सामग्री पर जाएँ

चोखे चौपदे/पते की बातें

विकिस्रोत से
चोखे चौपदे
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

वाकरगंज, पटना: खड्गविलास प्रेस, पृष्ठ १५९ से – १७३ तक

 


पते की बातें

रुच गई तो रगरलिया किस तरह।
दिल न जो रगीनियों मे था रँगा॥
छिप सकेगी तो लहू की चाट क्यों।
हाथ मे लोहू अगर होवे लगा॥

किस तरह तब निकल सके कीना।
जब कसर ही निकल न पाती है॥
किस लिये बाल-दूब तो न जमी।
जो न पत्थर समान छाती है॥

चैन लेने कभी नही देंगी।
खटमलों से भरी हुई गिलमें॥
क्यों नहीं काढ़ता कसर फिरता।
जब कसर भर गई किसी दिल में॥

क्यों न हम जोड़बन्द वाले हों।
कब सके जोड़ आइना फूटा॥
पड़ गई गॉठ जब जुड़ा तब क्या।
टूट करके जुड़ा न दिल टूटा॥

पेच भर पैच मे कसे गेही।
जॉय दिल दूसरे भले ही हिल॥
जब कि पेचीदगी भरे है तो।
क्या करें पेच पाच वाले दिल॥

चल रहा है चाल बेढंगी अगर।
ऊब माथा किस लिये हैं ठोंकते॥
वह अचानक रुक सकेगा किस तरह।
दिल रुकेगा रोकते ही रोकते॥

है बड़ा बद कपूत कायर वह।
जो बदी बीज रख कपट बोवे॥
चोर क्या चोर का चचा है वह।
चोर दिल में अगर किसी होवे॥

जब दिया बेध ही नही उस ने।
तब कहाँ ठीक ठीक बान लगा॥
तान वह तान हो नहीं जिस को।
लोग सुनने लगे न कान लगा॥

छोड़ दे जो बुरा बुराई ही।
तो उसे कौन फिर बुरा माने॥
तब मिलेगी न कौड़ियो कानी।
जब रहे कान से लगे काने॥

भेद की बातें

है उसी एक की झलक सब में।
हम किसे कान कर खड़ा देखें॥
तो गड़ेगा न आँख में कोई।
हम अगर दीठ को गड़ा देखें॥

एक ही सुर सब सुरों में है रमा।
सोचिये कहिये कहाँ वह दो रहा॥
हर घड़ी हर अवसरों पर हर जगह।
हरिगुनों का गान ही है हो रहा॥

पेड़ का हर एक पत्ता हर घड़ी।
है नहीं न्यारा हरापन पा रहा॥
गुन सको गुन लो सुनो जो सुन सको।
है किसी गुनमान का मुन गा रहा॥

हरिगुनों को ए सुबह हैं गा रही।
सुन हुई वे मस्त कर अठखेलियाँ॥
चहचहाती हैं न चिड़ियाँ चाव से।
लहलहाती है न उलही बेलियाँ॥

छा गया हरएक पत्ते पर समा।
पेड़ सब ने सिर दिया अपना नया॥
खिल उठे सब फूल, चिड़ियाँ गा उठीं।
बह गई कहती हुई हर हर हवा॥

है नदी दिन रात कल कल बह रही।
बाँध धुन भरने सभी हैं मर रहे॥
हर कलेजे में अजब लहरें
हरिगुनों का गान ए हैं कर रहे॥

चाहिये था कि गुन भरे के गुन।
भाव मे ठीक ठीक भर जाते॥
पा सके जो न एक गुन भी तो।
क्या रहे बार बार गुन गाते॥

क्या हुआ मुँह से सदा हरि हरि कहे।
दूसरों का दुख न जब हरते रहे॥
जब दया वाले बने न दया दिखा।
तब दया का गान क्या करते रहे॥

उठ दुई का सका कहां परदा।
भेद जब तक न भेद का जाना॥
एक ही आँख से सदा सब को।
कब नहीं देखता रहा काना॥

