जायसी ग्रंथावली/पदमावत/४. मानसरोदक खंड

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जायसी ग्रंथावली  (1924) 
द्वारा मलिक मुहम्मद जायसी
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(४) मानसरोदक खंड

एक दिवस पून्यो तिथि आई। मानसरोदक चली नहाई॥
पदमावति सब सखी बुलाई। जनु फुलवारि सबै चलि आई॥
कोइ चंपा कोइ कुंद सहेली। कोई सु केत, करना, रस बेली॥
कोइ सु गुलाल सुदरसन राती। कोई सो बकावरि-बकुचन भाँती॥
कोइ सो मौलसिरि, पुहपावती। कोई जाही जूही सेवती॥
कोई सोनज़रद, कोइ केसर। कोइ सिंगारहार नागेसर॥
कोइ कूजा सदबर्ग चमेली। कोई कदम सुरस रस बेली॥

चलीं सबै मालति सँग, फूल कँवल कुमोद।
बेधि रहे गन गंधरब, बासपरमदामोद॥१॥

खेलत मानसरोवर गईं। जाइ पाल पर ठाढ़ी भईं॥
देखि सरोवर हँसै कुलेली। पदमावति सौं कहहिं सहेली॥
ए रानी! मन देख बिचारी। एहि नैहर रहना दिन चारी॥
जौ लगि अहै पिता कर राजू। खेलि लेहु जो खेलहु आजू॥
पुनि सासुर हम गवनब काली। कित हम, कित यह सरवर पाली॥
कित आवन पुनि अपने हाथा। कित मिलि कै खेलब एक साथा॥
सासु ननद बोलिन्ह जिउ लेहीं। दारुन ससुर न निसरै देहीं॥

पिउ पियार सिर ऊपर, पुनि सो करै दहुँ काह।
दहुँ सुख राखै की दुख, दहुँ कस जनम निबाह॥२॥

मिलहिं रहसि सब चढ़हिं हिंडोरी। झूलि लेहिं सुख बारी भोरी॥
झूलि लेहु नैहर जब ताईं। फिरि नहिं झूलन देइहिं साईं॥
पुनि सासुर लेइ राखिहिं तहाँ। नैहर चाह न पाउब जहाँ॥
कित यह धूप, कहाँ यह छाहाँ। रहब सखी बिनु मंदिर माहाँ॥
गुन पूछिहि औ लाइहिं दोखू। कौन उतर पाउब तहँ मोखू॥
सासु ननद के भौंह सिकोरे। रहब सँकोचि दुवौ कर जोरे॥
कित यह रहसि जो आउब करना। ससुरेइ अंत जनम दुख भरना॥

कित नैहर पुनि आाउब, कित ससुरे यह खेल।
आपु आपु कहँ होइहि, परब पंखि जस डेल॥३॥

सरवर तीर पदमिनी आई। खोंपा छोरि केस मुकलाई॥
ससिमुख, अंग मलयगिरि बासा। नागिन झाँपि लीन्ह चहुँ पासा॥


केत = केतकी। करना = एक फूल। कूजा = सफेद जंगली गुलाब। (२) पाल = बाँध, भीटा, किनारा। (३) चाह = खबर। [ २१ ]

ओनई घटा परी जग छाँहा। ससि कै सरन लीन्ह जनु राहाँ॥
छपि गें दिनहिं भानु कै दसा। लेइ निसि नखत चाँद परगसा॥
भूलि चकोर दीठि मुख लावा। मेघघटा महँ चंद देखावा॥
दमन दामिनी, कोकिल भाखी। भौंहें धनुख गगन लेइ राखी॥
नैन खँजन दुह केलि करेहीं, कुच नारँग मधुकर रस लेहीं॥

