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चन्द्रगुप्त मौर्य्य/द्वितीय अंक/१०

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य
जयशंकर प्रसाद

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ १३६ से – १३८ तक

 
 

१०
मालव-दुर्ग का भीतरी भाग, एक शून्य परकोटा

मालविका—अलका, इधर तो कोई भी सैनिक नहीं है! यदि शत्रु इधर से आवें तब?

अलका—दुर्ग ध्वंस करने के लिए यंत्र लगाए जा चुके हैं, परन्तु मालव-सेना अभी सुख की नींद सो रही हैं। सिंहरण को दुर्ग की भीतरी रक्षा का भार देकर चन्द्रगुप्त नदी-तट से यवन-सेना के पृष्ठभाग पर आक्रमण करेंगे। आज ही युद्ध का अन्तिम निर्णय है। जिस स्थान पर यवन-सेना को ले आना अभीष्ट था, वहाँ तक पहुँच गई हैं।

माल॰—अच्छा, चलो, कुछ नवीन आहत आ गए हैं, उनकी सेवा का प्रबन्ध करना है।

अलका—(देखकर) मालविका! मेरे पास धनुष है और कटार है। इस आपत्ति-काल में एक आयुध अपने पास रखना चाहिए। तू कटार अपने पास रख लें।

माल॰—मैं डरती हूँ, घृणा करती हूँ। रक्त की प्यासी छुरी अलग करो अलका, मैंने सेवा-व्रत लिया है।

अलका—प्राणों के भय से शस्त्र से घृणा करती हो क्या?

माल॰—प्राण तो धरोहर है, जिसका होगा वही लेगा, मुझे भय से इसकी रक्षा करने की आवश्यकता नहीं। मैं जाती हूँ।

अलका—अच्छी बात है, जा। परन्तु सिंहरण को शीघ्र ही भेज दे। यहाँ जब तक कोई न आ जाय, मैं नहीं हट सकती।

[मालविका का प्रस्थान]

अलका—सन्ध्या का नीरव निर्जन प्रदेश है। बैठूँ। (अकस्मात् बाहर से हल्ला होता है, युद्ध-शब्द) क्या चन्द्रगुप्त ने आक्रमण कर दिया? परन्तु यह स्थान ........बड़ा ही अरक्षित है।—(उठती है) अरे! वह कौन है? कोई यवन सैनिक है क्या? तो सावधान हो जाऊँ।

[धनुष चढ़ा कर तीर मारती है। यवन सैनिक का पतन। दूसरा

फिर ऊपर आती है, उसे भी मारती हैं, तीसरे बार स्वयं सिकन्दर ऊपर आता है। तीर का वार बचा कर दुर्ग में कूदता है और अलका को पकड़ना चाहता है। सहसा सिंहरण का प्रवेश; युद्ध]

सिंह॰—(तलवार चलाते हुए) तुमको स्वयं इतना साहस नहीं करना चाहिए सिकन्दर! तुम्हारा प्राण बहुमूल्य है।

सिकन्दर—सिकन्दर केवल सेनाओं को आज्ञा देना नहीं जानता। बचाओ अपने को! (भाले का वार)

[सिंहरण इस फुरती से बरछे को ढाल पर लेता है कि वह सिकन्दर के हाथ से छूट जाता है। यवनराज विवश होकर तलवार चलाता है; किन्तु सिंहरण के भयानक प्रात्याघात से घायल होकर गिरता है। तीन यवन-सैनिक कूद कर आते हैं, इधर से मालव सैनिक पहुँचते हैं।]

सिंह॰—यवन! दुस्साहस न करो! तुम्हारे सम्राट् की अवस्था शोचनीय है, ले जाओ, इनकी शुश्रूषा करो।

यवन—दुर्ग-द्वार टूटता है और अभी हमारे वीर सैनिक इस दुर्ग को मटियामेट करते हैं।

सिंह॰—पीछे चन्द्रगुप्त की सेना है मूर्ख! इस दुर्ग में आकर तुम सब बन्दी होंगे। ले जाओ, सिकन्दर को उठा ले जाओ, जब तक और मालवों को यह न विदित हो जाय कि यही वह सिकन्दर है।

मालव सैनिक—सेनापति, रक्त का बदला! इस नृशंस ने निरीह जनता का अकारण वध किया है! प्रतिशोध?

सिंह॰—ठहरो, मालव वीरों! ठहरो। यह भी एक प्रतिशोध है। यह भारत के ऊपर एक ऋण था, पर्वतेश्वर के प्रति उदारता दिखाने का यह प्रत्युत्तर है। यवन! जाओ, शीघ्र जाओ!

[तीन यवन सिकन्दर को लेकर जाते हैं, घबराया हुआ एक सैनिक आता है]

सिह॰—क्या है?

सैनिक—दुर्ग-द्वार टूट गया, यवन सेना भीतर आ रही है। सिंह०––कुछ चिन्ता नहीं। दृढ रहो। समस्त मालव-सेना से कह दो कि सिंहरण तुम्हारे साथ मरेगा। ( अलका से ) तुम मालविका को साथ लेकर अन्त पुर की स्त्रियों को भूगर्भ-द्वार से रक्षित स्थान पर ले जाओ। अलका! मालव के ध्वस पर ही आर्यो का यशोमन्दिर ऊँचा खडा हो सकेगा। जाओ!

[ अलका का प्रस्थान। यवन सैनिको का प्रवेश, दूसरी ओर से चन्द्र- गुप्त का प्रवेश और युद्ध। एक यवन सैनिक दौड़ा हुआ आता है। ]

यवन––सेनापति सिल्यूकस! क्षुद्रको की सेना भी पीछे आ गई है! वाह की सेना को उन लोगो ने उलझा रक्खा है।

'चन्द्रगुप्त––यवन सेनापति, मार्ग चाहते हो या युद्ध? मुझे पर कृतज्ञता का बोझ है। तुम्हारा जीवन!

सिल्यू०––( कुछ सोचने लगता है ) हम दोनों के लिए प्रस्तुत है! किन्तु..............

चन्द्र०––शान्ति! मार्ग दो! जाओ सेनापति! सिकन्दर का जीवन बच जाय तो फिर आक्रमण करना।

[ यवन-सेना का प्रस्थान। चन्द्रगुप्त का जय-घोष ]