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जायसी ग्रंथावली/पदमावत/३०. नागमती वियोग खंड

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जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १३१ से – १३७ तक

 

(३०) नागमती वियोंग खंड

नागमती चितउर पथ हेरा। पिउ जो गए पुनि कीन्ह न फेरा॥
नागर काहु नारि बस परा। तेइ मोर पिउ मोसौं हरा॥
सुआ काल होइ लेइगा पीऊ। पिउ नहिं जात, जात बरु जीऊ॥
भएउ नरायन बावँन करा। राज करत राजा बलि खरा॥
करन पास लीन्हेउ कै छूँदू। विप्र रूप धरि झिलमिल इंदु॥
मानत भोग गोपिचंद भोगी। लेइ अपसवा जलंधर जोगी॥
लेइगा कृस्नहि गरुड़ अलोपी। कठिन बिछोह, जियहिं किमि गोपी?
सारस जोरी कौन हरि, मारि बियाधा लीन्ह?
झुरि झुरि पींजर हौं भई, बिरह काल मोहि दीन्ह॥१॥
पिउ बियोग अस बाउर जीऊ। पपिहा निति बोले 'पिऊ पीऊ'।
अधिक काम दाधै सो रामा। हरि लेइ सुवा गएउ पिउ नामा॥
बिरह बान तस लाग न डोली। रकत पसीज, भीजि गइ चोलो॥
सूखा हिया, हार भा भारी। हरे हरे प्रान तहिं सब नारी॥
खन एक आव पेट महँ! साँसा। खनहिं जाइ जिउ, होइ निरासा॥
पवन डोलावहि, सीचहिं चोला। पहर एक समुझहिं मख बोला॥
प्रान पयान होत को राखा? को सुनाव पीतम कै भाखा?
आजि जो मारै बिरह कै, आगि उठे तेहि लागि।
हंस जो रहा सरीर महँ, पाँख जरा, गा भागि॥२॥
पाट महादेइ! हिये न हारू। समुझि जीउ, चित चेतु सँभारू॥
भोर कवल सँग होइ मेरावा। सँवरि नेह मालति पहँ आवा॥
पपिहै स्वाती सौं जस प्रीती। टेकू पियास, बाँधु मन थीती।
धरतिहि जैस गगन सौं नेहा। पलटि आव बरषा ऋतु मेहा॥
पुनि बसंत ऋतु आव नवेली। सो रस, सो मधुकर, सो बोली॥
जिनि अस जीव करसित बारी। यह तरिवर पुनि उठिहि सँवारी॥


(१) पथ हेरा = रास्ता देखती है। नागर = नायक। बावँन करा = वामन रूप। छरा=छला। करन = राजा कर्ण। छंदुः=छलछंद, धूर्तता। झिलमिल = कवच (सीकड़ों का)। अपसवा = चल दिया। पीजर = पंजर, ठठरी। (२) बाउर = बावला। हरे हरे-धीरे धीरे। नारी = नाड़ी। चोला = शरीर। पहर एक...बोला=इतना अस्पष्ट बोल निकलता है कि मतलब समझने में पहरों लग जाते हैं। हंस हंस और जीव। (३) पाट महादेइ=पट्टमहादेवी, पटरानी। मेरावा = मिलाप। टेकु पियास = प्यास सह। बाँधु मन थीती = मन में स्थिरता बाँध। जिनि = मत।

दिन दस बिनु जल सूखि बिधंसा। पुनि सोइ सरवर, सोई हंसा॥

मिलहि जो बिछुरे साजन, अंकम भेटि अहंत।
तपनि मृगसिरा जे सहैं, ते अद्रा पलुहँत॥३॥

चढ़ा असाढ़, गगन घन गाजा। साजा बिरह दंद दल बाजा॥
धूम, साम, धौरे घन धाए। सेत धजा बग पांति देखाए॥
खड़ग बीजु चमकै चहँ ओरा। बंद बान बरसहिं घन घोरा॥
ओनई घटा आइ चहँ फेरी। कंत! उबारु मदन हौं घेरी॥
दादूर मोर कोकिला, पीऊ। गिरै बीज, घट रहै न जीऊ॥
पुष्य नखत सिर ऊपर पावा। हौं बिन नाह, मँदिर को छावा?
अद्रा लाग लागि भुइँ लेई। मोहिं बिन पिउ को आदर देई?

