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चन्द्रगुप्त मौर्य्य/मगध में चन्द्रगुप्त

विकिस्रोत से
चन्द्रगुप्त मौर्य्य
जयशंकर प्रसाद

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ ३१ से – ३९ तक

 

मगध में चन्द्रगुप्त

अपमानित चन्द्रगुप्त बदला लेने के लिए खड़ा था, मगध-राज्य की दशा बड़ी शोचनीय थी। नन्द आन्तरिक विग्रह के कारण जर्जरित हो गया था, चाणक्य-चालित म्लेच्छ-सेना कुसुमपुर को चारों ओर से घेरे थी। चन्द्रगुप्त अपनी शिक्षित सेना को बराबर उत्साहित करता हुआ सुचतुर रण-सेनापति का कार्य करने लगा।

पन्द्रह दिन तक कुसुमपुर को बराबर घेरे रहने के कारण और बार-बार खण्ड-युद्ध मे विजयी होने के कारण चन्द्रगुप्त एक प्रकार से मगध-विजयी हो गया। नन्द ने, जो कि पूर्वकृत पापों से भीत और आतुर हो गया था, नगर से निकल कर चले जाने की आज्ञा माँगी। चन्द्रगुप्त इस बात से सहमत हो गया कि धननन्द अपने साथ जो
कुछ ले जा सके ले जाय, पर चाणक्य की एक चाल यह भी थी, क्योकि उसे मगध की प्रजा पर शासन करना था। इसलिए यदि घनानन्द मारा जाता तो प्रजाओ के और विद्रोह करने की सम्भावना थी। इसमें स्थविरावली तथा ढुण्ढि के विवरण से मतभेद है, क्योकि स्थविरावलीकार लिखते हैं कि “चाणक्य ने धनानन्द को चले जाने की आज्ञा दी, पर ढुण्ढि कहते है, चाणक्य के द्वारा शस्त्र से घनानन्द निहन हुआ । मुद्राराक्षस से जाना जाता है कि यह विष-प्रयोग से मारा गया। पर यह बात पहले नन्दो के लिए सम्भव प्रतीत होती है।” चाणक्य की नीति की ओर दृष्टि डालने से यही ज्ञात होता है कि जान-बूझकर नन्द को अवसर दिया गया, और इसके बाद किसी गुप्त प्रकार से उनकी हत्या हुई ।

कई लोगों का मत है कि पर्वतेश्वर की हत्या बिना अपराध चाणक्य ने की। पर जहाँ तक सम्भव है, पर्वतेश्वर को कात्यायन के साथ मिला हुआ जानकर ही चाणक्य के द्वारा विपकन्या पर्वतेश्वर को मिली और यही मत भारतेन्दु जी का भी है। मुद्राराक्षस को देखने से यही ज्ञात भी होता है कि राक्षस पीछे पर्वतेश्वर के पुत्र मलयकेतु से मिल गया था । सम्भव है कि उसका पिता भी वररुचि की ओर पहले मिल गया हो और इसी बात को जान लेने पर चन्द्रगुप्त की हानि की सम्भावना देख कर किसी उपाय से पर्वतेश्वर की हत्या हुई हो ।

तात्कालिक स्फुट विवरणों से ज्ञात होता है कि मगध की प्रजा और समीपवर्ती जातियाँ चन्द्रगुप्त के प्रतिपक्ष में खड़ी हुई, उस लड़ाई में भी अपनी कूटनीति के द्वारा चाणक्य ने आपस में भेद करा दिया। प्रबल उत्साह के कारण, अविराम परिश्रम और अव्यवसाय से, अपने
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However mysterious the nine Nandas may be if mdeed they really were nine, there is no doubt that the last of them was deposed and slam by Chandragupta.

--V.A.Smith. E H. of India.


