जायसी ग्रंथावली/भूमिका/जायसी की भाषा

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जायसी की भाषा

जायसी की भाषा ठेठ अवधी है और पूरबी हिंदी के अंतर्गत है इससे उसमें ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों से कई बातों में विभिन्नता है। जायसी को अच्छी तरह समझने के लिये अवधी की मुख्य मुख्य विशेषताओं को जान लेना आवश्यक है। अतः संक्षेप में कुछ बातों का उल्लेख यहाँ किया जाता है।

शुद्ध अवधी की बोलचाल में क्रिया का रूप सदा कर्ता के पुरुष, लिंग और वचन के अनुसार होता है; कर्म के अनुसार सकर्मक भूतकालिक क्रिया में भी नहीं होता। कारण यह है कि पूरबी बोलियाँ भूतकाल में कृदंत रूप नहीं लेती हैं, तिङंत रूप ही रखती हैं। मूल चाहे इन रूपों का कृदंत ही हो, जैसा कि कहीं कहीं लिंगभेद से प्रकट होता है, पर व्यवहार तिङंत ही सा होता है। नीचे के उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जायगी—

(१) उत्तम पुरुष

(क) देखेउँ तोरे मँदिर घमोई। (पु॰ एकवचन) मैं

(ख) ढूढ़िउँ बालनाथ कर टीला। (स्त्री॰ एकवचन) मैं

(ग) औं हम देखा, सखी सरेखा। (पु॰ स्त्री बहुवचन) हम

(२) मध्यम पुरुष

(क) चाहेसि परा नरक के कूंआँ पु॰ स्त्री॰ बहुवचन

तू या तैं

धातु कमाय सिखें तैं जोगी

(ख) रूप चीन्ह कै जोग बिसेखेउ (पु॰ बहुवचन) तुम

(ग) पूजि मनाइउ बहुतै भाँती। (स्त्री॰ बहुवचन) तुम

(३) प्रथम पुरुष

(क) रोइ हँकारेसि माझी सूआ। (पु॰ स्त्री॰ एकवचन) वह

(ख) कहेन्हि 'न रोव, बहुत तैं रोवा'। (पुं॰ बहुवचन) तुम

मध्यम पुरुष के रूप ही आज्ञा में भी वहाँ आते हैं जहाँ खड़ी बोली में साधारण क्रिया का प्रयोग होता है; जैसे—

आयसु लिहे रहिउ निति हाथा। सेवा करिउ लाइ भुँइ माथा॥

प्रथम पुरुष की भूतकालिक क्रिया के स्त्रीलिंग रूपों में 'एसि' औ 'एनि' की जगह 'इसि' ओर 'इनि' अंत में होते हैं, जैसे—पु॰ 'लखेनि', स्त्री॰ 'लखिनि'। बोलचाल में अकसर अंत्य 'नि' निकालकर बचे हुए खंड के अंतिम स्वर को सानुनासिक कर देते हैं—जैसे पु॰ 'गएनि', 'लखेनि' को 'गएँ', 'लखें' और स्त्री॰ 'गइनि', 'लखिनि' को 'गईं', 'लखीं' भी बोलते हैं। जायसी ने बोलचाल के इस रूप का भी प्रयोग किया है—

लछिमी लखन बतीसौ लखीं

(लखीं=लखिन्हि या लखिनि)
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ऊपर जो सकर्मक क्रिया के रूपों के उदाहरण दिए गए हैं वे ठेठ या पूरबी के हैं और उनमें पुरुषभेद बराबर बना हुआ है। पश्चिमी हिंदी की सकर्मक भूतकालिक क्रिया में पुरुषभेद नहीं रहता—जैसे, मैंने किया, तुमने किया, उसने किया। ठेठ अवधी के ऊपर दिए रूपों के अतिरिक्त जायसी और तुलसी दोनों एक सामान्य प्रकारांत रूप भी रखते हैं जिसका प्रयोग वे तीनों पुरुषों, दोनों लिंगों और दोनों वचनों में समान रूप से करते हैं, जैसे—

उत्तम पुरुष (१) का मैं बोआ जनम ओहि भूँजी?
(२) हम तो तोहिं देंखाबा पीऊ।
मध्यम पु° (३) तुइ सिरजा यह समुद अपारा।
(४) अब तुम आइ अँतरपट साजा
प्रथम पु° (५) भूलि चकोर दिस्टि तहँ लाबा
(६) तिन्ह पाबा उत्तिम कैलासू।

वर्तमानकालिक क्रिया के रूप ब्रजभाषा के समान ही होते हैं। केवल मध्यम पुरुष एकवचन के रूप के अंत में संस्कृत के समान 'सि' होता है जैसे करसि, जासि—

तू जुग सारि, चहसि पुनि छूवा।

विधि और आज्ञा में भी यही रूप रहता है, पर कभी कभी संस्कृत के समान 'हि' से अंत होनेवाला रूप भी आता है, जैसे—

'तू सपूत माता कर अस परदेस न लँहि
अब ताईं मुइ होइहि; मुए जाइ तिग देहि

भविष्यत् के रूप ठेठ अवधी के कुछ निज के होते हैं—

उत्तम पुरुष

(१) कौन उतर देबौं तेहि पूछे। (एकवचन) मैं
(२) कौन उतर पाउब पैसारू। (बहुवचन) हम

प्रथम पुरुष

(१) होइहिं नाप औ जोख (एकवचन)
(२) देव बार सब जैहैं बारी। (बहुवचन)

'होइहि' पुराना रूप है। 'ह' के घिस जाने से आजकल 'होई (=होगा) बोलते हैं।

इनमें उत्तम पुरुष के बहुवचन का जो रूप (पाउब) है वह अवधी साहित्य में सब पुरुषों में मिलता है (यद्यपि बोलचाल में उत्तम पुरुष बहुवचन 'हम' के ही साथ आता है)। जायसी और तुलसी दोनों ने सब पुरुषों में और दोनों वचनों में इस रूप का व्यवहार किया है, जैसे—

घर कैसे पैटब मैं छूछे (उत्तम पुरुष, एकवचन)
गुन अवगुन विधि पूछब (प्रथम पुरुष, एकवचन)

पूरबी अवधी में साधारण क्रिया (इनफिनिटिव) का भी यही 'ब' 'वर्गांत' रूप है।

१० [ १४६ ] ठेठ अवधी की एक बड़ी भारी विशेषता को सदा ध्यान में रखना चाहिए। खड़ी बोली और ब्रजभाषा दोनों में कारकचिह्न सदा क्रिया के साधारण रूप में लगते हैं, जैसे—'करने का', 'करने को' या 'करिबे को'। पर ठेठ या पूरबी अवधी में कारकचिह्न प्रथम पुरुष, एकवचन की वर्तमानकालिक क्रिया के से रूप में लगता है, जैसे—'आवै कहँ', 'खाय माँ', 'बैठे कर'—