जिन्ह घर कंता ते सूखी, तिन्ह गारौ औ गर्व।
कंत पियारा बाहिरै, हम सुख भूला सर्व॥४॥

सावन बरस मेह अति पानी। भरनि परी, हौं बिरह झुरानी॥
लाग पुरनबसु पीउ न देखा। भइ बाउरि, कहँ कंत सरेखा॥
रकत कै आँसु परहिं भुइँ टूटी। रेंगि चलौं जस बीरबहूटी॥
सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला। हरियरि भूमि, कुसुंभी चोला॥
हिय हिंडोल अस डोलै मोरा। बिरह झलाइ देइ झकझोरा॥
बाट असूझ अथाह गंभीरी। जिउ बाउर, भा फिरै भंभीरी॥
जग जल बूड़ जहाँ लगि ताकी। मोरि नाव खेवक बिनु थाकी॥

परबत समुद अगम बिच, बीहड़ घन बनढाँख।
किमि के भेंटौं कंत तुम्ह? ना मोहि पाँव न पाँख॥५॥

भा भादो दूभर अति भारी। कैसे भरौं रैनि अँधियारी॥
मँदिर सून पिउ अनतै बसा। सेज नागिनी फिरि फिरि डसा॥
रहौं अकेलि गहे एक पाटी। नैन पसारि मरौं हिय फाटी॥
चमक बीजु घन गरजि तरासा। बिरह काल होइ जीउ गरासा॥
बरसै मघा झकोरि भकोरी। मोर दुइ नैन चवै जस ओरी॥
धनि सूखै भरे भादौं माहाँ। अबहँ न पाएन्हि सोचेन्हि नाहाँ॥
पुरबा लाग भूमि जल पूरी। पाक जवास भई तस झूरी॥


पलुहंत = पल्लवित होते हैं, पनपते हैं। (४) गाजा=गरजा। धूम=धूमले रंग के। धौरे धवल, सफेद। ओनई = झकी। लेई लागि = खेतों में लेवा लगा, खेत में पानी भर गए। गारौ= गौरव, अभिमान (प्राकृत-गारव, 'आ च गौरवे')। (५) मेह = मेघ। भरनि परी : खेतों में भरनी लगी। सरेख = चतुर। भँभीरी एक प्रकार का फतिंगा जो संध्या के समय बरसात में आकाश में उड़ता दिखाई पड़ता है। (६) दूभर=भारी कठिन। भरौं = काट, बिताऊँ; जैसे-नहर जनम भरब बरु जाई-तुलसी। अनत = अन्यत्र। तरासा = डराता है। ओरी= ओलती। पुरबा = एक नक्षत्र।

धनि जोबन अवगाह महँ, दे बूड़त, पिउ ! टेक ॥ ६ ॥
लाग कुवार, नीर जग घटा । अबहँ पाउ, कंत! तन लटा ।
 तोहि देखे पिउ ! पलुहै कया। उतरा चीतु बहुरि करु मया ॥
चित्रा मित्र मीन कर पावा। पपिहा पीउ पुकारत पावा।
उग्रा अगस्त, हस्ति घन गाजा। तुरय पलानि चढ़े रन राजा॥
स्वाति बद चातक मख परे। समद सीप मोती सब भरे॥
 सरवर सँवरि हंस चलि आए। सारस कुरलहि, खेजन देखाए।
भा परगास, बाँस बन फूले । कंत न फिरे बिदेसहि भूले॥
बिरह हस्ति तन सालै, धाय करै चित चूर ।
बेगि अाइ, पिउ ! वाजहु, गाजहु होइ सदूर ।। ७

