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जायसी ग्रंथावली/पदमावत/३५. चित्तौर आगमन खंड

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जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १६४ से – १६७ तक

 

(३५) चित्तौर आगमन खंड

चितउर आइ नियर भा राजा। बहुरा जीति, इंद्र अस गाजा॥
बाजन बाजहिं, होइ अँदोरा। आवहिं बहल हस्ति औ घोरा॥
पदमावति चंडोल बईठी। पुनि गइ उलटि सरग सौं दीठी॥
यह मन ऐंठा रहै न सूझा। बिपति न सँवरै सँपति अरूझा॥
सहस बरिस दुख सहै जो कोई। घरी एक सुख बिसरै सोई॥
जोगी इहै जानि मन मारा। तौहुँ न यह मन मरै अपारा॥
रहा न बाँधा बाँधा जेही। तेलिया मारि डार पुनि तेही॥
मुहमद यह मन अमर है, केहुँ न मारा जाइ।
ज्ञान मिलै जौ एहि घटै, घटतै घटत बिलाइ॥ १ ॥
नागमती कहँ अगम जनावा। गई तपनि बरषा जनु आवा॥
रही जो मुइ नागिनि जसि तुचा। जिउ पाएँ तन कै भइ सुचा॥
सब दुख जस केंचुरि गा छूटी। होइ निसरि जनु बीरबहूटी॥
जसि भुइ दहि असाढ़ पलुहाई। परहिं बूँद औ सोंधि बसाई॥
ओहि भाँति पलुही मुख बारी। उठी करिल नइ कोंप सँवारी ॥
हुलसी गंग जिमि बाढ़िहि लेई। जोबन लाग हिलौरैं देई॥
काम, धनुक सर लेइ भइ ठाढ़ी। भागेउ बिरह रहा जो डाढ़ी॥
पूछहिं सखी सहेलरी, हिरदय देखि अनंद।
आजु बदन तोर निरमल, अहै उवा जस चंद॥ २ ॥
अब लगि रहा पवन, सखि ताता। आजु लाग मोहिं सीअर गाता॥
महि हुलसै जस पावस छाहाँ। तस उपना हुलास मन माँहा॥
दसवँ दावँ कै गा जो दसहरा। पलटा सोइ नाव लेइ महरा॥
अब जोबन गंगा होइ बाढ़ा। औटन कठिन मारि सब काढ़ा॥
हरियर सब देखौं संसारा। नए चार जनु भा अवतारा॥
भागेउ बिरह करत जो दाहू। भा मुख चंद, छूटि गा राहू॥
पलुहे नैन, बाँह हुलसाहीं। कोउ हितु आवै जाहि मिलाहीं॥


(१) अँदोरा = अंदोर, हलचल, शोर (आंदोल)। चंडोल = पालकी। सरग सौं = ईश्वर से। तेलिया = सींगिया विष। तेलिया...तेही = चाहे उसे तेलिया विष से न मारे। केहुँ = किसी प्रकार। (२) तुच = त्वचा, केंचली। सुचा = सूचना, सुध, खबर। सोंधि = सोंधी। सोंधि बसाई = सुगंध से बस जाती है या सोंधी महकती है। करिल = कल्ला। कोंप = कोंपल। (३) ताता = गरम। दसवँ दावँ = दसम दशा, मरण। महरा = सरदार। औटन = ताप।

नए चार = नए सिरे से।

कहतहि बात सखिन्ह सौं, ततखन आवा भाँट।
राजा आइ नियर भा, मँदिर बिछावहु पाट॥३॥

 

सुनि तेहि खन राजा कर नाऊँ। भा हुलास सब ठाँवहि ठाऊँ॥
पलटा जनु वरषा ऋतु राजा। जस असाढ़ आवै दर साजा॥
देखि सो छत भई जग छाहाँ। हस्ति मेघ ओनए जग माहाँ॥
सेन पूरि आई घनघोरा। रहस चाव बरसै चहुँ ओरा॥
धरति सरग अब होइ मेरावा। भरीं सरित औ ताल तलावा॥
उठी लहकि महि सुनतहि नामा। ठाँवहि ठावँ दूब अस जामा॥
दादुर मोर कोकिला बोले। हुत जो अलोप जीभ सब खोले॥

 

