे बचाओ राक्षस—(भय का अभिनय करती है)

राक्षस—(उसे आश्वासन देते हुए)—मेरा कर्तव्य मुझे पुकार रहा है। प्रिये, मैं रणक्षेत्र से भाग नहीं सकता, चन्द्रगुप्त के हाथों से प्राण देने में ही कल्याण है! किन्तु तुमको...

[इधर-उधर देखता है, रण-कोलाहल]

सुवा॰—बचाओ!

राक्षस—(निःश्वास लेकर)—अदृष्ट! दैव प्रतिकूल है। चलो सुवासिनी!

(दोनों का प्रस्थान)
[एकाकिनी कार्नेलिया का प्रवेश]
(रण-शब्द)

कार्ने॰—यह क्या! पराजय न हुई होती तो शिविर पर आक्रमण कैसे होता?—(विचार करके)—चिन्ता नहीं, ग्रीक-बालिका भी प्राण देना जानती है। आत्म-सम्मान—ग्रीस का आत्म-सम्मान जिये!— [ २१३ ]
२१३
चतुर्थ अंक
 

(छुरी निकालती है)――तो अन्तिम समय एक बार नाम लेने में कोई अपराध है?――चन्द्रगुप्त!

[विजयी चन्द्रगुप्त का प्रवेश]

चन्द्र०—―यह क्या!――(छुरी ले लेता है)――राजकुमारी!

कार्ने०――निर्दय हो चन्द्रगुप्त! मेरे बूढे पिता की हत्या कर चुके होगे! सम्राट् हो जाने पर आँखे रक्त देखने की प्यासी हो जाती है न!

चन्द्र०――राजकुमारी! तुम्हारे पिता आ रहे है।

[सैनिको के बीच में सिल्यूकस का प्रवेश]

कार्ने०――(हाथों से मुँँह छिपाकर)――आह! विजेता सिल्यूकस को भी चन्द्रगुप्त के हाथों से पराजित होना पड़ा।

सिल्यू०――हाँ वेटी!

चन्द्र――वन-सम्राट्। अर्य्य कृतघ्न नही होते। आपको सुरक्षित स्थान पर पहुँचा देना ही मेरा कर्तव्य था। सिन्धु के इस पार अपने सेना निवेश में आप है, मेरे वन्दी नही! मैं जाता हूँ।

सिल्यू०――इतनी महत्ता।

चन्द्र०――राजकुमारी। पिताजी को विश्राम की आवश्यकता है। फिर हम लोग मित्रों के समान मिल सकते है।
[चन्द्रगुप्त का सैनिकों के साथ प्रस्थान; कार्ने लिया उसे देखती रहती है]