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जायसी ग्रंथावली/पदमावत/२९. षड् ऋतु वर्णन खंड

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[ १२७ ](२९ ) षट्ऋतु वर्णन खंड पदमावति सब सखी बोलाई। चीर पटोर हार पहिराई ।। सबन्ह के अंदर पूरा । नौ राते सब अंग से दूरा ॥ चंदन चित्र नगर सब भरी। नए चार जानह ' अवता ॥ जनह ढंग फली क ईं। सँग तरई ऊई ।। केवल जनहें चाँद धनि पदमावति, धनि तोर नाह। जेहि अभरन पहिरा सब काहू ॥ बारह प्रभरन, सोरह सिंगारा। तोहि सह नहि ससि उजियारा ॥ सार दूजा ससि सकलंक है नहि पूजा । तू निकलंक, न कोइ ॥ काह्न बीन गहा करकाह' नाद मृदंग । सबन्ह आनंद मनावा, रहसि कृदि एक संग ॥ १ । पदमावत सुनहसहेली। ही सो केंवल कह तुम कुमुदिनि बेली ॥ कलस मानि हों तेहि दिन पूजा आई । चलहु चढ़ावह जाई ॥ मैं पदमावति कर जो बेवान् । जैन परभात परे लखि भानू । आास पास बाजत चौडोला। कुंदुभि, झाँ, तूर, डफ, डोला । एक संग सब सोंधे भरी । देव दुवार उतरि भइ खरी । । अपन हाथ देव नहावा। कलस सहस इक घिरित भरावा ॥ पोता मंडप अगर श्री चंदन । देव भरा अरगज औौ बंदन के प्रनाम आगे भईविनय कीन्ह बह भाँति । है रानी कहा चलढ, घर, सखी ! होति राति ॥ २ ॥ भइ निसि, धनि जस ससि परगसी। रा देखि भूमि फिर बसी ॥ भइ कटकई सरद ससि आावा फरि गगन रवि चाहै छावा ॥ सुनि धनि भौंह । कटाछन्ह धनक फिरि फेराकाम कोरति हे रा॥ जानहु नाहि , प्रिय ! खाँचीं। पिता सपथ ही आाज न बाँचों ॥ रावन संग्रामा । कालिह न होइरही महि रामा। करहु सेन सिंगार महें है सजा । गजपति चाल, अँचल गति धजा ॥ नन समुद नासिका। सरवरि ज को मो सह टिका ?