(क) दीन्हेसि स्रवन सुनै कहँ मैना।

(ख) सती होइ कहँ सीस उघारा।

कहीं कहीं कारकचिह्न का लोप भी मिलता है, जैसे—

(क) जो नित चलै सँवारै पाँखा। आजे जो रहा कालि को राखा

(ख) सबै सहेली देखें धाईं।

(चलै=चलने के लिये; देखै=देखने के लिये)

इसी प्रकार संयुक्त क्रिया में भी जहाँ पहले साधारण क्रिया का रूप रहताहै वहाँ भी अवधी में यही वर्तमान का सा रूप ही रहता है—

(क) तपै लांगि अब जेठ असाढ़ी।

(ख) मरै चहहिं पै मरौं न पावहि।

पूरबी अवधी में मागधी की प्रवृत्ति के अनुसार ब्रजभाषा के प्रकारांत सर्वनामों के स्थान पर एकारांत सर्वनाम होते हैं, जैसे—'को' (=कौन) के स्थान पर 'के', 'जो' के स्थान पर 'जे' और 'काऊ' के स्थान पर 'के' या 'केहूँ'। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं—

(क) केइ उपकार मरन कर कीन्हा। (=किसने)

(ख) जेंइ जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू। (=जिसने)

(ग) तजा राम रावन, का केह? (=कोई)

(घ) जियत न रहा जगत महँ केऊ (=कोई)

इन सर्वनामों का रूप विभक्ति और कारकचिह्न लगाने के पहले एकारांत ही रहता है (जैसे, केहि पर, जेहि पर); ब्रजभाषा या पश्चिमी अवधी के समान आकारांत (जैसे, जाको और जाकर, तापर और तापै) नहीं होता।

जायसी और तुलसी दोनों की रचनाओं में एक विलक्षण नियम मिलता है। वे सकर्मक भूतकालिक क्रिया के कर्ता को तो सविभक्ति पूरबी रूप 'केइ', 'जेइ' 'तेइ' रखते हैं पर सकर्मक क्रिया के कर्ता का 'को, जो, सो', जैसे—

(क) जो एहि खीर समुद्र महँ परे।

(ख) जो ओहि विषै मारि कै खाई॥


अवधी के कारकचिह्न इस प्रकार हैं—

कर्ता—+

कर्म—कहँ (आधुनिक 'काँ'), के

करण—सन्, से (पश्चिमी अवधी 'सौं')

संप्रदान—कहूँ (आधुनिक 'काँ'), के

अपादान—से (पश्चिमी अवधी 'तइँ', 'लैं')

संबंध—कर, कै [ १४७ ]

अधिकरण—पुराना रूप 'महँ', आधुनिक 'माँ', 'पर'

हिंदी के संबंधकारक चिह्न में लिंगभेद होता है। खड़ी बोली में पुं° संबंधकारक चिह्न है 'का' और स्त्री° 'की'। ब्रजभाषा में भी यह भेद है। अवधी की बोलचाल में तो यह भेद लक्षित नहीं होता पर साहित्य की भाषा में भेद दिखाई पड़ता है। जायसी और तुलसी दोनों पुं° संबंधकारक चिह्न 'कर' रखते हैं और स्त्री° संबंधकारक चिह्न 'कै' जैसे—

(१) राम तें अधिक राम कर दाता।
जेहि पर कृपा राम कै होई॥—तुलसी

(२) सुनि तेहि सुन राजा कर नाऊँ।
पलुही नागमती कै बारी॥—जायसी

इससे यह स्पष्ट ही है कि प्रबंधी में स्त्री° संबंधकारक चिह्न 'की' कभी नहीं होता, 'कै' ही होता है।

बोलचाल में उच्चारण संक्षिप्त करने की प्रवृत्ति स्वाभाविक होती है। इसी प्रवृत्ति के अनुसार 'कर' के स्थान पर केवल 'क' बोल देते हैं। तुलसी और जायसी दोनों में यह संक्षिप्त रूप मिलता है, जैसे—

(क) धनपति उहै जेहि संसारू।—जायसी
(ख) पितु आयसु सब धरम क टीका।—तुलसी

ठेठ अवधी का एक प्रकार का प्रयोग भाषा के इतिहास की दृष्टि से ध्यान देने योग्य है। वर्तमान रूप में आने के पहले हमारी भाषा के कारकों की कुछ दिनों तक बड़ी अव्यवस्थित दशा रही। कुछ तो सबंधकारक की 'ही' विभक्ति (मागधी 'ह', अप° हो) से काम चलता रहा जिसका प्रयोग सब कारकों में होता था और कुछ स्वतंत्र शब्दों द्वारा। पुराने गद्य के नमूने अभी टीकाओं आदि में मिल सकते हैं जिसमें 'पृथ्वी पर' के स्थान में 'पृथ्वी विषय' लिखा मिलेगा, जैसे—'नारद जी पृथ्वी विषय आाए।' संबंधकारक के चिह्न के रूप में इस 'कृत' शब्द का प्रयोग गोस्वामी तुलसीदास जी ने कई जगह किया है, जिससे वर्तमान 'कर' और 'का' निकले हैं। यह तो हुई पुरानी बात। पूरबी अवधी में अब तक कारक के (और करण के भी) चिह्न के रूप में 'भै' या 'भए' शब्द का प्रयोग है, जैसे—'मीत भै' (= मित्र से), 'तर भै' (=नीचे से), 'ऊपर भै' (=ऊपर से)। जायसी और तुलसी ने ऐसा प्रयोग किया है—

(१) मीत भै माँगा बेगि विमानू। (=मित्र से तुरंत विमान माँगा)।
(२) ऊपर भए सो पातुर नाचहि (=ऊपर से)
तर भए तुरुक कमानहि खाँचहि (= नीचे से)
(३) भरत आइ आगें भए लीन्हें (=आगे से)—तुलसी

इसी तरह जायसी ने 'होइ' शब्द का प्रयोग भी पंचमी विभक्ति के स्थान पर किया है, जैसे—

बैठि तहाँ होइ लंका ताका (=वहाँ से)

