चन्द्रगुप्त मौर्य्य/प्रथम अंक/५

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य  (1932) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
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मगध में नन्द की राजसभा

राक्षस और सभासदो के साथ नन्द

नन्द―हॉ, तब?

राक्षस―दूत लौट आए और उन्होने कहा कि पचनद-नरेश को यह सम्बन्ध स्वीकार नही।

नन्द―क्यो?

राक्षस―प्राच्य देश के बौद्ध और शूद्र राजा की कन्या से वे परिचय नही कर सकते।

नन्द―इतना गर्व!

राक्षस―यह उसका गर्व नही, यह धर्म का दम्भ है, व्यग है। मैं इसका फल दूँँगा। मगध-जैसे शक्तिशाली राष्ट्र का अपमान करके कोई यो ही नही बच जायगा। ब्राह्मणो का यह........

[ प्रतिहारी का प्रवेश ]

प्रतिहार―जय हो देव, मगध से शिक्षा के लिये गये हुए तक्षशिला के स्नातक आये है।

नन्द―लिवा लाओ।

[दौवारिक का प्रस्थान ; चन्द्रगुप्त के साथ कई स्नातकों का प्रवेश]
 

स्नातक―राजाधिराज की जय हो!

नन्द―स्वागत। अमात्य वररुचि अभी नहीं आये, देखो तो?

[प्रतिहार का प्रस्थान और वररुचि के साथ प्रवेश]

वर०―जय हो देव, मैं स्वयं आ रहा था।

नन्द―तक्षशिला से लौटे हुए स्नातको की परीक्षा लीजिये।

वर०―राजाधिराज, जिस गुरुकुल मे मैं स्वयं परीक्षा देकर स्नातक हुआ हूँ, उसके प्रमाण की भी पुन. परीक्षा, अपने गुरुजनो के प्रति अपमान करना है।


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नन्द—किन्तु राजकोष का रुपया व्यर्थ ही स्नातकों को भेजने में लगता है या इसका सदुपयोग होता है, इसका निर्णय कैसे हो?

राक्षस—केवल सद्धर्म की शिक्षा ही मनुष्यों के लिए पर्याप्त है! और वह तो मगध में ही मिल सकती है।

[चाणक्य का सहसा प्रवेश; त्रस्त दौवारिक पीछे-पीछे आता है]

चाणक्य—परन्तु बौद्धधर्म की शिक्षा मानव-व्यवहार के लिए पूर्ण नहीं हो सकती, भले ही वह संघ-विहार में रहनेवालों के लिये उपयुक्त हों।

नन्द—तुम अनाधिकार चर्चा करनेवाले कौन हो जी?

चाणक्य—तक्षशिला से लौटा हुआ एक स्नातक ब्राह्मण।

नन्द—ब्राह्मण! ब्राह्मण! जिधर देखो कृत्या के समान इनकी शक्ति-ज्वाला धधक रही हैं।

चाणक्य—नहीं महाराज! ज्वाला कहाँ? भस्मावगुण्ठित अंगारे रह गये हैं!

राक्षस—तब भी इतना ताप!

चाणक्य—वह तो रहेगा ही! जिस दिन उसका अन्त होगा, उसी दिन आर्यावर्त्त का ध्वंस होगा। यदि अमात्य ने ब्राह्मण-नाश करने का विचार किया हों तो जन्मभूमि की भलाई के लिए उसका त्याग कर दें; क्योंकि राष्ट्र का शुभ-चिन्तन केवल ब्राह्मण ही कर सकते हैं। एक जीव की हत्या से डरनेवाले तपस्वी बौद्ध, सिर पर मँडरानेवाली विपत्तियों से, रक्त-समुद्र की आँधियों से, आर्यावर्त्त की रक्षा करने में असमर्थ प्रमाणित होंगे।

नन्द—ब्राह्मण! तुम बोलना नहीं जानते हो तो चुप रहना सीखो।

चाणक्य—महाराज, उसे सीखने के लिए में तक्षशिला गया था और मगध का सिर ऊँचा करके उसी गुरुकुल में मैंने अध्यापन का कार्य भी किया है। इसलिए मेरा हृदय यह नहीं मान सकता कि मैं मूर्ख हूँ।

नन्द—तुम चुप रहो। [ ७५ ]

चाणक्य—एक बात कह कर महाराज!

राक्षस—क्या?

चाणक्य—यवनों की विकट वाहिनी निषध-पर्वतमाला तक पहुँच गई हैं। तक्षशिलाधीश की भी उसमें अभिसंधि है। सम्भवतः समस्त आर्य्यावर्त्ता पादाक्रान्त होगा। उत्तरापथ में बहुत-से छोटे-छोटे गणतंत्र है, वे उस सम्मिलित पारसीक यवन-बल को रोकने में असमर्थ होंगे। अकेले पर्वतेश्वर ने साहस किया हैं, इसलिए मगध को पर्वतेश्वर की सहायता करनी चाहिए।

