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जायसी ग्रंथावली/भूमिका/संक्षिप्त समीक्षा

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जायसी ग्रंथावली
मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक रामचंद्र शुक्ल

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ १५९ से – १६२ तक

 

है—उसके अनुरूप प्रेम की व्यंजना के लिये एक मनुष्य का क्षुद्र हृदय पर्याप्त नहीं जान पड़ता; इससे कहीं कहीं वियोगिनी सारी सृष्टि के प्रतिनिधि के रूप में दिखाई पड़ती है। उसकी 'प्रेमपीर' सारे विश्व की प्रेमपीर' सी लगती है।

(३) मर्मस्पशिनी भावव्यंजना

प्रेम या रति भाव के अतिरिक्त स्वामिभक्ति, वीरदर्प, पातिव्रत तथा और छोटे भावों की व्यंजना अत्यंत स्वाभाविक और हृदयग्राही रूप में जायसी ने कराई है; जिससे उनके हृदय की उदात्त वृत्ति और कोमलता का परिचय मिलता है।

(४) प्रबंधसौष्ठव

पद्मावत की कथावस्तु का प्रवाह सवभाविक है। केवल कुतूहल उत्पन्न करने के लिये घटनाएँ इस प्रकार कहीं नहीं मोड़ी गई हैं जिससे बनावट या अलौकिकता प्रकट हो। किसी गुण का उत्कर्ष दिखाने के लिये भी घटना में अस्वाभाविकता जायसी ने नहीं आने दी है। दूसरी बात यह है कि वर्णन के लिये जायसी ने मनुष्यजीवन के मर्मस्पर्शी स्थलों को पहचान कर रखा है। परिणाम वैसे ही दिखाए गए हैं जैसे संसार में दिखाई पड़ते हैं। कर्मफल के उपदेश के लिये उनकी योजना नहीं की गई है। पद्मावत में राघवचेतन ही का चरित्र खोटा दिखाया गया है; पर उसकी कोई दुर्गति कवि ने नहीं दिखाई। राघव का उतना ही वृत्त आया है जितने का घटनाओं को 'कार्य' की ओर अग्रसर करने में योग है।

(५) वर्णन की प्रकुरता

जायसी के वर्णन बहुत विस्तृत हैं—विशेषतः सिंहलद्वीप, नखशिख, भोज, बारहमासा, चढ़ाई और युद्ध के—जिनसे उनकी जानकारी और वस्तुपरिचय का अच्छा पता लगता है। कहीं तो इतनी वस्तुएँ गिनाई गई हैं कि जी ऊब जाता है।

(६) प्रस्तुत अप्रस्तुत का सुंदर समन्वय

पद्मावत की अन्योक्तियों और समासोक्तियों में प्रस्तुत अप्रस्तुत का जैसा सुंदर समन्वय देखा जाता है वैसा हिंदी के कम कवियों में पाया जाता है। अप्रस्तुत की व्यंजना के लिये जो प्रस्तुत वस्तुएँ काम में लाई गई हैं और प्रस्तुत की व्यंजना के लिये जो अप्रस्तुत वस्तुएँ सामने रखी गई हैं वे आवश्यकतानुसार कहीं बोधवृत्ति में सहायक होती हैं और कही भावों के उद्दीपन में। योगसाधकों के मार्ग की जो व्यंजना चित्तौरगढ़ के प्रस्तुत वर्णन द्वारा कराई गई है, वह रोचक चाहे न हो पर ज्ञानप्रद अवश्य है। इसी प्रकार 'कँवल जो बिगसा मानसर बिनु जल गएउ सुखाइ' वाले दोहे में जो जल बिना सूखते कमल का प्रस्तुत दृश्य सामने रखा गया है वह सौंदर्य की भावना के साथ साथ दया और सहानुभूति के भाव को उद्दीप्त करता है।


(७) ठेठ अवधी का माधुर्य

जायसी ने संस्कृत के सुंदर पदों की सहायता के बिना ठेठ अवधी का भोला भाला माधुर्य दिखाया है, इसका वर्णन पूर्व प्रकरण में आ चुका है।