तह बतह जो कीच है जमती गई।
कीच से कोई उसे कैसे छिले॥
तब भला किस भाँत अंधापन टले।
जब किसी अंधे को अंधा ही मिले॥

भूल से बच कर भुलावों में फँसी।
काम धंधा छोड़ सतधधी रही॥
सूझ सकता है मगर सूझा नही।
बावली दुनिया न कब अधो रही॥

साँस पाते जब बुराई से नही।
लाभ क्या तब साँस को साँसत किये॥
जब दबाये से नही मन ही दबा।
नाक को तब है दबाते किस लिये॥

उन लयों लहरों सुरों के साथ भर।
रस अछूते प्रेम का जिन से बहे॥
कठ की घंटी बजी जिन की न वे।
कठ में क्या बाँधते ठाकुर रहे॥

रंग में जो प्रेम के डूबे नहीं।
जो न पर-हित की तरगों में बहे॥
किस लिये हरिनाम तो सह सॉसतें।
कंठ भर जल में खड़े जपते रहे॥

मानता जो मन मनाने से रहे।
लौ लगी हरि से रहे जो हर घड़ी॥
तो रहे चाहे कोई कठा पड़ा।
कठ मे चाहे रहे कठी पड़ी॥

जान जब तक सका नही तब तक।
था बना जीव बैल तेली का॥
जब सका जान तब जगत सारा।
हो गया आँवला हथेली का॥

डूबने हम आप जब दुख मे लगे।
सूझ पाया तब गया क्यों दुख दिया॥
जान गहराई गुनाहो की सके।
काम जब गहरी निगाह से लिया॥

आनबान

लोग काना कहें, कहें, बस क्या।
लग किसी की न जायगी गारी॥
चाहिये और की न दो आँखें।
है हमे एक आँख ही प्यारी॥

चाहते है कभी न दो आँखे।
दुख जिन्हे धुंध साथ घेरे हो॥
ठीक, सुथरी, निरोग, उजली हो।
एक ही आँख क्यों न मेरे हो॥

आप ही समझे हमे क्या है पड़ी।
जो कि अपने आप पड़ जायें गले॥
है जहाँ पर बात चलती ही नही।
कौन मुँह ले कर वहाँ कोई चले॥

क्या करेंगे तब अछूती जीम रख।
जब कि ओछी सैकड़ों बातें सही॥
लोग छीछालेदरों में क्यों पड़ें।
छेद मुँह में क्या किसी के है नहीं।

मर मिटेंगे सचाइयों पर हम।
दूसरे नाम के लिये मर लें॥
हम डरेंगे कभी न हँसने से।
लोग हँसते रहें हँसी कर लें॥

क्या अपरतीत के घने बादल।
चाँद परतीत को घुमड़ घेरें॥
देखिये बात है अगर रखना।
भूल कर तो न बात को फेरे॥

रग में मस्त हम रहे अपने।
मुँह निहारें बुरे भले का क्यों॥
किस लिये हम सदा बहार बने।
हार होवें किसी गले का क्यों॥

धूल ऑखों मे न झोंके और की।
धूल मे रस्सी न भूले भी बटे॥
काटना चाहे न औरो का गला।
कट न जाये बात से गरदन कटे॥

जो कमाई कर मिले धन है वही।
आँख पर-मुख देखनेवाली सिले॥
मांगने को क्यों पसारे हाथ हम।
क्यों हमें हीरा न मूठी भर मिले॥

जान कढ़ जाय, है अगर कढ़ती।
दाँत-कढ़ने कभी नहीं पाये॥
मॉगने के लिये न मुँह फैले।
मरमिटे पर न हाथ फैलाये॥

सांसतें हम सहे न क्यों सब दिन।
मुँह किसी का नहीं निहारेगे॥
पाँव अपना पसार दुख लेवे।
हाथ हम तो नही पसारेगे॥