होइ असवार जो प्रथमै मिलै चले सब भाइ।
नदी अठारह गंडा मिलों सनुद कहँ जाइ॥४॥

 

बाजत गाजत राजा आवा। नगर चहूँ दिसि बाज बधावा॥
बिहँसिइ आइ माता सौं मिला। राम जाइ भेंटी कौसिला॥
साजे मंदिर बंदनवारा। होइ लाग बहु मंगलचारा॥
पदमावति कर आव बेवानू। नागमती जिउ महँ भा आनू॥
जनहुँ छाँह महँ धूप देखाई। तैसइ भार लागि जौ आई॥
सही न जाइ सवति कै झारा। दुसरे मंदिर दीन्ह उतारा॥
भई उहाँ चहुँ खंड बखानी। रतनसेन पदमावति आनी॥

 

पुहुन गंध संसार महँ, रूप बखानि न जाइ।
हेम सेत जनु उघरि गा, जगत पात फहराइ॥५॥

 

बैठ सिंघासन, लोग जोहारा। निधनी निरगुन दरव बोहारा॥
गति दान निछावरि कीन्हा। मँगतन्ह दान बहुत कै दीन्हा॥
लेइ कै हस्ति महाउत मिले। तुलसी लेइ उपरोहित चले॥
बेटा भाइ कुँवर जत आवहि। हँसि हँसि राजा कंठ लगावहिं॥
नेगी गए, मिले अरकाना। पँवरिहि बाजै घहरि निसाना॥
मिले कुँवर, कापर पहिराए। देइ दरब तिन्ह घरहिं पठाए॥
सब कै दसा फिरी पुनि दुनी। दान डाँग सबही जग सुनी॥

बाजैं पाँच सबद निति, सिद्धि बखानहिं भाँट।
छतिस कूरि, पट दरसन, आइ जुरे ओहिते पाट॥६॥

सब दिन राजा दान दिआवा। भर्ड निसि, नागमती पहँ आवा॥
भुगमती मुख फेरि बईठी। सौंह न करें पुरुष सौं दीठी॥
ग्रीषम जरत छाड़ि जो जाई। सो मुख कौन देखावै आई? ॥
जबहिं जरे परबत बन लागे। उठी झार पंखी उड़ि भागे॥
जब साखा देखें औ छाहाँ। को नहि रहसि पसा रै बाहाँ॥
को नहि हरषि बैंठ तेहि डारा। को नहि करै केलि कुरिहारा? ॥
तू जोगी होइगा वैरागी! हौं जरि छार भएएँ तोहि लागी॥

काह हँसौ तुम मोसौं, किएउ और सौं नेह।
तुम्ह मुख चमकै बीजुरी मोहि मुख बरिसै मेंह॥७॥

नागमती तू पहिलि विवाही। कठिन प्रीति दाहै जस दाही॥
बहुतै दिनों आव जो पीऊ। धनि न मिलै धनि पाहन जीऊ॥
पाहन लोह पोढ़ जग दोऊ। तेउ मिलहिं जौ होइ, बिछोऊ॥
भलेहि सेत गंगाजल दीठा। जमन जो साम, नीर अति मीठा॥
काह भएउ तन दिस दस दहा। औ बरषा सिर ऊपर अहा॥
कोइ केहु पास आस के हैरा। धनि ओहि दरस निरास न फेरा॥
कंठ लाई कै नारि मनाई। जरी जो बेलि सींचि पलुहाई॥

फरे सहस साखा होई, दारिऊँ, दाख, जँभीर।
सबै पंखि मिलि आइ जोहारे, लौटि उहै भइ भीर॥८॥

जौ भा मेर भएउ रँग राता। नागमती हँसि पूछी बाता॥
कहहु, कंत। ओहि देस लोभाने। कस धनि मिली, भोग कस माने॥
जो पदमावति सुठि होइ लोनी। मोरे रूप कि सरवरि होनी? ॥
जहाँ राधिका गोपिन्ह माहाँ। चंद्रावलि सरि पूज न छाहाँ॥
भंवर पुरुष अस रहै न राखा। तजै दाख, महुआ रस चाखा॥
तजि नागेसर फूल सोहावा। कवँल बिसैधहिं सौं मन लावा॥
जो अन्हवाइ भरै अरगजा। तौहु बिसायँध वह नहिं तजा॥