ो खड़ग

हीं रानी पदमावति, मैं जीता रस भोग । तु सरवरि करु तासीं, जो जोगी तोहि जोग ॥ ३ ॥ (१= ढंग, चालप्रकार। जेहि = जिसकी बदौलत । सौंह =. ) चार सामने। पूजा = पूरा। (२) चौडोल = पालकी (के आासपास) । सोंधे = सुगंध है। बदन = सिद्र या रोली। (३) कटकई = चढ़ाई, सेना का साज। कोरहि हेरा = कोने से ताका। पैज खाँच = प्रतिज्ञा करती हूँ। हौं = मुझसे । रही महि पृथ्वी पर रही = = पड़ी । धजा ध्वजा, पताका । सद = सामने है। १९ [ १२८ ]१२८ हौं अस जोगि जान सब कोऊ। बीर सिंगार जिते मैं दोऊ उहाँ सामुई रिपु दल माहाँ । इहाँ त काम कटक तुम्ह पाहाँ उहाँ त हय चढ़ि के दल मंड। इहाँ त ग्रधर अमिय रस खंडों उहाँ त खड़ग नरिदह मारी। इहाँ त विरह तुम्हार सँघारों उहाँ त गज पेलों होइ केहरि । इहवाँ काम कामिनी हिय हरि उहाँ त टौं कटक धारू। इहाँ त जीतीं तोर सिंगारू उहाँ त कुंभस्थल गज नावाँ । इहाँ त कुच कलसहि कर लावों परे बीच धरहरिया, प्रेम राज को टेक मानहि भोग छवो , मिलि द्वौ होइ एक ॥ ४ प्रथम बसंत नवल ऋतु नाई। सुऋतु चैत बैसाख सोहाई चंदन चीर पहिरि धरि अंगा। सैदुर दीन्ह बिहँ िभरि मंगा कुसुम हार औौर परिमल बासू। मलयागिरि छिरका कबिलास सौर सुपेती फूलन डासी। धनि नौ कंत मिले सुखबासी पिछ जोग धनि जोबन बारी। भोरे पुहुप संग करह धमारी होइ फाग भलि चाँचरि जोरी । बिरह जराइ दीन्ह जस होरी धनि ससि सरिसतप पिय सूरू । नखत सिंगार होहि सब चूरू जिन्ह घर कता ऋतु भलीथाव बसंतू जो नित्त सुख भरि अवह देवहरदुःख न जाने कित्त ऋतु ग्रीषम के तपनि न तहाँ :जेठ अषाढ़ कंत घर जहाँ पहिर सुरंग चीर धनि झीना । परिमल मेद रहा तन भीना। तन सिर सूबासा। नैहर राज, कंत घर पासा ऑी बड़ जूड़ तहाँ सोवनारा। अगर पोति, सुख तने औोहारा सेज बिछावन सर सुपेती। भोग विलास करह सुख सेंती। अधर तमोर कपुर भिमसेना। चंदन चरचि लाव तन बन भा आनंद सिंघल सब कहूँ। भागवत कहें सुख ऋतु छ । दारिॐ दाख लेहि सरजाम सदाफर हरियर तन सुटा कर, जो ग्रंस चाखनहार. रितु पावस बरसे पिछ पाबा। सावन भादौं अधिक सोहावा पदमावति चाहत ऋतु पाई । गगन सोहावनभूमि सोहाई कोकिल बैन, पाँति बग टी। धनि निसक जन बीरबांटी। चमक बीज, बरसे जल सोना । दादुर मोर सबद सु3ि लोना। रंगराती पीतम संग जागी। गरजे गगन चौंकि गर लागी । (४) मंडौं = शोभित करता हूं। इहवाँ कामहिय हरि = यहाँ कामिनी के हृदय से कामताप को हरकर ठेलता खंधारू = स्कंधावारतंव, छावनी बरहरिया = वीचखिचाव करनेवाला।(4) सार—चादरडासी-बैंछाई हुई। देवहरे = देवमंदिर में । (६) झीना महोन सिअर शीतल। सोवनाएँ शयनृागार औोहारा उपदे सुख सेती सुख से () चाहति - मनचाही. बरजल सोनाकौधे की चमक में पानी की बूदें सोने को दों सी लगती [ १२९ ]षऋतु वर्णन खंड १२ सीतल , ऊँच चौपारा। हरियर सब देखाइ संसारा ॥ हरियर भूमि, कुसुंभी चोला। औौ धनि पिउ सेंग रचा हिंडोला ॥ पवन झकोरे होइ हरष, लाग सोतल से - बास । धनि जानै यह पवन है, पवन सो अपने पास ॥ ८ ॥ पदमावति थाइ सरद ऋतु भइ अधिक पूनिई पियारी कला। । आसिन चौदसि कातिक चाँद ऋतु उई उजियारी सिंघला ॥ ॥ सोरह कला सिंगार बनावा। नखत भरा सूरज ससि पावा ॥ सेत भा निरमल बिछावन सव अ धरति उजिया अकासू । । हंसि सेज हंसि सँवारि मिलहि कोन्ह पुरुष औ फुलवाकू ना । सोनफल भइ पुलुमी फूली। पिय धनि सौं, धनि पिय स भूली चख ग्रंजन देइ जन देखावा। होइ सारस जोरी रस पावा ॥ एहि ऋतु कता पास जेहि, सुख तेहि के हिय माहें । धनि सि लानें पिउ गरे, धनि गर पिउ के बाद ॥ ८ ॥ ऋतु हेमंत सेंग पिएड पियाला। अगहन पूस सीत सुख काला धनि औो पिछ मह सीड सोहागा। दुर्दान्ह अंग ए मिलि लगा ॥ मन सौं मन, तन सौं तन गहा। हि सर्वे हिय, विचहार न रहा । जानहूँ चंदन लागे अंगा। चंदन रहै न पार्श्व संगा। भोग करह सुख राजा रानी। उन्ह ले वे सब सिस्टि जुड़ाती ॥ जूझ दुव जोबन सौं लागा। बिच गृत सोउ जीउ लेइ भागा। दुई घट मिलि ऐ हो जाहीं। ऐस मिलहि, तबहूं न अपाहीं ॥ हंसा केलि कह जिमि, खुर्शीदह कुरलह दोउ । सीउ पुकारि क के पार भा, जस चकई क बिछोउ ॥ ९ ॥ प्राइ सिसिर ऋ, तहाँ न सोऊ। जहाँ माघ फागुन घर पीऊ । सर सुपेती मंदिर राती। दगल चोर पहिरह बह भौंती ॥ घर घर सिंघल होइ सुख जोऊ । रहा न कतई दुःख कर खोज ॥ हैं । कुसुंभी = कुसुम के (लाल) रंग का । चोला = पहनावा। धनि जानै. . 'पास = स्त्रो समझती है कि वह हर्ष और शोतल वास पवन में है पर वह उस प्रिय में है (उसके कारण हैं) जो उसके पास है । (८) नखत भरा ससि = प्राभूषणों के सहित पदमावती। फुलबास = फूलों से सुगंधित (६) धनि.सोहागा = शोत दोनों के बीच सोहागे के समान है जो सोने के दो टुकड़ों को मिलाकर एक करता है । उन्ह लेखे = उनकी समझ में । विच ह्न त = बोच से । दह कुरलहि = उमंग में क्रीड़ा करते हैं । बिछोउ = बिछोह, वियोग । (१०) सर = चादर। राती = रात में । दगल = दगला, एक प्रकार का अंगरखा या चोला। जोजू = भोग। खोजू = निशानचिह्नपता। [ १३० ]

जहँ धनि पुरुष सीउ नहिं लागा। जानहुँ काग देखि सर भागा॥
जाइ इंद्र सौं कीन्ह पुकारा। हौं पदमावति देस निसारा॥
एहि ऋतु सदा संग महँ सेवा। अब दरसन तें मोर बिछोवा॥
अब हँसि के ससि सूरहि भेंटा। रहा जो सीउ बीच सो भेटा॥

भएउ इंद्र कर आयसु, बड़ सताव यह सोइ।
कबहूँ काहू के पार भइ, कबहुँ काहु के होइ॥१०॥


 

सर बाण , तीर। जानहु काग यहाँ इंद्र के पुत्र जयंत की ओर लक्ष्य है। आयसु भएउ (इंद्र ने) कहा। बड़ सताव यह सोइ यह वही है जो लोगों को बहुत सताया करता है।