चन्द्रगुप्त मौर्य्य/प्रथम अंक/११

विकिस्रोत से
चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ ९५ ]
 

११
सिन्धु-तट पर दाण्ड्यायन का आश्रम

दाण्ड्यायन—पवन एक क्षण विश्राम नहीं लेता, सिन्धु की जलधारा बही जा रही है, बादलों के नीचे पक्षियों का झुण्ड उड़ा जा रहा हैं, प्रत्येक परमाणु न जाने किस आकर्षण में खिंचे चले जा रहे हैं। जैसे काल अनेक रूप में चल रहा है।—यही तो...

[एनिसाक्रीटीज का प्रवेश]

एनि॰—महात्मन्!

दाण्ड्यायन—चुप रहो, सब चले जा रहे हैं, तुम भी चले जाओ। अवकाश नहीं, अवसर नहीं।

एनि॰—आप से कुछ....

दाडण्यायन—मुझसे कुछ मत कहो। कहो तो अपने आप ही कहो, जिसे आवश्यकता होगी सुन लेगा। देखते हो, कोई किसी की सुनता है? मैं कहता हूँ—सिन्धु के एक विन्दु! धारा में न बहकर मेरी एक बात सुनने के लिए ठहर जा।―वह सुनता है? ठहरता है? कदापि नहीं।

एनि॰—परन्तु देवपुत्र ने ......

दाण्ड्यायन—देवपुत्र?

एनि॰—देवपुत्र जगद्विजेता सिकन्दर ने आपका स्मरण किया हैं। आपका यश सुनकर आपसे कुछ उपदेश ग्रहण करने की उनकी बलवती इच्छा हैं।

दाण्ड्यायन—(हँसकर)—भूमा का सुख और उसकी महत्ता का जिसको आभास-मात्र हो जाता है, उसको ये नश्वर चमकीले प्रदर्शन नहीं अभिभूत कर सकते, दूत! वह किसी बलवान की इच्छा का क्रीड़ा-कन्दुक नहीं बन सकता। तुम्हारा राजा अभी झेलम भी नहीं पार कर सका, फिर भी जगद्विजेता की उपाधि लेकर जगत को वञ्चित करता है। मैं लोभ से, सम्मान से, या भय से किसी के पास नहीं जा सकता। [ ९६ ]

एनि॰—महात्मन्! ऐसा क्यों? यदि न जाने पर देवपुत्र दण्ड दें?

दाण्डायायन—मेरी आवश्यकताएँ परमात्मा की विभूति प्रकृति पूरी करती हैं। उसके रहते दूसरों का शासन कैसा? समस्त आलोक, चैतन्य और प्राणशक्ति, प्रभु की दी हुई हैं। मृत्यु के द्वारा वहीं इसको लौटा लेता हैं। जिस वस्तु को मनुष्य दे नहीं सकता, उसे ले लेने की स्पर्धा से बढ़कर दूसरा दम्भ नहीं। मैं फल-मूल खाकर अंजलि से जलपान कर, तृण-शय्या पर आँख बन्द किए सो रहता हूँ। न मुझसे किसी को डर है और न मुझको डरने का कारण है। तुम ही यदि हठात् मुझे ले जाना चाहो तो केवल मेरे शरीर को ले जा सकते हो, मेरी स्वतंत्र आत्मा पर तुम्हारे देवपुत्र का भी अधिकार नहीं हो सकता।

एनि॰—बडे़ निर्भीक हो ब्राह्मण! जाता हूँ, यही कह दूँगा!— (प्रस्थान)

[एक ओर से अलका, दूसरी ओर से चाणक्य और चन्द्रगुप्त का प्रवेश। सब वन्दना करके सविनय बैठते हैं]

अलका—देव! मै गांधार छोड़कर जाती हूँ।

दाण्डायायन—क्यों अलके, तुम गांधार की लक्ष्मी हो, ऐसा क्यों?

अलका—ऋषी! यवनों के हाथ स्वाधीनता बेचकर उनके दान से जीने की शक्ति मुझमें नहीं।

दाण्ड्यायन—तुम उत्तरापथ की लक्ष्मी हो, तुम अपना प्राण बचाकर कहाँ जाओगी?—(कुछ विचारकर)—अच्छा जाओ देवि! तुम्हारी आवश्यकता है। मंगलमय विभु अनेक अमंगलों में कौन-कौन कल्याण छिपाए रहता है, हम सब उसे नही समझ सकते। परन्तु जब तुम्हारी इच्छा हो, निस्संकोच चली आना।

अलका—देव, हृदय में सन्देह है!

दाण्ड्यायन—क्या अलका? [ ९७ ]

अलका—यें दोनों महाशय, जो आपके सम्मुख बैठे हैं—जिनपर पहले मेरा पूर्ण विश्वास था, वे ही अब यवनों के अनुगत क्यों होना चाहते हैं?