बाहुबल और चाणक्य के बुद्धिबल से, सामान्य भू-स्वामी चन्द्रगुप्त,

मगध-साम्राज्य के सिंहासन पर बैठा ।

बौद्धो की पहली सभा कालाशोक या महापद्म के समय में हुई । बुद्ध के ९० वर्ष बाद यह गद्दी पर बैठा और इसके राज्य के दस वर्ष बाद सभा हुई, उसके बाद उसने १८ वर्ष राज्य किया। यह ११८ वर्ष का समय, बुद्ध के निर्वाण से कालाशोक के राजत्व-काल तक है । कालाशोक का पुत्र २२ वर्ष तक राज्य करता रहा, उसके बाद २२ वर्ष तक नन्द, उसके बाद चन्द्रगुप्त को राज्य मिला । ( ११८+२२+२२ ) बुद्ध-निर्वाण के १६२ वर्ष बाद चन्द्रगुप्त को राज्य मिला । बुद्ध का समय यदि ५४३ ई० पू० माना जाय, तब तो (५४३-१६२) = ३८१ ई० पू० मे ही चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण निर्धारित होता है। दूसरा मत मैक्समूलर आदि विद्वानो का है कि बुद्ध-निर्वाण ४७७ ई० पू० में हुआ। इस प्रकार उक्त राज्यारोहण का समय ३१५ ई० पू० निकलता है । इससे ग्रीक समय का मिलान करने से एक तो ४० बर्ष बढ जाता है, दूसरा ५ या ६ वर्ष घट जाता है ।

महावीर स्वामी के निर्वाण के १५५ वर्ष बाद, चन्द्रगुप्त जैनियो के मत से, राज्य पर बैठा, ऐसा मालूम होता है। आर्य-विद्या-सुधाकर के अनुसार ४७० विक्रम पू० मे महावीर स्वामी का वर्तमान होना पाया जाता है। इससे यदि ५२० ई० पू० मे महावीर स्वामी का निर्वाण मान लें, तो उसमें से ११५ घटा देने से ३६५ ई० पू० में चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण का समय होता है जो सर्वथा असम्भव है । यह मत भी वहुत भ्रम-पूर्ण है।

पडित रामचन्द्र जी शुक्ल ने मेगास्थनीज़ की भूमिका में लिखा है कि ३१६ ई० पू० में चन्द्रगुप्त गद्दी पर बैठा और २९२ ई० पू० तक उसने २४ वर्ष राज्य किया ।

पडितजी ने जो पाश्चात्य लेखको के आधार पर चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण समय लिखा है, वह भी भ्रम से रहित नहीं है, क्योकि स्ट्राबो के

च॰ ३

मतानुसार २९६ में Deimachos का मिशन बिन्दुसार के समय में आया था। यदि २९२ तक चन्द्रगुप्न का राज्य-काल मान लिया जाय, तो डिमाकस, चन्द्रगुप्त के राजत्व-काल ही में आया था, ऐसा प्रतीत हो गया, क्योकि शुक्लजी के मत मे ३१६ ई० पू० से २९२ ई० पू० तक चन्द्रगुप्त का राजत्व-काल हैं, डिमाकस के मिशन का समय २९६ ई० पू० जिसके अन्तर्गत हो जाता है। यदि हम चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण ३२१ ई० पू० मे माने, तो उसमे से उसका राजत्व-काल २४ वर्ष घटा देने से २९७ ई० पू० तक उसका राजत्वकाल और २९६ ई० पू० में बिन्दुसार का राज्यारोहण और डिमाकस के मिशन का समय ठीक हो जाता है । ऐतिहासिको का अनुमान है कि “२५ वर्ष की अवस्था में चन्द्रगुप्त गद्दी पर बैठा” वह भी ठीक हो जाता है । क्योकि पूर्व-निर्धारित चन्द्रगुप्त के जन्म-समय ३४६ ई० पू० में २५ वर्ष घटा देने से भी ३२१ ई० पू० ही बचता है, जिससे यह सिद्ध होता है कि चन्द्रगुप्त पाटलीपुत्र में मगध-राज्य के सिंहासन पर ३२१ ई० पू० में आसीन हुआ ।
विजय

उस समय गंगा के तट पर दो विस्तृत राज्य थे, जैसा कि मेगास्थनीज़ लिखता है, एक प्राच्य ( Prassi ) और दूसरा गंगरिडीज ( Gangarideas ) । प्राच्य राज्य में अवन्ती, कोशल, मगध, वाराणसी, विहार आदि देश थे और दूसरा गगरिडीज गंगा के उस भाग के तट पर था, जो कि समुद्र के समीप में था । वह बंगाल था। गगरिडीज और गौड एक ही देश का नाम प्रतीत होता है । गोड राज्य का राजा, नन्द के अधीन था । अवन्ती में भी एक मध्य प्रदेश की राजधानी थी, वह भी नन्दाधीन थी। बौद्धो के विवरण से ज्ञात होता है कि ताम्म्रलिप्ति, जिसे अब तामलूक कहते है मिदनापुर जिले में
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  • अस्तीह नगरी लोके ताम्रलिप्तीति विश्रुता । तत स तत्पिता

