चन्द्रगुप्त मौर्य्य/चन्द्रगुप्त का बाल्य-जीवन

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

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चन्द्रगुप्त का वाल्य-जीवन

अर्थकथा, स्पविरावली, कथासरित्सागर और ढुण्ढि के आधार पर चन्द्रगुप्त के जीवन की प्राथमिक घटनाओं का पता चलता है ।

मगध की राजधानी पाटलीपुत्र, गोण और गंगा के सगम पर थी । राजमन्दिर, दुर्ग, लम्बी-चौडी पुण्य-वीथिका, प्रशस्त राजमार्ग इत्यादि राजधानी में किसी उपयोगी वस्तु का अभाव न था । खाँई, सेना, रणतरी इत्यादि से वह सुरक्षित भी थी। उस समय महापद्म को वहाँ राज्य था ।

पुराण में वर्णित अग्विल क्षत्रिय-निधनकारी महापद्म नन्द या काल अशोक के लङको में सब से बडा पुत्र एक नीच स्त्री से उन हुआ था जो मगध छोड़कर किसी अन्य प्रदेश में रहता था। उस समय किसी डाकू से उनसे भेट हो गई और वह अपने अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए उन्ही डाकुओं के दल में मिल गया । जब उनका सरदार एकः चढ़ाई में मारा गया, तो वही राजकुमार उन सबो का नेता बन गया और उसने पाटलीपुत्र पर चढ़ाई की । उग्रसेन के नाम से उसने थोङे दिनों के लिए पाटलीपुत्र का अधिकार छीन लिया, इसके बाद उसके आठ भाइयो ने कई वर्ष तक राज्य किया ।

नवे नन्द का नाम घनानन्द था। उगने गगा के घाट बनवाये और उसके प्रवाह को कुछ दिन के लिए हटाकर उसी जगह अपना भारी खजाना
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गाड़ दिया । उसे लोग धननन्द कहने लगे । धननन्द के अन्नक्षेत्र में एक दिन तक्षशिला-निवासी चाणक्य ब्राह्मण आया और सब से उच्च असन पर बैठ गया, जिसे देखकर धननन्द चिढ गया और उसे अपमानित करके निकाल दिया । चाणक्य ने धननन्द का नाश करने की प्रतिज्ञा की ।

कहते है कि जब नन्द बहुत विलासी हुआ, तो उसकी क्रूरता ओर भी बढ़ गई–-प्राचीन मन्त्री शकटार को बन्दी करके उसने वर- रुचि नामक ब्राह्मण को अपना मन्त्री बनाया । मगध-निवासी उपवर्ष के दो शिष्य थे, जिनमें से पाणिनि तक्षशिला में विद्याभ्यास करने गया था, किन्तु वररुचि, जिसकी राक्षस से मैत्री थी, नन्द का मन्त्री बना । शकटार जब बन्दी हुआ तब वररुचि ने उसे छुड़ाया, और एक दिन वही दशा मन्त्री वररुचि की भी हुई। इनका नाम कात्यायन भी था । बौद्ध लोग इन्हे 'मगधदेशीय ब्रह्मबन्धु' लिखते है और पाणिनि के सूत्रों के यही वार्तिककार कात्यायन है । ( कितने लोगो का मत है कि कात्यायन और वररुचि भिन्न-भिन्न व्यक्ति थे।)

शकटार ने अपने बैर का समय पाया, और वह विष-प्रयोग द्वारा तथा एक-दूसरे को लडाकर नन्दो मे आतरिक द्वेष फैलाकर एक के बाद दूसरे को राजा बनाने लगा । धीरे-धीरे नन्दवंश का नाश हुआ, और केवल अन्तिम नन्द बचा । उसने सावधानी से अपना राज्य सँभाला और वररुचि को फिर मन्त्री बनाया । शकटार ने प्रसिद्ध चाणक्य को, जो कि नीति-शास्त्र विशारद होकर गाईस्थ्य जीवन में प्रवेश करने के लिए राजधानी में आया था, नन्द का विरोधी बना दिया । वह क्रुद्ध ब्राह्मण अपनी प्रतिहिंसा पूरी करने के लिए सहायक ढूढने लगा ।

पाटलीपुत्र के नगर-प्रान्त में पिप्पली-कानन के मौर्य्य-सेनापति का एक विभवहीन गृह था। महापद्म नन्द के और उनके पुत्रों के अत्याचार से मगध कॉप रहा था । मौर्य-सेनापति के वन्दी हो जाने के कारण उनके कुटुम्ब का जीवन किसी प्रकार कष्ट से बीत रहा था ।

