जायसी ग्रंथावली/पदमावत/२७. पद्मावती रत्‍नसेन भेंट खंड

विकिस्रोत से

[ १११ ](२७) पदमावती रत्नसेन भेंट खंड सात खड ऊपर कबिलासू । तहवाँ नारिसेज सुखबासू ॥ चारि खंभ चारिह दि िखरे। हीरा रतन पदारथ जरे । मानिक दिया जरावा मोतो । होइ उजियार रहा तेहि जोती ॥ ऊपर राता चंदवा छावा । औौ भुईं सुरंग बिछाव बिछावा ॥ तेहि महें पालक सेज सो डासी। कीन्ह बिछावन फूलन्ह बासी ॥ चहु ऑों गलसूई । कॉची ॥ दिस

िगेंडुवा ने पाट भरो "धुनि रूई

बिधि सो सेज रची केहि जोगू । को तहें पौढ़ि मान रस भोगू ? ॥ अति सुकुवाँरि सेज सो डासी, जुवै न पारे कोइ । देखत नवें खिनहैिं Tखन, पाव धरत कसि हाइ ॥ १ ॥ राजे तपत सेज जो पाई। गठि छोरि धनि सखिन्ह छपाई ॥ कहैं कुंवर ! हमरे मस चारू । नाज कुंवरि कर करब सिगारू ॥ हरदि उतारि चढ़ाउव रंगू। तब निसि चाँद सुरुज सओं संगू ॥ जस चातक मुख मूंद सेवाती। राजा चख जोहत तेहि भाँती ॥ जोगि छरा जन ठगे साथा। जोग हाथ कर भएछ बेहाथा। वै चातुरि कर लै अपसई मत्र अमोल छीति लेइ गई ॥ बैंच खोइ जरी श्री बूटी। लाभ न पाव, मूरि भइ टूटी ॥ खाइ रहा ठगला, तंत मंत वधि खोइ । भा बनखंडना सि नाव, न रोइ ॥ २ ॥ धौराहर प्रस तप करत गइड दिन भारी। चारि पहर बीते जुग चारा ॥ सभपुनि सखी सो ऑाई। चाँद रहा, उपनी जो तराई ॥ पूंछह ‘ रू कहां, रे चेला !। बिन ससि रे कस पर अकेला ? ॥ धातु कमाय सिखे त जोगी। अब कस भा निरधात बियोगी ? ॥ (१) पालक पलंग

। डासीबिछाई । तेंडुआा = तकिया। गलसूई[सम्पादन]

गाल के नीचे रखने का छोटा तकिया । काँची=गोटा पट्टा । पौढ़ि = लेटकर। सुकुवांरि = कोमल । (२) तपत : तप करते हुए । चारू = चाररीति, चाल । हरदि उतार = व्याह के लग्न में शरीर में जो हल्दी लगती है उसे छुड़ाकर। = । छरा = ठगा गया, खोया। कर == हाथ से । टटि रग गराग भइघाटा हुई । ठगलाड़ =विष या नशा मिला हश्रा लडड जिसे हुआा, हानि पथिकों को खिलाकर ठग लोग बेहोश करते थे । (३) चाँद रहा. .तराई पद्मिनी तो रह गईकेवल उसकी सखियाँ ही दिखाई पड़ी। निरधातु = निस्सर १८ [ ११२ ]११२ कहाँ सो खोएल बिरवा लोना । जेहि होइ रूप औ सोना ॥ का हरतार पार नहि पावा। गंधक काहे कुरकुटा खावा ॥ कहाँ छपाए चाँद हमारा ? । जेहि बिनु रैन जगत चैंधियारा॥ नैन कौड़िया, हिय समुदगुरु सो तेहि मुँह जोति । मन मजिया न होइ पैरे, हाथ न आावे मोति ॥ ३ ॥ का पूछहु तुम धातुनिछोहो !। जो गुरु कोन्ह Jतरपट ओोही॥ सिधि टिका अब मो सँग कहा। भएड , सत हिये न रहा । सो न रूप जासों, मु ख खोलीं । गएड भरोस तहाँ का बोलीं । जहें लोना बिरवा के जाती। कहि के फंदेस आान को पाती ? ॥ के जो पार हरतार करो । गंधक देखि अबह जिज दी । तुम्ह जोरा मयंकू कसूर । पुनि बिछोहि ॥ सा लान्ह कलकू जो एहि घरी मिलावे मोह । सौस देगें बलिहारी ओोह ॥ होइ अबरक ईगुर भया, फेरि गिनि महें दीन्ह । काया पीतर होइ कनक, जी तुम चाहहु कीन्ह ॥ ४ ॥ का बसाइ जी गुरु प्रस बूझा। चकाबू ह अभिमनु ज्यों जूझा विष जो दीन्ह अमृत देखराई। तेहि निछोही को पतियाई ? ॥ मर सोइ जो होइ निगूना। पीर न जाने बिरह बिहूना पार न पाव जो गंधक पीया। सो हत्यार' कहौ किम जया । सिद्धि गुटीका जा पहें नाहीं । कौन धातु पूछहु तेहि पाहीं। अब तेहि बाज रॉग भा डोल। होइ सार तो घर के अबरक के पुनि ईगुर कोन्हा । सो तन फेरि अगिनि महें दीन्हा मिलि जो पीतम बिटुरहि काया अगिनि जरा को तेहि मिले तन तप बु, को अब मुए बुझा ॥ ५ ॥ सुनि के बात सखी सब हँसी। जनहें रैनि तरई परगसीं अब सो चाँद गगन महें छपा। लालच के कित पाबसि तपा ? हमनें न जाहि दह सो कहाँ । करव खोज श्री बिनउव तहां । ऑौ मस कब आाहि परदेसी। करहि मया, हत्या जनि लेसी ॥ डत बिरवा लोना (क) अमलोनी नाम की घास जिसे रसायनी धातु सिद्ध करने के (ख) काम में लाते हैं । (ख) सुंदर वल्ली, पद्मावती । रूप = (क) रूपा । चाँदी। कौड़िया = कौड़िल्ला मछलो पकडने के लिये ऊपर पक्षी जो पानी के (8) निख्होsनिष्ठुर। जो श्रोही = जो उस गुरू (पद्मावती ) को तुमने छिया दिपा है । । रॉग रेंगा। जोरा की = (क) एक बार जोड़ी मिलाकर 2 (तोले भर रॉगे औौर तोले भर चाँदी का दो तोले चाँदी बनाना ख) रसायनियों की बोली में जोड़ा करना कहलाता है। (५) का बसाइ = क्या वश चल सकता है ? बाज = बिना। बर = बल । (६) तपा - तपस्वो। जतिन लेसी = न ले । १. पाठांतर--हरतार । [ ११३ ]पदमावती रत्लसेन भेंट खंड ११३ पीर तुम्हारि सुनत भा छोटू । दैठ मना, होइ आस मोद न जोगौ फिर तपि करु जोगू । तो कहूँ कौन राज सुख भोगू ॥ वह रानी जहाँ सुख राजू । बारह प्रभरन करे सो सायूं जोगी दिढ़ आासन कर, अहांथर धरि मन ठाव । जो न सुना तौ अब सुनहि, बारह प्रभरन नावें प्रथमै मज्जन होइ सीरू। पुनि पहि तन चंदन चोरू ॥ साजि माँगि सिर सेंदुर सारें । पुनि लिलाट रचि तिलक संवार । पुनि नन्ह करै । नौ कडल कानन्ह महें पहरे ।। अंजन दुहु पुनि नासिक भल फूल अमोला। पुनि राता मुख खाइ तमोला। गिउ प्रभरन पहिगे जहूँ ताईं। ऑ पहि कर कंगन कलाई ॥ कटि द्रावलि भरन पूरा । पायन्ह पाहर पायल चूरा । बारह प्रभरन हैं बखाने । ते पहिरे बरही अस्थाने ॥ पुनि सोरहौ सिगार ज स, चारितु चौक कुलीन दौरव चारि, चारि लघ , चार सुभर चौ खीन ॥ ७ । पदमावति जो सँवा लोन्हा। पूनिई गति देउ ससि कीन्हा करि मज्जन तन कोन्ह नहानू । पहिरे चीर, गएछ छपि भानू । रचि पत्रावलि, माँग सरू। भरे मोति नौ मानिक रू ॥ चंदन चोर पहिर बव भाँती। मेघघटा बगपाँती चूंथि जो रतन माँग बैसारा। जानतें गगन टूटि निसि तारा। तिलक लिलाट धरा तस दोठा। जनदुइज पर सुहल बईठा ॥ कानन्ह कुंडल छंट औौ टी। जानहें "परी कचपची टूटी ॥ पहिरि जराऊ ठाहि , कहि न जाइ तस भाव । मानतें दरपन गगन भा, तेहि ससि तार देखाव ॥ ८ । देउ मनाउ ..मोहन ईश्वर को मना कि उसे (पद्मावती को) भी वैसी ही दया हो जैसी हम लोगों को तुझपर जा रही है । २. ग्रथों में जो बारह प्राभरण गिनाए गए हैं वे ये हैं --पुर, किकिणो, वलय, अंगूठो, कंकरण के अंगद, हार, कठभी, बेसरऊंट या बिरिया, टोका, सोसफल ग्राभरणों के चांर भेद कहे गए हैं--आावेयबंधनोयक्षेप्य, (जैसे कड़ा, अंगूठी) और आरोप्य ( से, हार)ाँ जायसी ने सोलह शृंगार गौर बारह नाभरण को बातें लेकर एक में गड़बड़ कर दिया है । (७) फूल =नाक में पहनने की लौंग । छुद्रावलि =क्षुद्घटिका, करधनी । च रा =कड़ा 1 चौक = चार चार का समूह । कुलोन = उत्तम । सुभर = शुत्र । (८) सँवारैशृंगार को । पत्रावली—=पत्नभंग रचना । दुइज = दूज का चंद्रमा। सुहल = सुहेल (अगत्स्य) तारा जो दूज के चंद्रमा के साथ दिखाई पड़ता है और आरवी फारसी काव्य में प्रसिद्ध है । धूट = कान का एक चक्राकार गहना । मानतें दरपन..देखाव=मानो आकाश रूपी दर्पण में जो चंद्रमा और तारे दिखाई पड़ते हैं वे इसी पद्मावती के प्रतिबिंब हैं । । [ ११४ ]११४ बाँक नैन ओ अंजन रेखा । खंजन मनहें सरद ऋतु देखा । जस जस हेर, फेर चख मोरी। लगे सरदभड़ें खंजन जोरी । भौहैं धनुक धनुक पे हारा । नैनन्ह साधि बान विष मारा । करनफूल कानन्ह अति सोभा । ससिमुख माइ सूर ज लोभा । सुरंग "अधर श्री मिला तमोरा । सोहै पान फुल कर जोरा . कुसुमगंधअति सुरंग कपोला। तेहि पर अलक अंगिनि डोला ॥ तिल कपोल अलि कौंल बईटा । बेधा सोइ जेइ वह तिल दीठा ॥ देखि सिगार अनूप बिधि, बिरह चला तब भागि । काल कस्ट इमि ग्रोनवा, सब मोरे जिउ लागि ॥ & ॥ का बरनौ भरन औौ हारा । ससि पहिरे नखतन्ह मारा ॥ चीर चारु श्री चंदन चोला। हीर हार नग लाल अमोला । तेहि झाँपी रोमावलि कारी । नागिनि रूप डरे हत्यारी ॥ कुच कंचुकी सिरीफल उमे । हुलसहि चहहि कंत हिय चुभ ॥ बार्सेन्ह बहुँटा टांड़ सलोनी। डोलत बातें भाव गति लोनी ॥ तरवन्ह कर्बल की जनु वाँधी । वसा लंक जान` दुड़ ग्राधी ॥ छद्रघंट तागा। उठहि तीस रागा कटि कचन चलत चूरा पायल अनवट, पार्यान्ह परहि बियोग । हिये लाइ टुक हम कहें, समदह मानभोग ॥ १० ॥ श्र स बारह सोरह धनि सार्जे । छाज न शौर; मोहि पै छाजे बिनर्वाहि सखी गहरु का की । जेहि जिउ दीन्ह ताहि जिउ दीज ॥ सेंवरि सेज धनि मन भइ संका। ठाढ़ि तेवानि कि कर लंका ॥ अनचिन्ह पिछकापों मन माहाँ । का मैं कहब गहब जी बाहाँ । बारि बैस गइ प्रीति न जानी। तरुनि भई मैमंत भुलानी | जोबन गरब न मैं कि चेता। नेह न जान सादें कि सेता ॥ अब सो कंत जो पूछियह बाता। कस मख होइहि पीत कि राता ।॥ हीं बारी श्री दुलहिनि, पीउ तरुन सह तेज । ना जानों कस होइहि, चढ़त कंत के सेज ॥ ११ ॥ (६) खंजन..