    उस समय समुद्र-तट पर अवस्थित गगरिडीज के प्रसिद्ध नगरो में था।

प्राच्य देश की राजधानी पालीवोया थी, जिसे पाटलीपुत्र कहना असंगत न होगा । मेगास्थनीज लिखता है, कि गगरिडीज की राजधानी पर्थिलीस थी । डाक्टर श्यानवक का मत है कि सम्भवत यह वर्धमान ही था, जिसे ग्रीक लोग पर्थलिस कहते थे। इसमें विवाद करने का अवसर नही है, क्योकि वर्धमान गौड देश के प्राचीन नगरो में हैं और यह राजधानी के योग्य भूमि पर बसा हुआ है ।

केवल नन्द को ही पराजित करने से, चन्द्रगुप्त को एक बड़ा विस्तृत राज्य मिला, जो आसाम से लेकर भारत के मध्यप्रदेश तक व्याप्त था।

अशोक के जीवनीकार लिखते हैं, कि अशोक का राज्य चार प्रादेशिक शासको से शासित होता था । तक्षशिला, पंजाब और अफगानिस्तान की राजधानी थी , टोसाली कलिंग की, अवन्ती मध्यप्रदेश की और स्वर्णगिरि——भारतवर्ष के दक्षिण भाग की राजधानी थी ।* अशोक की जीवनी से ज्ञात होता है कि उसने केवल कलिंग ही विजय किया था। बिन्दुसार के विजयो की गाथा कही भी नही मिलती । मि० स्मिथ ने लिखा है कि It is more probable that the conquest of the south was the work of Bindusar, परन्तु इसका कोई प्रमाण नही है ।

प्रायद्वीप खण्ड को जीतकर चन्द्रगुप्त ने स्वर्णगिरि में उसका शासक रक्खा और सम्भवत यह घटना उस समय की है, जब विजेता सिल्यूकस एक विशाल साम्राज्य की नीव सीरिया-प्रदेश में डाल रहा था । वह घटना ३१६ ई० पू० में हुई ।
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तेन तनयेन सम ययौ । द्वीपान्तर स्नुषाहेतो वणिज्यव्यपदेशत ६८ ।

( कथापीठ लम्बक ५ तरंग )

इससे ज्ञात होता है, कि ताम्नलिप्ति समुद्र-तट पर अवस्थित थी, जहाँ से द्वीपान्तर जाने में लोगो को सुविधा होती थी।

*Vincent A. Smith Life of Ashoka.
इस समय चन्द्रगुप्त का शासन भारतवर्ष में प्रधान था और

छोटे-छोटे राज्य यद्यपि स्वतन्त्र थे ; पर वे भी चन्द्रगुप्त के शासन में सदा भयभीत होकर मित्र-भाव का वर्ताव रखते थे। उसका राज्य पाडुचेर और कनानूर से हिमालय की तराई तक तथा सतलज से आसाम तक था । केवल कुछ राज्य दक्षिण में, जैसे---केरल इत्यादि और पंजाब में वे प्रदेश, जिन्हें सिकन्दर ने विजय किया था, स्वतन्त्र थे, किन्तु चन्द्रगुप्त पर ईश्वर की अपार कृपा थी, जिसने उसे ऐसा सुयोग दिया कि वह भी ग्रीस इत्यादि विदेशो में अपना आतंक फैलावे ।