इसमें तो कुछ कहना ही नहीं है कि यह 'भए' या 'होइ', 'भू' धातु से निकले [ १४८ ]हुए 'होना' क्रिया के रूप है। प्राकृत की 'हिंदी' विभक्ति भी वास्तव में 'भू' धातु, से निकली है और 'भूत्वा' शब्द का अपभ्रंश है। जायसी ने 'हुँत' रूप में ही इस विभक्ति का बराबर प्रयोग किया है, जैसे—

(क) तेहि बंदि हंत छुटै जो पावा। (=बंदि से)

(ख) जल हुँतें निकसि भुवै नहि काछू। (=जल से)

(ग) जब हुँत कहिगा पंखि सँदेसी। (=जब से)

(घ) बब हुँत तुम बिनु रहै न जीऊ। (=तब से)

'कारण' और 'द्वारा' के अर्थ में भी 'हुँत' का प्रयोग होता है, जैसे—

(क) तुम हुँत मंडप गइउँ परदेसी। (=तुम्हारे लिये, तुम्हारे कारण)

(ख) उन्ह हुँत देखै पाएउँ दरस गोसाईं केर (=उनके द्वारा)

जायसी ने ठेठ पूरबी अवधी के शब्दों का जितना अधिक व्यवहार किया है उतना अधिक तुलसीदास जी ने नहीं। नीचे कुछ शब्दों के उदाहरण दिए जाते हैं—

(१) राँध जो मंत्री बोले सोई।

तेहि डर राँध न बैठों, मकु साँवरि होइ जाउँ।

(राँध=निकट, पास)

इस शब्द का व्यवहार अब केवल यौगिक रूप में रह गया है, जैसे—राँध पड़ोसी। और ठेठ शब्द लीजिए, जो साहित्यज्ञों को ग्राम्य लगेंगे—

(२) अहक मोरि पुरुषारथ देखेहु। (अहक=लालसा)

(३) नौजि होइ घर पुरुष बिहूना। (नौजि=ईश्वर न करे। अरबी-नऊज=बिल्ला)

(४) जहिया लंक दही श्री रामा। (जहिया=जब)

(५) जौ देखा तीबइ है साँसा। (तीबइ=स्त्री)

(६) जस यह समुद दीन्ह दुख मोकाँ। (मौंका=मोकहुँ=मुझको)

(७) जाना नहिं कि होब अस भहूँ। (भहूँ=मैं भी)

(८) हहरि हहरि अधिकौ हिय काँपै। (अधिकौ=और भी अधिक)

ऊपर जो पूरबी अवधी के रूप दिखाए गए उनसे यह न समझना चाहिए कि जायसी ने सर्वत्र पूरबी अवधी ही के व्याकरण का अनुसरण किया है। कवि ने तुलसीदास जी के समान सकर्मक भूतकालिक क्रिया के लिंग वचन अधिकतर पच्छिमी हिंदी के ढंग पर कर्म के अनुसार ही रखे हैं, जैसे—

बसिठन्ह आइ कही अस बाता।

इसी प्रकार भूतकालिक क्रिया का पुरुष-भेद-शून्य पश्चिमी रूप भी प्रायः मिलता है, जैसे—

तुम तौ खेंलि मँदिर महँ आई

इसके अतिरिक्त पश्चिमी साधारण क्रिया (इनफिनिटिव) के 'न' वर्णांत रूप का प्रयोग भी कहीं कहीं देखा जाता है, जैसे—

कित आपन पुनि अपने हाथा। कित मिल के खेलव एक साथा॥

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पूरबी हिंदी में जबतक कोई कारकचिह्न नहीं लगता तबतक संज्ञाओं के बहुवचन का रूप वही रहता है जो एकवचन का। पर जायसी ने पछाँही हिंदी के बहुवचन रूप कहीं कहीं रखे हैं, जैसे—

(क) नसै भई सब ताँति।

(ख) जोबन लाग हिलोरै लेई॥

जायसी 'तू' या 'तैं' के स्थान पर अकसर 'तुइँ' का प्रयोग करते हैं। यह कनौजी और पच्छिमी अवधी का रूप है जो खीरी, शाहजहाँपुर से लेकर कन्नौज तक बोला जाता है।

खड़ी बोली और ब्रजभाषा दोनों पछाहीं बोलियों की प्रवृत्ति दीर्घांत पदों की ओर है, पर अवधी की लध्वंत प्रवृत्ति है। खड़ी बोली और ब्रजभाषा में जो विशेषण और संबंधकारक के सर्वनाम आकारांत और प्रकारांत मिलते हैं वे अवधी में प्रकारांत पाए जाते हैं। नीचे ऐसे कुछ शब्द दिए जाते हैं—

खड़ी बोली ब्रजभाषा अवधी
ऐसा ऐसो ऐस या अस
जैसा जैसो जैस या जस
तैसा तैसो तैस या तस
कैसा कैसो कैस या कस
छोटा छोटो छोट
बड़ा बड़ो बड़
खोटा खोटो खोट
खरा खरो खर
भला भलो
नीको
भल
नीक
थोड़ा थोरो थोर
गहिरा गहिरो गहिर
पतला पतरो, पातरो पातर
पिछला पाछिलो पाछिल
चकला चकरो चाकर
दूना दूनो दून
साँवला साँवरो साँवर
गोरा गोरो गोर
प्यारा प्यारो पियार
ऊँचा ऊँचो ऊँच
नीचा नीचो नीच
अपना अपनो आपन
मेरा मेरो मोर
तेरा तेरो तोर
हमारा हमारो हमार
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तुम्हारा तुम्हारी तुम्हार
पीला पीरो पीयर
हरा हरो हरियर

साधारण क्रिया (इनफिनिटिव) के रूप अवधी में लध्वंत वकारांत होते ही हैं, जैसे—आउब, जाब, करब, खाब, इत्यादि। पच्छिमी हिंदी के कुछ दीर्घांत शब्द भी अवधी में कहीं कहीं लध्वंत होते हैं, जैसे—

बहल घोड़ हस्ती सिंहनी

खड़ी बोली के समान अवधी में भी भूतकालिक कृदंत होते हैं। बहुत से अकर्मक कृदंत विकल्प से लध्वंत भी होते हैं जैसे, ठाढ़, बैठ, आय गय इत्यादि। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं—

(१) बैठ महाजन सिंहलद्वीपी (बैठ=बैठ हैं= बैठे हैं)

(२) रहा न जोबन आय बुढ़ापा (आव=आया)

(३) कटक सरह अस छूट (छूट=छूटा)