एक बालक उसी घर के सामने खेल रहा था। कई लडके उसकी
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प्रजा बने थे । और वह था उनका राजा। उन्ही लडको मे से वह किसी को घोडा और किसी को हाथी बनाकर चढता और दण्ड तथा पुरस्कार आदि देने का राजकीय अभिनय कर रहा था। उसी ओर से चाणक्य जा रहे थे। उन्होने उस बालक की राजकीडा बड़े ध्यान से देखी। उनके मन में कुतूहल हुआ और कुछ विनोद भी । उन्होने ठीक-ठीक ब्राह्मण की तरह उस बालक राजा के पास जाकर याचना की--"राजन्, मुझे दूध पीने के लिए गऊ चाहिए।” बालक ने राजोचित उदारता का अभिनय करते हुए सामने चरती हुई गौओ को दिखलाकर कहा---“इनमे से जितनी इच्छा हो, तुम ले लो ।”

ब्राह्मण ने हँसकर कहा-–राजन्, ये जिसकी गाये है, वह मारने लगे तो ?

बालक ने सगर्व छाती फुलाकर कहा--किसका साहस है जो मेरे शासन को न माने ? जब मैं राजा हूँ, तब मेरी आज्ञा अवश्य मानी जायगी ।

ब्राह्मण ने आश्चर्यपूर्वक बालक से पूछा--राजन्, आपका शुभ नाम क्या है ?

तब तक बालक की माँ वहाँ आ गई, और ब्राह्मण से हाथ जोड़कर बोली--्--महाराज, यह बड़ा धृप्ट लड़का है, इसके किसी अपराध पर ध्यान न दीजिएगा।

चाणक्य ने कहा--कोई चिन्ता नहीं, यह बड़ा होनहार बालक है ।इसकी मानसिक उन्नति के लिए तुम इसे किसी प्रकार राजकुल में भेजा करो।

उसकी माँ रोने लगी। बोली--हम लोगो पर राजदोष है, और हमारे पति राजा की आज्ञा से बन्दी किए गए हैं।

ब्राह्मण ने कहा--बालक का कुछ अनिष्ट न होगा, तुम इसे अवन्य राजकुल में ले जाओ ।

इतना कह, बालक को आशीर्वाद देकर चाणक्य चले गये ।

बालक की माँ वहुत डरते-डरते एक दिन, अपने चंचल और सहमी लड़के को लेकर राजसभा में पहुँची । [ २५ ]नन्द एक निष्ठुर, मूर्ख और त्रासजनक राजा था। उसकी राजसभा बड़े-बड़े चापलूस मूर्खों से भरी रहती थी।

पहले के राजा लोग एक-दूसरे के बल, बुद्धि और वैभव की परीक्षा लिया करते थे और इसके लिए वे तरह-तरह के उपाय रचते थे। जब बालक माँ के साथ राजसभा में पहुँचा, उसी समय किसी राजा के यहाँ से नन्द की राजसभा की बुद्धि का अनुमान करने के लिए, लोहे के बन्द पिंजड़े में मोम का सिंह बनाकर भेजा गया था और उसके साथ यह कहलाया गया था कि पिजड़े को खोले बिना ही सिंह को निकाल लीजिए।

सारी राजसभा इसपर विचार करने लगी, पर उन चाटुकार मूर्ख सभासदो को कोई उपाय न सूझा। अपनी माता के साथ वह बालक यह लीला देख रहा था। वह भला कब मानने वाला? उसने कहा—"मैं निकाल दूँगा।"

सब लोग हँस पड़े। बालक की ढिठाई भी कम न थी। राजा को भी आश्चर्य हुआ।

नन्द ने कहा—यह कौन है?

मालूम हुआ कि राजबन्दी मौर्य्य-सेनापति का यह लड़का है। फिर क्या, नन्द की मूर्खता की अग्नि में एक और आहुति पड़ी। क्रोधित होकर वह बोला—यदि तू इसे न निकाल सकेगा, तो तू भी इस पिंजड़े में बन्द कर दिया जायगा।

उसकी माता ने देखा कि यह भी कहाँ से विपत्ति आई, परन्तु बालक निर्भीकता से आगे बढ़ा और पिंजड़े के पास जाकर उसको भलीभाँति देखा। फिर लोहे की शलाकाओं को गरम करके उस सिंह को गलाकर पिंजड़े को खाली कर दिया।[१] [ २६ ]सब लोग चकित रह गये ।

राजा ने पूछा----तुम्हारा नाम क्या है ?