।। कातिक सरद चंद उजियारी। जग सीतल, हौं बिरहै जारी॥
चौदह करा चाँद परगासा । जनहँ जरै सब धरति अकासा॥
तन मन सेज जरै अगिदाह । सब कह चंद, भएउ मोहि राह ॥
चहें खंड लागै अँधियारा। जौं घर नाहीं कंत पियारा॥
अबहूँ, निठर ! आउ एहि बारा । परब देवारी होइ संसारा॥
 सखि झमक गावै अँग मोरी। हौं झराव, बिछरो मोरि जोरी॥
॥ जेहि घर पिउ सो मनोरथ पूजा। मो कहुँ बिरह, सवति दुख दूजा॥

सखि मानै तिउहार सब, गाइ देवारी खेलि ।
हौं का गावौं कंत बिन, रही छार सिर मेलि ॥ ८ ॥

अगहन दिवस घटा, निसि बाढ़ी। दुभर रैनि, जाइ किमि गाढ़ी ?
 अब यहि बिरह दिवस भा राती। जरौं बिरह जस दीपक बाती ।
 का हिया जनावै सीऊ। तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ॥़
 घर घर चीर रचे सब काह । मोर रूप रंग लेगा नाह॥
पलटि न बहरा गा जो बिछोई । अबह फिरै, फिरै रँग सोई॥
बज्र अगिनि बिरहिन हिय जारा। सूलगि सुलगि दगधै होइ छारा॥
यह दुख दगध न जाने कंतू । जोबन जनम करै भसमंतू ॥

पिउ सौ कहेह सँदेसड़ा, हे भौंरा ! हे काग!
सो धनि बिरहै जरि मई, तेहि कधवाँ हम्ह लाग ॥ ६ ॥


(७) लटा = शिथिल हया। पलुहै = पनपती है। उतरा चीतु = चित्त से उतरा या भूली बात ध्यान में ला। चित्रा = एक नक्षत्र । तरय = घोडा पलानि = जीन कसकर। घाय = घाव । बाजह = लड़ो। गाजह=गरजो। सदूर = शादल, सिंह । (८) झमक = मनोरा झमक नाम का गीत । झरा = सूखती हूँ। जनम = जीवन। (8) दुभर = भारी, कठिन । नाह = नाथ। सो धनि बिरहै...लाग = अर्थात् वही धुआँ लगने के कारण मानों भौंरे और कौए काले हो गए।

पूस जाड थर थर तन काँपा। सुरुज जाइ लंका दिसि चाँपा।।
बिरह बाढ़, दारुन भा सीऊ । कँपि कँपि मरौं, लेइ हरि जीऊ॥
कंत कहाँ लागौं प्रोहि हियरे । पंथ अपार, सूझ नहिं नियरे॥
सौंर सपेती आवै जूड़ी। जानहु सेज हिवंचल बूड़ी॥
चकई निसि बिछुरै दिन मिला। हौं दिन राति बिरह कोकिला॥
रैनि अकेलि साथ नहिं सखी। कैसे जियै बिछोही पखी।
बिरह सचान भएउ तन जाड़ा। जियत खाइ औ मरे न छाँड़ा।

रकत ढरा मॉसू गरा, हाड भएउ सब संख ।
धनि सारस होइ ररि मई, पीउ समेटहि पंख ॥ १०
॥ लागेउ माघ, परे अब पाला। बिरहा काल भएउ जड़काला॥
पहल पहल तन रूई काँपै । हहरि हहरि अधिकौ हिय काँपै॥
प्राइ सूर होइ तपु, रे नाहा । तोहि बिन जाड़ न छ्टै माहा॥
एहि माह उपजै रसमूलू। तु सो भौर, मोर जोबन फूलू॥
नैन चुवहि जस महवट नीरू । तोहि बिन अंग लाग सर चीरू॥
टप टप बूंद परहिं जस अोला। बिरह पवन होइ मारै भोला।
केहि क सिंगार, को पहिरु पटोरा । गीउ न हार, रही होइ डोरा॥