सकर्मक में करना, देना और लेना इन तीन क्रियाओं के भी विकल्प से क्रमशः 'कीन्ह', 'दीन्ह', और 'लीन्ह' रूप होते हैं। इसी प्रकार पद्य में कभी कभी वर्तमान काल के रूप के स्थान पर संक्षेप के लिये धातु का रूप रख दिया जाता है जैसे—

(क) हौं अंधा जेहि सूझ न पीठी। (सूझ=सुझती है)

(ख) बिनु गथ विरिछ निपात जिमि ठाढ़ ठाढ़ पै सुख। (सूख सूखता है)

संभाव्य भविष्यत् का रूप साधारणतः तो वर्तमान ही के समान पुरुषभेद लिए हुए होता है पर ठेठ पूरबी अवधी में प्रायः प्रथम पुरुष में भी मध्यम पुरुष बहुवचन का रूप ही रहता है, जैसे—

(क ) जोवन जाउ, जाउ सो भँवरा।

(जाउ=जाय, चाहे चला जाय)

(ख) सब लिखनी कै लिखु संसारा।

(लिखु=यदि लिखे)

(ग) अजस होउ, जस सुजस नसाउ

(होउ=चाहे हो। नसाउ=चाहे नसाय)

तुलसी और जायसी के लिंगनिर्णय में ऊपर लिखी बातों का ध्यान रखना चाहिए। चौपाई में चरण के अंत का पद यदि लध्वंत हो तो भी दीर्घांत कर दिया जाता है, यह तो प्रसिद्ध ही है। अतः चरण के अंत में आए हुए किसी पद के लिंग का निर्णय करते समय यह विचार लेना चाहिए कि वह छंद की दृष्टि से लध्वंत से दीर्घांत तो नहीं किया गया है। तुलसी और जायसी के कुछ उदाहरण लीजिए—

(क) मरम वचन जब सीता बोला—तुलसी।

(ख) देखि चरित पदमावति हँसा—जायसी [ १५१ ] ऊपर कह आए हैं कि कभी कभी वर्तमान में संक्षेप के लिये धातु का रूप रख दिया जाता है। अत: 'बोला' और 'हँसा' वास्तव में 'बोल' और 'हँस' हैं जो छंद की दृष्टि से दीर्घांत कर दिए गए हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन सक्षिप्‌ रूपों का व्यवहार दोनों लिंगों में समान रूप से हो सकता है। इसी प्रकार संभाव्त भविष्यत् का रूप भी कभी कभी दीर्घांत होकर चरण के अंत में आ जाता है, जैसेय

(क) को हींछा पूरै, दुख खोवा?

(खोवा=खोव या खोउ अर्थात् खोवे)

(ख) दरपन साहि भीति तहँ लावा। देखहुँ जबहि झरोखे आवा॥

(आवा=आव या आउ अर्थात् आवे)

जायसी और तुलसी दोनों कवियों ने कहीं कहीं बहुत पुराने शब्दों और रूपों का व्यवहार किया है जिनसे परिचित हो जाना बहुत ही आवश्यक है। दिनिअर, ससहर, अहुट्ठ, भुवाल, पइट्ठ, विसहर, सरह, पुहुमी (दिनकर, शशधर, अध्युष्ठ, भूपाल, प्रविष्ट, विषधर, शलभ, पृथ्वी) आदि प्राकृत संज्ञाओं के अतिरिक्त और प्रकार के पुराने शब्द और रूप भी मिलते हैं। उनमें से मुख्य मुख्य का उल्लेख नीचे किया जाता है।

किसी समय संबंध को 'हि' विभक्ति से सब कारकों का काम लिया जाता था, पीछे वह कर्म और संप्रदान में नियत सी हो गई। इस 'हि' या 'ह' विभक्ति का सब कारकों में प्रयोग जायसी और तुलसी दोनों की रचनाओं में देखा जाता है। जायसी के उदाहरण लीजिए—

(१) जेंहि जिउ दिन्ह कीन्ह संसारू। (कर्ता)

(२) चाँटहि कर हस्ति सरि जोगू।(कर्म)

(३) बजहि तिनकहि मारि उड़ाई। (करण)

(४) देस देस के बर मोहि आवहि। (संप्रदान)

(५) राजा गरजहि बोल नाहीं। (अपादान)

(६) सौंजहि तन सब रोवाँ, पंखिहि तन सब पाँख (संबंध)
चतुर वेद हौ पंडित, हीरामन मोहि नाँव

(७) तेंहि चढ़ि हेर, कोइ नहिं साथा। (अधिकरण)

कौन पानि जेंहि पवन न मिला?

कर्ता कारक में 'हि' की विभक्ति गोस्वामी तुलसी दास जी ने तो केवल सकर्मक भूतकालिक क्रिया के सर्वनाम कर्ता में ही लगाई है। (जैसे, तेइ सब लोक लोकपति जीते) पर जायसी में आकारांत संज्ञा कर्ता में भी यह चिह्न प्रायः मिलता है, जैसे—

(क) राजै कहा 'सत्य कहु, सूआ'।

(राजै=राजहि=राजा ने)

(ख) राजै लीन्ह ऊबि के साँसा।

(ग) सुए तहाँ दिन दस कल काटी।

(सूऐ=सुअहि=सुए ने) [ १५२ ]

उच्चारण में 'हि' के 'ह' के घिस जाने से केवल स्वर रह गया जिससे 'राजहि' का 'राजइ' हुआ और 'राजइ' से 'राजै'। इसी तरह 'केहि', 'गेहि', 'जेहि' भी 'केइ' 'जइ' 'तेइ' बोले जाने लगे। इसी से हमने पाठ में ये पिछले रूप ही रखे हैं। जायसी के समय इस 'ह' का लोप हो चला था इसका प्रमाण दो चार जगह हकारलुप्त कारक-चिह्नों का प्रयोग है, जैसे—

जस यह समुद दीन्ह दुख मोकाँ।

यह 'काँ' आजकल की अवधी बोलचाल में कर्म और संप्रदान का चिह्न है और 'कहँ' का बिगड़ा हुआ (हकारलुप्त) रूप है। 'कहँ' पुराना रूप है। बोलचाल की अवधी में 'काँ' और 'के' दो रूप चलते हैं। यह 'के' भी अपभ्रंश की पुरानी कर्मविभक्ति 'केहि' का घिसा हुआ रूप है।

