चन्द्रगुप्त मौर्य्य/प्रथम अंक/१

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ ५५ ]
 

प्रथम अंक

स्थान-तक्षशिला के गुरुकुल का मठ
चाणक्य और सिंहरण

चाणक्य—सौम्य, कुलपति ने मुझे गृहस्थजीवन में प्रवेश करने की आज्ञा दे दी। केवल तुम्हीं लोगों को अर्थशास्त्र पढ़ाने के लिए ठहरा था; क्योंकि इस वर्ष के भावी स्नातकों को अर्थशास्त्र का पाठ पढ़ा कर मुझ अकिञ्चन को गुरु-दक्षिणा चुका देनी थी।

सिंहरण—आर्य्य, मालवों को अर्थशास्त्र की उतनी आवश्यकता नहीं, जितनी अस्त्रशास्त्र की। इसीलिए मैं पाठ में पिछड़ा रहा, क्षमा-प्रार्थी हूँ।

चाणक्य—अच्छा, अब तुम मालव जाकर क्या करोगे?

सिह॰—अभी तो मैं मालव नहीं जाता। मुझे तक्षशिला की राजनीति पर दृष्टि रखने की आज्ञा मिली है।

चाणक्य—मुझे प्रसन्नता होती है कि, तुम्हारा अर्थशास्त्र पढ़ना सफल होगा। क्या तुम जानते हो कि यवनो के दूत यहाँ क्यों आये हैं?

सिंह॰—मैं उसे जानने की चेष्टा कर रहा हूँ। आर्य्यावर्त्त का भविष्य लिखने के लिए कुचक्र और प्रतारणा की लेखनी और मसि प्रस्तुत हो रही है। उत्तरापथ के खण्ड-राज द्वेष से जर्जर हैं। शीघ्र भयानक विस्फोट होगा।

[सहसा आम्भीक और अलका का प्रवेश]

आम्भीक—कैसा विस्फोट? युवक, तुम कौन हो? [ ५६ ]

सिंह॰—एक मालव।

आ‌म्भीक—नहीं, विशेष परिचय की आवश्यकता है।

सिंह॰—तक्षशिला गुरुकुल का एक छात्र।

आम्भीक—देखता हूँ कि तुम दुर्विनीत भी हो।

सिंह॰—कदापि नहीं राजकुमार! विनम्रता के साथ निर्भीक होना मालवों का वंशानुगत-चरित्र है, और मुझे तो तक्षशिला की शिक्षा का भी गर्व है।

आम्भीक—परन्तु तुम किसी विस्फोट की बातें अभी कर रहे थे! और चाणक्य, क्या तुम्हारा भी इसमें कुछ हाथ है?

[चाणक्य चुप रहता है]

आम्भीक—(क्रोध से)—बोलो ब्राह्मण, मेरे राज्य में रह कर, मेरे अन्न से पल कर, मेरे ही विरुद्ध कुचक्रों का सृजन!

चाणक्य—राजकुमार, ब्राह्मण न किसी के राज्य में रहता है और न किसी के अन्न से पलता है, स्वराज्य में विचरता है और अमृत हो कर जीता है। वह तुम्हारा मिथ्या गर्व है। ब्राह्मण सब कुछ सामर्थ्य रखने पर भी, स्वेच्छा से इन माया-स्तूपों को ठुकरा देता है, प्रकृति के कल्याण के लिए अपने ज्ञान का दान देता है।

आम्भीक—वह काल्पनिक महत्त्व मायाजाल है; तुम्हारे प्रत्यक्ष नीच कर्म्म उन पर पर्दा नहीं डाल सकते।

चाणक्य—सो कैसे होगा अविश्वासी क्षत्रिय! इसी से दस्यु और म्लेच्छ साम्राज्य बना रहे हैं और आर्य्य-जाति पतन के कगार पर खड़ी एक धक्के की राह देख रही है।

आम्भीक—और तुम धक्का देने का कुचक्र विद्यार्थियों को सिखा रहे हो!

सिंह॰—विद्यार्थी और कुचक्र! असम्भव। यह तो वे ही कर सकते हैं, जिनके हाथ में कुछ अधिकार हो—जिनका स्वार्थ समुद्र से भी विशाल [ ५७ ]और सुमेरु से भी कठोर हो, जो यवनों की मित्रता के लिए स्वयं वाल्हीक तक...

आम्भीक—बस-बस दुर्धर्ष युवक! बता, तेरा अभिप्राय क्या है?

सिंह॰—कुछ नहीं।

आम्भीक—नहीं, बताना होगा। मेरी आज्ञा है।

सिंह॰—गुरुकुल में केवल आचार्य की आज्ञा शिरोधार्य होती है; अन्य आज्ञाएँ, अवज्ञा के कान से सुनी जाती है राजकुमार।

अलका—भाई! इस वन्य निर्झर के समान स्वच्छ और स्वच्छन्द हृदय में कितना बलवान वेग हैं! यह अवज्ञा भी स्पृहणीय है। जाने दो।

आम्भीक—चुप रहो अलका, यह ऐसी बात नही है, जो यों ही उड़ा दी जाय। इसमें कुछ रहस्य है।

[चाणक्य चुपचाप मुस्कराता है]

सिंह॰—हाँ-हाँ, रहस्य हैं! यवन-आक्रमणकारियों के पुष्कल-स्वर्ण से पुलकित होकर, आर्य्यावर्त्त की सुख-रजनी की शान्ति-निद्रा में, उत्तरापथ की अर्गला धीरे से खोल देने का रहस्य है। क्यों राजकुमार! संभवत तक्षशिलाधीश वाल्हीक तक इसी रहस्य का उद्घाटन करने गये थे?

