चन्द्रगुप्त मौर्य्य/द्वितीय अंक/५

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ १२१ ]

स्थान—वंदीगृह, घायल सिंहरण और अलका

अलका— अब तो चल-फिर सकोगे?

सिंह०— हाँ अलका, परन्तु बन्दीगृह में चलना-फिरना व्यर्थ है।

अलका— नहीं मालव, बहुत शीघ्र स्वस्थ होने की चेष्टा करो। तुम्हारी आवश्यकता है।

सिंह०— क्या?

अलका— सिकन्दर की सेना रावी पार हो रही है। पचनद से सधि हो गई, अव यवन लोग निश्चिन्त होकर आगे बढ़ना चाहते है। आर्य चाणक्य का एक चर यह सदेश सुना गया है।

सिंह०— कैसे?

अलका—क्षपणक-वेश में गीत गाता हुआ भीख माँगता आता था, उसने सकेत से अपना तात्पर्य कह सुनाया।

सिंह०— तो क्या आर्य्य चाणक्य जानते है कि मैं यहाँ वन्दी हूँ?

अलका— हाँ, आर्य्य चाणक्य इधर की सब घटनाओं को जानते है?

सिंह०— तब तो मालव पर शीघ्र ही आक्रमण होगा।

अलका— कोई डरने की बात नहीं, क्योकि चन्द्रगुप्त को साथ लेकर आर्य्य ने वहाँ पर एक बड़ा भारी कार्य किया है। क्षुद्रको और मालवो में सधि हो गई है। चन्द्रगुप्त को उनकी सम्मिलित सेना का सेनापति बनाने का उद्योग हो रहा है।

सिंह०—′′′ ( उठकर)′′′— तब तो अलका , मुझे शीघ्र पहुँचना चाहिए।

अलका— परन्तु तुम वन्दी हो।

सिंह — जिस तरह हो सके अलके, मुझे पहुँचाओ।

अलका— '(कुछ सोचने लगती है)— तुम जानते हो कि मै क्यो वन्दिनी हूँ?

सिंह०— क्यों?

अलका— आम्भीक से पर्वतेश्वर की संधि हो गई है और स्वंय [ १२२ ]सिकन्दर ने विरोध मिटाने के लिए पर्वतेश्वर की भगिनी से आम्भीक का ब्याह करा दिया है, परन्तु आम्भीक ने यह जानकर भी कि मैं यहाँ बन्दिनी हूँ मुझे छुड़ाने का प्रयत्न नहीं किया। उसकी भीतरी इच्छा थी, कि पर्वतेश्वर की कई रानियों में से एक मैं भी हो जाऊँ, परन्तु मैंने अस्वीकार कर दिया।

सिंह॰—अलका, तब क्या करना होगा?

अलका—यदि मैं पर्वतेश्वर से ब्याह करना स्वीकार करूँ, तो संभव है कि तुमको छुड़ा दूँ।

सिंह॰—मैं........अलका! मुझसे पूछती हो!

अलका—दुसरा उपाय क्या है?

सिंह॰—मेरा सिर घूम रहा है। अलका! तुम पर्वतेश्वर की रणयिनी बनोगी! अच्छा होता कि इसके पहले ही मैं न रह जाता।

अलका—क्यों मालव, इसमें तुम्हारी कुछ हानि है?

सिंह॰—कठिन परीक्षा न लो अलका! मैं बड़ा दुर्बल हूँ। मैंने जीवन और मरण में तुम्हारा संग न छोड़ने का प्रण किया है।

अलका—मालव, देश की स्वतंत्रता तुम्हारी आशा में है।

सिंह॰—और तुम पंचनद की अधीश्वरी बनने की आशा में...तब मुझे रणभूमि में प्राण देने की आज्ञा दो।

अलका—(हँसती हुई)—चिढ़ गए! आर्य्य चाणक्य की आज्ञा हैं कि थोड़ी देर पंचनद का सूत्र-संचालन करने के लिए मैं यहाँ की रानी बन जाऊँ।

सिंह॰—यह भी कोई हँसी है!

