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चन्द्रगुप्त मौर्य्य/चतुर्थ अंक/१२

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य
जयशंकर प्रसाद

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ २१४ से – २१६ तक

 
 

१२
पथ में साइवर्टियस और मेगास्थनीज

साइ॰—उसने तो हम लोगों को मुक्त कर दिया था, फिर अवरोध क्यों?

मेगा॰—समस्त ग्रीक-शिविर बन्दी है! यह उनके मन्त्री चाणक्य की चाल है। मालव और तक्षशिला की सेना हिरात के पथ में खड़ी है, लौटना असम्भव है।

साइ॰—क्या चाणक्य! वह तो चन्द्रगुप्त से क्रुद्ध होकर कहीं चला गया था न? राक्षस ने यही कहा था, क्या वह झुठा था?

मेगा॰—सब षड्‌यंत्र में मिले थे। शिविर को अरक्षित अवस्था में छोड़, बिना कहे सुवासिनी को लेकर खिसक गया। अभी भी न समझे! इधर चाणक्य ने आज मुझसे यह भी कहा है कि मुझे औंटिगोनस के आक्रमण की भी सूचना मिली है।

[सिल्यूकस का प्रवेश]

सिल्यू॰—क्या? औंटिगोनस!

मेगा॰—हाँ सम्राट्‌, इस मर्म से अवगत होकर भारतीय कुछ नियमों पर ही मैत्री किया चाहते हैं।

सिल्यू॰—तो क्या ग्रीक इतने कायर हैं! युद्ध होगा साइवर्टियस! हम सब को मरना होगा।

मेगा॰—(पत्र देकर)—इसे पढ़ लीजिए, सीरिया पर औंटिगोनस की चढ़ाई समीप है। आपको उस पूर्व-संचित और सुरक्षित साम्राज्य को न गवाँ देना चाहिए।

सिल्यू॰—(पत्र पढ़कर विषाद से)—तो वे क्या चाहते हैं?

मेगा॰—सम्राट्‌! सन्धि करने के लिए तो चन्द्रगुप्त प्रस्तुत है, परन्तु नियम बड़े कड़े हैं। सिन्धु के पश्चिम के प्रदेश आर्य्यवर्त्त की नैसर्गिक सीमा निषध पर्वत तक वे लोग चाहते हैं। और भी... सिल्यू०––चुप क्यो हो गए? कहो, चाहे वे शब्द कितने ही कटु हो, मैं उन्हें सुनना चाहता हूँ।

मेगा०––चाणक्य ने एक और भी अडगा लगाया है। उसने कहा है, सिकन्दर के साम्राज्य में जो भावी विप्लव हैं, वह मुझे भलीभाँँति अवगत हैं। पश्चिम का भविष्य रक्त-रजित हैं, इसलिए यदि पूर्व में स्थायी शान्ति चाहते हो तो ग्रीक सम्राट् चन्द्रगुप्त को अपना बन्धु बना ले।

सिल्यू०––सो कैसे?

मेगा०––राजकुमारी कार्नेलिया का सम्राट् चन्द्रगुप्त से परिणय करके।

सिल्यू०––अधम! ग्रीक तुम इतने पतित हो!

मेगा०––क्षमा हो सम्राट्! बह ब्राह्मण कहता है कि आर्य्यावर्त की सम्राज्ञी भी तो कोर्नेलिया ही होगी।

साइ०––परन्तु राजकुमारी की भी सम्मति चाहिए।

सिल्यू०––असम्भव! घोर अपमानजनक।

मेगा०––मैं क्षमा किया जाऊँ तो सम्राट्...! राजकुमारी का चन्द्रगुप्त से पूर्वपरिचय भी है, कौन कह सकता है कि प्रणय अदृश्य सुनहली रश्मियो से एक-दूसरे को न खीच चुका हो! सम्राट् सिकन्दर के अभियान का स्मरण कीजिए––मै उस घटना को भूल नहीं गया हूँ।

सिल्यू०––मेगास्थनीज! मै यह जानता हूँ! कार्नेलिया ने इस युद्ध में जितनी बाधाएँ उपस्थित की, वे सब इसकी साक्षी है कि उसके मन में कोई भाव है, पूर्व स्मृति हैं, फिर भी––फिर भी, न जाने क्यो! वह देखो, आ रही है! तुम लोग हट तो जाओ!

[ साइवर्टियस और मेगास्थनीज का प्रस्थान और कार्नेलिया का प्रवेश ]
 

कार्ने०––पिताजी!

सिल्यू०––बेटी कार्नी!

कार्ने०––आप चिन्तित क्यो है?

सिल्यू०––चन्द्रगुप्त को दण्ड कैसे दूँ? इसी की चिन्ता है।

कार्ने॰—क्यों पिताजी, चन्द्रगुप्त ने क्या अपराध किया है?

सिल्यू॰—हैं! अभी बताना होगा कार्नेलिया! भयानक युद्ध होगा, इसमें चाहे दोनों का सर्वनाश हो जाय!

कार्ने॰—युद्ध तो हो चुका। अब मेरी प्रार्थना आप सुनेंगे पिताजी! विश्राम लीजिए! चन्द्रगुप्त का तो कोई अपराध नहीं, क्षमा कीजिए पिताजी! (घुटने टेकती है)

सिल्यू॰—(बनावटी क्रोध से)—देखता हूँ कि, पिता को पराजित करने वाले पर तुम्हारी असीम अनुकम्पा है।

कार्ने॰—(रोती हुई)—मैं स्वयं पराजित हूँ! मैंने अपराध किया है पिताजी! चलिए, इस भारत की सीमा से दूर ले चलिए, नहीं तो मैं पागल हो जाऊँगी।

सिल्यू॰—(उसे गले लगाकर)—तब मैं जान गया कार्नी, तू सुखी हो बेटी! तुझे भारत की सीमा से दूर न जाना होगा—तू भारत की सम्राज्ञी होगी।

कार्ने॰—पिताजी!

[प्रस्थान]