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चन्द्रगुप्त मौर्य्य/तृतीय अंक/५

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य
जयशंकर प्रसाद

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ १५४ से – १५६ तक

 
 


मगध में नन्द की रंगशाला
[नन्द का प्रवेश]

नन्द—सुवासिनी!

सुवा॰—देव!

नन्द—कहीं दो घड़ी चैन से बैठने की छुट्टी भी नहीं, तुम्हारी छाया में विश्राम करने आया हूँ।

सुवा॰—प्रभु, क्या आज्ञा हैं? अभिनय देखने की इच्छा हैं?

नन्द—नहीं सुवासिनी, अभिनय तो नित्य देख रहा हूँ। छल, प्रतारणा, विद्रोह के अभिनय देखते-देखते ऑंखें जल रही हैं। सेनापति मौर्य्य—जिसके बल पर मैं भूला था, जिसके विश्वास पर मैं निश्चित सोता था, विद्रोही-पुत्र चन्द्रगुप्त को सहायता पहुँचाता है। उसी का न्याय करना था—आजीवन अन्धकूप का दण्ड देकर आ रहा हूँ। मन काँप रहा है—न्याय हुआ कि अन्याय! हृदय संदिग्ध है। सुवासिनी! किस पर विश्वास करूँ?

सुवा॰—अपने परिजनों पर देव!

नन्द—अमात्य राक्षस भी नहीं , मैं तो घबरा गया हूँ।

सुवा॰—द्राक्षासव ले आऊँ?

नन्द—ले आओ—(सुवासिनी जाती है)—सुवासिनी कितनी सरल हैं! प्रेम और यौवन के शीतल मेघ इन लहलही लता पर मँडरा रहे हैं। परन्तु.....

[सुवासिनी का पानपात्र लिये प्रवेश, पात्र भर कर देती है]

नन्द—सुवासिनी! कुछ गाओ,—वही उन्मादक गान!

[सुवासिनी गाती है]

आज इस यौवन के माधवी कुञ्ज में कोकिल बोल रहा!
मधु पीकर पागल हुआ, करता प्रेम-प्रलाप,
शिथिल हुआ जाता हृदय, जैसे अपने आप।
लाज के बन्धन खोल रहा!
बिछल रही है चाँदनी, छवि-मतवाली रात,
कहती कम्पित अधर से, बहकाने की बात।
कौन मधु-मदिरा घोल रहा?


नन्द—सुवासिनी! जगत्‌ में और भी कुछ है—ऐसा मुझे नहीं प्रतीत होता! क्या उस कोकिल की पुकार केवल तुम्हीं सुनती हो? ओह! मैं इस स्वर्ग से कितनी दूर था! सुवासिनी!

[कामुक की-सी चेष्टा करता है]

सुवासिनी—भ्रम है महाराज! एक वेतन पानेवाली का यह अभिनय है।

नन्द—कभी नहीं, यह भ्रम है तो समस्त संसार मिथ्या है। तुम सच कहती हो, निर्बोध नन्द ने कभी वह पुकार नहीं सुनी। सुन्दरी! तुम मेरी प्राणेश्वरी हो।

सुवासिनी—(सहसा चकित होकर)—मैं दासी हूँ महाराज!

नन्द—यह प्रलोभन देकर ऐसी छलना! नन्द नहीं भूल सकता सुवासिनी! आओ—(हाथ पकड़ता है।)

सुवासिनी—(भयभीत होकर)—महाराज! मैं अमात्य राक्षस की धरोहर हूँ, सम्राट्‌ की भोग्या नहीं बन सकती।

नन्द—अमात्य राक्षस इस पृथ्वी पर तुम्हारा प्रणयी होकर नहीं जी सकता।

सुवासिनी—तो उसे खोजने के लिए स्वर्ग में जाऊँगी।

[नन्द उसे बलपूर्वक पकड़ लेता है। ठीक उसी समय अमात्य का प्रवेश]

नन्द—(उसे देखते ही छेड़ता हुआ)—तुम! अमात्य, राक्षस! राक्षस—हाँ सम्राट्‌! एक अबला पर अत्याचार न होने देने के लिए ठीक समय पर पहुँचा।

नन्द—यह तुम्हारी अनुरक्ता है राक्षस! मैं लज्जित हूँ।

राक्षस—मैं प्रसन्न हुआ कि सम्राट्‌ अपने को परखने की चेष्टा करते हैं। अच्छा, तो इस समय जाता हूँ। चलो सुवासिनी।

[दोनों जाते हैं]