'हि' और 'ह' दोनों ही एक ही हैं। 'ह' का व्यवहार पृथ्वीराजरासो में बराबर मिलता है। 'तुम्हारा' में यह 'ह' अबतक लिपटा चला आ रहा है। 'ह' के साथ संयुक्त सर्वनामों का व्यवहार जायसी ने बहुत किया है, जैसे—हम्ह=हमको, तुम्ह=तुमको। इसी प्रकार और कारकों में भी यह 'ह' सर्वनाम में संयुक्त मिलता है। कुछ उदाहरण देखिए—

(क) गुरु भएउँ आप, कीन्ह तुम्ह चेला। (=तुमको)

(ख) आज आगि हम्ह जूड़। (=हमको, हमारे लिये)

(ग) पदुम गंध तिन्ह अंग साहीं। (=उनके)

(घ) जिन्ह एहि हाट न लीन्ह बेसाहा। (=जिन्होंने)

(ङ) मैं तुम्ह राज बहुत सुख देखा। (=तुम्हारे)

(च) एहि बन बसत गई हम्ह आऊ। (=हमारी)

(छ) परसन आइ भए तुम्ह राती। (=तुम्हारे ऊपर)

इस पुरानी विभक्ति के अतिरिक्त जायसी और तुलसी ने कुछ पुराने शब्दों का भी व्यवहार किया है। इनमें से कई एक ऐसे हैं जो अब प्रसिद्ध नहीं हैं। उदाहरण के लिये 'चाहि' और 'बाज' इन दो शब्दों को लीजिए। चाहि का अर्थ है अपेक्षाकृत अधिक बढ़कर—

(क) मेघहु चाहि अधिक वै कारे।

(ख) एक सो एक चाहि रुपमनी।

(ग) कुलिसहु चाहि कठोर अति, कोमल कुसुमहु चाहि।—तुलसी

यह 'चाहि' शायद संस्कृत 'चापि' से निकला हो। 'बंगला में यह 'चेये' इस रूप में बोला जाता है। अब दूसरा शब्द 'बाज' लीजिए। जिसके अर्थ होते हैं बिना, बगैर अतिरिक्त, छोड़कर

(क) गगन अंतरिख राखा, बाज खंभ बिनु टेक।

(ख) को उठाइ बैठारे बाज पियारे जीउ।

(ग) दीन दुख दारिद दरै को कृपावारिधि बाज?—तुलसी

यह 'बाज' संस्कृत 'वर्ज्य' का अपभ्रंश है। [ १५३ ] 'पारना' क्रिया के रूप अब बंगाल ही में सुनाई पड़ते हैं पर जायसी और तुलसी के जमाने तक शायद वे अवध की बोलचाल में भी रहे हों; क्योंकि इनके पहले के कबीर साहब की वाणी में भी वे पाए जाते हैं। जो कुछ हो, जायसी और तुलसी दोनों ने इस 'पारना' (=सकना) क्रिया का खूब व्यवहार किया है, जैसे—

(क) परी नाथ कोइ छुवे न पारा।—जायसी

(ख) तुमहि अछत को बरनै पारा।—तुलसी

यही दशा 'आछना' क्रिया की भी है। यह अस् धातु से निकली जान पड़ती है जिसके रूप पाली में 'अच्छति', 'अच्छंति' आदि होते हैं। अब हिंदी में तो उसका वर्तमान कृदंतरूप 'अछत' या 'आछत' ही बोलचाल में है, पर बँगला में इसके और रूप प्रचलित हैं। कबीर साहब और जायसी दोनों में इसके कुछ रूप पाए जाते हैं—

(क) कह कबीर किछु अछितो न जहिया

(अछिलो=था; मिलाओ बँगला 'छिलो')

(ख) कँवल न आछै आपनि बारी।

(आछै=है; बँगला 'आछे')

(ग) का निचिंत रे मानुष आपन चीते आछु।

(आछु=रह)

इसी प्रकार 'आदि' शब्द का प्रयोग 'बिल्कुल' या 'निपट' के अर्थ में अब केवल बंगभाषा में ही सुनाई पड़ता है, (जैसे, नदी में बिल्कुल पानी नहीं है=आदौ जल नाय); पर जायसी ने 'पद्मावत' में किया है। 'बादल' अपनी माता से कहता है—

मातु न जानसि बालक आँदी। हौं बादला सिंह रनबादी॥

अर्थात् माता मुझे बिल्कुल बालक न समझ।

सत्तार्थक 'होना' क्रिया के रूपों के आदि में 'अ' अक्षर पहले रहता था वह के कुछ हिस्सों में—जायस और अमेठी के आसपास—वर्तमान काल में बना हुआ है। वहाँ 'है' के स्थान में 'अहै' बोलते हैं। जायसी ने भूतकालिक रूप 'अह' (=था) का भी व्यवहार किया है। संभव है उस समय बोला जाता हो। उदाहरण—

(क) भाँट अहँ ईसर कै कला।

(ख) परबत एक अहा तहँ डूंगा।

(ग) जब लग गुरु हौं अहा महान चीन्हा।

तुलसीदास जी में केवल वर्तमान का रूप 'अहै' मिलता है। यह सत्तार्थक क्रिया 'भू' धातु से न निकलकर अस् धातु से निकली जान पड़ती है। भू धातु से निकले हुए पुराने प्राकृत कृदंत 'हुत' (=था) का प्रयोग जायसी की भाषा में हमें प्रायः मिलता है—

(क) हुत पहले औ अब है सोई।

(ख) गगन हुता नहिं महि हुती, हुते चंद नहि सूर। [ १५४ ]

ब्रज और बुंदेलखंड में यह शब्द 'हतो' इस रूप में अबतक बोला जाता है।

एक बहुत पुराना निश्चयवार्थक शब्द 'पै' है जो निश्चय या 'ही' के अर्थ में आता है। यह ठीक नहीं मालूम होता कि यह 'अपि' शब्द से आया है या और किसी शब्द से; क्योंकि 'अपि' शब्द 'भी' के अर्थ में आता है। प्रयोग इसका जायसी ने बहुत किया है। तुलसी ने कम किया है; पर किया है, जैसे—