 कि तुम बिनु काँपै धनि हिया, तन तिनउर भा डोल।
तेहि पर बिरह जराइ कै, चहै उडाया झोल ॥ ११॥

फागुन पवन भकोरा बहा । चौगुन सीउ जाइ नहिं सहा॥
तन जस पियर पात भा मोरा । तेहि पर बिरह देइ झकझोरा॥
तरिवर झरहि, झरहिं बन ढाखा । भइ अोनंत फलि फरि साखा॥
 करहिं बनसपति हिये हुलासू । मो कहँ भा जग दून उदासू॥
फाग करहिं सब चाँचरि जोरी। मोहिं तन लाइ दीन्ह जस होरी॥
जो पै पीउ जरत अस पावा। जरत मरत मोहिं रोष न आवा॥
राति दिवस सब यह जिउ मोरे। लगौं निहोर कंत अब तोरे॥

यह तन जारों छार कै, कहौं कि 'पवन ! उड़ाव'।
मकु तेहि मारग उड़ि परै, कंत धरै जहँ पाव॥ १२॥


(१०) लंका दिसि = दक्षिण दिशा को। चाँपा जाइ = दबा जाता है। कोकिला=जलकर कोयल (काली) हो गई। सचान - बाज । जाड़ा= जाड़ में। ररि मुई = रटकर मर गई । पीउ,..पंख =प्रिय पाकर अब पर समेटे । (११) जड़काला = जाड़े के मौसिम में। माहा=माघ में। महवट = मघवट, माघ की झड़ी । चीरू- चीर, घाव । सर-बारण। झोला मारना = बात के प्रकोप से अंग का सन्न हो जाना । केहि क सिंगार ? = किसका शृगार ! कहाँ का शृंगार करना ? पटोरा = एक प्रकार का रेशमी कपड़ा । डोरा% क्षीण होकर डोरे के समान पतली । तिनउर= तिनके का समूह । झोल = राख, भस्म; जैसे--'पागि जो लागी समुद्र में टुटि टुटि खस जो झोल'--कबीर। (१२) योनंत = झुकी हुई। निहोर लगौं = यह शरीर तुम्हारे निहोर लग जाय, तुम्हारे काम आ जाय ।।

चैत बसंता होइ धमारी। मोहिं लेखे संसार उजारी॥
पंचम विरह पंच सर मारै। रकत रोइ सगरौं बन ढारै।
बूड़ि उठे सब तरिवर पाता। भीजि मजीठ, टेंसू बन राता॥
बौर ग्राम फरै अब लागे। अबहँ आउ घर, कंत सभागे॥
सहस भाव फलीं बनसपती। मधकर घमहि सँवरि मालती।
मोकहँ फल भए सब काँटे । दिस्टि परत जस लागाह चाँटे।
फिर जोवन भए नारंग साखा । सुग्रा बिरह अब जाइ न राखा ॥

घिरिनि परेवा होइ पिउ ! ग्राउ वेगि परु टूटि।
नारि पराए हाथ है, तोहि बिन पाव न छूटि ।। १३ ॥
भा बैसाख तपनि अति लागी। चोप्रा चीर चंदन भा आगी॥
सूरुज जरत हिवंचल ताका। बिरह बजागि सौंह रथ हाँका।
जरत बजागिनि करु, पिउछाहाँ। पाइ वझाउ, अँगारन्ह माहाँ॥
तोहि दरसन होइ सीतल नारी। आइ आगि तें करु फुलवारी॥
लागिउँ जरै, जरै जस भारू। फिर फिर भंजेसि, तजेउँन बारू॥
सरवर हिया घटत निति जाई। टक टक होइ कै बिहराई॥
बिहरत हिया करहु, पिउ ! टेका। दीठि "दवॅगरा मेरवहु एका ॥