जिस प्रकार जायसी के उपर्युक्त गुणों और विशेषताओं की ओर पाठक का ध्यान गए बिना नहीं रह सकता उसी प्रकार इन नीचे लिखी त्रुटियों की ओर भी—

(१) पुनरुक्ति

'पद्मावत' में एक ही भाव, एक ही उपमा, कहीं कहीं तो एक ही वाक्य में न जाने कितनी जगह और कितनी बार आया है। सूर और चाँद के जोड़े से तो शायद ही कोई पृष्ठ खाली मिले। पद्मावती के नखशिख का जो वर्णन सूए ने रनसेन से किया है, प्रायः वही राघवचेतन अलाउद्दीन के सामने दुहराता है। प्रायः वे ही उपमाएँ और उत्प्रेक्षाएँ फिर आई हैं॒; कुछ थोड़ी सी दूसरी हों तो हों। सूखे सरोवर के फटने का भाव तीन जगह लाया गया है। इसी प्रकार और बुहत सी पुनरुक्तियाँ हैं जिनके कारण पाठकों को कभी कभी विरक्ति हो जाती है।

(२) अरोचक और अनपेक्षित प्रसंगों का सन्निवेश

रत्नसेन-पद्मावती-समागम के वर्णन में राजा का रसायनी प्रलाप औौर शतरंज के मोहरों और चालों की बंदिश, नागमती-पद्मावती-विवाद के भीतर फूल पौदों के नामों की अनावश्यक योजना इसी प्रकार की है। सोलह शृंगार और बारह आभरणों का वर्णन तथा ज्योतिष का लंबा चौड़ा यात्राविचार केवल जानकारी प्रकट करने के लिये जोड़े हुए जान पड़ते हैं। ये किसी काव्य के प्रकृत अंग कदापि नहीं हो सकते। पद्मिनी, चित्रिणी नादि चार प्रकार की स्त्रियों के वर्णन भी कामशास्त्र के ग्रंथ में ही उपयुक्त हो सकते हैं। काव्य कामशास्त्र नहीं है।

(३) वर्णनों में वस्तुनामावली का अरोचक विस्तार

रत्नसेन के विवाह और बादशाह की दावत के वर्णन में पकवानों और व्यंजनों की लंबी सूची, बगीचे के वर्णन में पेड़ पौधों के नाम ही नाम, युद्धयात्रा आदि के वर्णन में घोड़ों की जातियों की गिनती से पाठक का जी ऊबने लगता है। वर्णन का अर्थ गिनती नहीं है।

(४) अनुचितार्थत्व

कई जगह शृंगार के प्रसंग में नायक रत्नसेन रावण कहा गया है; ऐसा हिंदी के कुछ और सूफी कवियों ने भी, शायद ‘रावन' का अर्थ रमण करनेवाला मानकर किया है। पर इस शब्द से ‘रुलानेवाले' रावण की ओर ही ध्यान जाता है। रावण बड़ा भारी प्रतापी ऑौर शूरवीर रहा हो, पर मनोहर नायक के रूप में कविपरंपरा से उसकी प्रसिद्धि नहीं है। वह हीन और दुष्ट पात्र ही प्रसिद्ध है।

(५) न्यूनपदत्व

भाषा पर विचार करते समय विभक्तियों, कारकचिह्नों, संबंधवाचक सब नामों और अव्ययों के लोप के ऐसे उदाहरण दिए जा चुके हैं जिनके कारण अर्थ में गड़बड़ी होती है।

(६) च्युतसंस्कृति

इसका एक उदाहरण दिया जाता है—

दसन देखि कै बीजु लजाना।

११
( १६२ )

