जायसी ग्रंथावली/पदमावत/२८. रत्नसेन साथी खंड
(२८) रत्नसेन साथी खंड
रत्नसेन गए अपनी सभा। बैठे पाट जहाँ अठखँभा॥
आइ मिले चितउर के साथी। सबै बिहँसि कै दीन्ही हाथी॥
राजा कर भल मानहु भाई। जेइ हम कहँ यह भूमि देखाई॥
हम कहँ आनत जौ न नरेसू। तौ हम कहाँ, कहाँ यह देसू॥
धनि राजा तुम्ह राज बिसेखा। जेहि के राज सबै किछु देखा॥
भोग बिलास सबै किछु पावा। कहाँ जीभ जेहि अस्तुति आवा?
अब तुम आइ अँतरपट साजा। दरसन कहँ न तपावहु राजा॥
नैन सेराने, भूखि गइ, देखे दरस तुम्हार।
नव अवतार आजु भा, जीवन सफल हमार॥ १ ॥
हँसि कै राज रजायसु दीन्हा मैं दरसन कारन एत कीन्हाँ॥
अपने जोग लागि अस खेला। गुरु भएउँ आपु, कीन्ह तुम्ह चेला॥
अहक मोरि पुरुषारथ देखेहु। गुरू चीन्हि कै जोग बिसेखेहु॥
जौ तुम्ह तप साधा मोहि लागी। अब जिनि हिये होहु बैरागी॥
जो जेहि लागि सहै तप जोगू॥ सो तेहि के सँग मानै भोगू॥
सोरह सहस पदमिनी माँगी। सबै दीन्हि, नहिं काहुहि खाँगी।
सब कर मंदिर सोने साजा। सब अपने अपने घर राजा॥
हस्ति घोर औ कापर, सबहिं दीन्ह नव साज।
भए गृही औ लखपती, घर घर मानहु राज॥ २ ॥
(१) हाथी दीन्ही = हाथ मिलाया। भल मानहु = भला मनाओ, एह- सान मानो। अँतरपट साजा = आंख की ओट में हुए। तपावहु = तरसाओ। सेराने = ठंढ़े हुए। (२) एत = इतना सब। अहक लालसा। खाँगी = घटी, कम हुई।