चन्द्रगुप्त मौर्य्य/चतुर्थ अंक/३
३
परिषद्-गृह
राक्षस—(प्रवेश करके)—तो आप लोगों की सम्मति है कि विजयोत्सव न मनाया जाय? मगध का उत्कर्ष, उसके गर्व का दिन, यों ही फीका रह जाय!
शकटार—मैं तो चाहता हूँ, परन्तु आर्य्य चाणक्य की सम्मति इसमें नहीं है।
कात्यायन—जो कार्य बिना किसी आडम्बर के हो जाय, वही तो अच्छा है।
[मौर्य्य सेनापति और उसकी स्त्री का प्रवेश]
मौर्य्य—विजयी होकर चन्द्रगुप्त लौट रहा है, हम लोग आज भी उत्सव न मनाने पावेंगे? राजकीय आवरण में यह कैसी दासता है?
मौर्य्य-पत्नी—तब यही स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कौन इस साम्राज्य का अधीश्वर है! विजयी चन्द्रगुप्त अथवा यह ब्राह्मण या परिषद्?
चाणक्य—(राक्षस की ओर देखकर) राक्षस, तुम्हारे मन में क्या है?
राक्षस—मैं क्या जानूँ, जैसी सब लोगों की इच्छा।
चाणक्य—मैं अपने अधिकार और दायित्व को समझ कर कहता हूँ कि यह उत्सव न होगा।
मौर्य्य-पत्नी—तो मैं ऐसी पराधीनता में नहीं रहना चाहती (मौर्य्य से) समझा न! हम लोग आज भी बन्दी हैं।
मौर्य्य—(क्रोध से)—क्या कहा, बन्दी? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता? हम लोग चलते हैं। देखूँ किसकी सामर्थ्य है जो रोके! अपमान से जीवित रहना मौर्य्य नहीं जानता है। चलो—
(दोनों का प्रस्थान)
[चाणक्य और कात्यायन को छोड़कर सब जाते हैं।]
कात्या॰—विष्णुगुप्त, तुमने समझकर ही तो ऐसा किया होगा। फिर भी मौर्य्य का इस तरह चले जाना चन्द्रगुप्त को...
चाणक्य—बुरा लगेगा! क्यों? भला लगने के लिए मैं कोई काम नहीं करता कात्यायन! परिणाम में भलाई ही मेरे कामों की कसौटी है। तुम्हारी इच्छा हो, तो तुम भी चले जाओ, बको मत!
[कात्यायन का प्रस्थान]
चाणक्य—कारण समझ में नहीं आता—यह वात्याचक्र क्यों? (विचारता हुआ) क्या कोई नवीन अध्याय खुलने वाला है? अपनी विजयों पर मुझे विश्वास है, फिर यह क्या? (सोचता है)
[सुवासिनी का प्रवेश]
सुवा॰—विष्णुगुप्त!
चाणक्य—कहो सुहासिनी!
सुवा॰—अभी परिषद्-गृह से जाते हुए पिताजी बहुत दुःखी दिखाई दिये, तुमने अपमान किया क्या?
चाणक्य—यह तुमसे किसने कहा? इस उत्सव को रोक देने से साम्राज्य का कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। मौर्य्यों का जो कुछ है, वह मेरे दायित्व पर है। अपमान हो या मान, मैं उसका उपरदायी हूँ। और, पितृत्व-तुल्य शकटार को मैं अपमानित करूँगा, यह तुम्हें कैसे विश्वास हुआ?
सुवा॰—तो राक्षस ने ऐसा क्यों...?
चाणक्य—कहा? ऐं? सो तो कहना ही चाहिए। और तुहारा भी उस पर विश्वास होना आवश्यक है, क्यों न सुवासिनी?
सुवा॰—विष्णुगुप्त! मैं एक समस्या में डाल दी गयी हूँ।
चाणक्य—तुम स्वयं पड़ना चाहती हो, कदाचित् यह ठीक भी है।
सुवा॰—व्यंग्य न करो, तुम्हारी कृपा मुझ पर होगी ही, मुझे इसका विश्वास है।
चाणक्य—मैं तुमसे बाल्य-काल से परिचित हूँ, सुवासिनी! तुम खेल में भी हारने के समय रोते हुए हँस दिया करतीं और तब मैं हार स्वीकार कर लेता। इधर तो तुम्हारा अभिनय का अभ्यास भी बढ़ गया है! तब तो... (देखने लगता है)।
सुवा॰—यह क्या, विष्णुगुप्त, तुम संसार को अपने वश में करने का संकल्प रखते हो। फिर अपने को नहीं? देखो दर्पण लेकर—तुम्हारी आँखों में तुम्हारा यह कौन-सा नवीन चित्र है।
[प्रस्थान]
चाणक्य—क्या? मेरी दुर्बलता? नहीं! कौन है?
दौवारिक—(प्रवेश करके)—जय हो आर्य्य, रथ पर मालविका आयी है।
चाणक्य—उसे सीधे मेरे पास लिवा लाओ!
[दौवारिक का प्रस्थान—एक चर का प्रवेश]
चर—आर्य्य सम्राट् के पिता और माता दोनों व्यक्ति रथ पर अभी बाहर गये हैं (जाता है)।
चाणक्य—जाने दो! इनके रहने से चन्द्रगुप्त के एकाधिपत्य में बाधा होती। स्नेहातिरेक से वह कुछ-का-कुछ कर बैठता।
(दूसरे चर का प्रवेश)
दूसरा—(प्रणाम करके)—जय हो आर्य्य, वाल्हीक में नयी हलचल है। विजेता सिल्यूकस अपनी पश्चिमी राजनीति से स्वतंत्र हो गया है, अब वह सिकन्दर के पूर्वी प्रान्तों की ओर दत्तचित्त है। वाल्हीक की सीमा पर नवीन यवन-सेना के शस्त्र चमकने लगे हैं।
चाणक्य—(चौंक कर) और गांधार का समाचार?
दूसरा—अभी कोई नवीनता नहीं है।
चाणक्य—जाओ। (चर का प्रस्थान) क्या उसका भी समय आ गया? तो ठीक है। ब्राह्मण! अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रह! कुछ चिन्ता नहीं, सब सुयोग आप ही चले आ रहे हैं।
[ऊपर देखकर हँसता है, मालविका का प्रवेश]
माल॰—आर्य्य, प्रणाम करती हूँ। सम्राट ने श्रीचरणों में सविनय प्रणाम करके निवेदन किया है कि आपके आशीर्वाद से दक्षिणापथ में अपूर्व सफलता मिली, किन्तु सुदूर दक्षिण जाने के लिए आपका निषेध सुनकर लौटा आ रहा हूँ। सीामन्त के राष्ट्रों ने भी मित्रता स्वीकार कर ली है।
चाणक्य—मालविका, विश्राम करो। सब बातों का विवरण एक-साथ ही लूँगा।
माल॰—परन्तु आर्य्य स्वागत का कोई उत्साह राजधानी में नहीं।
चाणक्य—मालविका, पाटलिपुत्र षड्यन्त्रों का केन्द्र हो रहा है।सावधान! चन्द्रगुप्त के प्राणों की रक्षा तुम्हीं को करनी होगी।