हिंदी में चरित्नकाव्य बहुत थोड़े हैं। ब्रजभाषा में तो कोई ऐसा चरितकाव्य नहीं जिसने जनता के बीच प्रसिद्धि प्राप्त की हो। पुरानी हिदी के पृथ्वीराजरासो, बीसलदेवरासो, हम्मीररासो आादि वीरगाथाओं के पीछे चरितकाव्य की परंपरा हमें अवधी भाषा में ही मिलती है। ब्रजभाषा में केवल ब्रजवासीदास के ब्रजविलास का कुछ प्रचार कृष्णभक्तों में हुआ, शेष रामरसायन आदि जो दो एक प्रबंधकाव्य लिखे गए वे जनता को कुछ भी आकर्षित न कर सके। केशव की रामचंद्रिका का काव्यप्रेमियों में आादर रहा पर उसमें प्रबंधकाव्य के वे गुण नहीं हैं जो होने चाहिए। चरितकाव्य में अवधी भाषा को ही सफलता हुई और अवधी भाषा के सर्वश्रेष्ठ रत्न हैं ‘रामचरितमानस’ और ‘पद्मावत'। इस दष्टि से हिंदी साहित्य में हम जायसी के उच्च स्थान का अनुमान कर सकते हैं।

बिना किसी निर्दिष्ट विवेचनपद्धति के यों ही कवियों की श्रेणी बाँधना और एक कवि को दूसरे कवि से छोटा या बड़ा कहना हम एक बहुत भोंड़ी बात समझते हैं। जायसी के स्थान का निश्चय करने के लिये हमें चाहिए कि हम पहले अलग अलग क्षेत्र निश्चित कर लें। सुबीते के लिये यहाँ हम हिंदी काव्य के दो ही क्षेत्र विभाग करके चलते हैं प्रबंध क्षेत्र और मुक्तक क्षेत्र। इन दोनों क्षेत्रों के भीतर भी कई उपविभाग हो सकते हैं। यहाँ मुक्तक क्षेत्र से कोई प्रयोजन नहीं जिसके अंतर्गत केशव, बिहारी, भूषण, देव, पद्माकर आादि कवि आते हैं। प्रबंध क्षेत्र के भीतर हम कह चुके हैं, दो काव्य सर्वश्रेष्ठ हैं― ‘रामचरितमानस’ और ‘पद्मावत’। दोनों में ‘रामचरितमानस’ का पद ऊँचा है यह हम स्थान स्थान पर दिखाते भी आए हैं और सबको स्वीकृत भी होगा। अतः समग्र प्रबंधक्षेत्र के विचार से हम कह सकते हैं कि प्रबंधक्षेत्र में जायसी का स्थान तुलसी से दूसरा है। यदि हम प्रबंधक्षेत्र के भीतर और तीन विभाग करते हैं― वीरगाथा, प्रेमगाथा और जीवनगाथा― और इस व्यवस्था के अनुसार रासो आदि को वीरगाथा के अंतर्गत मृगावती, पद्मावती आादि को प्रेमगाथा के अंतर्गत तथा रामचरितमानस को जीवनगाथा के अतर्गत रखते हैं तो प्रेमगाथा की परंपरा के भीतर (जिसमें कुतवन, उसमान, नूरमुहम्मद आदि हैं) जायसी का नबर सबसे ऊँचा ठहरता है। मृगावतो, इंद्रावती, चित्रावली आदि को बहुत कम लोग जानते हैं, पर ‘पद्मावती’ हिंदी साहित्य का एक जगमगाता रत्न है।

यदि कोई इसके विचार का आग्रह प्रबंध और मुक्तक इन दो क्षेत्रों में कौन क्षेत्र अधिक महत्व का है, किस क्षेत्र में कवि की सहृदयता और भावुकात की पूरी परख हो सकती है, तो हम बार बार वही बात कहेंगे जो गोस्वामीजी की आलोचना में कह आए हैं अर्थात् प्रबंध के भीतर आई हुई मानव जीवन की भिन्न भिन्न दशाओं के साथ जो अपने हृदय का पूर्ण सायंजस्य दिखा सके वही पूरा और सच्चा कवि है। प्रबंधक्षेत्र में तुलसीदास जी का जो र्स्वोच्च आसन है, उसका कारण यह है कि वीरता, प्रेम आदि जीवन का कोई एक ही पक्ष न लेकर उन्होंने संपूर्ण जीवन को लिया है और उसके भीतर आनेवाली अनेक दशाओं के प्रति अपनी गहरी अनुभूति का परिचय दिया है। जायसी का क्षेत्र तुलसी की अपेक्षा परिमित है पर प्रेमवेदना उनकी अत्यंत गूढ़ है।

रामचंद्र शुक्ल