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जायसी ग्रंथावली/पदमावत/२९. षड् ऋतु वर्णन खंड

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जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १२७ से – १३० तक

 

(२९) षट्ऋतु वर्णन खंड

पदमावति सब सखी बोलाई। चीर पटोर हार पहिराई॥
सीस सबन्ह के सेंदुर पूरा। औ राते सब अंग सेँदूरा॥
चंदन अगर चित्र सब भरीं। नए चार जानहु अवतरीं॥
जनहु कँवल सँग फूली कूईं। जनहुँ चाँद सँग तरई ऊईं॥
धनि पदमावति, धनि तोर नाहू। जेहि अभरन पहिरा सब काहू॥
बारह अभरन, सोरह सिंगारा। तोहि सौंह नहिं ससि उजियारा॥
ससि सकलंक रहै नहिं पूजा। तू निकलंक, न सारि कोइ दूजा॥
काहूँ बीन गहा कर, काहू नाद मृदंग।
सबन्ह अनंद मनावा, रहसि कूदि एक संग॥ १ ॥
पदमावति कह सुनहु, सहेली। हौं सो कँवल, तुम कुमुदिनि बेली॥
कलस मानि हौं तेहि दिन आई। पूजा चलहु चढ़ावहिं जाई॥
मँझ पदमावति कर जो बेवानू। जनु परभात परै लखि भानू॥
आस पास बाजत चौडोला। दुंदुभि, झाँझ, तूर, डफ, डोला॥
एक संग सब सोंधे भरी। देव दुवार उतरि भइ खरी॥
अपने हाथ देव नहवावा। कलस सहस इक घिरित भरावा॥
पोता मँडप अगर औ चंदन। देव भरा अरगज औ बंदन॥
कै प्रनाम आगे भई, विनय कीन्ह बहु भाँति।
रानी कहा चलहु, घर, सखी! होति है राति॥ २ ॥
भइ निसि, धनि जस ससि परगसी। राजै देखि भूमि फिर बसी॥
भइ कटकई सरद ससि आवा। फेरि गगन रवि चाहै छावा॥
सुनि धनि भौंह धनुक फिरि फेरा। काम कटाछन्ह कोरहि हेरा॥
जानहु नाहिं पैज, प्रिय! खाँचौं। पिता सपथ हौं आजु न बाँचौं॥
काल्हि न होइ, रही महि रामा। आजु करहु रावन संग्रामा॥
सेन सिंगार महूँ है सजा। गजपति चाल, अँचल गति धजा॥
नैन समुद औ खड़ग नासिका। सरवरि जूझ को मो सहुँ टिका?
हौं रानी पदमावति, मैं जीता रस भोग।
तू सरवरि करु तासौं, जो जोगी तोहि जोग॥ ३ ॥


(१) चार = ढंग, चाल, प्रकार। जेहि = जिसकी बदौलत। सौंह = सामने। पूजा = पूरा। (२) चौडोल = पालकी (के आसपास)। सोंधे = सुगंध। बंदन = सिंदूर या रोली। (३) कटकई = चढ़ाई, सेना का साज। कोरहि हेरा = कोने से ताका। पैज खाँचौ = प्रतिज्ञा करती हूँ। हौं = मुझसे। रही