बालक ने कहा--चन्द्रगुप्त ।

ऊपर के विवरण से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त किशोरावस्था में नन्दों की सभा में रहता था। वहाँ उसने अपनी विलक्षण बुद्धि का परिचय दिया ।

पिप्पली-कानन के मौर्य्य लोग नन्दो के क्षत्रिय-नाशकारी शासन से पीडित थे, प्राय सब दबाए जा चुके थे । उस समय ये क्षत्रिय राजकुल नन्दो की प्रधान शक्ति से आक्रान्त थे। मौर्य्य भी नन्दो की विशाल वाहिनी में सेनापति का काम करते थे । सम्भवत् वे किसी कारण से राजकोष मे पड़े थे और उनका पुत्र चन्द्रगुप्त नन्द की राजसभा में अपना समय बिताता था । उसके हृदय में नन्दो के प्रति घृणा का होना स्वाभाविक था । जस्टिनस ने लिखा है--

When by his insolent behaviour he has offended. Nandas, and was ordered by king to be put to death he sought safety by a speedy flight (Justinus X V )

चन्द्रगुप्त ने किसी वाद-विवाद वा अनबन के कारण नन्द को क्रुद्ध कर दिया और इस बात में वौद्ध लोगों का विवरण, ढुण्ढि का उपोद्घात, तथा ग्रीक इतिहास लेखक सभी सहमत है कि उसे राज- क्रोध के कारण पाटलीपुत्र छोड़ना पडा ।

शकटार और वररुचि के सम्बन्ध की कथाएँ, जो कथा-सरित्सागर में मिलती है, इस बात का संकेत करती है कि महापद्म के पुत्र बड़े उच्छृङखल और क्रूर शासक थे । गुप्त पड्यन्त्रो से मगध पीङित था। राजकुल में भी नित्य नया उपद्रव, विरोध ओर द्वन्द्व चला करते थे, उन्हीं कारणो से चन्द्रगुप्त की भी कोई स्वतत्र परिस्थिति उसे भावी नियति की ओर अग्रसर कर रही थी। चाणक्य की प्रेरणा में चन्द्रगुप्त ने सीमाप्रान्न की ओर प्रस्थान किया।

महावश के अनुसार बुद्ध-निर्वाण के १४० वर्ष बाद अन्तिम नन्द
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को राज्य मिला, जिसने २२ वर्ष राज्य किया। इसके बाद चन्द्रगुप्त को राज्य मिला। यदि बुद्ध का निर्वाण ५४३ ई० पूर्व में मान लिया जाय, तो उसमें से नन्दराज्य तक का समय १६२ घटा देने से ३८१ ई० पूर्व में चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण की तिथि मानी जायगी । पर यह सर्वथा भ्रमात्मक है, क्योकि ग्रीक इतिहास-लेखको ने लिखा है कि "तक्षशिला में जब ३२६ ई० पूर्व में सिकन्दर से चन्द्रगुप्त ने भेट किया था, तब वह युवक राजकुमार था । अस्तु, यदि हम उसकी अवस्था उस समय २० बर्ष के लगभग मान ले, जो कि असगत न होगी, तो उसका जन्म-समय ३४६ ई० पूर्व के लगभग हुआ होगा । मगध के राजविद्रोह-काल में वह १९ या २० वर्ष का रहा होगा ।”

मगध से चन्द्रगुप्त के निकलने की तिथि ई० पूर्व ३२७ वा ३२८ निर्धारित की जा सकती है, क्योकि ३२६ मे तो वह सिकन्दर से तक्षशिला में मिला ही था । उसके प्रवास की कथा बडी रोचक है । सिकन्दर जिस समय भारतवर्ष में पदार्पण कर रहा था और भारतीय जनता के सर्वनाश का उपक्रम तक्षशिलाधीश्वर ने करना विचार लिया था----वह समय भारत के इतिहास में स्मरणीय है, तक्षशिला नगरी अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच चुकी थी । जहाँ का विश्वविद्यालय पाणिनि और जीवक ऐसे छात्रो का शिक्षक हो चुका था--वही तक्षशिला अपनी स्वतन्त्रता पद-दलित कराने की आकांक्षा में आकुल थी और उसका उपक्रम भी हो चुका था। कूटनीति-चतुर सिकन्दर ने, जैसा कि ग्रीक लोग कहते हैं, १,००० टेलेट ( प्राय ३८,००,००० अडतीस लाख रुपया ) देकर लोलुप देशद्रोही तक्षशिलाधीश को अपना मित्र बनाया। उसने प्रसन्न मन से अपनी कायरता का मार्ग खोल दिया और बिना बाधा सिकन्दर को भारत में आने दिया। ग्रीक ग्रंथकारो के द्वारा हम यह पता पाते हैं कि ( ई० पूर्व ३२६ मे ) उसी समय चन्द्रगुप्त शत्रुओं से बदला लेने के उद्योग में अनेक प्रकार का कष्ट, मार्ग में झेलते-झेलते भारत की अर्गला तक्षशिला नगरी में पहुँचा था। तक्षशिला के राजा
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ने भी महाराज पुरु से अपना बदला लेने के लिए सिकन्दर के लिए भारत का द्वार मुक्त कर दिया था। उन्हीं ग्रीक ग्रंथकारों के द्वारा यह पता चलता है कि चन्द्रगुप्त ने एक सप्ताह भी अपने को परमुखापेक्षी नही बना रक्खा और वह क्रुद्ध होकर वहाँ से चला आया । Justinus लिखता है कि उसने अपनी असहनशीलता के कारण सिकन्दर को असन्तुष्ट किया । वह सिकन्दर का पूरा विरोधी बन गया।

