सामग्री पर जाएँ

चन्द्रगुप्त मौर्य्य/प्रथम अंक/८

विकिस्रोत से
चन्द्रगुप्त मौर्य्य
जयशंकर प्रसाद

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ ८६ से – ८९ तक

 
 


गांधार-नरेश का प्रकोष्ठ।
[चिन्तायुक्त प्रवेश करते हुए राजा]

राजा—बूढ़ा हो चला, परन्तु मन बूढ़ा न हुआ। बहुत दिनों तक तृष्णा को तृप्त करता रहा, पर तृप्त नहीं होती। आम्भीक तो अभी युवक है, उसके मन में महत्त्वाकांक्षा का होना अनिवार्य है। उसका पय कुटिल है, गंधर्व-नगर की-सी सफलता उसे अपने पीछे दौड़ा रही है।—(विचार कर)—हाँ, ठीक तो नही हैं; पर उन्नति के शिखर पर नाक के सीधे चढने में बड़ी कठिनता है—(ठहरकर)—रोक दूँ। अब से भी अच्छा है, जब वे घुस आवेंगे तब तो गांधार को भी वही कष्ट भोगना पड़ेगा, जो हम दूसरों को देना चाहते हैं।

[अलका के साथ यवन और रक्षकों का प्रवेश]

राजा—बेटी! अलका!

अलका—हाँ महाराज, अलका।

राजा—नहीं, कहो—हाँ पिताजी। अलका, कब तक तुम्हें—सिखाता रहूँ!

अलका—नहीं महाराज!

राजा—फिर महाराज! पागल लड़की। कह, पिताजी!

अलका—वह कैसे महाराज! न्यायाधिकरण पिता-सम्बोधन से पक्षपाती हो जायगा।

राजा—यह क्या?

यवन—महाराज! मुझे नहीं मालूम कि ये राजकुमारी हैं। अन्यथा, मैं इन्हें बन्दी न बनाता।

राजा—सिल्यूकस! तुम्हारा मुख कंधे पर से बोल रहा है। यवन! यह मेरी राजकुमारी अलका है। आ बेटी—(उसकी ओर हाथ बढ़ाता है, वह अलग हट जाती है।)

अलका—नहीं महाराज! पहले न्याय कीजिये।

यवन—उद्भाण्ड पर बँधनेवाले पुल का मानचित्र इन्होंने एक स्त्री से बनवाया हैं, और जब मैं उसे माँगने लगा, तो एक युवक को देकर इन्होंने उसे हटा दिया। मैंने यह समाचार आप तक निवेदन किया और आज्ञा मिली कि वे लोग बन्दी किये जायँ; परन्तु वह युवक निकल गया।

राजा—क्यो बेटी! मानचित्र देखने की इच्छा हुई थी?—(सिल्यूकस से)—तो क्या चिन्ता है, जाने दो। मानचित्र तुम्हारा पुल बँधना रोक नहीं सकता।

अलका—नहीं महाराज! मानचित्र एक विशेष कार्य से बनवाया गया है—वह गांधार की लगी हुई कालिख छुड़ाने के लिए ......।

राजा—सो तो मैं जानता हूँ बेटी! तुम क्या कोई ना समझ हो।

[वेग से आम्भीक का प्रवेश]

आम्भीक—नहीं पिताजी, आपके राज्य में एक भयानक षड्यन्त्र चल रहा है और तक्षशिला का गुरुकुल उसका केन्द्र है। अलका उस रहस्यपूर्ण कुचक्र की कुंजी है।

राजा—क्यों अलका! यह बात सही है?

अलका—सत्य है। महाराज! जिस उन्नति की आशा में आम्भीक ने यह नीच कर्म किया है, उसका पहला फल यह है कि आज मैं वन्दिनी हूँ, सम्भव है कल आप होंगे! और परसो गांधार की जनता बेगार करेगी। उनका मुखिया होगा आपका वंश-उज्ज्वलकारी आम्भीक!