सिकन्दर के मर जाने के बाद ग्रीक जनरलो मे बड़ी स्वतन्त्रता फैली । ई० पू० ३२३ में सिकन्दर मरा । उसके प्रतिनिधि-स्वरूप पर्दिकस शासन करने लगा ; किन्तु इससे भी असन्तोष हुआ, सब जनरलो और प्रधान कर्मचारियों ने मिलकर एक सभा की । ई० पू० ३२१ मे सभा हुई और सिल्यूकस बैवीलोन की गद्दी पर बैठाया गया । टालमी आदि मिश्र के राजा समझे जाने लगे, पर आटिगोनस, जो कि पूर्वीय एशिया का क्षत्रप था, अपने बल को बढ़ाने लगा और इसी कारण सब जनरल उसके विरुद्ध हो गये, यहाँ तक कि ग्रीक-साम्राज्य से अलग होकर सिल्यूकस ने ३१२ ई० पूर्व में अपना स्वाधीन राज्य स्थापित किया। बहुत-सी लडाइयो के बाद सन्धि हुई और सीरिया इत्यादि प्रदेशो का आटिगोनस स्वतंत्र राजा हुआ। थ्रोस के लिसिमकास, मिस्र के टालेमी और बैवीलोन के समीप के प्रदेश में सिल्यूकस का आधिपत्य रहा । यह सन्धि ३१९ ई० पू० में हुई । सिल्यूकस ने उधर के विग्रहो को कुछ शान्त कर के भारत की ओर देखा ।

इसे भी वह ग्रीक साम्राज्य का एक अंश समझता था। आराकोसिया, वैक्ट्रिया, जेडोसिया आदि विजय करते हुए उसने ३०६ ई० पू० में भारत पर आक्रमण किया । चन्द्रगुप्त उसी समय दिग्विजय करता हुआ पंजाब की ओर आ रहा था और उसने जब सुना कि ग्रीक लोग फिर भारत पर चढ़ाई कर रहे है, वह भी उन्ही की

ओर चल पड़ा । इस यात्रा में ग्रीक लोग लिखते है कि उसके पास ६,००,००० सैनिक थे, जिनमे ३०,००० घोड़े और ९,००० हाथी , बाकी पैदल थे ।* इतिहासो से पता चलता है कि सिन्धुतट पर यह युद्ध हुआ।

सिल्यूकस सिन्धु के उस तीर पर आ गया, मौर्य्य-सम्राट् इस आक्रमण से अनभिज्ञ था। उसके प्रादेशिक शासक, जो कि उत्तर- पश्चिम प्रान्त के थे, बराबर सिल्यूकस का गतिरोध करने के लिए प्रस्तुत रहते थे , पर अनेक उद्योग करने पर भी कपिशा आदि दुर्ग सिल्यूकस के हस्तगत ही हो गये । चन्द्रगुप्त, जो कि सतलज के समीप से उसी ओर बराबर बढ रहा था, सिल्यूकस की क्षुद्र विजयो से घबड़ा कर बहुत शीघ्रता से तक्षशिला की ओर चल पड़ा । चन्द्रगुप्त के बहुत थोड़े समय पहले ही सिल्यूकस सिन्धु के इस पार उतर आया और तक्षशिला के दुर्ग पर चढ़ाई करने के उद्योग में था। तक्षशिला की सूबेदारी बहुत बड़ी थी। उसे विजय कर लेना सहज कार्य न था । सिल्यूकस अपनी रक्षा के लिए मिट्टी की खाई बनवाने लगा ।

चन्द्रगुप्त अपनी विजयिनी सेना लेकर तक्षशिला में पहुँचा और मौर्य्य-पताका तक्षशिला-दुर्ग पर फहराकर महाराज चन्द्रगुप्त के आगमन की सूचना देने लगा । मौर्य्य-सेना ने आक्रमण करके ग्रीको की मिट्टी की परिखा और उनका व्यूह नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। मौर्यों का वह भयानक आक्रमण उन लोगो ने बडी वीरता से सहन किया, ग्रीको का कृत्रिम दुर्ग उनकी रक्षा कर रहा था, पर कब तक ? चारो ओर से असंख्य मौर्य्य-सेना उस दुर्ग को घेरे थी । आपाततः उन्हे कृत्रिम दुर्ग छोड़ना पड़ा। इस बार भयानक लडाई आरम्भ हुई । मौर्य्य-सेना का चन्द्रगुप्त स्वंय नायक था । असीम उत्साह से मौर्य्य ने आक्रमण करके ग्रीक सेना को
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  • The same king (Chandragupta) traversed India with an army of 8,00,000 men and conquered the whole

( Plutarch in H AS Lit )