देखा = पद्मावती का मुख चंद्र शरद के पूर्ण चंद्र के समान होकर शरद ऋतु का ग्राभास देता है। हेर = ताकती है। धनुक = इंद्रधनुष । ओोनवा = का, पड़ा ! काल कस्ट..लागि = विरह कहता है कि यह कालकष्ट आा पड़ा सब मेरे ही जी के लिये । (१०) मारा = माला। झाँपी ढाँक दिया । उभ = उठे हए । बहंट औौर टांड़ = बाँह पर पहनने के गहने । पायल = पैर का एक गहना । अनवट अँगूठे का एक गहना । समद = मिलोनालिंगन करो । (११) गहर देरबिलंब । सँवरी = स्मरण करके । तैवानि = सोच या चिंता में पड़ गई । अपरिचित। सव=श्याम । पूछिह पूछेगा [ ११५ ]पदमावती रनसेन भेंट खंड ११. सुनु धनि ! डर हिरदय तब ताई। जौ लगि रहसि मिलै नह साईं । कौन कली जो भौंर न राई। डार न टूट पुहु गरुआई ॥ मातु पिता जो बियाहै सोई। जनम निबाह कंत सँग होई ॥ भरि जीवन रातें जद चहा। जाइ न मेंटा ताकर कहा। ताकतें बिलंब न कीजू बारा । जो पिउ आायसु सोइ पियारी ॥ चलहु बेगि घायलु भा जैसे । कंत बोलावे रहिए कैसे ॥ मान न करसि, पोढ़ करु लाड । मान करत रिस माने चाड़ ।। जन लइ पठात्रा, आायसु जाइ न मेट । तन मन जोबन, साजि के देइ चली लेड फ्रेट 1 १२ । पदमिनि गवन हंस गए दूरी । कुंजर लाज मेल सिर धूरी ॥ बदन देखि घट चंद पाना। दसन देखि के बी लजाना । खंजन छपे देखि के नैना। कोकिल छपी सुनत मधु बैना ॥ गीव देख़ि है छया मयरू। लंक देखि के छपा सदुरू । भौहन्ह धनुक छपा शाका।। बेनी बासुकि ख्पा पतारा । खड़ग छपा नासिका बिसेखी। मुमत छपा अधर रस देखो । हुचहि पी कर्बल पौनारी॥ । जंघ छपा कदली होइ बारी आंछरी रूप छपानी, जबहेिं चली वनि साजि । जावत गहली, सवे छपीं मन रागि 1 १३ मिलीं गोहने सखी तराई । लेइ चाँद सूरज पह आई । ॥ पारस रूप चाँद देखराई। देखत सूरज गा मुराई। सोरह कला दिटि ससि कीन्ही। सहसौ कला सुरुज के लोन्ही ॥ भा रवि अस्ततराई लैस। सूर न रहा, चाँद परगसो । जोगी ग्राहि न भोगो होई । खे।इ कुरकुटा गा पे पदमावति जसि निरमल गंगा। त जो कत जोगी भिखमंगा। आइ जगावह ‘चेला जागे। घावा गुरूपाय उठि लागे'। बोलति सबद सहेली, कान लागि, गहि माथ । गोरख नाइ ठाढ़ भा, उठ रे चेला नाथ ! ॥ १४ । (१२) अनुरक्त राई = हई । डार न ट..गरुनाई = कौन फूल अपने बोझ से से कर गिरा। पोढ़ = । लाडू = प्रेम। ही डाल न पुष्ट लाड़, प्यार, चाड गहो साजन

चाहवाला। = पति । (१३) मेल = डालता है । सशुरु[सम्पादन]

शालसि; । पहुँचा कलाई । पौतारी = पद्मनाल । खड़ग छछा = तलवार गरब छिपी (म्यान में) । वारो होइ = बगोत्र में जाकर। गहलो = गर्व धार करनेवालो। (१४) गोहने के साथ में । कुरकुटा = अन्न का टुकड़ा; मोटा रूखा ग्रन्न । पे = निश्चयवाचक, ही । नाथ = जोगो (गोरखपंथी साधु नाथ कहलाते हैं) । [ ११६ ]११६ सुनि यह सबद अमिय अस लागा । निद्रा टूटि, सो अस जागा।" गेंही बाँह धनि सेजवाँ आानी अंचल नोट रही छपि रानी ॥ सर्वे ड मनहि मन बारी। गह न बाँह, रे जोगि भिखारी ? ॥ ऑोहट होसि, जोगि ! तोरि चेरी। श्रावै बास कुरकुटा केरी ॥ देखि भभूति यूति मोहि लागे। काँपे चाँद, सूर भागे स I। जोगि तोरि तपसी के काया। लागि चहै मोरे अंग छाया । बार भिखारि न माँगसि भीखा। माँगे ग्राइ सरग पर सीखा ॥ जोगि भिखारी कोई, दिर न पठ पार । माँगि लेहु किए भिच्छा, जाइ ठाढ़ होइ बार 1 १५ ॥ मैं तुम कार, प्रेम पियारी। राज छड़ के भयेजभिखारी ॥ नेह तुम्हार जो हिये समाना। चितउर सी निसरेऊँ होई माता ॥ जस मालति कन्हें भर वियोगी । चढ़ा वि योग, चले’ होइ जोगी । भर खोज जस पावे केवा। तुम्ह मैं पर ॥ कारन जिउ छेवा भएड भिखारि नारि तुम्ह लागी। दीप पौंग होइ अँगएजें आागी । एक बार मरि मिले जो प्राई । दूसरि बार मेरे कित जाई ।। कित तेहि मीड जो मरि के जीया ? । भा सो अमरअमृत मधु पीया । भर जो पावै कंवल , बह । चारति, बह ग्रास । भौंर होइ नेवछावरि, कंवल देइ हेंसि बास ॥ १६ अपने मुंह न बड़ाई छाजा। जोगी कत, होहि नहि राजा. । हीं रान, तू जोगि भिखारी। जोगिहि भोगिहि कौन चिन्हारी ? | जोगी सबै द ग्रस खेला। तू भिखारि तेहि माहि अकेला ॥ पौन बाँधि अपसवह अकासा। मनसहि जाहि ताहि के पासा ॥ एही भाँति सिस्टि सब छरी। एही भेख रावन सिय हरी ॥ भरहि मीच नियर जब ग्रावा। चंपा बास लेइ कहें धावा ॥ दीपक जोति देखि उजियारी। माइ पाँखि होइ परा भिखारी । रैन जो देख चंदमुखससि तन होइ अलोष । तह जोगी तस भला, करि राजा कर प्रोप ॥ १७ । अनु, धनि तू निसिनर निसि माहाँ । ही दिनिप्रर जेहि के के तू छाहां । १. पाठांतर-—गोरख सबद सिद्ध भा राजा। राजा सनि रावन होइ गाजा । (१५) बार = द्वार। पैठे पार = घुसने पाता है। । (१६) होइ माना अन्य अर्थात् योगी होकर। केवा । फेंका, = कमल छेवा = डाला (सं० क्षेपर), या खेला। अँगएॐ = अँगेजा, शरीर पर सहा । (१७) चिन्हारी = जान पहचान । छंद = कपट, धूर्तता। तेहि माहि अकेला एक ही = उनमें धत है । पसवहि = जाते हैं । मनसहि मन ध्यान कामना करते हैं = में या । (१८) निसिर = निशाकर, चंद्रमा अनु = (श्रव्य ०) फिरआगे । [ ११७ ]पदमावती रत्नसे न भट खड १-१७ चाँदहि कहाँ -जोति औ श्री करा । सुरुज के जोति चाँद निरमरा । भौंर बास चंपा नहि लेई। मालति जहाँ तहाँ जिज देई । तुम्ह ढंत भएर्ड पौंग कै करा । सिंघलदीप याइ उड़ि परा ॥ सेएऊँ महादेव कर बारू। तजा अन्न, भा पवन अहारू ॥ आस में प्रीति गाँकि हि जोरी। कटे न काटे, है न छोरी ।। सी भीख रावनहि दीन्हीं । तू असि निडर नृतरपट कीन्हीं रंग तुम्हारेहि रातेडुचढेरों गगन होइ सूर । जहें ससि सीतल त, तप, मन हींछा, धनि ! ए 1 १८ ॥ जोगि भिखारि! करसि बह बाता। कहसि रंग, देखो नहि राता कापर रंगे रंग नहि होई। उप औौटि रंग भल सोई ॥ चाँद के रंग सुरु जस राता। देखे जगत साँझ , परभाता ॥ दगधि विरह निति होई गारा। श्रोही । अाँच धि संसारा जो मजीठ औौटे बह ग्राँचा। सो रंग जनम न डोलै रॉचा ॥ जरें बिरह जस दीपक बाती। भीतर , उपर हो । जरराता । जरि पास तब होइ कोइल मंसू। फूले राता होइ टेस ॥ पानसुपारीखैर जिमि मेरइ करे चकचून । ती लग रंग न रॉचे जौ लगि होई न चुन ॥ १६ । का धनि ! पान रंग, का चूना। जेहि तन नेह दाध तेहि दूना हीं तुम्ह नेह पियर भा पीन। पेड़ी हंत सोनरास बखानू । सुान तुम्हार संसार बड़ौना। जोग लीन्ह, तन कीन्ह गड़ोना ॥ करह जो किंगरी लेइ बैरागी। नौती होइ बिरह के आागा । फेरि फेरि तन कीन्ह भुजौना । ऑौटि रक्त रंग हिरदय औौना ॥ सूचि सोपारी भा मारा सिह मन सरौता करवत सारा । हाड़ खून भा, । सोइ जो दाध इमि संहा । बिरहंहि दहाजानै सोई जान वह पीराजेहि दुख ऐस सीर रकत पियासा होइ जो, का जाने पर पीर ? ॥ २० ॥ करा = लुत= कला। तुम्ह तुम्हारे लिये । पतंग के करा = पतंग के रूप का । बारू= द्वार । (१९) देखें..जगत पराभात = संध्या सबेरे जो ललाई दिखाई पड़ती है । धि मजीठ = साहित्य में पक्के राग या प्रेम को मंजिष्ठ हैंनहीं राग कहते । जनम न डोले = जन्म भर दूर होता। चकचून को = चूर्ण करें। चून = चना पत्थर या कंकड़ जलाकर बनाया जाता है। । (२०) पेड़ीख़्त = पेड़ी ही से, जो पान डाल या पेड़ों में ही पुराना होता है उसे भी पेड़ी ही कहते हैं। सोनरास = पका हुआ सफेद या पीला पान। बड़ोना (क) (ख) एक का पान । गड़ौना = एक प्रकार बड़ाई । जाति का पान जो जमीन में गाड़कर पकाया जाता है । नौती = नूतन, ताजी । भुजौना कीन्ह = भूना। श्रीना = आाता है, आा सकता है । [ ११८ ]११८ । जोगिन्ह बहुत छंद न आराहीं । गेंद सेवती जैस पराहीं ॥ परहि भूमि पर होइ कचूरू । परंहि कदलि पर होइ कपूरू । परहि समुद्र खार जल श्रोहो। परंहि सीप तौ मोती होहीं । परहि मेरु पर मृत होई। परहि नागमुख विष होइ सोई ॥ जोगी भौंर निर ए दो। के हि प्रापन भए ? कहै जौ कोछ एक ठाँव ए थिर न रहाहीं। रस लेइ खेलि घनत कह जाहीं ॥ हो गृही पुनि होइ उदासी। अंत काल दूबौ बिसवासी ॥ तेहि सीं नेह को दिढ़ करै ? रहह न एक देस । जोगो, भौर, भिखारीइन्ह सों दूर देस ॥ २१ ॥ थल थल नग न न होहि जेहि जोती। जल जल सीप उपनहि मोती। बन बन बिरिछ न चंदन होई। तन तन बिरह न उपनै सोई ॥ जेहि उपना सो औौटि मरि गयऊ। जनम निनार न कबहूँ भएऊ जल अंबुजरवि रहे नकासा। जी’ इन्ह प्रीति जानु एक पासा जोगी भर जो थिर न रहाहों । जेहि खोजह तेहि पावह नाहीं मैं तोहि पायतें प्रापन जोऊ। डि सेवाति न मानहि पीऊ । भौंर मालती मिले जौ आाई। सो तजि मान फल कित जाई ? ॥ चंपा प्रीति न भरहदिन दिन नागरि बास । भर जो पावे मालती, मुएल न डे पास ॥ २२ । ऐसे राजकुंवर नहीं मानीं। खेल सारि पाँसा तब जानों ॥ काँचे बारह परा जो पाँसा। पाके पैत परी तन् रासा ॥' है न थाठ अठारह भाखा। सोरह सतरह रहें त राखा । सत जो धरे सो खेलनहारा। ढारि इगारह जाइ न मारा ॥ त " लीन्हे आासि मन दूवा । प्रो जुग सारि चहसि पुनि छूवा। लौं नव नेह रचीं तोहि पाहाँ । दसवें दावं तोरे हि माहा । तो चौपर खेल करि हिया। जौ तरहल होइ सौतिया ॥ जेहि मिलि बिठुरन औौ तपनि, अंत होइ जौ नित । तेहि मिलि गंजन को सहै ? बरु बिनु मिले निचित ।२३ (२१) प्रोराही = चुकते हैं । छंद == छल, चाल । = हलदा तरह का एक पौधा । दूरि देस = दूर हो से प्रणाम ? (२२) न मानहि कचूर की पीछ= दूसरा जल नहीं पोता। नागरि = अधिक। (२३) सारी = गोटी। पंत == दांव । रास = ठीक । सत = (क) सात का दावें । (ख) सत्य । इगारह = (क) दस इंद्रिया और मन । (ख) ग्यारह का दाँव । दूवा। दबधा। (ख) दो। जग सारी (क) दो गोटियाँ, (ख) कुच । सदखें दाँव (क) दसवाँ दाँव। (ख) अंत तक तिया, एक दाँव। (खसपत्नी पड़ा हुया । सौतिया = (क) ) । गजन =नाश, दुःख । । १. पाठांतर-काँटें बारह बार फिरासी। पाँके पौ फिर थिर न रहासी ॥ [ ११९ ]पदमावती रत्नसेन भेंट खंड ११६ ।। बोलीं रानि ! वचन सुन साँचा। पुरुष क बोल सपथ अ बाधा ॥ यह मन लाए तोहि अर्स, नारी दिन तुइ पासा औौ निसि सारी ॥ पौ परि बारहि बार मनाएगें। सिर स खेलि पैत जिउ लाएछ ॥ अब चौक पंज ते बाँची । तुम्हू बिच गोट न आवहि कची । पाकि उठाए* ग्रास करीता। हौं जिउ तोहि हारा, तुम जोता ॥ मिलि के जग नहिं होह निनारी। कहाँ बोच दूती देनिहारी अब जिउ जनम जनम तोहि पासा। चढ़ई जोगग्राएड़े कबिलासा । ॥ जाकर जीव बसे जेहि, तेहि पुनि ताकर टेक कनक सोहाग न बिखू, श्रीटि मिले होइ एक ।२४। विहंसी धनि सुनि । क सत बातानिचय तु मार रग राता ।। निचय भर कंवल ‘रस रसा। जो हि मन सों मन ॥ तेहि वसा जब हीरामन भए स देसी। तुम्ह हुत हैंडप गइ, परदेसी तोर रूप तस देखेगें लोना। जन, जोगी ! तू मे लेसि टोना ॥ रूप बैसाई सिधि टिका जो दिस्टि कमाई। पारंहि मेलि भुगुति देइ कहें मैं तोहि दोठा। कंवल नैन होइ भौंर बईठा ॥ नैन “, न पुहुप, तू अलि भा सभी। रहा बेधि अतउड़ा लोभो । जाकर आास होइ जेहि, तेहि पुनि ताकरि प्रासं। भर जो दाधा डैवल कहें, कस न पाव सो बास ? ।।२५। कौन मोहन दतें हुति तोहो। जो तोहि विथा सो उपनो मोही। बिन जल मोन तफ जस जीऊ। चातकि भइडें कहत पिड पी ॥ जरि विरह जस दीपक बातो। पंथ जोहत भइ सोप सेवातो ॥ डाढ़ि डाढ़ि जिमि कोइल भई। भइकें चकोरि, नींद निसि गई ॥ तोरे पेम ’ पेम मो. 'भए। राता हेम अगिनि जिनि तएक । रवि परगासे केंवल बिगासा। नाहि त कित मधुकरकित बासा। तास कौन Jतरपट, जो अस पीतम पीड । नेवछावरि तन, मन , जोउ ।। ग्रब सागें जोवन।२६ (२४) बाचा प्रतिज्ञा पैत ने । लाएड == दाँव पर लगाया। चौक पंज (क) चोका पंजा ) कपट। दाँव। (खछल , छका पंजातुम्ह बिचौंकाँचो= कच्ची गोटी तुम्हारे बच नहीं पड़ सकतो । पाकि - पक्की गोटो । जुग निनारा होना=(क) चौसर में जुग फूटना । (ख) जोड़ा अलग होता। कहाँ बाच दोहरी = मध्यस्थ होनेवालो इतो को कहाँ आवश्यकता रह जाती है । (२५) संदेसो=संदेसा ले जानेवाला ' तुम्ह हृत = तुम्हारे लिये । रू = (क) रूपा, चाँदी । (ख) स्वरूप । वैसाई = बैठाया, जमाया। कंवल नैन“बईठा । मेरे नेत्रकमल में तू भौंरा (पुतली के समान) होकर बैठ गया। केवल । कहकमल के लिये । [ १२० ]१२ हंसि पदमावति मानी बाता । निहचय तू मोरे ढंग राता ॥ तू राजा दुहूँ कुल उजियारा। मस के चरिचिड़ें मरम तुम्हारा ।॥ पै। जंबूदीप बसेरा। किमि जानेसि कस सिंघल मोरा ? ॥ किमि जानेसि स मानसर केवा। सुनि सो भर भा, जिउ पर छेवा ॥ ना तुड़ सुनी, न कबहूँ दीठी । कैंस चित्न होइ चितदि पईडी ? ॥ जौ लहि अगिनि करें नहि भेदू। तौ लहि औौटि चुने नहि मेदू कहें संकर तोहि ऐस लखावा ? । मिला अलख अस पेम चखावा ॥ जेहि कर सत्य सँघाती तेहि कर डर सोह मेट । सो सत कह कै से भा, दुवी भाँति जो भेंट ।।२७। सत्य कहीं सुनु पदमावती। जहें सत पुरुष तहाँ सुरसती ॥ पाएई सुवा, कही वह बाता । भा निहचय देखत मुख राता ॥ रूप तुर हार सुनेई अस नीका। ना जेहि चढ़ा काहू कहें टीका ॥ चित्र किएछे पुनि लेइ लेइ नाऊँ। नैनहि लागि हि6 भा ठाऊँ हों भा साँच सुनत श्रोहि घड़ी । तुम होइ रूप माइ चित ची ॥ हाँ भा मूति मन हाथ तुम्हारे। काठ मारे। चहै जो कर सब । तुम्ह जी डो लाइटु तबहीं डोला। मौन साँस जौ दीन्ह तो बोला ।। क, जागे ? अस हाँ । सोवै, को गएऊँ विमोति परगट गुपुत न दूसरजहें देख तहूँ तोहि I२८। बिहँसी धनि सुनि के भाऊ रामा तू रावन राऊ । क सत । हां रहा जो भर कंवल के आासा। कस न भोग माने रस बासा ? जस सत कहा कुंवर ! तू मोही। तस मन मोर लाग पुनि तोही ।। जब हृत कहि गा पंखि संदेसी। सनिऊँ कि मावा है परदेसी ।। तब त तुम बिनु रहै न जीऊ। चातकि भइडे कहत पिउ पीऊ॥ भइकें चकोरि सो पंथि निहारी। सम् द सीप जस नैन पसारी ॥ भइ6 विरह दहि कोइल कारी। डार डार जिमि कूकि पुकारी . कौन सो दिन जब पिउ मिले, यह मन राता तासु । वह दुख देखे मोर सबहीं दुख देखीं तासु ।।२९। कहि सत भाव भई कठलाग। जन कंचन नौ मिला सोहागू ।। चौरासी आासन पर जोगी। खट रस, बंधक चतुर सी भागा। (२७) चरचिॐ = मैंने भाँपा (स्त्री० क्रिया) । बसेरा=निवासी । केवा = कमल। छेवा = डाला या खेला। (नैनहि लागि = अाँखों 1 = कसत्य । २८) से लेकर साँच () स्वरूप (ख) सच्चा । = (क) । रूप रूप (ख) चाँदी। (२६) रावन = (क) रमण करनेवाला। (ख) रावण । जब हृत = जब से । सुनिॐ = (मैंने) सुना (स्त्री० क्रिया) । तब कुंत=तब से । (३०) चौरासी आासन = योग के और कामशास्त्र के। बंधक = कामशास्त्र के बंध। [ १२१ ]पद्मावती रत्नसेन भेंट खंड १२१ कुसुम माल असि मालति पाई। जनु चंपा गहि डार औोनाई ॥ कली बेधि जनु भंवर भुलाना। हना राहु अरजुन के बाना ॥ कंचन करी जी नग जोती। बरमा सौ वधा जनु मोती । नारंग जानि कीर नख दिए। अधर आमरस जानते लिए । कौतुक केलि करहि दख नंसा। 8दहि कुरलहि जन सर हंसा ॥ रही बसाइ वासना, चोवा चंदन के मेद । हि अस पदमिनि रानी, सो ज यह भेद 1३०। रतनसेन सो कंत पंडित ।। सुजान । खटरस सोरह वान तस होइ पुरुष औ गोरी। विड्रो मिले जैसो सारस बोरी । रची ‘सारि दूनी एक पासा। होइ जुग जु श्रावह कबिलासा पिय धनि गही, दीन्हि गलबाहीं। धनि विी लागी उर माहीं ॥ ते छकि रस नव केलि करेहीं । चोका लाई अधर रस लेहीं । ? । धनि नौ सात, सात सौ पूरुष दस ते रह किमि वांचा पाचा । । लीन्ह विधाँसि विरह धनि साजा 1 औी सब रचन जीत हुत राजा ॥ जन, गौटि क मिलि गए, तस दूनी भए एक । कंचन कसत- कसौटी, हाथ न कोऊ टेक ।।३१। । चतुर नादि चित अधिक चिरंटी। जहाँ प्रेम बाढ़ किमी लूटी। मनहारी । कुरला हि कुलहि पाव होइ कंत कर तोख 1 करलहि किए धनि मोख ॥ गोद क, जानह लई। गेंद चाहि धनि कोमल भई ॥ दारिछेदाख, बेल रस चाखा । पिय के खेल धनि जीवन राखा ॥ भएड बसंत कली मुख खोली। वैन सोहावन कोकिल बोली ॥ पिउ धनि चातक पिउ करत जो सखि रहि, की भाँति । परी सो गेंद सीप ज, मोती होइ सुख साँति ॥ भएड जूझ जस "रावन रामा। सेज बिधौंसि विरह संग्रामा ॥ लीन्हि लंक, कंचन गढ़ टूटा। कीन्ह सिंगार अहा सब लूटा। औौनाई = झकाईराह । औौजार । = रोह मछली । बरमा = छेद करने का है। नंसा कहि -= नष्ट करते हैं। फंदह = कूदते हैं । कुरलहि = हंस नादि के बोलने को कुरलना कहते हैं । सारि = चौपड (३१) बानू = वर्णदीप्ति, कला। गोरी = स्त्री। चोका य लाइसात चूसने की क्रिया या भाव । चोका = चूसकर । नौ = सोलह श्रृंगार । सात - बारह आभरण-बाँचा = वे ऑो पाँचा : । पुरुष' शृंगार और आभरण पुरुष की दस उंगलियों से कैसे बचे रह सकते हैं । (३२) चिटीटचमी तृप्ति। मोबू = कुरला क्रीड़ा । मनुहारी = शांति, मोक्ष, छुटकारा । चाहि=अपेक्षा, बनिस्बत [ १२२ ]१२२ । न जोबन मैमंत बिधाँसा । बिचला बिरह जीउ जो नासा ॥ टूटे अंग , सब भेसा। टी माँग, भंग भए केसा ॥ आग कंचुकि चूरचूर भइ तानी। टूटे हार, मोति दुहरानी ॥ बारीटाँण सलोनी टटी। बातें कंगन कलाई फूटी ॥ चंदन ग्रंग छूट अस भंटी। वेसरि ट टि, तिलक गा मेटी ॥ पुहुप सिंगार सँवार सव, जोबन नवल बसंत । अरगज जिमि हिय लाइ , मरगज कीन्हेउ कंत 1३३। बिनय करै पदमावति बाला। सुधि न, सुराही पिएट पियाला । पिउ प्रायस माथे पर लेजें। जो माँगे नइ नइ सिर देऊँ ॥ प, पिय 4 वचन एक सुन मोरा। चाख, पिया ! मध थोड़े थोरा ॥ पेम सुरा सोई ‘पिया। लखें न बोइ कि कह दिया । चुवा दाख मधु जो एक बारा। दूसरि बार लेत बेसँभारा ॥ एक जो रहा। । बार पी के सुख जीवन, सुख भोजन लहा पान फूल रस रंग करी । धर अधर स चाखा कीज जो तुम चाहो सो करोंना जान भल मंद । जो भावै सो होइ मोहि, तुम्हपिउ ! चहौं अनंद ।।३४। सू, धनि ! पेम सुरा के पिए। मरन जियन डर रहै न हिए जेहि मद तेहि कहाँ संसारा। को घमि रह, की मतवारा । सो क सो मै जान पिये जो कोई । पी न अघाई, जाइ परि सोई ॥ जा कहें बार एक लाहा। न मोहि । हाड़ रहै बिन, ग्राही चाहा अरथ दरव सो देइ बहाई । की सब जाहन जाड़ पियाई ॥ रातिह दिवस रहे रस भीजा। लाभ न देखन देखें छीजा ॥ भोर होत तब पल ह सीरू। खुमारी सीतल पाव नीरू। एक बार भरि देह पियाला, बार बार को माँग : । म हमद किमि न पुकारे, ऐसे दाँव जो खाँग ? ।।३५। भा बिहान उठा रवि साईं। चहें दिसि आाई नखत तराई ॥ सव निसि सेज मिला ससि सूरू । हार चीर बलया भए चूरू ॥ सो धनि पान, चू न भइ चोली। रेंग रेंगोलि निरंग भइ भोली ॥ । (३३) विधॉसि = विध्वंस को गई, बिगड़ गई । जोउ जो नासा = जिसने जीव को दशा बिगाड़ रखो थी। तानोनीवंद । बारी-बालियाँ। अरगज = अरगजा नामक सुगंध द्रव्य जाता है । = जिसका लेप किया मरगज मला दला हा। (३४) नई = नवाकर। (३५) जाइ परि सोई पड़कर सो जाता है। । छीजा = क्षति , हानि । पढह = पनपता है । । () खाँग = कमो हुई ३६ रवि = सूर्य और रत्नसेन । साई = स्वामो। नखत तराई = सखियाँ । बलया स्ट चड़ी । "पान = पके पान सी सफेद या पीलो । चून = चूर्ण । निरंग विवर्णबदरंग । [ १२३ ]पद्मावती रत्नसेन भेंट खंड १२ : जागत रान भए भिनसारा। भई अलस सोवत बेकरारा ॥ अलक सुरंगिनि हिरदय परी। नागेंग छुव नागिनि बिष भरी ॥ लरी मुरी हिय हार लपेटी। सुरसरि जतु कालिदी भंटी जन पयाग अरइल बिच मिली । सोभित ावली ॥ नाभी ला पुन्नि है. देवता कह कलप सिरआपुहि दोष न लाव ३६। बिहंसि जगावह सखी सयानी। सूर उठा, उद्य , पदमिनि रानी। सुनत सूर ज, कंवल बिगासा। मधुकर आाइ लीन्ह मधु बासा ॥ जनतें माति निसयानी वसी। अति वेसँमार फूलि ज रसी । नैन कॉल जानसँ दुइ फूले । चितवनि मोहि मिरिग जनु भूल ॥ तन न सेंमार केस ऑो चोलो । चित अचेत जन बाउरि भोलो । भइ ससि हीन गहन अस गही। बिधुरे नखततेज भरि रही । कंवल माँह जनु केसरि दीठी । जोबन हुत सो केवाइ बईठी ॥ बेलि जो राखी इंद्र कहूँ, पवन बास नहि दीन्ह । लागेउ प्राइ भर तेहि, कलो बेधि रस लोन्ह 1३७। हंसि सखी सरेखी। मानद् सि पूर्ताि कुमुद चंद्र मुख देखी । रानी तुम ऐसी सुकुमारा फूल ! । बास तन जोव तुम्हारा । सहि नह सकह हिये पर हारू। कैसे सहिड कंत कर भारू ? मुख अंज बिगले दिन राती। सो भिलान कहह केहि भाती ? अंधर कंवल जो सहा न पानू । सहा लाग मुख भानू ? लंक जो पै ग देत मुरि जाई। कंसे रही जो रावन राई भा जोऊ ? चंदन चोव पवन अस पीऊ। भइउ सम चित्व कस सब अरगज मरगज भयडलोचन बिब सरोज । ‘सत्य कहलु पद्मावति' सखी परी सब खोज 1३८। कहींसखी मापन सतभाऊ । हों जो कहति कस रावन राऊ ।। कपिो भौंर पर । मोहि पुडुप देखे जनु ससि गहन तैस लेखे । आालस से मालस्पयुक्त । व = छूती है । लरी मुरी = बाल की काली लर्ट मोतियों के हार से लिपटेंकर लीं। नाभी लाभुलाब = नाभि पुष्य लाभ करके काशोकुंड कहलाती है इसी से देवता लोग उसपर सिर काटकर मरते हैं पर उसे दोष नहीं लगता। (सुनत सूरमधु बासा कमल ३७) = खिला अथतु नेत्र ख ले गौर भौंरे मध और सुगंध लेने बैठे अर्थात् काली पुतलियाँ दिखाई पड़ीं । निसयानी = सुध बुध खोए हुए। विधुरे नखत = ग्राभूषण इधर उधर बिखरे हैं । (३८) सखी = सयानी, चतुर । फूल बास तु फूल शरीर गौर बास जीव । रावन - (क) रमण करनेवाला।(ख) रावण । पर्टी = पीछे पड़ीं। (३६) मोह लेखे = मेरे हिसाब से, मेरी समझ में । ज" [ १२४ ]१२४ पदमावत चालू मरम में जाना सोई। जस पियार पिउ ऑौर न कोई ॥ डर तो लगि हिय मिला न पोऊ। भानु के दिस्टि यूटि गा सीऊ ॥ जत खन भानु कोन्ह परगासू । कंवल कली मन कोन्ह बिगास ॥ हिये छोह उपना ऑौ सोऊ। पिउ न रिसाउ लेड बरु जोऊ ॥ हत जो पार बिरह दुख दुखा । जनm गस्त उदय जल सूखा ॥ हीं रेंग बहुईं मानति, लहरें जैस समुंद। पे पि चतुराईखसेउ न एक द । करि सिंगार तापतें का जाऊँ। श्रोहो देखतें ठाँवहि टाँ । जो जिड सँह तो उहै पियारा । तन मन सीं नहि होइ निनारा ॥ नन माह उह समाना। देखौ नाहि थाना तहा काउ । ग्रापन रस चापुहि पै लेई । अधर सोइ लागे रस देई ॥ हिया थार कुच कंचन लाडू । अगमन भेंट दीन्ह के चाँड़ ॥ हुलसी लंक लंक सीं लसी। रावन रहसि कसौटी कसी ॥ जोबन सवें मिला नोहि जाई । हों रे बोच त गइकें हेराई ॥ जस कि देइ धरे कहूँआपन लेइ सँभारि। रहसि गारि तस लोन्हेसि, कीन्हेसि मोहि ठ्ठारि ।४० अनु रे लचीली ! तोहि वि लागी। नैन गुलाल खेत सेंग जागी । चंप सुदरसन स भा सोई। सोजरद जस केसर होई ।। बैठ भौंर कुच नारंग बारी । लागे नखउछरों रंग धारी ॥ अधर मधर सों भी तमोरा। लकाउर मुरि मुरि गा तोरा । रायमुनी तुम औ रतमुही। लिमुख लागि भई फुलहीं ॥ जैस सिगार हार सौं मिलो। मालर्तित ऐति सदा रहु किलो ॥ मुनि सिंगार करु कला नवारो। कदम सेवती बैड पियारी ॥ कुंद कलो सम विगसो, ऋतु वसंत श्र श्री फाग । फूलहु फरहु सदा सुख, ऑो सुख सुफल सोहाग ।४१ ]॥ कहि यह बात सखी सब धाई। पावति पद जाइ सुनाई । नाजु निग पदमावति बारी । जीवन जान, पवन प्रधारी ॥ दूखा = नष्ट हुया । ख से उ=गरा । (४०) चाँड , = चाह । जस कि देश धरे कहें = जैसे कोई वस्तु धरोहर रखे श्रौर फिर उसे सहेजकर ले ले । टठfर = खुख । (४१) चंप मु दरसनहोई = तेरा वह अंदर चंपा का सा रंग जर्द चमेली सा पीला हो गया है । उरी = पड़ी हुई दिखाई पड़ीं । धारी = रेखा । तमोरा = ताल । अलकाउर=अलकावलि । तोरा = तेरा । फुलसुंधनो रायमुनी = नाम एक छोटी की छटी सुंदर चिड़िया चिड़िया । । रतमुहीं संगरहार =लाल (कमुँहवाली ) सिंगार । फूलचूहीं कैो अस्त : व्यस्त करनेवाला, नायक। (ख) परजाता ल । (४१) कला = नकलबाजी बहाना (अवधो)। नेवारो= (क) दूर कर।"(ख) एक फूल। कदम सेवती = (क) चरणों को सेवा करती हुई। (ख) कदंब और सेवती लैं। (मुद्रा अलंकार)। [ १२५ ]पदमावती रत्नसेन भट खड १२५ तरकि तरकि गड चंदन चोली। धरकि धकि हिय उठं न बोली ॥ अही जो कली फेवल रसपूरी । चूर चूर होइ गईं सो चूरी ॥ देखहु जाइ जैसि कुंभिलानी। सुनि सोहाग रानी बिहँसानी ॥ सेइ सेंग सबही पदमिन नारी। आई जहें पदमावति बारी श्राइ रूप सो सबही देखा। सोनबरन होइ रही सो रेखा कुसुम फूल जस मरदनिरंग देख सब अंग चंपावति" भइ वारी, चूम केस ऑ मंग ।।४३ सब रनिवास बैठ चहें पासा। सैसि मंडल ज, बैठ अकाता ॥ बोलीं सबै ‘बारि कुंॉभिलानी करहु सँभार, देहु धूड़वानी ॥ कंवल कलो कोमल रंग भीनी । अति सूकुमारी, लंक के छीनी। चाँद जैस धनि हत परगासा। सहस करा होइ सूर बिगासा ॥ तेहिके झार गहन अस गहो। भई निरंगमुख जौति न रही। दब बारि किए पुन्नि करेढूं। औौ तेहि लेइ संन्यासिहि देहू । जोतौ भरि के थार कीन्ह चंद ) नखत गजमोती : वारा के ।। कीन्ह घरगजा मरदन; औी सखि कीन्ह नहानु । पुनि भइ चौदस चाँद सो, रूप गएड छपि भानु l४३। पुनि बहु चीर आन सब छोरी । सारी कंचु कि लहर पटोरी। दिया छायल औौर कसनिया राती। बँद लाए गुजराती ॥ चोर मोना लोने । मोति लाग ऑौ छापे सोने ॥ सुरंग चीर भल सिंघलदीपी। कोन्ह जो छापा धनि वह छीपी ॥ पर्चा या औौ चौधरी सामसेतपीयरहरियारी सात रंग औौ चित्र चितेरे। भरि के दोटि जाहि नहि हेरे। , Tलमल क सारा I। पुनि प्रभरन बहु काढ़ा, अनबन मोति जराव । हरि फेरि निति" जब जैसे मन भाव 1४४। । पहिरै, (४३, बदरंग । पवन अधारी = इतनी सुकुमार है कि ) निरंग = विव पवन ही के आधार पर मानों जोवन है । अहो = थी । सोनबरन - रेखा = ऊपर कह झाए हैं कि ‘रावन रहसि कसौटी कसी'। वारी भइ=निछावर हुई। मंग= () ज्वाला, तेज । वारि = निछावर करके। वारा माँग । ४६झार = कीन्ह किया । () = चारों ओोर व माकर उत्सर्ग ४४लहर पटोरो=पुरानी चाल का रेशमी लहरिया कपड़ा फंदिया = नीवी या इजारबंद के फुलरे कसनिया = कसनो, एक प्रकार की गुंगिया। छायल=एक प्रकार की कुरती। चकवा = चिकट नाम का रेशमी कपड़ा । मघौना = मेघवर्ण अथत नील का रंगा कपड़ा । पेमचा = एक प्रकार का कपड़ा (? ) । चौधारो = चारखाना । हरियारी = हरी। चितेरे = चित्रित । चंदनौता एक प्रकार का लगा । खरदुक - कोई पहनावा (? )। बाँसपूर = ढाके को बहुत महीन तंजेब जिसका थान बाँस की पतलो नली में श्रा जाता था। झिलमिल =एक बारीक कपड़ा । अनबन अनेक