आम्भीक—(पैर पटक कर)—ओह, असह्य! युवक, तुम बन्दी हो।

सिंह॰—कदापि नही, मालव कदापि बन्दी नहीं हो सकता।

[अम्भीक तलवार खींचता है।]

चन्द्रगुप्त—(सहसा प्रवेश करके)—ठीक है, प्रत्येक निरपराध आर्य्य स्वतन्त्र हैं, उसे कोई बन्दी नहीं बना सकती है। यह क्या राजकुमार! खड्ग को कोश में स्थान नही है क्या?

सिंह॰—(व्यंग्य से) वह तो स्वर्ण से भर गया है।

आम्भीक—तो तुम सब कुचक्र में लिप्त हो। और इस मालव को तो मेरा अपमान करने का प्रतिफल—मृत्यु-दण्ड—अवश्य भोगना पड़ेगा। [ ५८ ]

चन्द्र॰—क्यों, क्या वह एक निस्सहाय छात्र तुम्हारे राज्य में शिक्षा पाता है और तुम एक राजकुमार हो—बस इसीलिए?

[आम्भीक तलवार चलाता है। चन्द्रगुप्त अपनी तलवार पर उसे रोकता हैं; आम्भीक की तलवार छूट जाती है। वह निस्सहाय होकर चन्द्रगुप्त के आक्रमण की प्रतीक्षा करता है। बीच में अलका आ जाती है।]

सिंह॰—वीर चन्द्रगुप्त, बस। जाओ राजकुमार, यहाँ कोई कुचक्र नहीं है, अपने कुचक्रो से अपनी रक्षा स्वयं करो।

चाणक्य—राजकुमारी, मैं गुरुकुल का अधिकारी हूँ। मैं आज्ञा देता हूँ कि तुम क्रोधाभिभूत कुमार को लिवा जाओ। गुरुकुल में शस्त्रो का प्रयोग शिक्षा के लिए होता है, द्वंद्व-युद्ध के लिए नहीं। विश्वास रखना, इस दुर्व्यवहार का समाचार महाराज के कानो तक न पहुँचेगा।

अलका—ऐसा ही हो। चलो भाई!

[क्षुब्ध आम्भीक उसके साथ जाता है।]

चाणक्य—(चन्द्रगुप्त से)--तुम्हारा पाठ समाप्त हो चुका हैं और आज का यह काण्ड असाधारण है। मेरी सम्मति हैं कि तुम शीघ्र तक्षशिला का परित्याग कर दो। और सिंहरण, तुम भी।

चन्द्र॰—आर्य्य हम मागध हैं और यह मालव। अच्छा होता कि यही गुरुकुल में हम लोग शस्त्र की परीक्षा भी देते।

चाणक्य—क्या यही मेरी शिक्षा है? बालको की-सी चपलता दिखलाने का यह स्थल नहीं। तुम लोगों को समय पर शस्त्र का प्रयोग करना पड़ेगा। परन्तु अकारण रक्तपात नीति-विरुद्ध है।

चन्द्र॰—आर्य्य! संसार-भर की नीति और शिक्षा का अर्थ मैंने यहीं समझा हैं कि आत्म-सम्मान के लिए मर-मिटना ही दिव्य जीवन है। सिंहरण मेरा आत्मीय हैं, मित्र है, उसका मान मेरा ही मान है।

चाणक्य—देखूँगा कि इस आत्म-सम्मान की भविष्य-परीक्षा में तुम कहाँ तक उत्तीर्ण होते हो!

सिंह॰—आपके आशीर्वाद से हम लोग अवश्य सफल होंगे। [ ५९ ]

चाणक्य—तुम मालव हो और यह मागध; यही तुम्हारे मान का अवसान है न? परन्तु आत्म-सम्मान इतने ही से सन्तुष्ट नहीं होगा। मालव और मागध को भूलकर जब तुम आर्य्यावर्त्त का नाम लोगे, तभी वह मिलेगा। क्या तुम नहीं देखते हो कि आगामी दिवसो में, आर्य्यावर्त्त के सब स्वतंत्र राष्ट्र एक के अनन्तर दूसरे विदेशी विजेता से पददलित होगे? आज जिस व्यंग्य को लेकर इतनी घटना हो गई है, वह बात भावी गांधार-नरेश आम्भीक के हृदय में, शल्य के समान चुभ गई है। पञ्चनद-नरेश पर्वतेश्वर के विरोध के कारण, यह क्षुद्र-हृदय आम्भीक यवनों का स्वागत करेगा और आर्य्यावर्त्त का सर्वनाश होगा।