कँवल जो बिगसा मानसर, बिनु जल गएउ सुखाइ ।
कबहुँ बेलि फिरि पलिहैं, जो पिउ सींचै आइ ।। १४॥

जंठ जरै जग, चलै लवारा। उठहिं बवंडर परहिं अंगारा॥
बिरह गाजि हनवत होइ जागा। लंकादाह करै तनु लागा॥
चारिहु पवन झकोरै आगी। लंका दाहि पलंका लागी।
दहि भइ साम नदी कालिंदी। बिरह क ागि कठिन अति मंदी।
उठै आगि ौ पावै आँधी। नैन न सूझ, मरौ दुःख बाँधी॥
अधजर भइउँ, माँसु तन सूखा । लागेउ बिरह काल होइ भूखा॥
मासु खाइ सब हाडन्ह लागे। अबहँ पाउ; आवत सुनि भागे।


पंचम = कोकिल का स्वर या पंचम राग । (वसंत पंचमी माघ में ही हो जाती है इससे 'पंचमी' अर्थ नहीं ले सकते) । सगरों-सारे। बड़ि उठे...पाता= नए पत्तों में ललाई मानों रक्त में भींगने के कारण है। घिरिन परेवा%D गरहबाज कवतर या कौडिल्ला पक्षी। नारि - (क) नाडी, (ख) स्त्रा। (१४) हिवंचल ताका = उत्तरायण हा। बिरह बजागि......हाँका = सूर्य तो सामने से हटकर उत्तर की ओर खिसका हा चलता है, उसके स्थानपर विरहाग्नि ने सीधे मेरी ओर रथ हाँका। भारू-भाड। सरवर हिया बिहराई तालों का पानी जब सूखने लगता है तब पानी सूखे हए स्थान में बहुत सी दरारें पड़ जाती हैं जिससे बहत से खाने कटे दिखाई पड़ते हैं। दवँगरा = वर्षा के प्रारंभ का झड़ी। मेरवह एका = दरारें पड़ने के कारण जो खंड हो गए हैं उन्हें मिलाकर फिर एक कर दो। बड़ी सुंदर उक्ति है। (१५) लुवार = लू । गाजि= गरजकर। पलंका = पलंग। मंदी-धीरे धीरे जलानेवाली।

गिरि, समुद्र, ससि, मेघ, रवि, सहि न सकहिं वह आगि ।
मुहमद सती सराहिए, जरै जो अस पिउ लागि ॥ १५॥

तपै लागि अब जेठ असाढी। मोहि पिउ बिन छाजनि भइ गाढ़ी॥
तन तिनउर भा, झरौं खरी। भइ बरखा, दुख प्रागरि जरी॥
बघ नाहि प्रो कंध न कोई। बात न अाव कहीं का रोई?॥
साठि नाठि, जग बात को पछा? बिन जिउ फिरै मज तन छेछा॥
भई दुहेली टेक बिहनी । थाम नाहिं उठि सके न थूनी॥
बस मघ चवहि नैनाहा। छपर छपर होइ रहि बिन नाहा॥
 कारी कहाँ ठाट नव साजा? । तम बिन कंत न छाजनि छाजा॥

अबहूँ मया दिस्टि करि, नाह निठुर ! घर आउ ।
मंदिर उजार होत है, नव कै आइ बसाउ ॥ १६ ॥

राइ गंवाए बारह मासा। सहस सहस दुख एक
तिल तिल बरख बरख परि जाई। पहर पहर जुग जुग न
सा नहि आवै रूप मरारी । जासौं पाव सोहाग सुनारी॥
 साझ भए झुरि झरि पथ हेरा। कोन सो घरी करै पिउ फेरा!
दाह कोइला भइ कंत सनेहा । तोला माँसू रही नहि देहा॥
रकत न रहा, बिरह तन गरा। रती रती होइ नैनन्ह ढरा॥
पाय लागि जोरै धनि हाथा। जारा नेह, जड़ाव नाथा॥

