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जायसी ग्रंथावली/पदमावत/३६. नागमती पद्मावती विवाद खंड

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जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १६८ से – १७२ तक

 

जाही जूही तेहि फुलवारी। देखि रहस रह सकीं न बारी॥
दूतिन्ह बात न हिये समानी। पदमावति पहँ कहा सो आानी॥
नागमती है आपनि बारी। भँवर मिला रस करै धमारी॥
सखी साथ सब रहसहि कूदहिं। औं सिंगार हार सब गूँथहि॥
तुम जो बकावरि तुम्ह सौं भर ना। बकुचन गहै चहै जो करना॥
नागमती नागेसरि नारी। कँवल न आछै आपनि बारी॥
जस सेवतीं गुलाल चमेली। तैसि एक जनु बहू अकेली॥

अलि जो सुंदरसन कजा, कित सदवरगै जोग?
मिला भँवर नागेसरिहि, दीन्ह मोहि सुख भोग॥ १ ॥

 

सुनि पदमावति रिस न सँभारी। सखिन्ह साथ आई फुलवारी॥
दुवो सबति मिलि पाट बईठी। हिय विरोध, मुख बातैं मीठी॥
बारी दिस्टि सुरँग सो आई। पदमावति हँसि बात चलाई॥
बारी सुफल अहैं तुम रानी। है लाइ, पै लाइ न जानी॥
नागेसर औ मालति जहाँ। संगतराव नहि चाही तहाँ॥
रहा जो मधुकर कँवल पिरीता। लाइउ आनि करीलहि रीता॥
जहैं अमिली पाकै हिय माहाँ। तह न भाव नौरंग के छाहाँ॥

फूल फूल जस फर जहाँ, देखह हिये विचारि।
आब लाग जेहि बारी, जाँवु काह तेहि बारि?॥ २ ॥

 

अनु, तुम कही नीक यह सोभा। पै कल सोइ भँवर जेहि लोभा॥

साम जाँबु कस्तूरी चोवा। आँव ऊँच हिरदय तेहि रोवाँ॥
तेहि गुन अस भइ जाँबु पियारी। लाई आनि माँझ कै बारी॥
जल बाढ़ बहि इहाँ जो आाई। है पाकी अमिली जेहि ठाईं॥
तुँ कस पराई बारी दुखी। तजा पानि; धाई मुहँ सूखी॥
उठे आागि दुइ डार अभेरा। कौन साथ तहँ बेरी केरा॥
जो देखा नागेसर बारी। लगे मरै सब सूआ सारी॥

जो सरवर जल बाढ़ रहै सो अपने ठाँव।
तजि के सर औ कुंडहि जाइ न थर अँबराब ॥ ३ ॥

 

तुइँ अँबराव लीन्ह का जूरी? । काहे भई निम विषमूरी॥
भई बैरि कित कुटिल कटैली। तेंदू टेंटी चाहि कसैली॥
दारिउँ दाख न तोरि फुलवारी। देखि मरहिं का सूआ सारी? ॥
औ न सदाफर तुरँज जँभीरा। लागे कटहर बड़हर खीरा॥
कँवल के हिरदय भीतर केसर। तेहि न सरि पूजै नागेसर॥
जहँ कटहर ऊमर को पूछे? । बर पीपर का बोलहि छूँछै॥
जो फल देखा सोई फीका। गरब न करहिं जानि मन नीका॥

रह आपनि तू बारी, मो सौं जूझु, न बाजु।
मालति उपम न पूजै, बन कर खूझा खाजु ॥ ४ ॥

 

जो कटहर बड़हर झड़बेरी। तोहि असि नाहीं; कोकाबेरी! ॥
साम जाँबु मोर तुरंज जँभीरा। करुई नीम तौ छाह गँभीरा॥
नरियर दाख ओहि कहँ राखौं। गल गल जाऊँ सवत नहि भाखों॥
तोरे कहे होइ मोर काहा? । फरे बिरिछ कोइ ढेल न बाहा॥
नवै सदाफर सदा जौ फरई। दारिउँ देखि फाटि हि मरई॥
जयफर लौंग सोपारि छोहारा। मिरिच होइ जो सहै न झारा॥
हौं सो पान रंग पूज न कोई। विरह जो जरे चून जरि होई॥