चन्द्र॰—गुरुदेव, विश्वास रखिए; यह सब कुछ नहीं होने पावेगा। यह चन्द्रगुप्त आपके चरणो की शपथपूर्वक प्रतिज्ञा करता है, कि यवन यहाँ कुछ न कर सकेंगे।

चाणक्य—साधु! तुम्हारी प्रतिज्ञा अचल हो। परन्तु इसके लिए पहले तुम मगध जाकर साधन-सम्पन्न बनो। यहाँ समय बिताने का प्रयोजन नहीं। मैं भी पञ्चनद-नरेश से मिलता हुआ मगध आऊँगा। और सिंहरण, तुम भी सावधान।

सिंह॰—आर्य्य, आपका आशीर्वाद ही मेरा रक्षक है।

[चन्द्रगुप्त और चाणक्य का प्रस्थान]

सिंह॰—एक अग्निमय गन्धक का स्रोत आर्य्यावर्त्त के लौह-अस्त्रागार में घुस कर विस्फोट करेगा। चञ्चला रणलक्ष्मी इन्द्र-धनुष-सी विजयमाला हाथ में लिए उस सुन्दर नील-लोहित प्रलय-जलद में विचरण करेगी और वीर-हृदय मयूर-से नाचेंगे] तब आओ देवि! स्वागत!!

[अलका का प्रवेश]

अलका—मालव-वीर, अभी तुमने तक्षशिला का परित्याग नहीं किया?

सिंह॰—क्यों देवि? क्या मैं यहाँ रहने के उपयुक्त नहीं हूँ?

अलका—नहीं, मैं तुम्हारी सुख-शान्ति के लिए चिन्तित हूँ। भाई ने [ ६० ]तुम्हारा अपमान किया है, पर वह अकारण न था; जिसका जो मार्ग है उसपर वह चलेगा। तुमने अनधिकार चेष्टा की थी! देखती हूँ कि प्राय मनुप्य, दूसरो को अपने मार्ग पर चलाने के लिए रुक जाता हैं, और अपना चलना वन्द कर देता है।

सिंह०―परन्तु भद्रे, जीवन-काल में भिन्न-भिन्न मार्गों की परीक्षा करते हुए, जो ठहरता हुआ चलता है, वह दूसरों को लाभ ही पहुँचाता है। यह कष्टदायक तो है; परन्तु निष्फल नहीं।

अलका―किन्तु मनुष्य को अपने जीवन और सुख का भी ध्यान रखना चाहिए।

सिंह०—मानव कब दानव से भी दुर्दान्त, पशु से भी बर्बर, और पत्थर से भी कठोर, करुणा के लिए निरवकाश हृदयवाला हो जाएगा, नही जाना जा सकता। अतीत सुखो के लिए सोच क्यो, अनागत भविष्य के लिए भय क्यो और वर्तमान को मैं अपने अनुकूल बना ही लूँँगा , फिर चिन्ना किस वान की?

अलका―मालव, तुम्हारे देश के लिए तुम्हारा जीवन अमूल्य है, और वही यहाँ आपत्ति में है।

सिंह०―राजकुमारी, इस अनुकम्पा के लिए कृतज्ञ हुआ। परन्तु मेरा देश मालव ही नहीं, गाधार भी है। यही क्या, ससुग्र आर्य्यावर्त्त है, इसलिए में...........

अलका―(आश्चर्य्य से)―क्या कहते हो?

सिंंह०―गाधार अर्य्यवर्त्त से भिन्न नहीं है, इसीलिए उनके पतन को मै अपना अपमान समझता हूँ।

अलका―(नि.श्वास लेकर)―इनका मै अनुभव कर रही हूँ। परन्तु जिस देश में ऐसे वीर युवक हो, उसका पतन असम्भव है। मालववीर, तुम्हारे मनोवल में स्वतंत्रता है और तुम्हारी दृढ भुजाओ में आर्य्यावर्त्त के रक्षण की शक्ति है , तुम्हें सुरक्षित रहना ही चाहिए। मैं भी आर्य्यावर्त्त की बालिका हूँ― तुमसे अनुरोध करती हूँ कि तुम शीघ्र [ ६१ ]गांधार छोड़ दो। मैं आम्भीक को शक्तिभर पतन से रोकूँगी, परन्तु उसके न मानने पर तुम्हारी आवश्यकता होगी। जाओ वीर!

सिंह॰—अच्छा राजकुमारी, तुम्हारे स्नेहानुरोध से मैं जाने के लिए बाध्य हो रहा हूँ। शीघ्र ही चला जाऊँगा देवि! किन्तु यदि किसी प्रकार सिन्धु की प्रखर धारा को यवन सेना न पार कर सकती....।

अलका—मैं चेष्टा करूँगी वीर, तुम्हारा नाम?

सिह॰—मालवगण के राष्ट्रपति का पुत्र सिंहरण।

अलका—अच्छा, फिर कभी।

[दोनों एक-दूसरे को देखते हुए प्रस्थान करते हैं।]