बॉह के बल को समझ को बूझ को।
दूसरों ने तो बँटाया है नही॥
धन किसी का देख काटें होठ क्यों।
हाथ तो हम ने कटाया है नही॥

कौड़ियों पर किस लिये हम दांत दे।
है हमारा भाग तो फूटा नही॥
क्या हुआ जो कुछ हमे टोटा हुआ।
है, हमारा हाथ तो टूटा नही॥

देख कर मुँह और का जीना पड़े।
और सब हो पर कभी ऐसा न हो॥
वह बनेगा तीन कौड़ो का न क्यों।
जिस किसी के हाथ मे पैसा न हो॥

हो न पावे मलीन मुँह मेरा।
रह सके या न रह सके लाली॥
तन रहे तक न जाँय तन बिन हम।
धन न हो पर न हाथ हो खाली॥

जो नही मूठी भरी तो क्या हुआ।
जो मरे धन के लिये वह बेल है॥
किस लिये हम मन भला मैला कर।
धन हमारे हाथ का ही मैल है॥

है किसी काम का न लाख टका।
रख सके जो न ध्यान चित पट का॥
क्यों न बन जाँयगे टके के हम।
दिल टका पर अगर रहा अटका॥

चाहिये मान पर उसे मरना।
क्यों उसे मोहने लगे पैसे॥
जाय लट वह अगर गया है लट।
जो हमारा उलट गया कैसे॥

क्यों न होवे बेलि अलबेली बड़ी।
क्यों न सुन्दर फूल से होवे सजी॥
हम सराहे तो सराहे क्यों उसे।
क्यों उसे चाहे अगर चाहे न जी॥

प्यार के पहलू

है उन्हें चाव ही न झगड़ों का।
पॉव जो प्यार-पथ में डालें॥
वे रखेंगे न काम रगड़ों से।
नाक ही क्यों न हम रगड़वा लें॥

सब सहेंगे हम, सहें कुछ भी न वे।
जाँयगे हम सूख उन के मुँह सुखे॥
जाय दुख तो जी हमारा जाय दुख।
देखिये उन की न नँह उँगली दुखे॥

दूसरों को किस लिये है दे रहे।
वे दिलासा खोल दिल दे ले हमें॥
लोकहित की लालसाओं से लुभा।
ले सके तो हाथ में ले लें हमे॥

श्राप के है, है सहारा आप का।
क्यों बुरे फल आप के चलते चखें॥
दे न देखें दूसरो के हाथ मे।
रख सके तो हाथ में अपने रखे॥

किस लिये पीछे उसी के हैं पड़े।
आप के ही हाथ में है जो पड़ा॥
क्या बँधाना हाथ उस का चाहिये।
सामने जो हाथ बाँधे है खड़ा॥

साथ कठिनाइयां सकल झलकी।
खुल गये भेद तब मिले दिल के॥
हित-बही पर चले सही करने।
जब हिले हाथ दो हिले दिल के॥

टूटता है पहाड़ पग छोड़े।
बल नही घट सका घटाने से॥
क्या करे बेतरह गया है नट।
हाथ हटता नही हटाने से॥

तब हुई साध, दोस्ती की क्या।
जब न जी ठीक ठीक सध पाया॥
तब बॅधी प्रीति गांठ बांधे क्या।
जब गले से गला न बॅध पाया॥

आप के है, रहे कही पर हम।
क्या हुआ रह सके न पास खड़े॥
याद दिल में बनी रहे मेरी।
दूर दिल से करें न दूर पड़े॥

निवेदन

हम सदा फूले फले देखें सुदिन।
पर उतारा जाय कोई सर नहीं॥
हो कलेजा तर रहे तर आँख भी।
पर लहू से हाथ होवे तर नहीं॥

रगरलियां हमें मनाना है।
रग जम जाय क्यों न जलवों से॥
है ललक लाल लाल रगत की।
ऑख मल जाय क्यों न तलवों से॥