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जायसी ग्रंथावली/पदमावत/१८. पदमावती वियोग खंड

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जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ ६३ से – ६५ तक

 

 

(१८) पदमावती-वियोग-खंड

पदमावति तेहि जोग सँजोगा। परी पेम वस गहें वियोगा॥
नींद न परे रैनि जौं आवा। सेज केंवाच जानू कोइ लावा॥
दहै चंद औ चंदन चोरू। दगध करें तन बिरह गँभोरू॥
कलप समान रैनि तेहि वाढ़ी। तिल तिल भर जुग जुग जिमि गाढ़ी॥
गहै बीत मकु रैनि विहाई। ससि बाहन तह रहै ओनाई॥
पुनि धनि सिंघ उरेहे लागे। ऐसिहि विथा रैनि सब जागे॥
कहूँ वह भौंर कर्वेंल रस लेवा॥ आइ परै होइ घिरनि परेवा॥

से धनि बिरह पतंग भइ, जरा चहै तेहि दीप।
कंत न माव भरिंग होइ, का चंदन तन लीप?॥१॥

परी बिरह बन ज़ानहूँ घेरी। अगम असुझ जहाँ लगि हेरी॥
चतुर दिसा चितवै जनु भूली। सों बन कहँ जहँ मालति फूली?॥
कँवल भौंर ओहो बन पावे। को मिलाइ तन तपनि बुझावै?॥
अंग अंग अस कँवल सरीरा। हिय भा पियर कहै पर पीरा॥
चहै दरस, रबि कीन्ह बिगासू। भौंर दीठि मनो लागि अकासू॥
पूंछै धाय, बारि! कहु बाता। तुईं जस कँवल फूल रँग राता॥
केसर बरन हिया भा तोरा। मानहूँ मनहिं भएउ किछु मोरा॥

पौन न पावै संचर, भौर न तहाँ बईठ।
भूलि कुरंगिनि कस भई, जानू सिंघ तुईं डीठ॥२॥

धाय! सिघ बरु खातेउ मारी। की तसि रहति अही जसि बारी॥
जोबन सुनेउँ की नवल बसंतू। तेहि बन परेउ हस्ति मैमंतू॥


 

(१) तेहि जोग सँजोगा = राजा के उस योग के संयोग या प्रभाव से। केंवाच = कपिकच्छु जिसके छू जाने से बदन में खुजली होती है। गहै बीन ओनाई = बीन लेकर बैठती है कि कदाचित्‌ इसी से रात बीते, पर उस बीन के सुर पर मोहित होकर चंद्रमा का वाहन मृग ठहर जाता है जिससे रात और बड़ी हो जाती है। सिंध उरेहे लागै = सिंह का चित्र बनाने लगती है जिससे चंद्रमा का मुग डरकर भागे। घिरिनि परेवा = गिरहबाज कबूतर। धनि = धन्या, स्त्री। कंत न आव भिरिंग होइ = पति रूप भृंग आकर जब मुझे अपने रंग में मिला लेगा तभी जलने से बच सकती हूँ। लोप = लेप करतो हो। (२) हिय भा पियर = कमल के भीतर का छत्ता पीले रंग का होता है। पर पीरा = दूसरे का दुःख या वियोग। भौंर दीठिमनो लागि अकासू = कमल पर जैसे भौरे होते हैं वैसे हो कमल सी पद्मावती की काली पुतलियाँ उस सूर्य का विकास देखने को आकाश की ओर लगी हैं। भोरा = भ्रम।

अब जोबन बारी को राखा। कुंजर विरह बिधंसै साखा॥
मैं जानेउँ जोबन रस भोगू। जोबन कठिन सँताप बियोगू॥
जोबन गरुअ अपेल पहारू। सहि न जाइ जोवन कर भारू॥
जोबन अस मैमंत न कोई। नवैं हस्ति जौं आँकुस होई॥
जोबन भर भादौं जस गंगा। लहरैं देइ, समाइ न अंगा॥

परिउँ अथाह, धाय! हौं जोवन उदधि गँभीर।
तेहि चितवौं चारिहु दिसि जो गहि लावै तीर॥३॥

पदमावति! तुइँ समुद सयानी। तोहि सर समुद न पूजै रानी॥
नदी समाहिं समुद महँ आई। समुद डोलि कहु कहाँ समाई॥
अबहीं कवँल करी हिय तोरा। आइहि भौंर जो तो कहूँ जोरा॥
जोबन तुरी हाथ गहि लीजिय। जहाँ जाइ तहँ जाइ न दीजिय॥
जोबन जोर मात गज अहै। गहहु ज्ञान आँकुस जिमि रहै॥
अबहिं बारि तुइँ पेम न खेला। का जानसि कस होइ दुहेला॥
गगन दीठि करू नाइ तराहीं। सुरुज देखु कर आवै नाहीं॥

