चन्द्रगुप्त मौर्य्य/प्रथम अंक/६

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ ७८ ]
 


सिन्धु-तट—अलका और मालविका

मालविका—राजकुमारी! मैं देख आई, उद्‌भांड में सिन्धु पर सेतु बन रहा है। युवराज स्वयं उसका निरीक्षण करते हैं और मैंने उक्त सेतु का एक मानचित्र भी प्रस्तुत किया था। यह कुछ अधूरा-सा रह गया है, पर इसके देखने से कुछ आभास मिल जायगा।

अलका—सखी! बड़ा दुःख होता है, जब मैं यह स्मरण करती हूँ कि स्वयं महाराज का इसमें हाथ हैं। देखूँ तेरा मानचित्र!

[मालविका मानचित्र देती है, अलका उसे देखती है; एक यवन सैनिक का प्रवेश—वह मानचित्र अलका से लेना चाहता है]

अलका—दूर हो दुर्विनीत दस्यु!—(मानचित्र अपने कंचुक में छिपा लेती है।)

यवन—यह गुप्तचर है, मैं इसे पहचानता हूँ। परन्तु सुन्दरी! तुम कौन हो; जो इसकी सहायता कर रही हो, अच्छा हो कि मुझे मानचित्र मिल जाय, और मैं इसे सप्रमाण बन्दी बनाकर महाराज के सामने ले जाऊँ।

अलका—यह असम्भव है। पहले तुम्हें बताना होगा कि तुम यहाँ किस अधिकार से यह अत्याचार किया चाहते हो?

यवन—मैं? मैं देवपुत्र विजेता अलक्षेन्द्र का नियुक्त अनुचर हूँ और तक्षशिला की मित्रता का साक्षी हूँ। यह अधिकार मुझे गांधार-नरेश ने दिया है।

अलका—अह! यवन, गांधार-नरेश ने तुम्हें यह अधिकार कभी नहीं दिया होगा कि तुम आर्य-ललनाओं के साथ धृष्टता का व्यवहार करो।

यवन—करना ही पड़ेगा, मुझे मानचित्र लेना ही होगा।

अलका—कदापि नहीं। [ ७९ ]

यवन—क्या यह वही मानचित्र नहीं है, जिसे इस स्त्री ने उद्भाण्ड में बनाना चाहा था।

अलका—परन्तु यह तुम्हें मिल नहीं सकता। यदि तुम सीधे यहाँ से न टलोगे तो शान्ति-रक्षकों को बुलाऊँगी।

यवन—तब तो मेरा उपकार होगा, क्योंकि इस अँगूठी को देखकर मेरी ही सहायता करेंगे—(अंगूठी दिखाता है)

अलका—(देखकर सिर पकड़ लेती है)—ओह!

यवन—(हँसता हुआ)—अब ठीक पथ पर आ गई होगी बुद्धि। लाओ, मानचित्र मुझे दे दो।

[अलका निस्सहाय इधर-उधर देखती है। सिंहरण का प्रवेश]

सिंहरण—(चौंककर)—है.....कौन....राजकुमारी! और यह यवन!

अलका—महावीर! स्त्री की मर्यादा को न समझने वाले इस यवन को तुम समझा दो कि यह चला जाय।

सिंहरण—यवन, क्या तुम्हारे देश की सभ्यता तुम्हें स्त्रियों का सम्मान करना नहीं सिखाती? क्या सचमुच तुम बर्बर हो?

यवन—मेरी उस सभ्यता ही ने मुझे रोक लिया है, नहीं तो मेरा यह कर्तव्य था कि मैं उस मानचित्र को किसी भी पुरुष के हाथ में होने से उसे जैसे बनता, ले ही लेता।

सिंहरण—तुम बडे़ प्रगल्भ हो यवन! क्या तुम्हें भय नहीं कि तुम एक दूसरे राज्य में ऐसा आचरण करके अपनी मृत्यु बुला रहे हो?

यवन—उसे आमन्त्रण देने के लिए ही उतनी दूर से आया हूँ।

सिंहरण—राजकुमारी। यह मानचित्र मुझे देकर आप निरापद हो जायें, फिर मैं देख लूँगा।

अलका—(मानचित्र देती हुई)—तुम्हारे ही लिए तो यह मँगाया गया था। [ ८० ]

सिंहरण—(उसे रखते हुए)—ठीक है, मैं रुका भी इसीलिए था।—(यवन से)—हाँ जी, कहो, अब तुम्हारी क्या इच्छा है?

