चन्द्रगुप्त मौर्य्य/चतुर्थ अंक/४

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ १८४ ]
 


[प्रकोष्ठ में चन्द्रगुप्त का प्रवेश]

चन्द्रगुप्त—विजयों की सीमा है, परन्तु अभिलाषाओं की नहीं। मन ऊब-सा गया है। झंझटों से घड़ी भर अवकाश नहीं। गुरुदेव और क्या चाहते हैं, समझ में नहीं आता। इतनी उदासी क्यों? मालविका!

माल॰—(प्रवेश करके)—सम्राट्‌ की जय हो!

चन्द्र॰—मैं सब से विभिन्न, एक भय-प्रदर्शन-सा बन गया हूँ। कोई मेरा अन्तरंग नहीं, तुम भी मुझे सम्राट्‌ कहकर पुकारती हो!

माल॰—देव, फिर मैं क्या कहूँ?

चन्द्र॰—स्मरण आता है—मालव का उपवन और उसमें अतिथि के रूप में मेरा रहना?

माल॰—सम्राट्‌, अभी कितने ही भयानक संघर्ष सामने हैं!

चन्द्र॰—संघर्ष! युद्ध देखना चाहो तो मेरा हृदय फाड़कर देखो। मालविका! आशा और निराशा का युद्ध, भावों और अभावों का द्वन्द्व! कोई कमी नहीं, फिर भी न जाने कौन मेरी सम्पूर्ण सूची में रक्त-चिह्न लगा देता है। मालविका, तुम मेरी ताम्बूल-वाहिनी नहीं हो, मेरे विश्वास की, मित्रता की प्रतिकृति हो। देखो, मैं दरिद्र हूँ कि नहीं, तुमसे मेरा कोई रहस्य गोपनीय नहीं! मेरे हृदय में कुछ है कि नहीं, टटोलने से भी नहीं जान पड़ता।

माल॰—आप महापुरुष हैं, साधारणजन—दुर्लभ दुर्बलता नहोनी चाहिए आप में देव! बहुत दिनों पर मैंने एक माला बनायी है—(माला पहनाती है)

चन्द्र॰—मालविका, इन फूलों का रस तो भौंरे ले चुके हैं!

माल॰—निरीह कुसुमों पर दोषारोपण क्यों? उनका काम है सौरभ विखेरना, यह उनका मुक्त दान है। उसे चाहे भ्रमर ले या पवन।

चन्द्र॰—कुछ गाओ तो मन बहल जाय। [ १८५ ]

[मालविका गाती है—]

मधुप कब एक कली का है!
पाया जिसमें प्रेम रस, सौरभ और सुहाग,
बेसुध हो उस कली से, मिलता भर अनुराग,
विहारी कुञ्जगली का है!
कुसुम धूल से धूसरित, चलता है उस राह,
काँटों में उलझा, तदपि, रही लगन की चाह,
बावला रंगरली का है।
हो मल्लिका, सरोजिनी, या यूथी का पुञ्ज,
अलि को केवल चाहिए, सुखमय क्रीडा-कुञ्ज,
मधुप कब एक कली का है!


चन्द्र॰—मालविका, मन मधुप से भी चंचल और पवन से भी प्रगतिशील है, वेगवान है।

माल॰—उसका निग्रह करना ही महापुरुषों का स्वभाव है देव!

[प्रतिहारी का प्रवेश और संकेत—मालविका उससे बात करके लौटती है]

चन्द्र॰—क्या है?

माल॰—कुछ नहीं, कहती थीं कि यह प्राचीन राज-मन्दिर अभी परिष्कृत नहीं, इसलिए मैंने चन्द्रसौंध में आपके शयन का प्रबन्ध करने के लिए कह दिया है।

चन्द्र॰—जैसी तुम्हारी इच्छा—(पान करता हुआ) कुछ और गाओ मालविका! आज तुम्हारे स्वर में स्वर्गीय मधुरिमा है।

[मालविका गाती है—]

बज रही बंशी आठों याम की।
अब तक गूँज रही है बोली प्यारे मुख अभिराम की।
हुए चपल मृगनैन मोह-वश बजी विपंची काम की,
रूप-सुधा के दो दृग प्यालों ने ही मति बेकाम की!


बज रही बंशी॰—

[ १८६ ]

(कंचुकी का प्रवेश)

कंचुकी—जय हो देव, शयन का समय हो गया।

[प्रतिहारी और कंचुकी के साथ चन्द्रगुप्त का प्रस्थान]

माल॰—जाओ प्रियतम! सुखी जीवन बिताने के लिए, और मैं रहती हूँ चिर-दुःखी जीवन का अन्त करने के लिए। जीवन एक प्रश्न है, और मरण है उसका अटल उत्तर। आर्य्य चाणक्य की आज्ञा है—"आज घातक इस शयन-गृह में आवेंगे, इसलिए चन्द्रगुप्त यहाँ न सोने पावें,और षड्‌यन्त्रकारी पकड़े जायँ।"(शय्या पर बैठकर)—यह चन्द्रगुप्त की शय्या है। ओह, आज प्राणों में कितनी मादकता है! मैं... कहाँ हूँ? कहाँ? स्मृति, तू मेरी तरह सो जा! अनुराग, तू रक्त से भी रंगीन बन जा!

[गाती है—]

ओ मेरी जीवन की स्मृति! ओ अन्तर के आतुर अनुराग!
बैठ गुलाबी विजन उषा में गाते कौन मनोहर राग?
चेतन सागर उर्मिल होता यह कैसी कम्पनमय तान,
यों अधीरता से न भीड़ लो अभी हुए हैं पुलकित प्रान।
कैसा है यह प्रेम तुम्हारा युगल मूर्ति की बलिहारी।
यह उन्मप विलास बता दो कुचलेगा किसकी क्यारी?
इस अनन्त निधि के हे नाविक, हे मेरे अनंग अनुराग!
पाल सुनहला बन, तनती है, स्मृति यों उस अतीत में जाग।
कहाँ ले चले कोलाहल से मुखरित तट को छोड़ सुदूर,
आह! तुम्हारे निर्दय डाँडों से होती हैं लहरें चूर।
देख नहीं सकते तुम दोनों चकित निराशा है भीमा,
बहको मत क्या न है बता दो क्षितिज तुम्हारी नव सीमा?

शयन