चन्द्रगुप्त मौर्य्य/द्वितीय अंक/९

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ १३३ ]
 


शिविर के समीप कल्याणी और चाणक्य

कल्याणी—आर्य्य, अब मुझे लौटने की आज्ञा दीजिए, क्योंकि सिकन्दर ने विपाशा को अपने आक्रमण की सीमा बना ली है। अग्रसर होने की सम्भावना नहीं, और अमात्य राक्षस आ भी गये हैं, उनके साथ मेरा जाना ही उचित है।

चाणक्य—और चन्द्रगुप्त से क्या कह दिया जाय?

कल्याणी—मैं नहीं जानती।

चाणक्य—परन्तु राजकुमारी, उसका असीम प्रेमपूर्ण हृदय भग्न हो जायगा। वह बिना पतवार की नौका के सदृश इधर-उधर बहेगा।

कल्याणी—आर्य्य, मैं इन बातो को नहीं सुनना चाहती, क्योंकि समय ने मुझे अव्यवस्थित बना दिया है।

[अमात्य राक्षस का प्रवेश]

राक्षस—कौन? चाणक्य?

चाणक्य—हाँ अमात्य! राजकुमारी मगध लौटना चाहती हैं।

राक्षस—तो उन्हें कौन रोक सकता है?

चाणक्य—क्यों? तुम रोकोगे।

राक्षस—क्या तुमने सब को मूर्ख समझ लिया है?

चाणक्य—जो होंगे वे अवश्य समझे जायँगे। अमात्य! मगध की रक्षा अभीष्ट नहीं है क्या?

राक्षस—मगध विपन्न कहाँ है?

चाणक्य—तो मैं क्षुद्रकों से कह दूँ कि तुम लोग बाधा न दो, और यवनों से भी यह कह दिया जाय कि वास्तव में यह स्कन्धावार प्राच्य देश के सम्राट् का नहीं है, जिससे भयभीत होकर तुम विपाशा पार होना नहीं चाहते , यह तो क्षुद्रकों की क्षुद्र सेना है, जो तुम्हारे लिए मगध तक पहुँचने का सरल पथ छोड़ देने को प्रस्तुत है—क्यों? [ १३४ ]

राक्षस—(विचार कर)—आह ब्राह्मण, मैं स्वयं रहूँगा, यह तो मान लेने योग्य सम्मति है। परन्तु—

चाणक्य—फिर परन्तु लगाया। तुम स्वयं रहो और राजकुमारी भी रहें। और तुम्हारे साथ जो नवीन गुल्म आये हैं, उन्हें भी रखना पडे़गा। जब सिकन्दर रावी के अन्तिम छोर पर पहुँचेगा, तब तुम्हारी सेना का काम पडे़गा। राक्षस! फिर भी मगध पर मेरा स्नेह है। मैं उसे उजड़ने और हत्याओं से बचाना चाहता हूँ।

[प्रस्थान]

कल्याणी—क्या इच्छा है अमात्य?

राक्षस—मैं इसका मुँह भी नहीं देखना चाहता। पर इसकी बातें मानने के लिए विवश हो रहा हूँ। राजकुमारी! यह मगध का विद्रोही अब तक बन्दी कर लिया जाता, यदि इसकी स्वतंत्रता की आवश्यकता न होती।

कल्याणी—जैसी सम्मति हो।

[चाणक्य का पुनः प्रवेश]

चाणक्य—अमात्य! सिंह पिजडे़ में बन्द हो गया है।

राक्षस—कैसे?

चाणक्य—जल-यात्रा में इतना विघ्न उपस्थित हुआ कि सिकन्दर को स्थल-मार्ग से मालवों पर आक्रमण करना पड़ा। अपनी विजयों पर फूल कर उसने ऐसा किया, परन्तु जा फँसा उनके चंगुल में। अब इधर क्षुद्रकों और मागधों की नवीन सेनाओं से उनको बाधा पहुँचानी होगी।

राक्षस—तब तुम क्या कहते हो? क्या चाहते हो?

चाणक्य—यही, कि तुम अपनी सम्पूर्ण सेना लेकर विपाशा के तट की रक्षा करो, और क्षुद्रकों को लेकर मैं पीछे से आक्रमण करने जाता हूँ। इनमें तो डरने की बात कोई नहीं?

राक्षस—मैं स्वीकार करता हूँ। [ १३५ ]

चाणक्य—यदि न करोगे तो अपना ही अनिष्ट करोगे।

[प्रस्थान]

कल्याणी—विचित्र ब्राह्मण है अमात्य! मुझे तो इसको देखकर डर लगता है।

राक्षस—विकट है! राजकुमारी, एक बार इससे मेरा द्वंद्व होना अनिवार्य्य है, परन्तु अभी मैं उसे बचाना चाहता हूँ।

कल्याणी—चलिए।

[कल्याणी का प्रस्थान]

चाणक्य—(पुनः प्रवेश करके)—राक्षस, एक बात तुम्हारे कल्याण की है, सुनोगे? मैं कहना भूल गया था।

राक्षस—क्या?

चाणक्य—नन्द को अपनी प्रेमिका सुवासिनी से तुम्हारे अनुचित सम्बन्ध का विश्वास हो गया है‍। अभी तुम्हारा मगध लौटना ठीक न होगा। समझे!

[चाणक्य का सवेग प्रस्थान, राक्षस सिर पकड़ कर बैठ जाता है]