जायसी ग्रंथावली/पदमावत/३. जन्म खंड
(३) जन्म खंड
चंपावति जो रूप सँवारी। पदमावति चाहै औतारी॥
भै चाहै असि कथा सलोनो। मेटि न जाइ लिखी जस होनो॥
सिंघलदीप भए तब नाऊँ। जो अस दिया बरा तेहि ठाऊँ॥
प्रथम सो जोति गगन निरमई। पुनि सो पिता माथे मनि भई॥
पुनि वह जोति मातु घट आई। तेहि ओदर आदर बहु पाई॥
जस अवधान पूर होइ मासू। दिन दिन हिये होइ परगासू॥
जस अंचल महँ छिपै न दीया। तस उँजियार दिखावै हीया॥
सोने मँदिर सँवारहिं, औ चंदन सब लीप।
दिया जो मनि सिवलोक महँ, उपना सिंघलदीप॥१॥
भए दस मास पूरि भइ घरी। पदमावति कन्या औतरी॥
जानौ सूर किरिन हुति काढ़ी। सुरुज कला घाटि, वह बाढ़ी॥
भा निसि महँ दिन कर परकासू। सब उजियार भएउ कबिलासू॥..
इते रूप मूरति परगटी। पूनौ ससी छीन होइ घटी॥
घटतहि घटत अमावस भई। दिन दुइ लाज गाड़ि भुईं गई॥
पुनि जो उटो दुइज होइ नई। निहकलंक ससि विधि निरमई॥
पदुमगंध बेधा जग बासा। भौंर पतंग भए चहुँ पासा॥
इते रूप भै कन्या, जेहि सरि पूज न कोई।
धनि सो देस रुपवंती, जहाँ जन्म अस होइ॥२॥
भै छठि राति छठीं सुख मानो। रहस कूद साँ रैनि बिहानो॥
भा विहान पंडित सब आए। काढ़ि पुरान जनम अरबाए॥
उत्तिम घरी जनम भा तासू। चाँद उआ भुईं, दिपा अकासू॥
कन्यारासि उदय जग कीया। पदमावती नाम अस दीया॥
सूर प्रसंसै भएउ फिरीरा। किरिन जामि, उपना नग हीरा॥
तेहि तें अधिक पदारथ करा। रतन जोग उपना निरमरा॥
सिंहलदीप भए औतारू। जंबूदीप जाइ जमवारू॥
राम अजुध्या ऊपने लछन बतीसो संग॥
रावन रूप सौं भूलिहि दीपक जैस पतंग॥३॥
कहेन्हि जनमपत्नी जो लिखी। देइ असोस बहुरे जोतिषी॥
पाँच बरस महँ भय सो बारी। दीन्ह पुरान पढ़ै बैसारी॥
(१) उपना = उत्पन्न हुआ। (२) बिहान = सवेरा। (३) फिरोरा भएउ = फिरेरे के समान चक्कर लगाता हुआा। रतन = राजा रतनसेन की और लक्ष्य है। निरमरा = निर्मल।
भैं पदमावति पंडित गुनी। चहूँ खंड के राजन्ह सुनी॥
सिंघलदीप राजघर बारी। महा सुरूप दई औतारी॥
एक पदमिनि औ पंडित पढ़ी। तहुँ केहि जोग गोसाईं गढ़ी॥
जा कहँ लिखी लच्छि घर होनी। सो असि पाव पढ़ी औ लोनी॥
सात दीप के बर जो ओनाहीं। उत्तर पावहिं, फिरि फिरि जाहीं॥
राजा कहै गरब कै, अहौ इंद्र सिवलोक।
सो सरवरि है मोरे, कासौं करौं बरीक॥४॥
बारह बरस माँह भै रानी। राजें सुना सैंजोग सयानी॥
सात खंड धौराहर तासू। सो पदमिनि कहँ दीन्ह निवासू॥
औ दीन्ही सँग सखी सहेली। जो सँग करैं रहसि रस केली॥
सबै नवल पिउ संग न साँईं। कँवल पास जनु विगसी कोई॥
सुथा एक पदमावति ठाऊँ। महा पंडित हीरामन नाऊँ॥
दई दीन्ह पंखिहि अस जोती। नैन रतन, मुख मानिक मोती॥
कंचन बरन सुआ अति लोना। मनाहुँ मिला सोहागहिं सोना॥
रहहिं एक सँग दोऊ; पढ़हि सासतर वेद।
बरम्हा सीस डोलावहीं, सुनत लाग तस भेद॥५॥
भैं उनंत पदमावति बारी। रचि रचि विधि सब कला सँवारी॥
जग बेधा तेहि अंग सुबासा। भंवर आइ लुबुधे चहुँ पासा॥
बेनी नाग मलयगिरि पैठी। ससि माथे हाइ दूइज बैठी॥
भौंह धनुक साधे सर फरै। नयन कुरंग भूलि जनु हेरै॥