For having Offended Alexander by his impertinent language he was ordered to be put to death,and escaped only by fight. (JUSTINUS )

In history of A.S Literature.

सिकन्दर और चन्द्रगुप्त पंजाब में

सिकन्दर ने तक्षशिलाधीश की सहायता से जेहलम को पार करके पोरस के साथ युद्ध किया। उस युद्ध मे क्षत्रिय महाराज ( पर्वतेश्वर ) पुरु किस तरह लड़े और वह कैसा भयंकर युद्ध हुआ, यह केवल इससे ज्ञात होता है कि स्वयं जगद्विजयी सिकन्दर को कहना पड़ा-“आज हमको अपनी बराबरी का भीमपराक्रम शत्रु मिला और यूनानियो को तुल्य-वल से आज ही युद्ध करना पड़ा।" इतना ही नही, सिकन्दर का प्रसिद्ध अश्व ‘बूका फेलस' इसी युद्ध में हत हुआ और सिकन्दर भी स्वय आहत हुआ।

यह अनिश्चित है कि सिकन्दर को मगध पर आक्रमण करने को उत्तेजित करने के लिए ही चन्द्रगुप्त उसके पास गया था, अथवा ग्रीक-युद्ध की शिक्षा-पद्धति सीखने के लिए वहाँ गया था। उसने सिकन्दर मे तक्षशिला में अवश्य भेट की । यद्यपि उसका कोई कार्य वहाँ नहीं हुआ, पर उसे ग्रीकवाहिनी-रणचर्य्या अवश्य ज्ञात हुई, जिससे कि उसने पार्वतीय सेना से मगध राज्य का ध्वंस किया ।

क्रमश वितस्ना चन्द्रभागा, इरावती के प्रदेशो को विजय करता
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हुआ सिकन्दर विपाशा-तट तक आया और फिर मगध-राज्य का प्रचण्ड प्रताप सुनकर उसने दिग्विजय की इच्छा को त्याग दिया और ३२५ ई० पू० मे फिलिप नामक पुरुष को क्षत्रप बनाकर आप काबुल की ओर गया। दो वर्ष के बीच में चन्द्रगुप्त भी उसी प्रान्त मे घूमता रहा और जब वह सिकन्दर का विरोधी बन गया था, तो उसी ने पार्वत्य जातियो को सिकन्दर से लड़ने के लिए उत्तेजित किया और जिनके कारण सिकन्दर को इरावती से पाटल तक पहुँचने में दस मास समय लग गया और इस बीच में इन आक्रमणकारियों से सिकन्दर की बहुत क्षति हुई। इस मार्ग में सिकन्दर को मालव-जाति से युद्ध करने मे बड़ी हानि उठानी पड़ी। एक दुर्ग के युद्ध में तो उसे ऐसा अस्त्राघात मिला कि वह महीनो तक कड़ी बीमारी झेलता रहा। जल-मार्ग से जाने वाले सिपाहियों को निश्चय हो गया था कि 'सिकन्दर मर गया'। किसी-किसी का मत है कि सिकन्दर की मृत्यु का कारण यही घाव था ।