कल्याणी—(प्रवेश करके)—पिताजी, मैं पर्वतेश्वर के गर्व की परीक्षा लूँगी। मैं वृषल-कन्या हूँ। उस क्षत्रिय को यह सिखा दूँगी कि राजकन्या, कल्याणी किसी क्षत्राणी से कम नहीं। सेनापति को आज्ञा दीजिए कि आसन्न गांधार-युद्ध में मगध की एक सेना अवश्य जायं और मैं स्वयं उसका संचालन करूँगी। पराजित पर्वतेश्वर को सहायता देकर उसे नीचा दिखाऊँगी।

[नन्द हँसता है]

राक्षस—राजकुमारी, राजनीति महलों में नहीं रहती, इसे हम लोगो के लिए छोड़ देना चाहिए। उद्धत पर्वतेश्वर अपने गर्व का फल भोगे और ब्राह्मण चाणक्य! परीक्षा देकर ही कोई साम्राज्य-नीति समझ लेने का अधिकारी नहीं हो जाता।

चाणक्य—सच है बौद्ध अमात्य; परन्तु यवन आक्रमणकारी बौद्ध और ब्राह्मण का भेद न रखेंगे।

नन्द—वाचाल ब्राह्मण! तुम अभी चले जाओ, नहीं तो प्रतिहार तुम्हें धक्के देकर निकाल देंगे।

चाणक्य—राजाधिराज! मैं जानता हूँ कि प्रमोद में मनुष्य कठोर सत्य का भी अनुभव नहीं करता, इसीलिए मैंने प्रार्थना नहीं की--अपने अपहृत ब्राह्मस्व के लिए मैंने भिक्षा नहीं माँगी। क्यों? जानता था कि वह मुझे ब्राह्मण होने के कारण न मिलेगी; परन्तु जब राष्ट्र के लिए... [ ७६ ]

राक्षस—चुप रहो। तुम चणक के पुत्र हो न, तुम्हारें पिता भी ऐसे ही हठी थें।

नन्द॰—क्या उसी विद्रोही ब्राह्मण की सन्तान? निकालो इसे अभी यहाँ से!

[प्रतिहारी आगे बढ़ता है; चंद्रगुप्त सामने आकर रोकता है]

चन्द्र०—सम्राट्, मैं प्रार्थना करता हूँ कि गुरुदेव का अपमान न किया जायं। मैं भी उत्तरापथ से आ रहा हूँ। आर्य्य चाणक्य ने जो कुछ कहा हैं, वह साम्राज्य के हित की बात है। उसपर विचार किया जायं।

नन्द॰—कौन? सेनापति मौर्य्य का कुमार चन्द्रगुप्त!

चन्द्र॰—हाँ देव, मैं युद्ध-नीति सीखने के लिए ही तक्षशिला भेजा गया था। मैंने अपनी आँखों गान्धार का उपप्लव देखा है, मुझे गुरुदेव के मत में पूर्ण विश्वास है। यह आगन्तुक आपत्ति पंचनद-प्रदेश तक ही न रह जायगी।

नन्द—अबोध युवक, तो क्या इसीलिए अपमानित होने पर भी मैं पर्वतेश्वर की सहायता करूं? असम्भव है। तुम राजाज्ञाओं में बाधा न देकर शिष्टता सीखो। प्रतिहारी, निकालो इस ब्राह्मण को! यह बड़ा ही कुचक्री मालूम पड़ता है।

चन्द्र॰—राजाधिराज, ऐसा करके आप एक भारी अन्याय करेंगे। और मगध के शुभचिन्तकों को शत्रु बनाएँगे।

राजकुमारी—पिताजी, चन्द्रगुप्त पर ही दया कीजिए! एक बात उसकी भी मान लीजिए।

नन्द—चुप रहो, ऐसे उद्दण्ड को मैं कभी नहीं क्षमा करता और सुनो चन्द्रगुप्त, तुम भी यदि इच्छा हो तो इसी ब्राह्मण के साथ जा सकते हो, अब कभी मगध में मुँह न दिखाना।

[प्रतिहारी दोनों को निकालना चाहता है, चाणक्य रुक कर कहता है]

सावधान नन्द! तुम्हारी धर्मान्धता से प्रेरित राजनीति आँधी की तरह चलेगी, उसमे नन्द-वंश समूल उखड़ेगा। नियति-सुन्दरी के भावों [ ७७ ]में बल पड़ने लगा है। समय आ गया है कि शूद्र राजसिंहासन से हटाये जायँ और सच्चे क्षत्रिय मूर्धाभिषिक्त हो।

नन्द—यह समझकर कि ब्राह्मण अवध्य है, तू मुझे भय दिखलाता है! प्रतिहारी, इसकी शिखा पकड़ कर उसे बाहर करो!

[प्रतिहारी उसकी शिखा पकड़कर घसीटता है, वह निश्शंक और दृढ़ता से कहता है]

खींच ले ब्राह्मण की शिखा! शूद्र के अन्न से पले हुए कुत्ते! खींच ले! परन्तु यह शिखा नन्दकुल की काल-सर्पिणी है, वह तब तक न बन्धन में होगी, जब तक नन्द-कुल निःशेष न होगा।

नन्द—इसे बन्दी करो।

[चाणक्य बन्दी किया जाता है]