यवन—सन्धि के अनुसार देवपुत्र का साम्राज्य और गांधार मित्र-राज्य हैं, व्यर्थ की बात है।

आम्भीक—सिल्यूकस! तुम विश्राम करो। हम इसको समझकर तुमसे मिलते हैं।

[यवन का प्रस्थान, रक्षको का दूसरी ओर जाना]

राजा—परन्तु आम्भीक! राजकुमारी वन्दिनी बनाई जाय, वह भी मेरे ही सामने। उसके लिए एक यवन दण्ड की व्यवस्था करें, यही तो तुम्हारे उद्योगो का फल है!

अलका—महाराज! मुझे दण्ड दीजिये, कारागार में भेजिये, नहीं तो मैं मुक्त होने पर भी यही करूँगी। कुलपुत्रों के रक्त से आर्यावर्त्त की भूमि सिचेगी! दानवी बनकर जननी जन्म-भूमि अपनी सन्तान को खायगी। महाराज! आर्यावर्त्त के सब बच्चे आम्भीक-जैसे नहीं होंगे। वे इसकी मान-प्रतिष्ठा और रक्षा के लिए तिल-तिल कट जायेंगे। स्मरण रहे, यवनों की विजयवाहिनी के आक्रमण को प्रत्यावर्त्तन बनाने वाले यही भारत-सन्तान होंगे। तब बचे हुए क्षतांग वीर, गांधार को—भारत के द्वार-रक्षक को—विश्वासघाती के नाम से पुकारेंगे और उसमें नाम लिया जायगा मेरे पिता का! आह! उसे सुनने के लिए मुझे जीवित न छोड़िये, दण्ड दीजिये—मृत्युदण्ड!

आम्भीक—इसे उन सबो ने खूब बहकाया हैं। राजनीति के खेल यह क्या जाने? पिताजी, पर्वतेश्वर—उद्दंड पर्वतेश्वर ने जो मेरा अपमान किया है, उसका प्रतिशोध।

राजा—हाँ बेटी! उसने स्पष्ट कह दिया है कि, कायर आम्भीक से मैं अपने लोक-विश्रुत कुल की कुमारी का व्याह न करूँगा। और भी, उसने वितस्ता के इस पार अपनी एक चौकी बना दी है, जो प्राचीन सन्धियों के विरुद्ध है।

अलका—तब महाराज! उस प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए जो लड़कर मर नहीं गया, वह कायर नहीं तो और क्या है?

आम्भीक—चुप रहो अलका!

राजा—तुम दोनो ही ठीक बाते कह रहे हो, फिर मैं क्या करूं?

अलका—तो महाराज! मुझे दण्ड दीजिए, क्योंकि राज्य का उत्तराधिकारी अम्भीक ही उसके शुभाशुभ की कसौटी है, मैं भ्रम में हूँ।

राजा—मैं यह कैसे कहूँ?

अलका—तब मुझे आज्ञा दीजिए, मैं राजमन्दिर छोड़कर चली जाऊँ।

राजा—कहाँ जाओगी और क्या करोगी अलका?

अलका—गांधार में विद्रोह मचाऊँगी!

राजा—नहीं अलका, तुम ऐसा नहीं करोगी।

अलका—करूँगी महाराज, अवश्य करूँगी।

राजा—फिर मैं पागल हो जाऊँगा! मुझे तो विश्वास नहीं होता।

आम्भीक—और तब अलका, मैं अपने हाथो से तुम्हारी हत्या करूँगा।

राजा—नहीं आम्भीक! तुम चुप रहो! सावधान! अलका के शरीर पर जो हाथ उठाना चाहता हो, उसे मैं द्वन्द्व-युद्ध के लिए ललकारता हूँ।

[आम्भीक सिर नीचा कर लेता है]

अलका—तो मैं जाती हूँ पिता जी!

राजा—(अन्यमनस्क भाव से सोचता हुआ)—जाओ।

[अलका चली जाती है]

राजा—आम्भीक!

आम्भीक—पिता जी!

राजा—लौट आओ।

आम्भीक—इस अवस्था में तो लौट आता, परन्तु वे यवन-सैनिक छाती पर खडे़ हैं। पुल बँध चुका है। नहीं तो पहले गांधार का ही नाश होगा।

राजा—अब?—(निश्वास लेकर)—जो होना हो सो हो। पर एक बात आम्भीक! आज से मुझसे कुछ न कहना। जो उचित समझो करो। मैं अलका को खोजने जाता हूँ। गांधार जाने और तुम जानो।

[वेग से प्रस्थान]