माँगु माँगु पै कहहु पिय, कबहुँ न देहु न लेहु।

उच्चारण—दो से अधिक वर्णों के शब्द के आदि में ह्रस्व 'इ' और ह्रस्व 'उ' के उपरांत 'आ' का उच्चारण अवधी को पसंद और पच्छिमी हिंदी (खड़ी और ब्रज) को नापसंद है। इसी भिन्न प्रवृत्ति के अनुसार अवधी में बोले जानेवाले 'सियार', 'कियारी', 'बियारी', 'बियाज', 'बियाह', 'पियार', 'नियाव', आदि शब्द तथा 'दुआर', 'कुआर', 'खुआर', 'गुवाल' आदि शब्द खड़ी बोली और ब्रजभाषा में क्रमशः स्यार, क्यारी, व्यारी, व्याज, ब्याह, प्यारा, प्यारो, न्याव तथा द्वार, क्‍वार, ख्वार, ग्वाल बोले जायँगे। 'इ' और 'उ' के स्थान पर 'य' और 'व' की इसी प्रवृत्ति के अनुसार अवधी 'इहाँ', 'उहाँ' या 'हिआँ', 'हुआँ' खड़ी बोली और ब्रजभाषा में 'यहाँ', 'वहाँ' और 'ह्याँ, ह्वाँ' बोले जाते हैं। इसी प्रकार 'अ' और 'आ' के उपरांत अवधी को 'इ' पसंद है और ब्रजभाषा को 'य' जैसे—अवधी के 'आइ, जाइ, पाइ, कराइ' तथा 'आइहै, जाइहै, पाइहै, कराइहै', (अथवा अइहै, जइहै, पइहै, करइहै) के स्थान पर ब्रजभाषा में क्रमशः 'आयहै, जायहै, पायहै, करायहै, (अथवा, आयहै=ऐहै, जायहै=जैहै) कहेंगे।

इसी रुचिवैचित्र्य के कारण 'ऐ' और 'औ' का संस्कृत उच्चारण (अइ, अउ के समान) पच्छिमी हिंदी से जाता सा रहा, केवल 'यकार' और 'वकार' के पहले रह गया (जैसे, गैया, कन्हैया)। पर यह अवधी में बना हुआ है। इससे अवधी में 'ऐ' और 'औ' का उच्चारण 'अय' और 'अब' सा न करके 'अइ' और 'अउ' सा करना चाहिए, जैसे—ऐस अइस, जैस जइस, भैस भँइस, दौरि दउरि इत्यादि। केवल पदांत के 'ऐ' और 'औका उच्चारण पच्छिमी हिंदी के समान 'अय' और 'अब' सा करना चाहिए, जैसे—कहै लाग=कहय लाग, तपै लाग=तपय लाग, चलौ=चलब इत्यादि।

प्राकृत की एक पंचमी विभक्ति 'सुंतो' थी, जो 'से' के अर्थ में आती थी। इसका हिंदी रूप 'सेंती' (तृतीया में) बहुत दिनों तक बोला जाता रहा। 'बली' आदि उर्दू के पुराने शायरों तक में यह विभक्ति मिलती है। कबीरदास ने भी इसका व्यवहार किया है, जैसे—

तोहि पीर जो प्रेम की पाका सेंती खेल।

तुलसीदास जी ने इसका कहीं व्यवहार किया है या नहीं, ठीक ठीक नहीं कह सकते पर जायसी इसे बहुत जगह लाए हैं, जैसे—

(क) सबन्ह कहा मन समझहु राजा।

काल सेंति के जूझ न छाजा॥

(ख) रतन छुवा जिन्ह हाथन्ह सेंती[ १५५ ]

हिंदी कवि कभी कभी श्रवणसुखदता की दृष्टि से लकार के स्थान पर रकार कर दिया करते हैं, जैसे 'दल' के स्थान पर 'दर', बल' के स्थान पर 'बर'। जायसी ने ऐसा बहुत किया है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं—

(क) होत आब दर जगत असूझ। (=दल)

(ब) सत्त के बर जो नहिं हिय फटा। (=बल)

(ग) कीन्हेसि पुरुष एक निरमरा। (=निर्मल)

(घ) नाम मुहम्मद पूनिउँ करा। (=कला)

यहाँ तक तो इस बात का विचार था कि जायसी की भाषा कौन सी है और उसका व्याकरण क्या है। अब थोड़ा यह भी देखना चाहिए कि जायसी की भाषा कैसी है।

जायसी ने अपनी भाषा अधिकांश पूरवी या ठेठ अवधी रखते हुए भी जो बीच बीच में नए पुराने, पूरबी पश्चिमी कई प्रकार के रूपों को स्थान दिया है, इससे भाषा कुछ अव्यवस्थित सी लगती है। पर उन रूपों का विवेचन कर लेने पर यह व्यवस्था नहीं रह जाती। केशव के अनुयायी भूषण, देव आदि फुटकरिए कवियों की भाषा से इनकी भाषा कहीं स्वच्छ और व्यवस्थित है। चरणों को पूर्ति के लिये अर्थसंबंध और व्याकरणसंबंध रहित शब्दों को भरती कहीं नहीं है। कहीं कुछ शब्दों के रूप व्याकरणविरुद्ध मिल जायँ तो मिल जायँ पर वाक्य का वाक्य शिथिल और बेढंगा कहीं नहीं मिलेगा। शब्दों के रूप व्याकरणविरुद्ध अवश्य कहीं कहीं मिल जाते हैं, जैसे—

दसन देखि कै बीज लजाना।

'लजाना' के स्थान पर 'लजानी' चाहिए। पूरबी अवधी में भी 'लजानि' रूप होगा जिसे चंद के विचार से यदि दीर्घांत करेंगे तो 'लजानी' होगा। कहीं कहीं तो जायसी के वाक्य बहुत ही चलते हुए हैं; जैसे देवपाल की दूती पद्मिनी के मायके की स्त्नी बनकर उससे कहती है—

सुनि तुम कहँ चितउर महँ कहिउँ कि भेटौं जाइ।

बोलचाल में ठीक इसी तरह कहा जाता है—'तुमको चित्तौर में सुनकर मैंने कहा कि जरा चलकर भेंट कर लूँ।' कहावत और मुहाविरे भी कहीं कहीं मिलते हैं पर वे यों ही भाषा के स्वाभाविक प्रवाह में आए हुए हैं, काव्यरचना के कोई आवश्यक अंग समझकर नहीं बाँधे गए हैं। मुहाविरे का अधिक प्राधान्य देने से रूढ़ पदसमूहों में भाषा बँधी सी रहती है, उसकी शक्तियों का नवीन विकास नहीं होने पाता। कवि अपने विचारों को ढालने के लिये नए नए साँचे न तैयार करके बने बनाए साँचों में ढलनेवाले विचारों को ही बाहर करता है। खैर, इस प्रसंग में यहाँ कुछ अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। जायसी के दो एक उदाहरण देकर आगे चलते हैं—

