चन्द्रगुप्त मौर्य्य/तृतीय अंक/९

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ १६९ ]
 


नन्द की रंगशाला—सुवासिनी और राक्षस बन्दी-वेश में

नन्द—अमात्य राक्षस, यह कौन-सी मंत्रणा थी? यह पत्र तुम्हीं ने लिखा है?

राक्षस—(पत्र लेकर पढ़ता हुआ) —"सुवासिनी, उस कारागार से शीघ्र निकल भागो, इस स्त्री के साथ मुझसे आकर मिलो। मैं उत्तरापथ में नवीन राज्य की स्थापना कर रहा हूँ। नन्द से फिर समझ लियाजायगा" इत्यादि। (नन्द की ओर देखकर) आश्चर्य, मैंने तो यह नहीं लिखा! यह कैसा प्रपंच है,—और किसी का नहीं, उसी ब्राह्मण चाणक्य का महाराज, सतर्क रहिए, अपने अनुकूल परिजनों पर भी अविश्वास न कीजिए। कोई भयानक घटना होने वाली है, यह उसी का सूत्रपात है।

नन्द—इस तरह से मैं प्रतारित नहीं किया जा सकता, देखो य हतुम्हारी मुद्रा है। (मुद्रा देता है)

(राक्षस देखकर सिर नीचा कर लेता है।]

नन्द—कृतघ्न! बोल, उत्तर दे!

राक्षस—मैं कहूँ भी, तो आप मानने ही क्यों लगे!

नन्द—तो आज तुम लोगों को भी उसी अन्धकूप में जाना होगा, प्रतिहार!

(राक्षस बन्दी किया जाता है। नागरिकों का प्रवेश।)

[राक्षस को श्रृंखला में जकड़ा हुआ देखकर उन सबों में उत्तेजना]

नाग॰—सम्राट्‌! आपसे मगध की प्रजा प्रार्थना करती है कि नागरिक राक्षस और अन्य लोगों पर भी राजदण्ड द्वारा किये गये जो अत्याचार है, उनका फिर से निराकरण होना चाहिए।

नन्द—क्या! तुम लोगों को मेरे न्याय में अविश्वास है? [ १७० ]

नाग॰—इसके प्रमाण हैं—शकटार, वररुचि और मौर्य्य!

नन्द—(उन लोगों को देखकर) शकटार! तू अभी जीवित है?

शक॰—जीवित हूँ नन्द। नियति सम्राटों से भी प्रबल है।

नन्द—यह मैं क्या देखता हूँ! प्रतिहार! पहले इन विद्रोहियों को बन्दी करो। क्या तुम लोगों ने इन्हें छुड़ाया है?

नाग॰—उनका न्याय हम लोगों के सामने किया जाय, जिससे हम लोगों को राज-नियमों में विश्वास हो सम्राट्‌! न्याय को गौरव देने के लिए इनके अपराध सुनने की इच्छा आपकी प्रजा रखती है।

नन्द—प्रजा की इच्छा से राजा को चलना होगा?

नाग॰—हाँ, महाराज।

नन्द—क्या तुम सब-के-सब विद्रोही हो?

नाग॰—यह सम्राट्‌ अपने हृदय से पूछ देखें?

शक॰—मेरे सात निरपराध पुत्रों का रक्त!

नाग॰—न्यायाधिकरण की आड़ में इतनी बड़ी नृशंसता!

नन्द—प्रतिहार! इन सबको बन्दी बनाओ!

[राज-प्रहरियों का सबको बाँधने का उद्योग, दूसरी ओर से सैनिकों के साथ चन्द्रगुप्त का प्रवेश]

चन्द्र॰—ठहरो! (सब स्तब्ध रह जाते हैं) महाराज नन्द! हम सब आपकी प्रजा हैं, मनुष्य हैं, हमें पशु बनने का अवसर न दीजिए।

वररुचि—विचार की तो बात है, यदी सुव्यवस्था से काम चल जाय, तो उपद्रव क्यों हो?

नन्द—(स्वगत)—विभीषिका! विपत्ति! सब अपराधी और विद्रोही एकत्र हुए हैं (कुछ सोचकर प्रकट) अच्छा मौर्य्य! तुम हमारे सेनापति हो और तुम वररुचि! हमने तुम लोगों को क्षमा कर दिया!

शक॰—और हम लोगों से पूछो! पूछो नन्द। अपनी नृशंसताओं से पूछो! क्षमा? कौन करेगा। तुम? कदापि नहीं। तुम्हारे घृणित अपराधों का न्याय होगा। [ १७१ ]

नन्द—(तन कर)—तब रे मूर्खों! नन्द की निष्ठुरता! प्रतिहार! राजसिंहासन संकट में है! आओ, आज हमें प्रजा से लड़ना है!

[प्रतिहार प्रहरियों के साथ आगे बढ़ता है—कुछ युद्ध होने के साथ ही राजपक्ष के कुछ लोग मारे जाते हैं, और एक सैनिक आकर नगर के ऊपर आक्रमण होने की सूचना देता है। युद्ध करते-करते चन्द्रगुप्त नन्द को बन्दी बनाता है।]

[चाणक्य का प्रवेश]

चाणक्य—नन्द! शिखा खुली है। फिर खिंचवाने की इच्छा हुई है, इसीलिए आया हूँ। राजपद के अपवाद नन्द! आज तुम्हारा विचार होगा!