महि = पृथ्वी पर पड़ी रही। धजा = ध्वजा, पताका। सहुँ = सामने।

हौं अस जोगि जान सब कोऊ। बीर सिँगार जिते मैं दोऊ॥
उहाँ सामुहें रिपु दल माहाँ। इहाँ त काम कटक तुम्ह पाहाँ॥
उहाँ त हय चढ़ि कै दल मंडौं। इहाँ त अधर अमिय रस खंडौं॥
उहाँ त खड़ग नरिंदहिं मारौं। इहाँ त बिरह तुम्हार सँघारौं॥
उहाँ त गज पेलौं होइ केहरि। इहवाँ काम कामिनी हिय हरि॥
उहाँ त लूटौं कटक खँधारू। इहाँ त जीतौं तोर सिंगारू॥
उहाँ त कुंभस्थल गज नावौं। इहाँ त कुच कलसहि कर लावौं॥
परै बीच धरहरिया, प्रेम राज को टेक?
मानहिं भोग छवी ऋतु, मिलि दूवौ होइ एक॥ ४ ॥
प्रथम बसंत नवल ऋतु आई। सुऋतु चैत बैसाख सोहाई॥
चंदन चीर पहिरि धरि अंगा। सेंदुर दीन्ह बिहँसि भरि मंगा॥
कुसुम हार और परिमल बासू। मलयागिरि छिरका कबिलासू॥
सौंर सुपेती फूलन डासी। धनि औ कंत मिले सुखबासी॥
पिउ सँजोग धनि जोबन बारी। भोरें पुहुप सँग करहिं धमारी॥
होइ फाग भलि चाँचरि जोरी। बिरह जराइ दीन्ह जस होरी॥
धनि ससि सरिस, तपै पिय सूरू। नखत सिंगार होहिं सब चूरू॥
जिन्ह घर कंता ऋतु भली, आव बसंत जो नित्त।
सुख भरि अवहिं देवहरै, दुःख न जानै कित्त॥ ५ ॥
ऋतु ग्रीषम कै तपनि न तहाँ:। जेठ अषाढ़ कंत घर जहाँ॥
पहिरि सुरंग चीर धनि झीना। परिमल मेद रहा तन भीना॥
पदमावति तन सिअर सुबासा। नैहर राज, कंत घर पासा॥
औ बड़ जूड़ तहाँ सोवनारा। अगर पोति, सुख तने ओहारा॥
सेज बिछावन सौंर सुपेती। भोग बिलास करहिं सुख सेंती॥
अधर तमोर कपुर भिमसेना। चंदन चरचि लाव तन बेना॥
भा आनंद सिंघल सब कहूँ। भागवंत कहँ सुख ऋतु छहूँ॥
दारिउँ दाख लेहिं सर, आम सदाफर डार।
हरियर तन सुअटा कर, जो अस चाखनहार॥ ६ ॥
रितु पावस बरसै पिउ पाबा। सावन भादौं अधिक सोहावा॥
पदमावति चाहत ऋतु पाई। गगन सोहावन, भूमि सोहाई॥
कोकिल बैन, पाँति बग छूटी। धनि निसरीं जनु बीरबहूटी॥
चमक बीजु, बरसै जल सोना। दादुर मोर सबद सुठि लोना॥
रंगराती पीतम सँग जागी। गरजे गगन चौंकि गर लागी॥


(४) मंडौं = शोभित करता हूँ। इहवाँ काम...हिय हरि = यहाँ कामिनी के हृदय से कामताप को हरकर ठेलता हूँ। खँधारू = स्कंधावार, तंबू, छावनी। धरहरिया = बीचबिचाव करनेवाला। (५) सार = चादर। डासी = बिछाई हुई। देवहरै = देवमंदिर में। (६) झीना = महीन। सिअर = शीतल। सोवनार = शयनागार। ओहारा = परदे। सुख सेंती = सुख से। (७) चाहति = मनचाही।