काह कहौं हौ तोसौं, किछु न हिये तोहि भाव।
इहाँ बात मुख मोसौं, उहाँ जीउ औहि ठाँव॥९॥


पाँच शबद = पंच शब्द, पाँच बाजे तंत्री, ताल, झाँझ, नगाड़ा और तुरही। छतिस कूरि = छतीसों कुल के क्षत्रिय। पट दरसन = (लक्षणा से) छह शास्त्रों के वक्ता। (७) दिआवा = दिलाया। कुरिहारा = कलरव कोलाहल। (८) पोढ़ = दृढ़, मजबूत, कड़े। फरे सहस....भीर = अर्थात् नागमती में फिर यौवन श्री और रस आ गया और राजा के अंग भंग उससे मिले। (९) मेर = मेलमिलाप।

लोनी = सुंदर। नागेसर = अर्थात नागमती। कँवल = अर्थात् पद्मावती। विसैंधा = बिसायंध गंधवाला, मछली की सी गंधवाला। भाव = प्रेम भाव।

कहि दुख कथा जो रैनि बिहानी। भएउ भोर जहूँ पदमिनि रानी॥
भानु देख ससि बदन मलीना। कँवल नैन राते, तनु खीना॥
रैनि नखति गनि कीन्ह बिहानू। विकल भई देखा जब भानू॥
सूर हँसै; ससि रोई डफारा। टूँट आँसु जनु नखतन्ह मारा॥
रहै न राखी होइ निसाँसी। तहँवा जाहु जहाँ निसि बासी॥
हौं के नेह कुआँ महँ मेली। सींचै लागि झुरानी बेली॥
नैन रहे होइ रहट के घरी। भरी ते ढारी,छूँछी भरी॥

सुभर सरोवर हंस चल, घटतहि गए बिछोइ।
कँवल न प्रीतम परिहरैं, सूखि पंक बरु होइ॥ १० ॥

पदमावति तुइँ जीउ पराना। जिउ तें जगत पियार न आना॥
तुइ जिमि केवल बसौ हिय माहाँ। हौं होइ अलि बेधा तोहि पाहाँ॥
मालति कली भंवर जौ पावा। सो तजि आन फूल कित भावा? ॥
मैं हौं सिंघल कै पदमिनी। सरि न पूज जंबू नागिनी॥
हौं सुगंध निरमल उजियारी। वह विषभरी डेरावनि कारी॥
मोरी बाँस भंवर ढंग लागहिं। ओहि देखत मानुस डरि भागहिं॥
हौं पुरुषन्ह कैं चितवन दीठी। जेहिके जिउ आंस नहीं पईठि॥

ऊँचे ठाँव जो बैठे, करे न नीचहि संग।
जहँ सौ नागिनि हिरके, करिया करै सो अंग ॥११॥

पलुही नागमती के बारी। सोने फूल फूलि फुलवारी॥
जावत पंखि रहे सब दहे। सबै पंखि बोलत गहगहे॥
सारिउँ सुवा महरि कोकिला। रहसत आाइ पपीहा मिला॥
हारिल सबद, महोख सोहावा। काग कुराहर करि सख पावा॥
भोग विलास कीन्ह कै फेरा। बिहँसहिं, रहसहिं, काहिं बसेरा॥
नाचहिं पंडुक मोर परेवा। विफल न जाइ काहुकै सेवा॥
होइ उजियार सूर जस तपे। खूसट मुख न देखावै छपे॥

संग सहेली नागमति, आापनि बारी माहँ।
फूल चुनहिं, फल तुरहरहसि कूदि सुख छाँह॥ १२ ॥


(१०) देख = देखा। भानु = (क) सूर्य, (ख) रत्नसेन। डफारा = ढाढ़ मारती है। मारा = माला। कुआँ मह मेली = मुझे तो कुएँ में डाल दिया, अर्थात् किनारे कर दिया। झुरान = सूखी। घरी = घड़ा। सुभर = भरा हुआ। (११) बेधा तोहि पाहाँ = तेरे पास उलझ गया हूँ। डेरावनि = डरावनी। हिरकै = सटे। करिया = काला। (१२) पलुही = पल्लवित हुई, पनपी। गहगहे = आनंदपूर्वक। कुराहर = कोलाहल। जस = जैसे ही। खूसट = उल्लू। तूरहिं = तोड़ती हैं।