चन्द्रगुप्त मौर्य्य/प्रथम अंक/२

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ ६२ ]
 


मगध-सम्राट् का विलास-कानन
विलासी युवक और युवतियों का विहार

नन्द—(प्रवेश करके)—आज वसन्त-उत्सव है क्या?

एक युवक—जय हो देव! आप की आज्ञा से कुसुमपुर के नागरिकों ने आयोजन किया हैं।

नन्द—परन्तु मदिरा का तो तुम्हारे समाज में अभाव है, फिर आमोद कैसा?—(एक युवती से)—देखो-देखो—तुम सुन्दरी हो, परन्तु तुम्हारे यौवन का विभ्रम अभी संकोच की अर्गला से जकड़ा हुआ है। तुम्हारी आँखों में काम का सुकुमार संकेत नहीं, अनुराग की लाली नहीं। फिर कैसा प्रमोद!

एक युवती—हम लोग तो निमंत्रित नागरिक हैं देव! इसका दायित्व तो निमंत्रण देने वाले पर हैं।

नन्द—वाह, यह अच्छा उलाहना रहा!—(अनुचर से)—मूर्ख! अभी और कुछ सुनावेगा? तू नहीं जानता कि मैं ब्रह्मास्त्र से अधिक इन सुन्दरियों के कुटिल कटाक्षो से डरता हूँ? ले आ—शीघ्र ले आ—नागरिको पर तो मैं राज्य करता हूँ, परन्तु मेरी मगध की नागरिकाओं का शासन मेरे ऊपर हैं। श्रीमती, सबसे कह दो—नागरिक नन्द, कुसुमपुर के कमनीय कुसुमों में अपराध के लिए क्षमा माँगता हैं और आज के दिन वह तुम लोगों का कृतज्ञ सहचर-मात्र हैं।

[अनुचर लोग प्रत्येक कुञ्ज में मदिराकलश और चंपक पहुँचाते हैं। राक्षस और सुवासिनी का प्रवेश, पीछे-पीछे कुछ नागरिक।]

राक्षस—सुवासिनी! एक पात्र और; चलो इस कुञ्ज में।

सुवा॰—नहीं, अब मैं न सँभल सकूँगी।

राक्षस—फिर इन लोगों से कैसे पीछा छूटेगा?

सुवा॰—मेरी एक इच्छा है। [ ६३ ]

एक नागरिक—क्या इच्छा है सुवासिनी, हम लोग अनुचर हैं। केवल एक सुन्दर आलाप की, एक कोमल मूर्च्छना की लालसा हैं।

सुवा॰—अच्छा तो अभिनय के साथ।

सब--(उल्लास से)—सुन्दरियों की रानी सुवासिनी की जय!

सुवा॰—परन्तु राक्षस को कच का अभिनय करना पडे़गा।

एक॰—और तुम देवयानी, क्यों? यही न? राक्षस सचमुच राक्षस होगा, यदि इसमें आनाकानी करे तो...चलो राक्षस!

दूसरा—नहीं मूर्ख! आर्य्य राक्षस कह, इतने बड़े कला-कुशल विद्वान् को किस प्रकार सम्बोधित करना चाहिए, तू इतना भी नहीं जानता! आर्य्य राक्षस! इन नागरिकों की प्रार्थना से इस कष्ट को स्वीकार कीजिए।

[राक्षस उपयुक्त स्थान ग्रहण करता है। कुछ मूक अभिनय, फिर उसके बाद सुवासिनी का भाव-सहित गान—]

तुम कनक किरण के अन्तराल में
लुक-छिप कर चलते हो क्यो?
नत मस्तक गर्व वहन करते
यौवन के घन, रस कन दरते।
है लाज भरे सौन्दर्य।
बता दो मौन बने रहते हो क्यों?
अधरो के मधुर कगारो में
कल-कल ध्वनि की गुञ्जारो में
मधुसरिता-सी यह हँसी
तरल अपनी पीते रहते हो क्यो?
वेला विभ्रम की बीत चली
रजनीगंधा की कली खिली--
अब सान्ध्य मलय-आकुलित।
दुकूल कलित हो, यो छिपते हो क्यो?

[ ६४ ]

['साधु-साधु' की ध्वनि]

नन्द—इस अभिनेत्री को यहाँ बुलाओ।

[सुवासिनी नन्द के समीप आकर प्रणत होती है।]

नन्द—तुम्हारा अभिनय तो अभिनय नहीं हुआ?

नागरिक—अपितु वास्तविक घटना, जैसी देखने में आवे वैसी ही।

नन्द—तुम बडे़ कुशल हो। ठीक कहा।

सुवासिनी—तो मुझे दण्ड मिले। आज्ञा कीजिए देव!

नन्द—मेरे साथ एक पत्र।

सुवासिनी—परन्तु देव एक बड़ी भूल होगी।

नन्द—वह क्या?

सुवासिनी—आर्य्य राक्षस का अभिनय-पूर्ण गान नहीं हुआ है।

नन्द—राक्षस!

नागरिक—यहीं है, देव!

[राक्षस आकर प्रणाम करता है।]

नन्द—वसन्तोत्सव की रानी की आज्ञा से तुम्हें गाना होगा।

राक्षस—उसका मूल्य होगा एक पात्र कादम्ब

[सुवासिनी पात्र भर कर देती हैं।]

[सुवासिनी मान का मूक अभिनय करती हैं, राक्षस सुवासिनी के सम्मुख अभिनय सहित-गाता है—]

निकले मत बाहर दुर्वल आहे!
लगेगा तुझे हँसी का शीत
शरद नीरद माला के बीच
तड़प ले चपला-सी भयभीत
पड़ रहे पावन प्रेम-फुहार
जलन कुछ-कुछ है मीठी पीर
सम्हाले चल कितनी है दूरु
प्रलय तक व्याकुल हो न अधीर

[ ६५ ]

अश्रुमय सुन्दर विरह निशीथ
भरे तारे न ढुलकते ओह!
न उफना दे आँसू है भरे
इन्ही आँखो में उनकी चाह
काकली-सी बनने की तुम्हें
लगन लग जाय न हे भगवान्
पपीहा का पी सुनता कभी!
अरे कोकिल की देख देशा न।
हृदय है पास, साँस की राह
चले आना-जाना चुपचाप
अरे छाया बन, छ मत उसे
भरा है तुझमे भीषण ताप
हिला कर धड़कन से अविनीत
जगा मत, सोया है सुकुमार
देखता हैं स्मृतियो का स्वप्न,
हृदय पर मत कर अत्याचार।


कई नागरिक—स्वर्गीय अमात्य वक्रनास के कुल की जय!

नन्द—क्या कहा, वक्रनास का कुल?

नागरिक—हाँ देव, आर्य्य राक्षस उन्हीं के भ्रातुष्पुत्र हैं।

नन्द—राक्षस! आज से तुम मेरे अमात्यवर्ग में नियुक्त हुए। तुम तो कुसुमपुर के एक रत्न हो!

[उसे माला पहनाता है और शस्त्र देता है]

सब—सम्राट् की जय हो! अमात्य राक्षस की जय हो!

नन्द—और सुवासिनी, तुम मेरी अभिनय-शाला की रानी!

[सब हर्ष प्रकट करते हुए जाते हैं]