(क) जोबर नीर घटे का घटा। सत्त के बर जौ नहिं हिय फटा॥

यहाँ कवि ने 'हृदय फटना' या 'जी फटना' इस मुहावरे का बड़े कौशल से प्रयोग किया है। कवि ने हृदय को सरोवर माना है, यद्यपि 'सरोवर' पद आ नहीं सका [ १५६ ]है। पद को न्यूनता से अभिप्राय जरा देर से खुलता है। जब जल घटने लगता है तब ताल की गोली मिट्टी सूखकर फट जाती है। कवि का अभिप्राय है कि जिस प्रकार जल घटने से ताल फट जाता है उसी प्रकार यदि यौवन के ह्रास से प्रिय से जी न फटे, प्रीति वैसी ही बनी रहे तो कोई हर्ज नहीं। कुछ और उदाहरण लीजिए—

(क) हाथ लिए आपन जिउ होई।

(ख) आवा पवन बिछोह कर, ताप परा बेकरार।

तरिवर तजा जो चूरि कै लागै केहि के डार?॥

दूसरे उदाहरण में 'किसी की डाल लगना' यह मुहाविरा अन्योक्ति में खूब ही बैठा है। लोकोक्तियों के भी कुछ नमूने देखिए—

(क) सूधी अँगुरि न निकसै घीऊ।

(ख) दरब रहै भुइँ, दिपै लिलारा।

(ग) तुरय रोग हरि माथे जाए।

(घ) धरती परा सरग को चाटा।

जायसी की काव्यरचना स्वच्छ होने पर भी तुलसी के समान सुव्यवस्थित नहीं। उसमें जो वाक्यदोष मुख्यतः दिखाई पड़ता है वह 'न्यूपदत्व' है। विभक्तियों का लोप, संबंधवाचक सर्वनामों का लोप, अव्ययों का लोप जायसी में बहुत मिलता है। विभक्ति या कारकचिह्न का अव्याहार तुलसी की रचनाओं में कहीं कहीं करना पड़ता है, पर उन्होंने लोप या तो ऐसा किया है जैसा बोलचाल में भी प्रायः होता है—जैसे सप्तमी के चिह्न का—प्रथवा लुप्त चिह्न का पता प्रसंग से बहुत जल्द लग जाता है। पर जायसी ने मनमाना लोप किया है—विभक्तियों का ही नहीं, सर्वनामों, अव्ययों का भी। कहीं कहीं तो इस लोप के कारण 'प्रसादगुण, बिलकुल जाता रहा है और अर्थ का पता लगाना दुष्कर हो गया है, जैसे—

सरजै लीन्ह साँग पर याऊ। परा खड़ग जनु परा घिहाऊ॥

इसमें दूसरे चरण का अर्थ शब्दों से नही निकलता है कि 'खड्ग ऐसा पड़ा मानों निहाई पड़ी।' पर कवि का तात्पर्य यह है कि 'खड्ग निहाई पर पड़ा।' देखिए इस 'पर' के लोप से अर्थ में कितनी गड़बड़ी पड़ गई।' विभक्ति और कारक-चिह्न के बेढंगे लोप के और नमूने देखिए—

(क) जंघ छपा कदली होइ बारी।

(जंघ=जंघ से)

(ख) करन पास लोन्हेउ कै छंदू?

(पास=पास से)

अव्ययों का लोप भी प्रायः मिलता है—और ऐसा जिससे अर्थ समझने में भी कभी कभी कुछ देर लगती है, जैसे—

(१) तब तहँ चढ़े फिरै नो भँवरी। (फिरै=जब फिरै)

(२) दरपन साहि भीति तहँ लावा।

देखहुँ जबहिं झरोखे आवा॥ [ १५७ ]

(देखहुँ=इसलिये जिसमें देखूं)

(३) पुनि सो रहैं, रहै नहिं कोई।

(दूसरे 'रहै' के पहले 'जब' चाहिए)

(४) काँच रहा तुम कंचन कीन्हा।

तब भा रतन जोति तुम दीन्हा।

('जोति' के पहले 'जब' चाहिए)

संबंधवाचक सर्वनामों के लोप में तो जायसी अँगरेज कवि ब्राउनिंग से भी बढ़े हैं। एक नमूना काफी है—

कह सो दीप पतँग कै मारा।

इस चरण में 'पतँग' के पहले 'जेई' (=जिसने) पद लुप्त है जिससे अभिप्रेत अर्थ तक पहुँचने में व्यर्थ देर होती है। पहले देखने में यही अर्थ भासित होता है कि 'पतँग का मारा हुआ दीपक कहाँ है?' न्यूनपदत्व के अतिरिक्त 'समाप्तपुनरात्तत्व' भी प्रायः मिलता है, जैसे—'हिये छाहँ उपना और सोऊ।' यदि उपना शब्द आदि में कर दें तो यह दोष दूर हो जाय।

हिंदी के अधिकांश कवियों पर शब्दों का अंगभंग करने का दोष लगाया जा सकता है। पर जायसी के चरण के अंत में पड़नेवाले शब्द को दीर्घांत करने में जितना होता है उतने से अधिक किसी शब्द का रूप नहीं बिगड़ा है। रूपांतर कहीं एकाध जगह ऐसा उदाहरण मिल जाय तो मिल जाय जैसे कि ये हैं—

(क) दंडा करन बीझ वन जाहाँ? (=जहाँ)

(ख) करन पास लीन्हेउ कै इंदु

विप्र रूप धर झिलमिल इंदू॥

(इंद्र के स्थान पर 'इंदू' करना ठीक नहीं हुआ है।)

जायसी के दो शब्दों का व्यवहार पाठकों को कुछ विलक्षण प्रतीत होगा। उन्होंने 'निरास' शब्द का प्रयोग 'जो किसी की आशा का न हो, जो किसी का आश्रित न हो इस अर्थ में किया है, जैसे—

ओहि न मोरि किछु आसा, हौं ओहि आस करेउँ।
तेहि निरास प्रीतम कह, जिउ न देउँ, का देउँ?