लाजहिं बूड़ि मरसि नहिं, उभि उठावसि बाँह।
हौं रानी, पिय राजा; तो कहँ जोगी नाह॥५॥

 

हौ पदमिनी मानसर केवा। भँवर मराल करहिं मोरि सेवा।
पूजा जोग दई हम्ह गढ़ी। श्री महेस के माथे चढ़ी॥

जाने जगत कँवल कै करी। तोहि अस नहि नागिनि विष भरी॥
तुइँ सब लिए जगत के नागा। कोइल भेस न छाँड़ेसि कागा॥
तृ भुजइल, हौं हँसिनि भोरी। मोहि तोहि मोति पोति कै जोरी॥
कंचन करी रतन नग वाना। जहाँ पदारथ सोह न आना॥
तू तो राहु, हौं ससि उजियारी। दिनहि न पूजै निसि अँधियारी॥

ठाढ़ि हेसि जेहि ठाई, मसि लागै तेहि ठाव्।
तेहि डर राँघ न बेठौं, मकु साँवरि होइ जावँ॥ ६ ॥

 

कँवल सो कौन सोपारी रोठा। जेहि के हिये सहस दस कोठा॥
रहै न झाँपें आपन गटा। सो कित उघेलि चहै परगटा॥
कँवल पत्र तर दारिऊँ, चोली। देखे सूर देसि है खोली॥
ऊपर राता, भीतर पियरा। जारौं ओहि हरदि अस हियरा॥
इहाँ भँवर मुख बातन्ह लाबसि। उहाँ सुरुज कहँ हसि बहरावसि॥
सब निसि तपि तपि मरसि पियासी। भोर भए पावसि पिय वासी॥
सेजवाँ रोइ रोइ निसि भरसी। तू मोसौं का सरवरि करसी? ॥

सुरुज किरिन बहरावै, सरवर लहरि न पूज।
भँवर हिया तोर पावै, धूप देह तोरि भूंज ॥ ७ ॥

 

मैं हों कँवल सुरुज कै जोरी। जौं पिय आपन तौ का चोरी? ॥
हौं ओहि आापन दरपन लेखौं। करौं सिंगार, भोर मुख देखौं॥
मोर बिगास आहिक परगासू। तू जरि मरसि निहारि अकासू॥
हौं ओहि सौं, वह मोसौं राता। तिमिर बिलाइ होत परभाता॥
कँवल के हिरदय महँ जो गटा। हरि हर हार कोन्ह, का घटा? ॥
जाकर दिवस तेहि पहँ आवा। कारि रैनि कित देखै पावा॥
तू ऊमर जेहि भीतर माखी। चाहहिं उड़ै मरन के पाँखी॥

धूप न देखहि विषभरी, अमृत सो सर पाव।
जैहि नागिनि डस सो मरै, लहरि सुरुज कै आव॥८॥

 

फल न कँवल भानु बिनु ऊए। पानी मैल होइ जरि छूए ॥
फिरहिं भँवर तोरे नयनाहाँ। नीर बिसाइँध होइ तोहि पाँहा॥

मच्छ कच्छ दादुर कर बासा। वग अस पंखि बसहिं तोहि पासा॥
जे जे पंखि पास तोहि गए। पानी महँ सो बिसाइँध भए॥
जौ उजियार चाँद होड़ ऊआ। बदन कलंक डोम लेइ छूआ॥
मोहि तोहि निसि दिन कर वीचू। राहु के हाथ चाँद के मीचू॥
सहस बार जौ धोवै कोई। तौह बिसाइँध जाइ न धाई॥

काह कहौं ओहि पिय कहँ, मोहि सिर धरेसि अंगारि॥
तेहि के खेल भरोसे, तुइ जीती, मैं हारि॥९॥

 