[दाण्ड्यायन चाणक्य की ओर देखता है और चाणक्य कुछ विचारने लगता है]

चन्द्रगुप्त—देवि! कृतज्ञता का बन्धन अमोघ है।

चाणक्य—राजकुमारी! उस परिस्थित पर आपने विचार नहीं किया हैं, आपकी शंका निर्मूल हैं।

दाण्ड्यायन—सन्देह न करो अलका! कल्याणकृत को पूर्ण विश्वासी होना पडे़गा। विश्वास सुफल देगा, दुर्गति नहीं।

[यवन सैनिक को प्रवेश]

यवन—देवपुत्र आपकी सेवा में आया चाहते हैं, क्या आज्ञा है?

दण्ड्यायन—मैं क्या आज्ञा दूँ सैनिक! मेरा कोई रहस्य नहीं, निभृत मन्दिर नहीं, यहाँ पर सबका प्रत्येक क्षण स्वागत हैं।

[सैनिक जाता है]

अलका—तो मैं जाती हूँ, आज्ञा हो।

दाण्ड्यायन—कोई आतंक नहीं है अलका! ठहरो तो।

चाणक्य—महात्मन्, हम लोगों को क्या आज्ञा है? किसी दूसरे समय उपस्थित हो?

दाण्ड्यायन—चाणक्य! तुमको तो कुछ दिनों तक इस स्थान पर रहना होगा, क्योंकि सब विद्या के आचार्य्य होने पर भी तुम्हें उसका फल नहीं मिला—उद्वेग नहीं मिटा। अभी तक तुम्हारे हृदय में हलचल मची है, यह अवस्था सन्तोषजनक नहीं।

[सिकन्दर का सिल्यूकस, कार्नेलिया, एनिसाक्रेटीज इत्यादि सहचरों के साथ प्रवेश, सिकन्दर नमस्कार करता है, सब बैठते हैं]

दण्ड्यायन—स्वागत अलक्षेन्द्र! तुम्हें सुबुद्धि मिले। [ ९८ ]

सिकन्दर––महात्मन्! अनुगृहीत हुआ, परन्तु मुझे कुछ और आशीर्वाद चाहिए।

दाण्ड्यायन––मैं और आशीर्वाद देने में अस्मर्थ हूँ। क्योकि इसके अतिरिक्त जितने आशीर्वाद होगे, वे अमगलजनक होगे।

सिकन्दर––मैं आपके मुख से जय सुनने का अभिलाषी हूँ।

दाण्डयायन––जयघोष तुम्हारे चारण करेगे; हत्या, रक्तपात और अग्निकाण्ड के लिए उपकरण जुटाने में मुझे आनन्द नहीं। विजय-तृष्णा का अन्त पराभव में होता है, अलक्षेन्द्र! राजसत्ता सुव्यवस्था से बढे तो वढ सकती है, केवल विजयो से नही। इसलिए अपनी प्रजा के कल्याण में लगो।

सिकन्दर––अच्छा––( चन्द्रगुप्त को दिखाकर)––यह तेजस्वी युवक कौन हैं?

सिल्यूकस––यह मगध का एक निर्वासित राजकुमार है।

सिकन्दर––मैं आपका स्वागत करने के लिए अपने शिविर में निमत्रित करता हूँ।

चन्द्रगुप्त––अनुगृहीत हुआ। आर्य्य लोग किसी निमंत्रण को अस्वीकार नहीं करते।

सिकन्दर––( सिल्यूकस से )––तुमसे इनसे कब परिचय हुआ?

सिल्यूकस––इनसे तो मैं पहले ही मिल चुका हूँ।

चन्द्रगुप्त––आपका उपकारमै भूला नही हूँ। आपने व्याघ्र से मेरी रक्षा की थी। जब मैं अचेत पञ था।

सिकन्दर––अच्छा तो आप लोग पूर्व-परिचित भी हैं! तब तो सेनापति, इनके आतिथ्य का भार आप ही पर रहा।

सिल्यूकस––जैसी आज्ञा।

सिकन्दर––(महात्मा से)––महात्मन्! लौटनी बार आपवा फिर दर्शन करूँगा, जब भारत-विजय कर लूँँगा।

दाण्ड्यायन––अलक्षेन्द्र, सावधान! ( चन्द्रगुप्त को दिखाकर ) [ ९९ ]देखों, यह भारत का भावी सम्राट् तुम्हारे सामने बैठा हैं।

[सब स्तब्ध होकर चन्द्रगुप्त को देखते हैं और चन्द्रगुप्त आश्चर्य से कार्नेलिया को देखने लगता है। एक दिव्य आलोक]

[पटाक्षेप]