बरस दिवस धनि रोइ कै, हारि परी चित झखि ।
मानुस घर घर बझि कै.बझै निसरी पंखि ।। १७॥

भई पुछार, लीन्ह बनबासु । बैरिनि सवति दीन्ह चिलवासू॥
हाइ खग बान बिरह तन लागा। जौ पिउ आवै उड़हि तो कागा॥
हारिल भई पंथ मैं सेवा। अब तहँ पठवौं कौन परेवा।।
धारा पंडुक कह पिउ नाऊँ। जौं चितरोख न दूसर ठाऊ॥


(१६) तिनउर = तिनकों का ठाट । भरौं = सुखती हूँ। बंध = ठाट बाँधन ।।। कध न कोई = अपने ऊपर (सहायक) भी कोई नहीं है। साठि नाठि पूजी नष्ट हई। मज तन का = बिना बंधन की मूज क एता ना। थूनी = लकड़ी की टेक। छपर छपर = तराबोर । कोरौं= छाजन की ठाट में लगे बाँस या लकडी । नव के नए सिरे सहस सहस सास.. एक एक दीर्घ निवा दाघ निश्वास सहस्रों दखों से भरा था फिर बारह महीने कितने दुःखा स भरे बीत होंगे। तिल तिल...परि जाई - तिलभर समय एक एक वर्ष के इतना पड़ जाता है। सेराई समाप्त होता है । सोहाग- (क) सौभाग्य, (ख) साहागा। सुनारी = (क) वह स्त्री, (ख) सूनारिन। झरि-सुखकर ।(१८) पुछार = (१) पूछनेवाली, (ख) मयूर । चिलवाँस = चिडिया फंसाने का एक फंदा। कागा - स्त्रियाँ बैठे कौवे को देखकर कहती हैं कि 'प्रिय आता हो तो उड़ जा।

(१८) हारिल = (क) थकी हई, (ख) एक पक्षी। धौरी = (क) सफेद, (ख) एक चिड़िया। पंडुक = (क) पोली, (ख) एक चिड़िया । चितरोख == (क) हृदय में रोष, (ख) एक पक्षी।

जाहि बया होइ पिउ कँठ लवा । करै मेराव सोइ गौरवा॥
कोइल भई पुकारति रही। महरि पुकारै 'लेइ लेइ दही'॥
पेड़ तिलोरी औ जल हंसा। हिरदय पैठि बिरह कटनंसा॥

जेहि पंखी के निअर होइ, कहै बिरह कै बात ।
सोई पंखी जाइ जरि, तरिवर होइ निपात ।। १८ ॥

कुहुकि कुहुकि जस कोइल रोई। रकत आँसु घुघुची बन बोई॥
भइ करमुखी नैन तन राती । को सेराव ? बिरहा दुख ताती॥
जहँ जहँ ठाढ़ि होइ बनबासी। तहँ तहँ होइ घुघुचि के रासी॥
बुद ब द महँ जानहँ जीऊ। गंजा गजि करै 'पिउ पीऊ' ॥
तेहि दुख भए परास निपाते। लोह बडि उठे होइ राते ॥
राते बिंब भीजि तेहि लोहू । परवर पाक, फाट हिय गोहू।
देखौं जहाँ होइ सोइ राता । जहाँ सो रतन कहै को बाता॥

नहिं पावस अोहि देसरा, नहिं हेमंत बसंत।
ना कोकिल न पपीहरा, जेहि सूनि आवै कंत॥१६॥


जाहि बया = संदेश लेकर जा और फिर पा (बया = आ--फारसी) । कठलवा = गले में लगानेवाला । गौरवा = (क) गौरवयक्त, बड़ा; (ख) गौरा पक्षी। दही = (क) दधि, (ख) जलाई। पेड = पेड पर। जल-जल में । तिलोरी = तेलिया मैना। कटनंसा = (क) काटता और नष्ट करता है, (ख) कटनास या नीलकंठ । निपात = पत्रहीन । (१६) घुघुची=गंजा। सेराव = ठंढा करे । बिंब = बिंबाफल ।