जब लगि पीउ मिलै नहिं, साधु पेम के पीर।
जैसे सीप सेवाति कहँ, तपै समुद मँझ नीर॥४॥

दहै, धाय! के जोबन एहि जीऊ। जानहुँ परा अगिनि महँ घीऊ॥
करवत सहौं होत दुइ आधा। सहिन जाइ जोबन के दाधा॥
बिरह समुद्र भरा असँभारा। भौंर मेलि जिउ लहरिन्ह मारा॥
विहग नाग होइ सिर चढ़ि डसा। होइ अगिनि चंदन महूँ बसा॥
जोवन पंखी, बिरह बियाधू। केहरि भयउ कुरंगिनि खाधू॥
कनक पानि कित जोबन कीन्हा। औटन कठिन बिरह ओहि दीन्हा॥
जोबन जलहि बिरह मसि छूआ। फूलहिं भौंर, फरहिं भा सूआ॥

जोबन चाँद उआ जस, बिरह भएउ सँग राहु।
घटतहि घटत छीन भइ, कहै न पारौं काहु॥५॥


(३) मैमंत = मदमत्त। अपेल = न ठेलने योग्य। (४) समुद - समुद्र सी, गंभीर। तुरी = घोड़ी। मात = माता हुआ, मतवाला। गगन दीठि तराहीं = पहले कह आए हैं कि 'भौंर दीठि मनो लागि अकासू'। (५) दाधा = दाह, जलन। होइ अगिनि चंदन महँ बसा = वियोगियों को चंदन से भी ताप होना प्रसिद्ध है। कैहरि भएउ खाधू = जैसे हिरनी के लिये सिंह, वैसे ही यौवन के लिये विरह हुआ। औटन = पानी का गरम करके खौलाया जाना। मसि = कालिमा। फूलहि भौंर' सुआ = जैसे फूल को बिगाड़ने वाला भौंरा और फल को नष्ट करनेवाला तोता हुआ वैसे ही यौवन को नष्ट करनेवाला बिरह हुआ।

नैन ज्यों चक्र फिरै चहुँ ओरा। वरजै धाय, समाहिं न कोरा॥
कहेसि पेम जौं उपना, बारी। बाँधु सत्त, मन डोल न भारी॥
जेहि जिउ महँ होइ सत्त पहारू। पर पहार बाँकै वारू॥
सती जो जरै पेम सत लागी। जौं सत हिये तौ सीतल आगी॥
जोबन चाँद जो चौदस करा। बिरह के चिनगी सो पुनि जरा॥
पौन बाँध सो जोगी जती। काम बाँध सो कामिनि सती॥
आव बसंत फूल फुलवारी। देववार सब जैहें वारीं॥

तुम्ह पुनि जाहु बसंत लेइ, पूजि मनावहु देव।
जीउ पाइ जग जनम है, पीउ पाइ कै सेव॥६॥

जब लगि अवधि आइ नियराई। दिन जुग जुग विरहिनि कहँ जाई॥
भूख नींद निसि दिन गै दोऊ। हियै मारि जस कलपै कोऊ॥
रावँ रोबेँ जनु लागहि चाँटे। सूत सूत वेधहिं जन काँटे॥
दगधि कराह जरे जस घीऊ। वेगि न आव मलयगिरि पीऊ॥
कौन देव कहँ जाइ के परसौं। जेहि सुमेरु हिय लाइय कर सौं॥
गुपुति जो फूलि साँस परगठे। अब होइ सुभर दहहि हम्ह घटै॥
भा सँजोग जो रे भा जरना। भोगहि भए भोगि का करना॥

जोबन चंचल ढीठ है, करे निकाजै काज।
धनि कुलवंति जो कुल धरै, कै जोबन मन लाज॥७॥


 

(६) कोरा = कोर, कोना। पहारू = पाहरू, रक्षक। (७) परसों = स्पर्श करूँ, पूजन करूँ(?)। जेहि कर सौं = जिससे उस सुमेर को हाथ स हृदय में लगाऊं। होइ सुभर = अधिक भरकर, उमड़कर। घटै = हमारे शरीर को।

निकाजै = निकम्मा ही। जोबत = यौवनावस्था में।