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चन्द्रगुप्त मौर्य्य/द्वितीय अंक/४

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य
जयशंकर प्रसाद

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ ११७ से – १२० तक

 
 


[मालव में सिहरण के उद्यान का एक अंश]

मालविका—(प्रवेश करके)—फूल हँसते हुए आते हैं, फिर मकरद गिरा मुरझा जाते हैं, आँसू से धरणी को भिगो कर चले जाते हैं! एक स्निग्ध समीर का झोंका आता है, निश्वास फेंक कर चला जाता हैं। क्या पृथ्वी तल रोने ही के लिए है? नहीं, सब के लिए एक ही नियम तो नहीं। कोई रोने के लिए हैं तो कोई हँसने के लिए—(विचारती हुई)—आजकल तो छुट्टी-सी है, परन्तु एक विचित्र विदेशियों का दल यहाँ ठहरा हैं, उनमें से एक को तो देखते ही डर लगता है। लो—वह युवक आ गया!

[सिर झुका कर फूल संवारने लगती है—ऐन्द्रजालिक के वेश में चन्द्रगुप्त का प्रवेश]

चन्द्र॰—मालविका!

माल॰—क्या आज्ञा है?

चन्द्र॰—तुम्हारे नागकेसर की क्यारी कैसी है?

माल॰—हरी-भरी।

चन्द्र॰—आज कुछ खेल भी होगा, देखोगी?

माल॰—खेल तो नित्य ही देखती हूँ। न जाने कहाँ से लोग आते हैं, और कुछ-न-कुछ अभिनय करते हुए चले जाते हैं। इसी उद्यान के कोने से, बैठी हुई सब देखा करती हूँ।

चन्द्र॰—मालविका, तुमको कुछ गाना आता है?

माल॰—आता तो है, परन्तु.......

चन्द्र॰—परन्तु क्या?

माल॰—युद्धकाल है। देश में रणचर्चा छिड़ी है। आजकल मालव-स्थान में कोई गाता-बजाता नहीं।

चन्द्र॰—रण-भेरी के पहले यदि मधुर मुरली की एक तान सुन लूँ, तो कोई हानि न होगी। मालविका! न जाने क्यों आज ऐसी कामना जाग पड़ी है।

माल॰—अच्छा सुनिए—

[अचानक चाणक्य का प्रवेश]

चाणक्य—छोकरियों से बाते करने का समय नहीं है मौर्य्य!

चन्द्र॰—नहीं गुरुदेव! मैं आज ही विपाशा के तट से आया हूँ, यवन-शिविर भी घूम कर देख आया हूँ।

चाणक्य—क्या देखा?

चन्द्र॰—समस्त यवन-सेना शिथिल हो गई हैं। मगध का इन्द्रजाली जानकर मुझसे यवन-सैनिकों ने वहाँ की सेना का हाल पूछा। मैंने कहा—पंचनद के सैनिकों से भी दुर्धर्ष कई रण-कुशल योद्धा शतद्रु-तट पर तुम लोगों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह सुनकर कि नन्द के पास कई लाख सेना हैं, उन लोगो में आतंक छा गया और एक प्रकार का विद्रोह फैल गया।

चाणक्य—हाँ! तब क्या हुआ! केलिस्थनीज के अनुयायियों ने क्या किया?

चन्द्र॰—उनकी उत्तेजना से सैनिकों ने विपाशा को पार करना अस्वीकार कर दिया और यवन, देश लौट चलने के लिए आग्रह करने लगें। सिकन्दर के बहुत अनुरोध करने पर भी वे युद्ध के लिए सहमत नहीं हुए। इसलिए रावी के जलमार्ग से लौटने का निश्चय हुआ है। अब उनकी इच्छा युद्ध की नहीं है।

चाणक्य—और क्षुद्रको का क्या समाचार है?

