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चन्द्रगुप्त मौर्य्य/चतुर्थ अंक/१

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य
जयशंकर प्रसाद

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ १७४ से – १७७ तक

 

चतुर्थ अंक

मगध में राजकीय उपवन—कल्याणी

कल्याणी—मेरे जीवन के दो स्वप्न थे—दुर्दिन के बाद आकाश के नक्षत्र-विलास-सी चन्द्रगुप्त की छवि, और पर्वतेश्वर से प्रतिशोध, किन्तु मगध की राजकुमारी आज अपने ही उपवन में बन्दिनी है! मैं वही तो हूँ—जिसके संकेत पर मगध का साम्राज्य चल सकता था! वही शरीर है, वही रूप है, वही हृदय है, पर छिन गया अधिकार और मनष्य का मान दंड ऐश्वर्य। अब तुलना में सबसे छोटी हूँ। जीवन लज्जा की रंगभूमि बन रहा है। (सिर झुका लेती है) तो जब नन्दवंश का कोई न रहा, तब एक राजकुमारी बचकर क्या करेगी?

(मद्यप की-सी चेष्टा करती हुई पर्वतेश्वर को प्रवेश करते हुए देख चुप हो जाती है।)

पर्वतेश्वर—मगध मेरा है—आधा भाग मेरा है! और मुझसे कुछ पूछा तक न गया! चन्द्रगुप्त अकेले सम्राट्‌ बन बैठा। कभी नहीं, यह मेरे जीते-जी नहीं हो सकता। (सामने देखकर) कौन है? यह कोई अप्सरा होगी! अरे कोई अपदेवता न हो!

(प्रस्थान)

कल्याणी—मगध के राज-मन्दिर उसी तरह खड़े हैं, गंगा शोण से उसी स्नेह से मिल रही है; नगर का कोलाहल पूर्ववत्‌ है। परन्तु न रहेगा एक नन्द-वंश! फिर क्या करूँ? आत्महत्या करूँ? नहीं, जीवन इतना सस्ता नहीं। अहा, देखो—वह मधुर आलोकवाला चन्द्र! उसी प्रकार नित्य—जैसे एकटक इसी पृथ्वी को देख रहा हो। कुमुदबन्धु!

[गाती है—]

सुधा-सीकर से नहला दो!
लहरें डूब रही हों रस में,
रह न जायँ वे अपने वश में,
रूप-राशि इस व्यथित हृदय-सागर को—
बहला दो!
अन्धकार उजला हो जाये,
हँसी हंसमाला मँडराए,
मधुराका आगमन कलरवों के मिस—
कहला दो!
करुणा के अंचल पर निखरे,
घायल आँसू हैं जो बिखरे,
ये मोती बन जायँ, मृदुल कर से लो—
सहला दो!


(पर्वतेश्वर का फिर प्रवेश)

पर्व॰—तुम कौन हो सुन्दरी? मैं भ्रमवश चला गया था।

कल्याणी—तुम कौन हो?

पर्व॰—पर्वतेश्वर।

कल्याणी—मैं हूँ कल्याणी, जिसे नगर-अवरोध के समय तुमने बन्दी बनाया था।

पर्व॰—राजकुमारी! नन्द की दुहिता तुम्हीं हो?

कल्याणी—हाँ पर्वतेश्वर।

पर्व॰—तुम्हीं से मेरा विवाह होनेवाला था?

कल्याणी—अब यम से होगा!

पर्व॰—नहीं सुन्दरी, ऐसा भरा हुआ यौवन!

कल्याणी—सब छीन कर अपमान भी!

पर्व॰—तुम नहीं जानती हो, मगध का आधा राज्य मेरा है। तुम प्रियतमा होकर सुखी रहोगी।

कल्याणी—मैं अब सुख नहीं चाहती। सुख अच्छा है या दुःख...मैं स्थिर न कर सकी। तुम मुझे कष्ट न दो।

पर्व॰—हमारे-तुम्हारे मिल जाने से मगध का पूरा राज्य हमलोगों का हो जायगा। उपरापथ की संकटमयी परिस्थिति से अलग रहकर यहीं शान्ति मिलेगी।

कल्याणी—चुप रहो।

पर्व॰—सुन्दरी, तुम्हें देख लेने पर ऐसा नहीं हो सकता।

[उसे पकड़ना चाहता है, वह भागती है, परन्तु पर्वतेश्वर पकड़ ही लेता है। कल्याणी उसी का छुरा निकाल कर उसका वध करती है,चीत्कार सुनकर चन्द्रगुप्त आ जाता है।]

चन्द्रगुप्त—कल्याणी! कल्याणी! यह क्या!!

कल्याणी—वही जो होना था। चन्द्रगुप्त! यह पशु मेरा अपमान करना चाहता था—मुझे भ्रष्ट करके, अपनी संगिनी बनाकर पूरे मगध पर अधिकार करना चाहता था। परन्तु मौर्य! कल्याणी ने वरण लिया थाकेवल एक पुरुष को—वह था चन्द्रगुप्त।

चन्द्रगुप्त—क्या यह सच है कल्याणी?

कल्याणी—हाँ यह सच है। परन्तु तुम मेरे पिता के विरोधी हुए,इसलिए उस प्रणय को—प्रेम-पीड़ा को—मैं पैरों से कुचलकर, दबाकर खड़ी रही! अब मेरे लिए कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहा, पिता! लोमैं भी आती हूँ।

[अचानक छुरी मार कर आत्महत्या करती है, चन्द्रगुप्त उसे गोद में उठा लेता है।]

चाणक्य—(प्रवेश करके)—चन्द्रगुप्त! आज तुम निष्कंटक हुए!

चन्द्र॰—गुरुदेव! इतनी क्रूरता? चाणक्य––महत्त्वाकाक्षा का मोती निष्ठुरता की सीपी में रहता है! चलो अपना काम करो, विवाद करना तुम्हारा काम नही। अब तुम स्वच्छन्द होकर दक्षिणापथ जाने की योजना करो ( प्रस्थान )

[ चन्द्रगुप्त कल्याणी को लिटा देता है ]















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