सिकन्दर भारतवर्ष लूटने आया, पर जाते समय उसकी यह अवस्था हुई कि अर्थाभाव से अपने सेक्रेटरी यू डोमिनिस से उसने कुछ द्रव्य माँगा और न पाने पर इसका कैम्प फुंकवा दिया। सिकन्दर के भारतवर्ष में रहने ही के समय में चन्द्रगुप्त-द्वारा प्रचारित सिकन्दर-द्रोह पूर्णरूप से फैल गया था और इसी समय कुछ पार्वत्य राजा चन्द्रगुप्त के विशेष अनुगत हो गये थे । उनको रण-चतुर बनाकर चन्द्रगुप्त ने एक अच्छी शिक्षित सेना प्रस्तुत कर ली थी और जिसकी परीक्षा प्रथमत ग्रीक सैनिको ने ली। इसी गडबड मे फिलिप मारा गया*और उस प्रदेश के लोग पूर्णरूप से स्वतन्त्र बन गये । चन्द्रगुप्त को पार्वतीय सैनिको से बड़ी सहायता मिली और वे उसके मित्र बन गये । विदेशी शत्रुओ के साथ भारतवासियो का युद्ध देखकर चन्द्रगुप्त एक
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  • सिकन्दर के चले जाने पर इसी फिलिप ने षड्यन्त्र करके पोरस को

मरवा डाला, जिससे विगड कर उसकी हत्या हुई । [ ३० ]रण-चतुर नेता बन गया। धीरे-धीरे उसने सीमावासी पार्वतीय लोगों को एक में मिला लिया। चन्द्रगुप्त और पर्वतेश्वर विजय के हिस्सेदार हुए और सम्मिलित शक्ति से मगध-राज्य विजय करने के लिए चल पड़े। अब यह देखना चाहिए कि चन्द्रगुप्त और चाणक्य की सहायक सेना में कौन-कौन देश की सेनाएँ थी और वे कब पंजाब से चले।

बहुत-से विद्वानों का मत है कि जो सेना चन्द्रगुप्त के साथ थी, वह ग्रीको की थी। यह बात बिल्कुल असंगत नही प्रतीत होती, जब 'फिलिप' तक्षशिला के समीप मारा गया, तो सम्भव है कि बिना सरदार की सेना में से किसी प्रकार पर्वतेश्वर ने कुछ ग्रीको की सेना को अपनी ओर मिला लिया हो जो कि केवल धन की लालच से ग्रीस छोड़कर भारतभूमि तक आये थे। उसी सम्मिलित आक्रमणकारी सेना में कुछ ग्रीको का होना असम्भव नही है, क्योंकि मुद्राराक्षस के टीकाकार ढुण्ढि लिखते हैं—

"नन्दराज्यार्धपणनात्समुत्थाप्य महाबलम्।
पर्वतेन्द्रो म्लेच्छवल न्यरुन्धत्कुसुम पुरम्॥"

तैलंग महाशय लिखते है कि "The Yavanas referred in our play Mudrarakshasa were probably Some of frontier tribes" कुछ तो उस सम्मिलित सेना के नीचे लिखे हुए नाम है, जिन्हें कि महाशय तैलंग ने लिखा है।

मुद्राराक्षस— तैलंग—
शक सीदियन
यवन (ग्रीक?) अफगान
किरात सेवेज ट्राइब
पारसीक परशियन
वाल्हीक बैक्ट्रियन

इस सूची के देखने से ज्ञात होता है कि ये सब जातियाँ प्राय भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा में स्थित है। इस सेना में उपर्युक्त जातियाँ प्रायः [ ३१ ]सम्मिलित रही हो तो असम्भव नहीं है। चन्द्रगुप्त ने असभ्य सेनाओं को ग्रीक प्रणाली से शिक्षित करके उन्हें अपने कार्य-योग्य बनाया। मेरा अनुमान है कि यह घटना ३२३ ई॰ पू॰ मे हुई, क्योंकि वही समय सिकन्दर के मरने का है। उसी समय यूडेमिस नामक ग्रीक कर्म्मचारी और तक्षशिलाधीश के कुचक्र से फिलिप के द्वारा पुरु (पर्वतेश्वर) की हत्या हुई थी। अस्तु, पंजाब प्रान्त एक प्रकार से अराजक हो गया और ३२२ ई॰ पू॰ में इन सबो को स्वतन्त्र बनाते हुए ३२१ ई॰ पू॰ में मगध-राजधानी पाटलीपुत्र को चन्द्रगुप्त ने जा घेरा।[२]

  1. "मधूच्छिष्टमय धातु जीवन्तमिव पञ्जरे। सिंहमादाय नन्देभ्य प्राहिणोत्सिहलाधिप। यो द्रावयेदिम क्रूर द्वारमनुद्घाटय पंजर। सर्वोऽस्ति कश्चित्सुमतिरित्येव सदिदेशच। चन्द्रगुप्तस्तु मेधावी तप्तायसशलाकया। व्यलापयत्पञ्जरस्थ व्यस्मयन्त ततोऽखिला।"
  2. Justinus says:

    Sandrocottus gave liberty to India after Alexander's retreat but soon converted the name of liberty into servitude after his success, subjecting those whom he had rescued from foreign domination to his Own authority

    H of A.S Lit