अलका—बन्दी! जाओ सो रहो, मैं आज्ञा देती हूँ।

[सिंहरण का प्रस्थान]

अलका—सुन्दर निश्छल हृदय, तुमसे हँसी करना भी अन्याय है! परन्तु व्यथा को दबाना पड़ेगा। सिंहरण को मालव भेजने के लिए प्रणय के साथ अत्याचार करना होगा। [ १२३ ]

[गाती है]

प्रथम यौवन-मदिरा से मत्त, प्रेम करने की थी परवाह
और किसको देना है ह्रदय, चीन्हने की न तनिक थी चाह।
बेच डाला था ह्रदय अमोल, आज वह माँग रहा था दाम,
वेदना मिली तुला पर तोल, उसे लोभी ने ली बेकाम।
उड़ रही है हृत्पथ में धूल आ रहे हो तुम बे-परवाह,
करूँ क्या दृग-जल से छिड़काव, बनाऊँ मैं यह बिछलन राह।
सँभलते धीरे-धीरे चलो, इसी मिस तुमको लगे विलम्ब,
सफल हो जीवन की सब साध, मिले आशा को कुछ अवलम्ब।
विश्व की सुषमाओं का स्रोत, बह चलेगा आँखों की राह,
और दुर्लभ होगी पहचान, रूप रत्नाकर भरा अथाह।


[पर्वतेश्वर का प्रवेश]

पर्व॰—सुन्दरी अलका, तुम कब तक यहाँ रहोगी?

अलका—यह बन्दी बनानेवाले की इच्छा पर निर्भर करता है।

पर्व॰—तुम्हें कौन बन्दी कहता है? यह तुम्हारा अन्याय है, अलका! चलो, सुसज्जित राजभवन तुम्हारी प्रत्याशा में है।

अलका—नहीं पौरव, मैं राजभवनों से डरती हूँ, क्योंकि उनके लोभ से मनुष्य आजीवन मानसिक कारावास भोगता है।

पर्व॰—इसका तात्पर्य?

अलका—कोमल शय्या पर लेटे रहने की प्रत्याशा में स्वतंत्रता का भी विसर्जन करना पड़ता है, यही उन विलासपूर्ण राजभवनों का प्रलोभन है।

पर्व॰—व्यंग न करो अलका। पर्वतेश्वर ने जो कुछ किया हैं, वह भारत का एक-एक बच्चा जानता है। परन्तु दैव प्रतिकूल हो, तब क्या किया जाय?

अलका—मैं मानती हूँ, परन्तु आपकी आत्मा इसे मानने के लिए [ १२४ ]
चन्द्रगुप्त
१२४
 


प्रस्तुत न होगी। हम लोग जो आपके लिए, देश के लिए, प्राण देने को प्रस्तुत थे, केवल यवनो को प्रसन्न करने के लिए वन्दी किये गये।

पर्व— वन्दी कैसे?

अलका— वन्दी नही तो और क्या? सिंहरण, जो आपके साथ युद्ध करते घायल हुआ है, आज तक वह क्यो रोका गया? पचनद-नरेश, आपका न्याय अत्यन्त सुन्दर है न!

पर्व०— कौन कहता है सिंहरण वन्दी है? उस वीर की मै प्रतिष्ठा करता हूँ अलका, परन्तु उससे द्वद्व-युद्ध किया चाहता हूँ!

अलका— क्यो?

पर्व०— क्योकि अलका के दो प्रेमी नही जी सकते।

अलका— महाराज, यदि भूपालो का-सा व्यवहार न माँगकर आप सिकन्दर से द्वद्व-युद्ध माँगते, तो अलका को विचार करने का अवसर मिलता।

पर्व०— यदि मै सिकन्दर का विपक्षी बन जाऊँ तो तुम मुझे प्यार करोगी अलका? सच कहो।

अलका— तब विचार करूँँगी, पर वैसी सभावना नहीं।

पर्व०— क्या प्रमाण चाहती हो अलका?

अलका— सिंहरण के देश पर यवनो का आक्रमण होनेवाला है, वहाँ तुम्हारी सेना, यवनो की सहायक न वने, और सिंहरण अपनी, मालव की रक्षा के लिए मुक्त किया जाय।

पर्व०— मुझे स्वीकार है।

अलका— तो मै भी राजभवन में चलने के लिए प्रस्तुत हूँ, परन्तु एक नियम पर!

पर्व०— वह क्या?

अलका— यही कि सिकन्दर के भारत में रहने तक मै स्वतत्र रहूँगी। पचनद-नरेश, यह दस्यु-दल बरसाती बाढ़ के समान निकल जायगा, विश्वास रखिए। [ १२५ ]

पर्व॰—सच कहती हो अलका! अच्छा, मैं प्रतिज्ञा करता हूँ, तुम जैसा कहोगी, वही होगा। सिंहरण के लिए रथ आवेगा और तुम्हारे लिए शिविका। देखो भूलना मत।

[चिंतित भाव से प्रस्थान]