चन्द्रगुप्त मौर्य्य/प्रथम अंक/१०

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ ९२ ]
 

१०
कानन-पथ में अलका

अलका—चली जा रही हूँ। अनन्त पथ है, कहीं पान्थशाला नहीं और न पहुँचने का निर्दिष्ट स्थान है। शैल पर से गिरा दी गई स्रोत-स्विनी के सदृश अविराम भ्रमण, ठोकरे और तिरस्कार! कानन में कहाँ चली जा रही हूँ?—(सामने देखकर)—अरे! यवन!!

(शिकारी के वेश में सिल्यूकस का प्रवेश)

सिल्यूकस—तुम कहाँ, सुन्दरी राजकुमारी!

अलका—मेरा देश है, मेरे पहाड़ हैं, मेरी नदियाँ हैं और मेरे जंगल हैं। इस भूमि के एक-एक परमाणु मेरे हैं और मेरे शरीर के एक-एक क्षुद्र अंश उन्ही परमाणुओं के बने हैं! फिर मैं और कहाँ जाऊँगी यवन?

सिल्यूकस—यहाँ तो तुम अकेली हो सुन्दरी!

अलका—सो तो ठीक है।—(दूसरी ओर देखकर सहसा)—परंतु देखो वह सिंह आ रहा है।

(सिल्यूकस उधर देखता है, अलका दूसरी ओर निकल जाती है)

सिल्यूकस—निकल गई।—(दूसरी ओर जाता है)

(चाणक्य और चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चाणक्य—वत्स, तुम बहुत थक गए होंगे।

चन्द्रगुप्त—आर्य्य! नसों ने अपने बंधन ढीले कर दिये हैं, शरीर अवसन्न हो रहा है, प्यास भी लगी है।

चाणक्य—और कुछ दूर न चल सकोगे?

चन्द्रगुप्त—जैसी आज्ञा हो।

चाणक्य—पास ही सिन्धु लहराता होगा, उसके तट पर ही विश्राम करना ठीक होगा। [ ९३ ]

[चन्द्रगुप्त चलने के लिए पैर बढ़ाता है फिर बैठ जाता है]

चाणक्य—(उसे पकड़कर)—सावधान, चन्द्रगुप्त!

चन्द्रगुप्त—आर्य्य! प्यास से कंठ सूख रहा है, चक्कर आ रहा है।

चाणक्य—तुम विश्राम करो, मैं अभी जल लेकर आता हूँ।

[प्रस्थान]

[चन्द्रगुप्त पसीने से तर लेट जाता है। एक व्याघ्र समीप आता दिखाई पड़ता है। सिल्यूकस प्रवेश करके धनुष सँभालकर तीर चलाता है! व्याघ्र मरता है। सिल्यूकस की चन्द्रगुप्त को चैतन्य करने की चेष्टा। चाणक्य का जल लिए आना]

सिल्यूकस—थोड़ा जल, इस सत्त्वपूर्ण पथिक की रक्षा करने के लिए थोड़ा जल चाहिए।

चाणक्य—(जल के छींटे देकर)—आप कौन हैं?

[चन्द्रगुप्त स्वस्थ होता है]

सिल्यूकस—यवन सेनापति! तुम कौन हो?

चाणक्य—एक ब्राह्मण।

सिल्यूकस—यह तो कोई बड़ा श्रीमान पुरुष है। ब्राह्मण! तुम इसके साथी हो?

चाणक्य—हाँ, मैं इस राजकुमार का गुरु हूँ, शिक्षक हूँ।

सिल्यूकस—कहाँ निवास है?

चाणक्य—यह चन्द्रगुप्त मगध का एक निर्वासित राजकुमार है।

सिल्यूकस—(कुछ विचारता है)—अच्छा, अभी तो मेरे शिविर में चलो, विश्राम करके फिर कहीं जाना।

चन्द्रगुप्त—यह सिंह कैसे मरा? ओह, प्यास से मैं हतचेत हो गया था—आपने मेरे प्राणों की रक्षा की, मै कृतज्ञ हूँ। आज्ञा दीजिए, हम लोग फिर उपस्थित होंगे, निश्चय जानिए।

सिल्यूकस—जब तुम अचेत पडे़ थे तब यह तुम्हारे पास बैठा था। मैंने विपद समझकर इसे मार डाला। मैं यवन सेनापति हूँ। [ ९४ ]

चन्द्रगुप्त—धन्यवाद! भारतीय कृतघ्न नहीं होतें। सेनापति! मैं आप का अनुगृहीत हूँ, अवश्य आप के पास आऊँगा।

[तीनों जाते हैं, अलका का प्रवेश]

अलका—आर्य चाणक्य और चन्द्रगुप्त—यें भी यवनों के साथी! जब आँधी और करका-वृष्टि, अवर्षण और दावाग्नि का प्रकोप हो, तब देश की हरी-भरी खेती का रक्षक कौन है? शून्य व्योम प्रश्न को बिना उत्तर दिए लौटा देता है। ऐसे लोग भी आक्रमणकारियों के चंगुल में फंस रहे हो, तब रक्षा की क्या आशा। झेलम के पार सेना उतरना चाहती हैं। उन्मत्त पर्वतेश्वर अपने विचारों में मग्न है। गांधार छोड़कर चलूँ, नहीं, एक बार महात्मा दाण्ड्यायन को नमस्कार कर लूँ, उस शान्ति-सन्देश से कुछ प्रसाद लेकर तब अन्यत्र जाऊँगी।

[जाती है]