तोर अकेल का जीतिउँ हारू। मैं जीतिउँ जग कर सिंगारू॥
बदन जितिउँ सो ससि उजियारी। बेनी जितिउँ भुअंगिनि कारी॥
नैनन्ह जितिकें मिरिग के नैना। कंठ जितिई कोकिल के बैना॥
भौंह जितिउँ अरजुन धनुधारी। गोउ जितिउँ तमचूर पुछारी॥
नासिक जितिउँ पुहुप तिल, सूआ। सूक जितिउँ बेसरि होइ ऊआ॥
दामिनि जितिउँ दस दमकीहीं। अधर रंग जितिउँ बिबाहीं॥
केहरि जितिउँ लंक मैं लीन्ही। जितिउँ मराल, चाल वै दीन्ही॥

पुहुप बास मलयागिरि निरमल अंग बसाइ।
न नागिनि आसा लुबुध डससि काहु कहँ जाइ॥ १० ॥

 

का तोहि गरब सिंगार पराए। अबहीं लैहौं लूट सब ठाएँ॥
हौं साँवरि सलोन मोर नैना। सेत चीर, मुख चातक बैंना॥
नासिक खरग, फूल धुव तारा। भौंहें धनुक गगन गा हारा॥
हीरा दसन सेत औ सामा। छपै बीजु जौ बिहँसै बामा॥
बिदुम अधर रंग रस राते। जूड़ अमिय अस, रवि नहि ताते॥
चाल गयंद गरब अति भरी। बसा लंक, नागेसर करी॥
साँवरि जहाँ लोनि सुठि नीकी। का सरवरि तू करसि जो फीकी॥

पुहुप बास औ पवन अधारी, कवँल मोर तरहेल॥
चहौं केस धरि नावौ, तोर मरन मोर खेल॥ ११ ॥

 

पदमावति सुनि उतर न सही। नागमती नागिनि जिमि गही॥
वह ओहि कहँ, वह ओहि कहँ गहा। काह कहौं तस जाइ न कहा॥
दुवौ नवल भरि जोबन गाजैं। अछरी जनहुँ अखारे बाजै॥
भा बाहुँन बाहुँन सौं जोरा। हिय सौं हिय, कोइ बाग न मोरा॥

कुच सों कुच भइ सोहैं अनी। नवहिं न नाए, टूटहिं तनी॥
कुंभस्थल जिमि गल मैमंता। दूबौ आइ भिरे चौदंता॥
देवलोक देखत हुत ठाढ़े। लगे बान हिय, जाहिं न काढे॥

जनहुँ दीन्ह ठगलाडू, देखि आइ तस मीचु॥
रहा न कोइ धरहरिया करै दुहुँन्ह महँ बीचु॥ १२ ॥

 

पवन स्त्रवन राजा के लागा। कहेसि लड़हि पदमिनि औ नागा॥
दूनौ सवति साम औ गोरी। मरहिं तौ कहँ पावसि असि जोरी॥
चलि राजा आवा तेहि बारी। जरत बुझाई दूनौ नारी॥
एक बार जेइ पिय मन बूझा। सो दुसरे सों काहे क जूझा? ॥
अस गियान मन आव न कोई। कबहूँ राति, कबहुँ दिन होई॥
धप छाँह दोउ पिय के रंगा। दूनौ मिली रहहिं एक संगा॥
जूझ छाँड़ि अब बूझहु दोऊ। सेवा करहु सेव फल होऊ॥

 गंग जमुन तुम नारि दोउ, लिखा हम्मद जोग।
सेव करहु मिलि दूनौ, तौ मानहु सुख भोग ॥ १३ ॥

 

 अस कहि दूनौ नारि मनाई। बिहँसि दोउ तव कंठ लगाई॥
लेइ दोउ सग मँदिर महँ आाए। सोन पलँग जहँ रहे बिछाए॥
सीझी पाँच अमृत जेवनारा। औ भोजन छप्पन परकारा॥
हुलसीं सरस खजहजा खाई। भोग करत बिहँसी रसनाई॥
सोन मँदिर नगमति कहँ दीन्हा। रूप मँदिर पदमावति लीन्हा॥
मंदिर रतन रतन के खंभा। बैठा राज जोहारै सभा॥
सभा सो सबै सुभर मन कहा। सोई अस जो गुरु भल कहा॥

 बहु सुगंध, बहु भोग सुख, कुरलहिं केलि कराहिं।
दुहुँ सौं केलि नित मानै, रहस अनँद दिन जाहिं॥ १४ ॥