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जायसी ग्रंथावली/पदमावत/१९. पदमावती सुआ भेंट खंड

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जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ ६६ से – ६९ तक

 

 

(१९) पदमावती-सुआ-भेंट-खंड

तेहि बियोग हीरामन आवा। पदमावति जानहुँ जिउ पावा॥
कंठ लाइ सूआ सौं रोई। अधिक मोह जौं मिलै बिछोई॥
आगि उठे दुख हिये गँभीरू। नैनहिं आइ चुवा होइ नीरू॥
रही रोइ जब पदमिनि रानी। हँसि पूछहिं सब सखी सयानी॥
मिले रहस भा चाहिय दूना। कित रोइय जौं मिल बिछूना?॥
तेहि क उतर पदमावति कहा। बिछुरन दुख जो हिये भरि रहा॥
मिलत हिये आएउ सुख भरा। वह दुःख नैन नीर होइ ढरा॥

बिछुरंता जब भेंट, सो जाने जेहि नेह।
सुक्ख सुहेला उग्गवै, दुःख भरै जिमि मेह॥१॥

पुनि रानी हँसि कूसल पूछा। कित गवनेहु पींजर कै छूँछा॥
रानी! तुम्ह जुग जुग सुख पाटू। छाज न पंखिहि पींजर ठाटू॥
जब भा पंख कहाँ थिर रहना। चाहै उड़ा पंखि जा डहना॥
पींजर महँ जो परेवा घेरा। आइ मजारि कीन्ह तहँ फेरा॥
दिन एक आइ हाथ पै मेला। तेहि डर वनोबास कहूँ खेला।
तहाँ वियाध आइ नर साधा। छूटि न पाव मीचु कर बाँधा॥
वे धरि देचा बाम्हन हाथा। जंबू दीप गएउ तेहि साथा॥

तहाँ चित्र चितउरगढ़ चित्रसेन कर राज।
टीका दीन्ह पुत्न कहूँ, आपु लीन्ह सर साज॥२॥

बैठ जो राजा पिता के ठाऊँ। राजा रतनसेन ओहि नाऊँ॥
बरनतु काह देस मनियारा। जहँ अस नग उपना उजियारा॥
धनि माता औं पिता बखाना। जेहिके बंस अंस अस आना॥
लछन बतीसौ कुल निरमला। बरनि न जाइ रूप औ कला॥
वैहौं लीन्‍न्ह, अहा अस भागू। चाहै सोने मिला सोहागू॥
वैसो नग देखि हींछा भह मोरी। है यह रतन पदारथ जोरी॥


 

(१) बिछोई = बिछुड़ा हुआ। रहस = आनंद। बिछूना = बिछुड़ा हुआ। सुहेला = सुहैल या अगस्त तारा। भरँ = छँट जाता है, दूर हो जाता है। मेह = मेघ, बादल। (२) छाज न = नहीं अच्छा लगता। पींजर ठाटू = पिजरे का ढांचा। दिन एक मेला = किसी दिन अवश्य हाथ डालेगी। नर = नरसल, जिसमें लासा लगाकर बहेलिए चिड़िया फँसाते हैं। चित्र = विचित्र। सर साज लीन्ह = चिता पर चढ़ा; मर गया। (३) मनियारा = रौनक, सोहावना। अंस = अवतार।

सो नग देखि हींछा भइ मोरी। है यह रतन पदार्थ जोरी॥
है ससि जोग इहै पै भानू। तहाँ तुम्हार मैं कीन्ह बखानू॥

कहाँ रतन रतनागर, कंचन कहाँ सुमेर।
दैव जो जोरी दुहुँ लिखी, मिलै सो कौनहु फेर॥३॥

सुनत विरह चिनगी ओहि परी। रतन पाव जौं कंचन करी॥
कठित पेम विरहा दुख भारी। राज छाँड़ि भा जोगि भिखारी।
मालति लागि भौंर जस होई। होइ वाउर निसरा बुधि खोई॥
कहेसि पतंग होइ धनि लेऊँ। सिंघलदीप जाइ जिउ देऊँ॥
पुनि ओहि कोउ न छाँड़ अकेला। सोरह सहस कुंवर भए चेला॥
और गने को संग सहाई?। महादेव मढ़ मेला जाई॥
सूरज पुरुष दरस के ताईं। चितवै चंद चकोर के नाई॥

तुम्ह बारी रस जोंग जेहि, कँवलहि जस अरधानि।
तस सूरुज परगास कै, भौंर मिलाएउँ आनि॥४॥

हीरामन जो कही यह वाता। सुनिकै रतन पदारथ राता॥
जस सूरुज देखे होइ ओपा। तस भा बिरह कामदल कोपा॥
सुनि के जोगी केर बखानू। पदमावत मन भा अभिमानू॥
कंचन करी न काँचहि लोभा। जौं मग होइ पाव तव सोभा॥
कंचन जौं कसिए कै ताता। तब जानिय दहुँ पीत कि राता॥
नग कर मरम सो जड़िया जाना। उड़े जो अस नग देखि बखाता॥
को अब हाथ सिंघ मुख घालै। को यह बात पिता सौं चाले॥

