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चन्द्रगुप्त मौर्य्य/प्रथम अंक/९

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चन्द्रगुप्त मौर्य्य
जयशंकर प्रसाद

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ ९० से – ९१ तक

 
 


पर्वतेश्वर की राजसभा

पर्वतेश्ववर—आर्य्य चाणक्य! आपकी बातें ठीक-ठीक नहीं समझ में आती।

चाणक्य—कैसे आवेगी, मेरे पास केवल बात ही हैं न, अभी कुछ कर दिखाने में असमर्थ हूँ।

पर्वतेश्वर—परन्तु इस समय मुझे यवनों से युद्ध करना है, मैं अपना एक भी सैनिक मगध नहीं भेज सकता।

चाणक्य—निरुपाय हूँ। लौट जाऊँगा। नहीं तो मगध की लक्षाधिक सेना आगामी यवन-युद्ध में पौरव पर्वतेश्वर की पताके के नीचे युद्ध करती। वही मगध, जिसने सहायता माँगने पर पञ्चनद का तिरस्कार किया था।

पर्वतेश्वर—हाँ, तो इस मगध-विद्रोह का केन्द्र कौन होगा? नन्द के विरुद्ध कौन खड़ा होता है?

चाणक्य—मौर्य्य-सेनानी का पुत्र चन्द्रगुप्त; जो मेरे साथ यहाँ आया है।

पर्वतेश्वर—पिप्पली-कानन के मौर्य्य भी तो वैसे ही वृषल हैं; उनको राज्यसिंहासन दीजियेगा?

चाणक्य—आर्य्य क्रियाओं का लोप हो जाने से इन लोगो को बृषलत्व मिला; वस्तुत ये क्षत्रिय हैं। बौद्धों के प्रभाव में आने से इनके श्रौत-संस्कार छूट गये हैं अवश्य, परन्तु इनके क्षत्रिय होने में कोई सन्देह नहीं। और, महाराज! धर्म्म के नियामक ब्राह्मण हैं, मुझे पात्र देखकर उसका संस्कार करने का अधिकार हैं। ब्राह्मणत्व एक सार्वभौम शाश्वत बुद्धि-वैभव है। वह अपनी रक्षा के लिए, पुष्टि के लिए और सेवा के लिए इतर वर्षों का संघटन कर लेगा। राजन्य-संस्कृति से पूर्ण मनुष्य को मूर्वाभिषिक्त बनाने में दोष ही क्या है?

पर्वतेश्वर—(हँसकर)—यह आपका सुविचार नहीं है ब्राह्मण।

चाणक्य—वशिष्ठ का ब्राह्मणत्व जब पीड़ित हुआ था, तब पल्लव, दरद, काम्बोज आदि क्षत्रिय बने थें। राजन, यह कोई नयी बात नहीं है।

पर्वतेश्वर—वह समर्थ ऋषियों की बात हैं।

चाणक्य—भविष्य इसका विचार करता हैं कि ऋषि किन्हें कहते हैं। क्षत्रियाभिमानी पौरव! तुम इसके निर्णायक नहीं हो सकते।

पर्वतेश्वर—शूद्र-शासित राष्ट्र में रहने वाले ब्राह्मण के मुख से यह बात शोभा नहीं देती।

चाणक्य—तभी तो ब्राह्मण मगध को क्षत्रिय-शासन में ले आना चाहता है। पौरव! जिसके लिए कहा गया हैं, कि क्षत्रिय के शस्त्र धारण करने पर आर्त्तवाणी नहीं सुनाई पड़नी चाहिये, मौर्य्य चन्द्रगुप्त वैसा ही क्षत्रिय प्रमाणित होगा।

पर्वतेश्वर—कल्पना है।

चाणक्य—प्रत्यक्ष होगी। और स्मरण रखना, आसन्न यवन-युद्ध में, शौर्य्य गर्व से तुम पराभूत होगे। यवनों के द्वारा समग्र आर्यावर्त्त पादाक्रान्त होगा। उस समय तुम मुझे स्मरण करोगे।

पर्वतेश्वर—केवल अभिशाप-अस्त्र लेकर ही तो ब्राह्मण लड़ते हैं। मैं इससे नहीं डरता। परन्तु डरानेवाले ब्राह्मण! तुम मेरी सीमा के बाहर हो जाओ!

चाणक्य—(ऊपर देखकर)—रे पददलित ब्राह्मणत्व! देख, शुद्र ने निगड़-बद्ध किया, क्षत्रिय निर्वासित करता है, तब जल—एक बार अपनी ज्वाला से जल! उसकी चिनगारी से तेरे पोषक वैश्य, सेवक शूद्र और रक्षक क्षत्रिय उत्पन्न हो। जाता हूँ पौरव!

[प्रस्थान]