चन्द्र॰—वे भी प्रस्तुत हैं। मेरी इच्छा है कि इस जगद्विजेता का ढोंग करनेवाले को एक पाठ पराजय का पढ़ा दिया जाय। परन्तु इस समय यहाँ सिंहरण का होना अत्यन्त आवश्यक है।

चाणक्य—अच्छा देखा जायगा। सम्भवत स्कन्धावार में मालवों की युद्ध-परिषद होगी। अत्यन्त सावधानी से काम करना होगा। मालवों को मिलाने का पूरा प्रयत्न तो हमने कर लिया हैं।

चन्द्र॰—चलिए, मैं अभी आया!

[चाणक्य का प्रस्थान]

माल॰—यह खेल तो बड़ा भयानक होगा मागध!

चन्द्र॰—कुछ चिन्ता नहीं। अभी कल्याणी नहीं आई।

[एक सैनिक का प्रवेश]

चन्द्र॰—क्या है?

सैनिक—सेनापति! मगध-सेना के लिए क्या आज्ञा हैं?

चन्द्र॰—विपाशा और शतद्रु के बीच जहाँ अत्यन्त संकीर्ण भू-भाग है, वहीं अपनी सेना रखो। स्मरण रखना कि विपाशा पार करने पर मगध का साम्राज्य ध्वंस करना यवनों के लिए बड़ा साधारण काम हो जायगा। सिकन्दर की सेना के सामने इतना विराट् प्रदर्शन होना चाहिए कि वह भयभीत हो।

सैनिक—अच्छा, राजकुमारी ने पूछा हैं कि आप कब तक आवेंगे? उनकी इच्छा मालव में ठहरने की नहीं है।

चन्द्र॰—राजकुमारी से मेरा प्रणाम कहना और कह देना कि मैं सेनापति का पुत्र हूँ, युद्ध ही मेरी आजीविका है। क्षुद्रको की सेना का मैं सेनापति होने के लिये आमंत्रित किया गया हूँ। इसलिए मैं यहाँ रहकर भी मगध की अच्छी सेवा कर सकूँगा।

सैनिक—जैसी आज्ञा—(जाता है)

चन्द्र॰—(कुछ सोच कर) सैनिक!

[सैनिक फिर लौट आता है]

सैनिक—क्या आज्ञा हैं?

चन्द्र॰—राजकुमारी से कह देना कि मगध जाने की उत्कट इच्छा होने पर भी वे सेना साथ न ले जायँ।

सैनिक—इसका उत्तर भी लेकर आना होगा?

चन्द्र॰—नहीं।

[सैनिक का प्रस्थान]

माल॰—मालव में बहुत-सी बातें मेरे देश से विपरीत हैं। इनकी युद्ध-पिपासा बलवती हैं। फिर युद्ध!

चन्द्र॰—तो क्या तुम इस देश की नहीं हो?

माल॰—नहीं, मैं सिन्ध की रहने वाली हूँ आर्य्य! वहाँ युद्ध-विग्रह नहीं, न्यायालयों की आवश्यकता नहीं। प्रचुर स्वर्ण के रहते भी कोई उसका उपयोग नहीं। इसलिए अर्थमूलक विवाद कभी उठते ही नहीं। मनुष्य के प्राकृतिक जीवन का सुन्दर पालना मेरा सिन्धुदेश हैं।

चन्द्र॰—तो यहाँ कैसे चली आई हो?

माल॰—मेरी इच्छा हुई कि और देशों को भी देखूँ। तक्षशिला में राजकुमारी अलका से कुछ ऐसा स्नेह हुआ कि वहीं रहने लगी। उन्होंने मुझे घायल सिंहरण के साथ यहाँ भेज दिया। कुमार सिंहरण बडे़ सहृदय हैं। परन्तु मागध, तुमको देखकर तो मैं चकित हो जाती हूँ! कभी इन्द्रजाली, कभी कुछ! भला इतना सुन्दर रूप तुम्हें विकृत करने की क्या आवश्यकता है?

चन्द्र॰—शुभे, मैं तुम्हारी सरलता पर मुग्ध हूँ। तुम इन बातों को पूँछकर क्या करोगी! (प्रस्थान)

माल॰—स्नेह से हृदय चिकना हो जाता है। परन्तु बिछलने का भय भी होता है।—अद्भुत युवक है। देखूँ कुमार सिंहरण कब आते हैं।

[पट-परिवर्तन]