सरग इंद्र डरि काँप, बासुकि डरै पतार।
कहाँ सो असबर प्रिथिमी, मोहि जोग संसार॥

तू रानी ससि कंचन करा। वह नग रतन सुर तिरमरा॥
विरह बजागि बीच का कोई। आगि जो छूवे जाई जरि सोई॥
आगि बुझाइ परे जल गाढ़े। वह न बुझाइ आपु हो वाढ़ै॥
बिरह के आगि सूर जरि काँपा। रातिहि दिवस जरै ओहि तापा॥
खिनहिं सरग, खिन जाइ पतारा। थिर न रहै एहि आगि अपारा॥
धनि सो जीउ दगध इमि सहै। अकसर जरे, न दूसर कहै॥
सुलगि सुलगि भीतर होइ सावाँ। परगट होइ न कहै दुख नावां॥


रतनागर = र॒त्नाकर, समुद्र। चिनगी = चिनगारी। कंचन करी = स्वर्णकलिका। लागि = लिये, निमित्त। मेलार = पहुँचा। दरस के ताईं = दर्शन के लिये। (५) राता = अनुरक्त हुआ। ओप = दमक। ताता = गरम। पोत कि राता = पीला कि लाल, पीला सोना मध्यम और लाल चोखा माना जाता हैं। (६) करा = कला, किरन। बजागि = वज्राग्नि। अकसर = अकेला। सावाँ = श्याम, साँवला।

काह कहौं हों ओहि सौं जेइ दुख कीन्ह निमेट।
तेहि दिन आगि करै वह (बाहर) जेहि दिन होइ सो भेंट॥६॥

सुनि कै धनि ‘जारी अस कथा’। मन भी मयन, हिये भै मया॥
देखौं जाइ जरै कस भानू। कंचन जरे अ्रधिक होइ बानू॥
अब जौं मरै वह पेम बियोगी। हत्या मोहिं, जेहि कारन जोगी॥
सुनि कै रतन पदारथ राता। हीरामन सौं कह यह बाता॥
जौ वह जोग सँभारे छाला। पाइहि भुगुति, देहँ जयमाला॥
आय बसंत कुसल जौं पावौं। पूजा मिस मंडप कहँ आवौं॥
गुरू के वैन फूल हौं गाँथे। देखौं नैन, चढ़ावौं माथे॥

कवँल भवर तुम्ह बरना, मैं माना पुनि सोइ।
चाँद सूर कहँ चाहिए, जौं रे सूर वह होइ॥७॥

हीरामन जो सुना रस बाता। पावा पान भएउ मुख राता॥
चला सुआ, रानी तव कहा। भा जो परावा कैसे रहा॥
जो निति चलै संवारे पाँखा। आजु जो रहा, काल्हि को राखा॥
न जनौं आजु कहाँ दहुँ ऊआ। आएहु मिलै, चलेह मिलि, सूआ॥
मिलि कै विछुरि मरन कै आना। किस आएहु जौं चलेहु निदाना॥
सुनू रानी हौं रहतेऊँ राँधा। कैसे रहौं बचन कर बाँधा॥
ताकरि दिस्टि ऐसि तुम्ह सेवा। जैसे कुंज मन रहै परेवा॥

बसै मीन जल धरती, अंबा बसे अकास।
जौ पिरीत पै दुवौ महँ अंत होहिं एक पास॥८॥

आवा सुआ बैठ जहँ जोगी। मारग नैन, बियोग बियोगी॥
आइ पेम रस कहा संँदेसा। गोरख मिला, मिला उपदेसा॥
तुम्ह कहँ गुरू मया बहु कीन्हा। कीन्ह अदेस, आदि कहि दीन्हा॥
सबद, एक उन्ह कहा अकेला। गुरु जस भिंग, फनिग जस चेला॥


काह कहाँ हों...निमेट = सूआ रानी से पूछता है कि मैं उस राजा के पास जाकर क्या संदेसा (उत्तर) कहूँ जिसने इतना न मिटनेवाला दुःख उठाया है। (७) बानू = वर्ण, रंगत। छाला = मृगचर्म पर। फूल हौं गाँथे = तुम्हारे (गुरु के) कहने से उसके लिये प्रेम की माला मैंने गूँथ ली। (८) पावा पान = विदा होने का बीड़ा पाया। चलै = चलने के लिये। राँधा = पास, समीप। ताकरि = रतनसेन की। तुम्ह सेवा = तुम्हारी सेवा में। अंबा = आम का फल। बसै मीन...पास = जब मछली पकाई जाती है तबं आम की खटाई पड़ जाती हैं; इस प्रकार आम और मछली का संयोग हो जाता है। जिस प्रकार आम और मछली दोनों का प्रेम एक जल के साथ होने से दोनों में प्रेम संबंध होता है उसी प्रकार मेरा और रतनसेन दोनों का प्रेम तुम पर है इससे जब दोनों विवाह के द्वारा एक साथ हो जायँगे तब मैं भी वहीं रहूँगा। मारग = मार्ग में (लगे हुए)॥ आदि = प्रेम का मूल मंत्र।

भिंगी ओहि पांखि प लेई। एकहि बार छीनि जिउ देई॥
ताकहँ गुरू करै असि माया। नव औतार देइ, नव काया॥
होइ अमर जो मरि के जीया। भौंर कवँल मिल कै मधु पीया॥

आवै ऋतु बसंत जब तब मधुकर तव बासु।
जोगी जोग जो इमि करै सिद्धि समापत तासु॥९॥


 

(६) फनिंग = फनगा, फतिंगा। समापत = पूर्ण।