नन्द—तुम ब्राह्मण। मेरे टुकड़ों से पले हुए। दरिद्र! तुम मगध के सम्राट्‌ का विचार करोगे! तुम सब लुटेरे हो, डाकू हो! विप्लवी हो—अनार्य्य हो।

चाणक्य—(राजसिंहासन के पास जाकर)—नन्द! तुम्हारे ऊपर इतने अभियोग है—महापद्म की हत्या, शकटार को बन्दी करना—उसके सात पुत्रों को भूख से तड़पा कर मारना! सेनापति मौर्य्य की हत्या का उद्योग—उसकी स्त्री को और वररुचि को बन्दी बनाना, कितनी ही कुलीन कुमारियों का सतीत्व नाश—नगर-भर में व्यभिचार का स्रोत बहाना! ब्राह्मस्व और अनाथों की वृत्तियों का अपहरण! अन्त में सुवासिनी पर अत्याचार—शकटार की एकमात्र बची हुई सन्तान, सुवासिनी, जिसे तुम अपनी घृणित पाशव-वृत्ति का...!

नागरिक—(बीच में रोक कर हल्ला मचाते हुए)—पर्य्याप्त है। यह पिशाचलीला और सुनने की आवश्यकता नहीं, सब प्रमाण वहीं उपस्थित हैं।

चन्द्र॰—ठहरिए! (नन्द से) कुछ उत्तर देना चाहते हैं?

नन्द—कुछ नहीं।

("वध करो!" "हत्या करो!" का आतंक फैलता है।)

[ १७२ ]

चाणक्य—तब भी कुछ समझ लेना चाहिए नन्द! हम ब्राह्मण हैं, तुम्हारे लिए, भिक्षा माँग कर तुम्हें जीवन-दान दे सकते हैं। लोगे?

("नहीं मिलेगी, नहीं मिलेगी" की उत्तेजना)

[कल्याणी को बन्दिनी बनाए पर्वतेश्वर का प्रवेश]

नन्द—आ बेटी, असह्य! मुझे क्षमा करो! चाणक्य, मैं कल्याणी के संग जंगल में जाकर तपस्या करना चाहता हूँ।

चाणक्य—नागरिक वृन्द! आप लोग आज्ञा दें—नन्द को जाने की आज्ञा!

शक॰—(छुरा निकलकर नन्द की छाती में घुसेड़ देता है) सात हत्याएँ हैं! यदि नन्द सात जन्मों में मेरे ही द्वारा मारा जय तो मैं उसे क्षमा कर सकता हूँ। मगध नन्द के बिन भी जी सकता है।

वररुचि—अनर्थ!

[सब स्तब्ध रह जाते हैं।]

राक्षस—चाणक्य, मुझे भी कुछ बोलने का अधिकार है?

चन्द्र॰—अमात्य राक्षस का बंधन खोल दो! आज मगध के सब नागरिक स्वतंत्र हैं।

[राक्षस, सुवासिनी, कल्याणी का बंधन खुलता है।]

राक्षस—राष्ट्र इस तरह नहीं चल सकता।

चाणक्य—तब?

राक्षस—परिषद्‌ की आयोजना होनी चाहिए।

नागरिक वृन्द—राक्षस, वररुचि, शकटार, चन्द्रगुप्त और चाणक्य की सम्मिलित परिषद्‌ की हम घोषणा करते हैं।

चाणक्य—परन्तु उत्तरापथ के समान गणतंत्र की योग्यता मगध में नहीं, और मगध पर विपत्ति की भी संभावना है। प्राचीनकाल से मगध साम्राज्य रहा है, इसीलिए यहाँ एक सबल और सुनियंत्रित शासक की आवश्यकता है। आप लोगों को यह जान लेना चाहिए कि यवन अभी हमारी छाती पर हैं। [ १७३ ]नाग०––तो कौन इसके उपयुक्त है?

चाणक्य––आप ही लोग इसे विचारिए।

शक०––हम लोगो का उद्धारकर्ता। उत्तरापथ के अनेक समरो का विजेता––बीर चन्द्रगुप्त!

नाग०––चन्द्रगुप्त की जय!

चाणक्य––अस्तु, बढो चन्द्रगुप्त! सिंहासन शून्य नहीं रह सकता। अमात्य राक्षस! सम्राट् का अभिषेक कीजिये!

[ मृतक हटाए जाते है ; कल्याणी दूसरी ओर जाती है ; राक्षस चन्द्रगुप्त का हाथ पकड़कर सिंहासन पर बैठाता है ]

सब नाग०––सम्राट् चन्द्रगुप्त की जय! मगध की जय!

चाणक्य––मगध के स्वतंत्र नागरिको को बधाई है! आज आप लोगो के राष्ट्र का नवीन जन्म-दिवस है । स्मरण रखना होगा कि ईश्वर ने सब मनुष्यों को स्वतंत्र उत्पन्न किया है, परन्तु व्यक्तिगत स्वतत्रता वहीं तक दी जा सकती है, जहाँ दूसरो की स्वतंत्रता में बाधा न पडे। यही राष्ट्रीय नियमों का मूल है। वत्स चन्द्रगुप्त! स्वेच्छाचारी शासन का परिणाम तुमने स्वयं देख लिया है, अब मत्रि-परिपद् की सम्मति से मगध और आर्यावर्त्त के कल्याण में लगो।

( 'सम्राट चन्द्रगुप्त की जय' का घोष )
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