व्युत्पत्ति के अनुसार तो इस अर्थ में कोई बाधा नहीं। पर प्रवृत्ति से भिन्न होने के कारण 'अप्रयुक्तत्व' दोष अवश्य है। दूसरा शब्द है 'बिसवास' जिसे जायसी, 'विश्वासघात' के अर्थ में लाए हैं, जैसे—

(क) राजै बीरा दीन्हा, नहिं जाना बिसबास

(ख) आदम हौवा कहँ सृजा, लेइ घाला कैलास।

पुनि तहवाँ से काढ़ा, नारद के बिसवास॥

इसी प्रकार 'बिसवासी' शब्द भी विश्वासघाती के अर्थ में कई जगह लाया गया है—

अरे मलिछ बिसवासी देवा। कित मैं आइ किन्हि तोरि सेवा॥ [ १५८ ]

और कवियों ने भी 'बिसासी' शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग किया है, जैसे—

(क) कबहूँ वा बिसासी सुजान के आँगन मों अँसुवान को लै बरसौ॥

—घनानंद

(ख) अब तौ उर माहि बसाय कै मारत ए जू बिसासी! कहाँ धौं बसे।

—घनानंद

(ग) सेखर घेरे करें सिगरे, पुरवासी बिसासी भए दुखदात हैं।

—शेखर

(घ) जापै हौं पठाई ता बिसासी पै गई न दीसै;

संकर की चाही चंदकला तैं लहाई रा।—दूलह

जायसी की भाषा बोलचाल की और सीधी है। समस्त पदों का व्यवहार उन्होंने बहुत ही कम किया है। जहाँ किया भी है वहाँ दो से अधिक पदों के समास का नहीं। दो पदों के समासों का भी हाल यह है कि वे तत्पुरुष ही हैं और संस्कृत की रीति पर नहीं हैं, विपरीत क्रम से हैं, जैसे कि फारसी में हुआ करते हैं। दो उदाहरण नमूने के लिये काफी होंगे—

(क) लीक पखान पुरुष कर बोला। (=पखान—लीक)

(ख) भा भिनसार किरिन रवि फूटी। (=रवि—किरिन)

एक स्थान में तो पद्मावत में फारसी का एक वाक्यखंड ही उठाकर रख दिया गया है—

केस मेघावरि सिर ता पाई।

यह 'सिर ता पाई' फारसी का 'सर ता पा' है जिसका अर्थ होता है सिर से पैर तक'। फारसी की बस इतनी ही थोड़ी सी झलक कहीं कहीं पर दिखाई पड़ती है, और सब तरह से जायसी की भाषा देशी साँचे में ढली हुई, हिंदुओं के घरेलू भावों से भरी हुई, बहुत ही मधुर और हृदयग्राहिणी है। 'खुतबोय', 'दराज', ऐसे भोंड़े शब्द, 'खुसाल खुसबाही सौं' ऐसे बेहदा वाक्य कहीं नहीं मिलते। बादशाही दरबार आदि के वर्णन में 'अरकान', 'वारिगह' आदि कुछ शब्द आए हैं पर वे प्रसंग के विचार से नहीं खटकते।

जायसी की भाषा बहुत ही मधुर है, पर उसका माधुर्य निराला है। वह माधुर्य 'भाषा' का माधुर्य है, संस्कृत का माधुर्य नहीं। वह संस्कृत की कोमलकांत पदावली पर अवलंबित नहीं। उसमें अवधी अपनी निज की स्वाभाविक मिठास लिए हुए है। 'मंजु', 'आनंद' आदि की चाशनी उसमें नहीं है। जायसी की भाषा और तुलसी की भाषा में यह बड़ा भारी मंतर है। जायसी की पहुँच अवध में प्रचलित लोकभाषा के भीतर बहते हुए माधुर्यस्रोत तक ही थी, पर गोस्वामी जी की पहुँच दीर्घ संस्कृत परंपरा द्वारा परिपक्व चाशनी के भांडागार तक भी पूरी पूरी थी। दोनों के भिन्न प्रकार के माधुर्य का अनुमान नीचे उद्धृत चौपाइयों से हो सकता है—

(१) जब हुँत कहि गा पंखि सँदेसो। सुनिउँ की आया है परदेसी॥
तब हुँत तुम्ह बिनु रहै न जीऊ। चातक भइउँ कहत 'पिउ पीऊ'॥

[ १५९ ]

भइउँ चकोरि सो पंथ निहारी। समुद सीप जस नयन पसारी॥
भइउँ विरह जरि कोइल कारी। डार डार जिमि कूदि पुकारी॥

—जायसी


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(१) अमिय मूरि मय चूरन चारू। समन सकल भवरुज परिवारू॥

सुकृत संभु तन विमल विभूती। मजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मलहरनी। किए तिलक गुनगुन बस करनी॥

श्रीगुरु पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती॥

—तुलसी

यदि गोस्वामी जी ने अपने 'मानस' की रचना ऐसी ही भाषा में की होती जैसी कि इन चौपाइयों की है—

कोउ नृप होउ हमैं का हानी। चेरि छाँड़ि अब होब कि रानी?
जारै जोग सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा॥

तो उनकी भाषा 'पद्मावत' को ही भाषा होती और यदि जायसी ने सारी 'पद्मावत' की रचना ऐसी भाषा में की होती जैसी कि इस चौपाई की है—

उदधि आइ तेइ बंधन कीन्हा। हति दसमाय अमरपद दीन्हा॥

तो उसकी और 'रामचरितमानस की एक भाषा होती। पर जायसी में इस प्रकार की भाषा कहीं ढूँढ़ने से एकाध जगह मिल सकती है।तुलसीदास जी में ठेठ अवधी की मधुरता भी प्रसंग के अनुसार जगह जगह मिलती है। सारांश यह कि तुलसीदास जी को दोनों प्रकार की भाषाओं पर अधिकार था और जायसी को एक ही प्रकार की भाषा पर। एक ही ढंग की भाषा की निपुणता उनकी अनूठी थी। अवधी की खालिस, बेमेल मिठास के लिये 'पद्मावत' का नाम बराबर लिया जायगा।

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संक्षिप्त समीक्षा

अबतक जो कुछ लिखा गया उसमें जायसी की इन विशेषताओं और गुणों की ओर मुख्यतः ध्यान गया होगा—

(१) विशुध प्रेममार्ग का विस्तृत प्रत्यक्षीकारण

लौकिक प्रेमपथ के त्याग, कष्ट, सहिष्णुता तथा विघ्नबाधाओं का चित्रण करके कवि ने भगवत्प्रेम की उस साधना का स्वरूप दिखाया है जो मनुष्य की वृत्तियों को विश्व का पालन और रंजन करनेवाली उस परमवृत्ति में लीन कर सकती है।

(२) प्रेम की अत्यंत व्यापक और गूढ़ भावना

लौकिक प्रेम के उत्कर्ष द्वारा जायसी को भगवत्प्रेम की गंभीरता का निरूपरण करना था इससे वियोगवर्णन में सारी सृष्टि वियोगिनी को अनुभूति में योग देती दिखाई गई है। जिस प्रेम का आलंबन इतना बड़ा है—अनंत और विश्वव्यापक