सरवर रूप बिमोहा, हिये हिलोरहिं लेइ।
पाँव छुवै मकु पावौं एहि मिस लहरहिं देइ॥४॥

धरी तीर सब कंचुकि सारी। सरवर महँ पैठीं सब बारी॥
पाइ नीर जानौं सब बेली। हुलसहिं करहिं काम कै केली॥
करिल केस बिसहर बिस-भरे। लहरैं लेहिं कँवल मुख धरे॥
नवल बसंत सँवारी करी। होई प्रगट जानहु रस भरी॥
उठी कोप जस दारिवँ दाखा। भई उनंत पेम कै साखा॥
सरिवर नहिं समाइ संसारा चाँद नहाइ पैठ लेइ तारा॥
धनि सो नीर ससि तरई ऊईं। अब कित दीठ कमल औ कूई॥

चकई बिछुरि पुकारै, कहाँ मिलौं, हो नाहँ।
एक चाँद निसि सरग महँ, दिन दूसर जल माहँ॥५॥

लागीं केलि करै मझ नीरा। हंस लजाइ बैंठ ओहि तीरा॥
पदमावति कौतुक कहँ राखी। तुम ससि होहु तराइन्ह साखी॥
बाद मेलि कै खेल पसारा। हार देइ जो खेलत हारा॥
सँवरिहि साँवरि, गोरिहि गोरी। आपनि आपनि लीन्ह सो जोरी॥
बूझि खेल खेलहु एक साथा। हार न होइ पराए हाथा॥
आजुहि खेल, बहुरि कित होई। खेल गए कित खेलैं कोई?॥
धनि सो खेल खेल सह पेमा। रउताई औ कूसल खेमा?॥

मुहमद बाजी पेम कै ज्यौं भावै त्यों खेल।
तिल फूलहि के संग ज्यों होइ फुलायल तेल॥६॥

सखी एक तेइ खेल न जाना। भै अचेत मनिहार गवाँना॥
कवँल डार गहि भै बेकरारा। कासों पुकारौं ओपन हारा॥
कित खेलै आइउँ एहि साथा। हार गँवाइ चलिउँ लेइ हाथा॥
घर पैठत पूँछब यह हारू। कौन उतर पाउब पैसारू॥
नैन सीप आँसू तस भरे। जानौ मोति गिरहिं सब ढरे॥
सखिन कहा बौरी कोकिला। कौन पानि जेहि पौन न मिला?
हार गँवाइ सो ऐसौ रोवा। हेरि हेराइ लेइ जौं खोवा॥


डेल = बहेलिए का डला (४) खोंपा = चोटी का गुच्छा, जूरा। मुकलाई = खोलकर। मकु = कदाचित्। (५) करिल = काले। बिसहर = विषधर, साँप। करी = कली। कोंप = कोंपल। उनंत = झुकती हुई। (६) साखी = निर्णयकर्ता, पंच। बाद मेलि कै = बाजी लगाकर। [ २२ ]

लागीं सब मिलि हेरै, बूड़ि बूड़ि एक साथ।
कोइ उठी मोती लेइ, काहू घोंघा हाथ॥७॥

कहा मानसर चाह सो पाई। पारंस रूप इहाँ लगि आई॥
भा निरमल तिन्ह पायन्ह परसे। पावा रूप रूप के दरसे॥
मलय समीर वास तन आई। भा सीतल, पै तपनि बुझाई॥
न जनौं कौन पौन लेइ आवा। पुन्य दसा भै पाप गँवावा॥
ततखन हार बेगि उतिराना। पावा सखिन्ह चंद बिहँसाना॥
बिगसा कुमुद देखि ससि रेखा। भै तहँ ओप जहाँ जोइ देखा॥
पावा रूप रूप जस चहा। ससि मुख जनु दरपन होड़ रहा॥

नयन जो देखा कवँल भा, निरमल नीर सरीर।
हँसत जो देखा हंस भा, दसन जोति नग हीर॥८॥




रउताई = रावत या स्वामी होने का भाव, ठकुराई। फुलायल = फुलेल। (८) चाह = खबर, आहट।