बरसै जल सोना = कौधे की चमक में पानी की बूँदें सोने की बूँदों सी लगती

सीतल बूँद, ऊँच चौपारा । हरियर सब देखाइ संसारा॥
हरियर भूमि, कुसुंभी चोला। औ धनि पिउ सँग रचा हिंडोला॥
पवन झकोरे होइ हरष, लागे सीतल बास ।
धनि जानै यह पवन है, पवन सो अपने पास॥ ८ ॥
आइ सरद ऋतु अधिक पियारी । आसिन कातिक ऋतु उजियारी॥
पदमावति भइ पूनिउँ कला। चौदसि चाँद उई सिंघला॥
सोरह कला सिंगार बनावा। नखत भरा सूरुज ससि पावा॥
भा निरमल सब धरति अकासू। सेज सँवारि कीन्ह फुलबासू॥
सेत बिछावन औ उजियारी। हँसि हँसि मिलहिं पुरुष औ नारी॥
सोनफूल भइ पुहुमी फूली। पिय धनि सौं, धनि पिय सौं भूली॥
चख अंजन देइ खँजन देखावा। होइ सारस जोरी रस पावा॥
एहि ऋतु कंता पास जेहि, सुख तेहि के हिय माहँ।
धनि हँसि लागै पिउ गरै, धनि गर पिउ कै बाहँ॥ ८ ॥
ऋतु हेमंत सँग पिएउ पियाला। अगहन पूस सीत सुख काला॥
धनि औ पिउ महँ सीउ सोहागा। दुहुँन्ह अंग एकै मिलि लागा॥
मन सौं मन, तन सौं तन गहा। हिय सौं हिय, बिचहार न रहा॥
जानहुँ चंदन लागेउ अंगा| चंदन रहै न पावै संगा॥
भोग करहिं सुख राजा रानी। उन्ह लेखे सब सिस्टि जुड़ानी॥
जूझ दुवौ जोबन सौं लागा। बिच हुँत सीउ जीउ लेइ भागा॥
दुइ घट मिलि ऐकै होइ जाहीं। ऐस मिलहिं तबहूँ न अघाहीं॥
हंसा केलि करहिं जिमि, खूँदहिं कुरलहिं दोउ।
सीउ पुकारि कै पार भा, जस चकई क बिछोउ॥ ९ ॥
आइ सिसिर ऋतु, तहाँ न सीऊ। जहाँ माघ फागुन घर पीऊ॥
सौंर सुपेती मंदिर राती। दंगल चीर पहिरहिं बहु भाँती॥
घर घर सिंघल होइ सुख जोजू। रहा न कतहुँ दुःख कर खोजू॥


हैं । कुसुंंभी = कुसुम के (लाल) रंग का। चोला = पहनावा। धनि जानै... पास = स्त्री समझती है कि वह हर्ष और शीतल वास पवन में है पर वह उस प्रिय में है (उसके कारण हैं) जो उसके पास है।

(८) नखत भरा ससि = आभूषणों के सहित पदमावती। फुलबासू = फूलों से सुगंधित।

(९) धनि... सोहागा = शीत दोनों के बीच सोहागे के समान है जो सोने के दो टुकड़ों को मिलाकर एक करता है। उन्ह लेखे = उनकी समझ में। बिच हुँत = बीच से। खूँदहिं कुरलहिं = उमंग में क्रीड़ा करते हैं। बिछोउ = बिछोह, वियोग। (१०) सौंर = चादर। राती = रात में। दगल = दगला, एक प्रकार का अँगरखा या चोला। जोजू = भोग। खोजू = निशान, चिह्न, पता।

जहँ धनि पुरुष सीउ नहिं लागा। जानहुँ काग देखि सर भागा॥
जाइ इंद्र सौं कीन्ह पुकारा। हौं पदमावति देस निसारा॥
एहि ऋतु सदा संग महँ सेवा। अब दरसन तें मोर बिछोवा॥
अब हँसि के ससि सूरहि भेंटा। रहा जो सीउ बीच सो भेटा॥
भएउ इंद्र कर आयसु, बड़ सताव यह सोइ।
कबहुँ काहू के पार भइ, कबहुँ काहु के होइ॥१०॥
















 

सर बाण , तीर। जानहु काग यहाँ इंद्र के पुत्र जयंत की ओर लक्ष्य है। आयसु भएउ (इंद्र ने) कहा। बड़ सताव यह सोइ यह वही है जो लोगों को बहुत सताया करता है।