यवन—(खड्ग निकालकर)—मानचित्र मुझे दे दो या प्राण देना होगा।

सिंहरण—उसके अधिकारी का निर्वाचन खड्ग करेगा। तो फिर सावधान हो जाओ। (तलवार खींचता है)

[यवन के साथ युद्ध—सिंहरण घायल होता है; परन्तु यवन को उसके भीषण प्रत्याक्रमण से भय होता है, वह भाग निकलता है]

अलका—वीर! यद्यपि तुम्हे विश्राम की आवश्यकता है, परन्तु अवस्था बड़ी भयानक है। वह जाकर कुछ उत्पात मचावेगा। पिताजी पूर्णरूप से यवनो के हाथ में आत्म-समर्पण कर चुके हैं।

सिंहरण—(हंसता और रक्त पोछता हुआ)—मेरा काम हो गया राजकुमारी! मेरी नौका प्रस्तुत है, मैं जाता हूँ। परन्तु बड़ा अनर्थ हुआ चाहता है। क्या गांधार-नरेश किसी तरह न मानेगे?

अलका—कदापि नही। पर्वतेश्वर से उनका बद्धमूल बैर है।

सिंहरण—अच्छा देखा जायगा, जो कुछ होगा। देखिए, मेरी नौका आ रहीं हैं, अब विदा माँगता हूँ।

[सिन्धु में नौका आती हैं, घायल सिंहरण उसपर बैठता है, सिंहरण और अलका दोनों एक-दूसरे को देखते हैं]

अलका—मालविका भी तुम्हारे साथ जायगी--तुम जाने योग्य इस समय नहीं हो।

सिंहरण—जैसी आज्ञा। बहुत शीघ्र फिर दर्शन करूँगा। जन्मभूमि के लिए ही यह जीवन है, फिर जब आप-सी सुकुमारियाँ इसकी सेवा में कटिबद्ध हैं, तब मैं पीछे कब रहूँगा। अच्छा, नमस्कार।

[मालविका नाव में बैठती है। अलका सतृषण नयनों से देखती हुई नमस्कार करती है। नाव चली जाती हैं]‌ [ ८१ ]

[चार सैनिकों के साथ यवन का प्रवेश]

यवन—निकल गया—मेरा अहेर! यह सब प्रपंच इसी रमणी का है। इसको बन्दी बनाओ।

[सैनिक अलका को देखकर सिर झुकाते हैं]

यवन—बन्दी करो सैनिक!

सैनिक—मैं नहीं कर सकता।

यवन—क्यों, गांधार-नरेश ने तुम्हे क्या आज्ञा दी हैं?

सैनिक—यही कि, आप जिसे कहे, उसे हम लोग बन्दी करके महाराज के पास ले चले।

यवन—फिर विलम्ब क्यों?

[अलका संकेत से वर्जित करती है]

सैनिक—हम लोगों की इच्छा।

यवन—तुम राजविद्रोही हो?

सैनिक—कदापि नहीं, पर यह काम हम लोगो से न हो सकेगा।

यवन—सावधान! तुमको इस आज्ञा-भंग का फल भोगना पड़ेगा। मैं स्वयं बन्दी बनाता हूँ।

[अलका की ओर बढ़ता है, सैनिक तलवार खींच लेते हैं]

यवन—(ठहर कर)—यह क्या?

सैनिक—डरते हो क्या? कायर! स्त्रियो पर वीरता दिखाने में बड़े प्रबल हो और एक युवक के सामने से भाग निकले!

यवन—तो क्या, तुम राजकीय आज्ञा का स्वयं न पालन करोगे और न करने दोगे?

सैनिक—यदि साहस हो मरने का तो आगे बढ़ो।

अलका—(सैनिको से)—ठहरो, विवाद करने का समय नहीं है।—(यवन से)—कहो, तुम्हारा अभिप्राय क्या है?

यवन—मैं तुम्हे बन्दी करना चाहता हूँ।

अलका—कहाँ ले चलोगे? [ ८२ ]

यवन—गांधार-नरेश के पास।

अलका—मैं चलती हूँ, चलो।

[आगे अलका, पीछे यवन और सैनिक जाते हैं]