छिन्न-भिन्न कर दिया। लौटने की राह में बड़ी बाधा-स्वरूप

सिन्धु नदी थी, इसलिए अपनी टूटी हुई सेना को एक जगह उन्हे एकत्र करना पड़ा। चन्द्रगुप्त की विजय हुई। इसी समय ग्रीक जनरलो में फिर खलबली मची हुई थी। इस कारण सिल्यूकस को शीघ्र उस ओर लौटना था। किसी ऐतिहासिक का मत है कि इसी से सिल्यूकस शीघ्र ही सन्धि कर लेने पर बाध्य हुआ। इस सन्धि में ग्रीक लोगो को चन्द्रगुप्त और चाणक्य से सब ओर से दबना पड़ा।

इस सन्धि के समय में कुछ मतभेद है। किसी का मत है कि यह सन्धि ३०५ ई० पू० मे हुई और कुछ लोग कहते है कि ३०३ ई० पू० मे । सिल्यूकस ने जो ग्रीक-सन्धि की थी, वह ३११ ई० पू० मे हुई, उसके बाद ही वह युद्ध-यात्रा के लिए चल पडा। अस्तु आराकोसिया, जेडोसिया और वैक्ट्रिया आदि विजय करते हुए भारत तक आने मे पाँच वर्ष से विशेष समय नहीं लग सकता और इसी से उस युद्ध का समय, जो कि चन्द्रगुप्त से उससे हुआ था, ३०६ ई० पू० माना गया । तब ३०५ ई० पू० सन्धि का होना ठीक-सा जाॅचता है । सन्धि में चन्द्रगुप्त भारतीय प्रदेशों के स्वामी हुए । अफगानिस्तान और मकराना भी चन्द्रगुप्त को मिला और उसके साथ-ही-साथ कुल पञ्जाव और सौराष्ट्र पर चन्द्रगुप्त का अधिकार हो गया । सिल्यूकस । बहुत शीघ्र लौटने वाला था । ३०१ ई० पू० में होने वाले युद्ध के लिए उसे तैयार होना था, जिसमें कि Ipsus के मैदान में उसने अपने चिरशत्रु आटिगोनस को मारा था । चन्द्रगुप्त को इस ग्रीक विप्लव ने बहुत सहायता दी और उसने इसी कारण मनमाने नियमो मे सन्धि करने के लिए सिल्यूकस को बाध्य किया ।

पाटल आदि बन्दर भी चन्द्रगुप्त के अधीन हुए तथा काबुल में
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हिरात, कंधार, काबुल, मकराना, भी भारत में और प्रदेशो के साथ सिल्युकस ने चन्द्रगुप्त को दिया । V A Smith E H of India.

मेगास्थनीज हिरात के क्षत्रप साइवर्टियन के पास रहा करता था । सिल्यूकस की ओर से एक राजदूत का रहना स्थिर हुआ । मेगस्थनीज ही प्रथम राजदूत नियत हुआ । यह तो सब हुआ, पर नीति-चतुर सेल्युकस ने एक और बुद्धिमानी का कार्य यह किया कि चन्द्रगुप्त से अपनी सुन्दरी कन्या का पाणिग्रहण कर दिया, जिसे चन्द्रगुप्त ने स्वीकार कर लिया और दोनो राज्य एक सम्बन्ध-सूत्र में बँध गये । जिसपर सन्तुष्ट होकर वीर चन्द्रगुप्त ने ५०० हाथियो की एक सेना सिल्यूकस को दी और अब चन्द्रगुप्त का राज्य भारतवर्ष में सर्वत्र हो गया । रुद्रदामा के लेख से ज्ञात होता है कि पुष्पगुप्त उस प्रदेश का शासक नियत किया गया था जो सौराष्ट्र और सिन्ध तथा राजपूताना तक था । अब चन्द्रगुप्त के अधीन दो प्रादेशिक शासक और हुए, एक तक्षशिला मे, दूसरा सौराष्ट्र में । इस तरह से अध्यवसाय का अवतार चन्द्रगुप्त प्रबल पराऋन्त राजा माना जाने लगा और ग्रीस, मिश्र, सीरिया इत्यादि के नरेश, उसकी मित्रता से अपना गौरव समझते थे ।

उत्तर में हिन्दूकुश, दक्षिण मे पाडुचेरी और कनानूर, पूर्व में आसाम और पश्चिम में सौराष्ट्र, समुद्र तथा वाल्हीक तक, चन्द्रगुप्त के राज्य की सीमा निर्धारित की जा सकती है।