चन्द्रगुप्त मौर्य्य/तृतीय अंक/४

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ १५१ ]
 


पथ में चर और राक्षस

चर—छल! प्रवञ्चना!! विश्वासघात!!!

राक्षस—क्या है, कुछ सुनूँ भी!

चर—मगध से आज मेरा सखा कुरग आया है, उससे यह मालूम हुआ है कि महाराज नन्द का कुछ भी क्रोध आपके ऊपर नहीं, वह आप के शीघ्र मगध लौटने के लिए उत्सुक हैं।

राक्षस—और सुवासिनी?

चर—सुवासिनी सुखी और स्वतंत्र हैं। मुझे चाणक्य के चर से वह धोखा हुआ था, जब मैंने आपसे वहाँ का समाचार कहा था।

राक्षस—तब क्या मैं कुचक्र में डाला गया हूँ?—(विचार कर) चाणक्य की चाल है। ओह, मैं समझ गया। मुझे अभी निकल भागना चाहिये। सुवासिनी पर भी कोई अत्याचार मेरी मुद्रा दिखा कर न किया जा सके, इसके लिए मुझे शीघ्र मगध पहुँचना चाहिये।

चर—क्या आपने मुद्रा भी दें दी हैं?

राक्षस—मेरी मूर्खता। चाणक्य, मगध मे विद्रोह कराना चाहता है।

चर—अभी हम लोगों को मगध-गुल्म मार्ग में मिल जायगा, चाणक्य से बचने के लिये उसका आश्रय अच्छा होगा। दो तीव्रगामी अश्व मेरे अधिकार में हैं, शीघ्रता कीजिये।

राक्षस—तो चलो! मै चाणक्य के हाथों का कठपुतला बन कर मगध का नाश नहीं करा सकता।

[दोनों का प्रस्थान—अलका और सिंहरण का प्रदेश]

सिंह॰—देवी! पर इसका उपाय क्या है?

अलका—उपाय जो कुछ हो, मित्र के कार्य में तुमको सहायता करनी ही चाहिये। चन्द्रगुप्त आज कह रहे थें कि 'मगध जाऊँगा। देखूँ पर्वतेश्वर क्या कहते हैं।' [ १५२ ]

सिंह॰—चन्द्रगुप्त के लिए यह प्राण अर्पित है अलके, मालव कृतघ्न नहीं होते। देखो, चन्द्रगुप्त और चाणक्य आ रहे हैं।

अलका—और उधर से पर्वतेश्वर भी।

[चन्द्रगुप्त, चाणक्य और पर्वतेश्वर का प्रवेश]

सिंह॰—मित्र! अभी कुछ दिन और ठहर जाते तो अच्छा था; अथवा जैसी गुरुदेव की आज्ञा।

चाणक्य—पर्वतेश्वर, तुमने मुझसे प्रतिज्ञा की हैं!

पर्व॰—मैं प्रस्तुत हूँ, आर्य्य!

चाणक्य—अच्छा तो तुम्हे मेरे साथ चलना होगा। सिंहरण मालव गणराष्ट्र का व्यक्ति है, वह अपनी शक्ति भर प्रयत्न कर सकता है; किन्तु सहायता बिना परिषद् की अनुमति लिये असम्भव है। मैं परिषद् के सामने अपना भेद खोलना नहीं चाहता। इसलिए पौरव, सहायता केवल तुम्हें करनी होगी। मालव अपने शरीर और खड्ग का स्वामी हैं, वह मेरे लिए प्रस्तुत हैं। मगध का अधिकार प्राप्त होने पर जैसा कहोगे ......

पर्व॰—मैं कह चुका हूँ आर्य्य चाणक्य! इस शरीर में या धन में, विभव में या अधिकार में, मेरी स्पृहा नहीं रह गई। मेरी सेना के महाबलाधिकृत सिंहरण और मेरा कोप आप का हैं।

चन्द्र॰—मैं आप लोगों का कृतज्ञ होकर मित्रता को लघु नहीं बनाना चाहता। चन्द्रगुप्त सदैव आप लोगों का वही सहचर है।

चाणक्य—परन्तु तुम्हें अभी मगध नहीं जाना होगा। अभी जो मगध से संदेश मिले हैं, वे बड़े भयानक हैं! सेनापति, तुम्हारे पिता कारागार में है! और भी.........

चन्द्र॰—इतने पर भी आप मुझे मगध जाने से रोक रहे हैं?

चाणक्य—यह प्रश्न अभी मत करो।

[चन्द्रगुप्त सिर झुका लेता है, एक पत्र लिये मालविका का प्रवेश]

माल॰—यह सेनापती के नाम पर है। [ १५३ ]

चन्द्र॰—(पढ़कर)—आर्य्य, मैं जा भी नहीं सकता।

चाणक्य—क्यों?

चन्द्र॰—युद्ध का आह्वान है। द्वन्द्व के लिए फिलिप्स का निमंत्रण है।

चाणक्य—तुम डरते तो नहीं?

चन्द्र॰—आर्य्य! आप मेरा उपहास कर रहे हैं?

चाणक्य—(हँसकर)—तब ठीक है, पौरव! तुम्हारा यहाँ रहना हानिकारक होगा। उत्तरापथ की दासता के अवशिष्ट चिह्न फिलिप्स का नाश निश्चित है। चन्द्रगुप्त उसके लिए उपयुक्त है। परन्तु यवनों से तुम्हारा फिर संघर्ष मुझे ईष्सित नहीं है। यहाँ रहने से तुम्हीं पर सन्देह होगा, इसलिए तुम मगध चलो। और सिंहरण! तुम सन्नद्ध रहना, यवन-विद्रोह तुम्हीं को शान्त करना होगा।

[सब का प्रस्थान]