नासिक कौर, कँवल मुख सोहा। पदमिनि रूप देखि जग मोहा॥
मानिक अधर, दसन जनु हीरा। हिय हुलसे कुच कनक गंभीरा॥
केहरि लंक, गवन गज हारे। सुरनर देखि माथ भुइँ धारे॥
जग कोइ दीठि न आवै, आछहिं नैन अकास।
जोगि जती सन्यासी, तप साधहिं तेहि आस॥६॥
एक दिवस पदमावति रानी। हीरामन तइँ कहा सयानी॥
सुनु हीरामनि कहौं बुझाईं। दिन दिन मदन सतावै आई॥
पिता हमार न चालै बाता। त्रासहिं बोलि सकै नहिं माता॥
देस देस के बर मोहि आवहिं। पिता हमार न आँख लगावहिं॥
जोबन मोर भयउ जस गँगा। देह देह हम्ह लाग अनंगा॥
हीरामन तब कहा बुझाई। बिधि कर लिखा मेटि नहिं जाई॥
अज्ञा देउ देखौं फिरि देसा। तोहि जोग वर मिलै नरेसा॥
जमबारू = यमद्वार। (४) बैसारि दीन्ह = बैठा दिया। बरोक = (बर रोक) बरच्छा। (५) कोई = कुमुदिनी। (६) उनंत = ओनंत, भार से झुकी (यौवन के), 'बारी' शब्द के कुमारी और बगीचा दो अर्थ लेने से इसकी संगति बैठती है।
जौ लगि मैं फिर आवौं मन चित धरहु निवारि।
सुनत रहा कोइ दुरजन, राजहि कहा विचारि॥७॥
राजा सुना दीठि भै आना। बुधि जो देहि सँग सुआ सयाना॥
भएउ रजायसु मारहु सूआ। सूर सुनाव चाँद जहँ ऊआ॥
सत्रु सुआ के नाऊ वारी। सुनि धाए जस धाव मँजारी॥
तब लगि रानी सुआ छपावा। जब लगि व्याध न आवै पावा॥
पिता क आयसु माथे मोरे। कहहु जाय विनवों कर जोरे॥
पंखि न कोई होइ सुजानू। जानै भुगुति, कि जान उड़ानू॥
सुआ जो पढ़ै पढ़ाए बैना। तेहि कत बुधि जेहि हिये न नैना॥
मानिक मोती देखि वह, हिये न ज्ञान करेइ।
दारिउँ दाख जानि कै, अबहिं ठोरि भरि लेइ॥८॥
वै तो फिरे उतर अस पावा। बिनवा सुआ हिये डर खावा॥
रानी तुम जुग जुग सुख पाऊ। होइ अज्ञा बनवास तौ जाऊँ॥
मोतिहिं मलिन जो होई गइ कला। पुनि सो पानि कहाँ निरमला?॥
ठाकुर अंत चहै जेहि मारा। तेहि सेवक कर कहाँ उबारा?॥
जेहि घर काल मजारी नाचा। पखिहिं नाउँ जीउ नहिं बाँचा॥
मैं तुम्ह राज बहुत सुख देखा। जौ पूछहि दे जाइ न लेखा॥
जो इच्छा मन कीन्ह सो जेंवा। यह पछिताव चल्यो बिनु सेवा॥
मारै सोइ निसोगा, डरै न अपने दोस।
केरा केलि करै का, जौ भा बैरि परोस॥९॥
रानी उतर दीन्ह कै माया। जौ जिउ जाइ रहै किमि काया?॥
हीरामन! तू प्रान परेवा। धोख न लाग करत तोहिं सेवा॥
तोहिं सेवा बिछुरन नहिं आखौं। पींजर हिये घालि कै राखौं॥
हौं मानुस, तू पंखि पियारा। धरम क प्रीति तहाँ केइ मारा?
का सो प्रीति तन माँह बिलाई? सोइ प्रीति जिउ साथ जो जाई॥
प्रीति मार लै हिये न सोचू। ओहि पंथ भल होइ कि पोचू॥
प्रीति पहार भार जो काँधा। सो कस छुटै, लाइ जिउ बाँधा॥
सुअटा रहै सुरुक जिउ, अबहुिं काल सो आव।
सत्रु अहै जो करिया, कबहूँ सो बोरै नाव॥१०॥
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(८) मजारी = मार्जारी, बिल्ली। (९) पानि = आब, आभा, चमक, जेंवा = खाया। बैरि = बेर का पेड़।
(१०) आखौं = (सं॰ आकांक्षा) चाहती हूँ, अथवा (सं॰ आख्यान, पंजाबी—आखन) कहती हूँ। करिया = कर्णधार, मल्लाह।